
जीव वस्तुतः ब्रह्म का ही एक घटक है।
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व्यक्ति की निजी चेतना का अस्तित्व, बल, वैभव, सौन्दर्य सब कुछ है पर स्मरण रखा जाय यह अनुदान ब्रह्म चेतना का है। यहाँ ब्रह्म चेतना ओर ब्रह्मांडीय चेतना में जो थोड़ा सा अन्तर है उसे भी समझ लेना चाहिए। ब्रह्म चेतना वह है जिसे विशुद्ध चेतना कहा जा सकता है। आत्माओं का परमात्मा है। इसी को विराट् ब्रह्म या विश्व मानव कहते हैं। ब्रह्मांडीय चेतना से तात्पर्य प्रकृति के अन्तराल में सन्निहित भौतिक सामर्थ्य है। यही पिण्ड और ब्रह्मांड की विभिन्न हलचलों का स्रोत है, एनर्जी-फोर्स-पावर-ऊर्जा आदि नामों से उसे पुकारते हैं। विज्ञानियों का शोध-क्षेत्र यही है, वे इसी समुद्र में गोते लगा कर कई प्रकार के रत्न ढूंढ़ते और आविष्कार करते हैं।
शरीर ही नहीं मस्तिष्क भी इसी ब्रह्माण्डीय चेतना के प्रभाव क्षेत्र में आता है। ऋतुओं का प्रभाव शरीर पर पड़ता है और परिस्थितियों से मस्तिष्क प्रभावित होता है। शरीर के छोटे घटक जीवाणु अपनी प्रकृति के अनुरूप काम करते हैं। नस, नाड़ियाँ एवं हृदय वृक्क, यकृत आदि अवयव अपनी गतिविधियाँ चलाने में निरत रहते हैं। यह हलचलें अचेतन मन से संचालित होती हैं। आकुंचन-प्रकुँचन, श्वास-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, आदि उसी की क्षमता एवं प्रेरणा से गतिशील रहते हैं। चेतन मन का प्रभाव इन्द्रिय चेतना में देखा जा सकता है। कल्पना, इच्छा, निर्णय आदि उसी को करने पड़ते हैं। प्रत्येक इकाई अपने आप में स्वतन्त्र है और अपनी शक्ति तथा सत्ता का प्रत्यक्ष परिचय देती है, फिर भी गम्भीर दृष्टि से देखने पर उसे सुविस्तृत शृंखला की एक कड़ी ही माना जा सकता है। समुद्र की हर लहर स्वतन्त्र है। उसके आकार, बल एवं क्रिