
हमारी सहानुभूति गहरी और सजीव हो
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सहानुभूति मानवता का एक विशेष और आवश्यक अंग है। जिस व्यक्ति के अन्दर यह प्रचुर मात्रा में विद्यमान है वही उन्नति शिखर पर होगा। उसमें दैवी अनुभूतियों का समावेश रहता है। प्रायः कवियों और कलाकारों में सहानुभूति अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है। वे अपनी रचनाओं एवं कृतियों द्वारा दूसरों के हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं।
जिसके हृदय में सच्ची सहानुभूति है, वह दूसरों को प्यार, आत्मीयता और ममता की आँखों से देखेगा, तो वे अपने ही दिखाई पड़ेंगे। अपने छोटे-से कुटुम्ब को देखकर हमें आनन्द होता है। यदि हम दूसरों को-बाहर वालों को भी उसी सहानुभूति की दृष्टि से देखने लगें, तो वे भी अपने ही प्रतीत होंगे। हम अपने कुटुम्बियों के जब अनेक दोष, दुर्गुण बरदाश्त करते हैं, उन्हें भुलाते, छिपाते और क्षमा करते हैं, तो फिर बाहर वालों के प्रति वैसा क्यों नहीं किया जा सकता? ऐसी सहानुभूति प्रदर्शित करने वाला व्यक्ति ही उच्चकोटि की श्रेणी में गिना जायगा।
सहानुभूति की भावात्मकता को व्यक्त करते हुए ‘ह्वीट मैन’ ने एक स्थान पर अंकित किया है- “मुझे किसी पीड़ित मनुष्य से यह पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि वह अपने में क्या अनुभव कर रहा है या उसे कैसा लग रहा है, बल्कि मैं स्वयं उसी की भाँति पीड़ित हो उठता हूँ और उसकी वेदना को अपने अन्दर अनुभव करने लगता हूँ।”
आजकल की सभ्यता में सहानुभूति दिखाने का दूसरा ही ढंग चल पड़ा है। लोग पीड़ित अथवा दुःखी मनुष्य के पास जाकर, उसकी वेदना, दुःख अथवा दर्द के विषय में पूछताछ करते हैं। वाणी द्वारा इस प्रकार पूछ लेना वास्तविक सहानुभूति नहीं कही जा सकती। सच्चे सहानुभावक को किसी का दुःख-दर्द पूछने की आवश्यकता नहीं होती, वरन् उसके हृदय से स्नेह का अजस्र स्रोत निकल कर चुपचाप पीड़ित को शान्ति एवं सांत्वना देने लगता है।
कृत्रिम सहानुभूति दिखाना दूसरे के प्रति एक कठोरता या निर्दयता का व्यवहार है। जो मनुष्य किसी के दुःख-दर्द को सच्ची सहानुभूति के रूप में न पूछकर केवल अपनी मौखिक हमदर्दी दिखाता है, तो निःसन्देह यह निश्चय कर लीजिये कि वह पीड़ित व्यक्ति की सद्भावना को ठगने में प्रयत्नशील है।
ऐसे कृत्रिम स्वभाव वाले अनुभावकों के प्रति विद्वान, “इमर्सन” ने एक स्थान पर लिखा है कि इन बाहरी लोगों से मैं यही अनुरोध करता हूँ कि- “वे जायें और अपने बच्चों से प्रेम करना सीखें, पत्नी से प्रेम का व्यवहार करें, आश्रितों तथा पड़ौसियों को अपनी विनम्रता से शीतल बनायें। अपने हृदय को स्वच्छ कर मानसिक गरिमा का भाव जगायें। अन्य लोगों के साथ बनावटी सहानुभूति दिखलाने की अपेक्षा अच्छा यही है कि व पहले अपने तथा अपनों के प्रति सहानुभूति का अभ्यास करे और मानवता के उत्तम तथा श्रेष्ठ गुणों को अपने हृदय में पूर्ण सच्चाई के साथ विकसित करने का प्रयत्न करें। कृत्रिम सहानुभूति न तो किसी को लाभ पहुँचा सकती और न समाज को विश्वास दिला सकती है।”
सच्ची सहानुभूति का प्रसार सीमित नहीं, वरन् विश्व-व्यापी है। उसकी करुणा, कोमलता तथा दया का प्रवाह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन, राष्ट्र, धर्म, काले-गोरे, ऊँच-नीच, निर्बल-सबल में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं मानती। सभी के लिये समान रूप से बहती है। उदार और श्रेष्ठ आत्माएँ तो शत्रु की विपत्ति से भी विचलित न होकर सहानुभूति के साथ सहायता करने के लिए उत्सुक हो उठती है। ऐसी ही सहानुभूति सराहनीय होती है।
ऐसी सहानुभूति, सराहनीय नहीं, जो केवल हृदय की भावुकता तक सीमित रहे। वह सजीव होते हुए भी जड़ रूप मानी जायगी। किसी की पीड़ा को देखकर अवाक् रह जाना और खड़े-खड़े आहें भरना सार्थक सहानुभूति नहीं। सार्थक सहानुभूति तभी समझी जा सकती है, जब दुःखियों का दुःख निवारण करने में यथासाध्य कुछ किया जावे। यही सराहनीय सहानुभूति का आशय या भाव है। ऐसे ही व्यक्ति किसी की चोट देखकर उसी प्रकार दुःखी हो जाते हैं, जिस प्रकार वह दुःखी तड़प रहा है। उसके कष्ट दूर करने के प्रयत्न में इस प्रकार तल्लीन हो जावें कि जिस प्रकार चोट का खाया व्यक्ति बिना बाहरी सहायता से आप से आप लग जाता है।
सहानुभूति, हमदर्दी अथवा प्रेम, मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। इसका विकास पाकर मनुष्य देवत्व के पद पर पहुँच सकता है। प्रेम अथवा सहानुभूति में वह शक्ति तथा ऊष्मा है कि कठोर हृदय को भी नम्रता के साँचे में ढाल देती है। उसकी शीतल और मनोरंजक लहरें दुःखी आत्माओं में प्रसन्नता की झलक ला देती हैं। इसी सहानुभूति और सम्वेदना के बल पर मनुष्य दूसरों को भी अपना बना लेता है। कठोर को कोमल, निर्दयी को दयावान, बना लेना सहानुभूति-हृदयी व्यक्ति को अधिक सरल तथा सुगम है।
कम बुद्धि रखने वाला सम्वेदनशील व्यक्ति दूसरों के बीच उस अधिक बुद्धि रखने वाले व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त कर जाता है, जो असंवेदनशील अथवा सहानुभूति से रिक्त होते हैं। उन श्रेष्ठ पुरुषों की ओर जिनमें सहानुभूति की प्रधानता है, इस प्रकार खिंचते चले आते हैं, जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों की ओर समुद्र की तरंगें खिंचा करती हैं।
सहानुभूति ऐसा सरल गुण है, जो हर व्यक्ति आसानी से प्राप्त कर लेता है। यह गुण मनुष्य को प्रकृति की ओर से यों ही मिल जाता है और यदि एक बार इसकी कमी भी महसूस हो तो कोशिश करके विकसित भी किया जा सकता है।
यदि मनुष्य के अन्तःकरण में सहानुभूति का विचार एक बार भी जाग गया तो यही समझ लेना चाहिए कि आत्म-कल्याण का द्वार खुल गया। इसकी सत्यता पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध विद्वान बालजक ने एक जगह कहा है-‘‘सहानुभूति गरीबों तथा पीड़ितों के प्रति खींचती है। उनकी भूख तथा पीड़ा अनुभव होती है। सहानुभूति का आर्द्र-भाव-अनुभावक को तद्रूप बना देता है। दीन-दुःखी को देखकर वह उस समय तक स्वयं भी दीन-दुःखी बना रहता है, जब तक कि उसका दुःख-दर्द दूर करने के लिए कुछ कर नहीं लेता। किसी की सेवा, सहायता में किया हुआ अपना काम वह परमात्मा की उपासना में किया कर्त्तव्य ही मानता और ऐसा ही अनुभव करता है। प्राणी मात्र से इस प्रकार की एकात्मता, अध्यात्म योग की वह कोटि है, जो बड़े-बड़े जप, तप तथा साधना, उपवास से भी कठिनतापूर्वक पाई जा सकती है।”
सहानुभूति ही संसार की सबसे बड़ी विभूति है। यदि कोई किसी के प्रति सहयोग, त्याग तथा सहानुभूति न कर, सभी अपनी आपा-धापी में लगे रहें तो हर एक को अपना कुँआ खोदकर पानी पीना पड़ेगा और इस प्रकार सभी घाटे में रहेंगे।
पारिवारिक प्रगति में माता-पिता की सहानुभूति पर बच्चों की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक प्रगति अवलम्बित है। यदि माता-पिता, बालकों के लिए कष्ट न सहें, उनकी सुख-सुविधा का ध्यान न करें, उनके पौष्टिक भोजन, इतनी महंगी शिक्षा, बीमारी में चिकित्सा, विवाह-शादी की व्यवस्था एवं उचित आजीविका आदि समस्त सुविधाओं पर ध्यान न दें तो वह प्रगति नहीं कर सकते।
छोटा बालक तो सर्वथा असहाय होता है वह माता-पिता की सहानुभूति एवं सहायता के बिना जीवित भी नहीं रह सकता। उनका विकास माता-पिता की सहानुभूति और उदारता पर ही सर्वथा अवलम्बित है।
पीड़ा और पतन की दुःखदायी परिस्थितियों में जकड़े हुए मनुष्यों को स्नेह सहानुभूति की आवश्यकता है। यह विभूतियाँ जिसके पास होंगी वह मात्र भाव मुद्रा प्रदर्शित करके निष्क्रिय न रह जायेगा, वरन् सेवा और सहायता के लिए भी आगे बढ़ेगा। भविष्य की आशा दिलाने पर गिरे हुए व्यक्ति उठ खड़े होते हैं, इस तथ्य को जो जानता है वह निराश और विक्षुब्ध मनःस्थिति को आशा और उत्साह के प्रकाश से आलोकित करने का निरन्तर प्रयास करता रहता है।
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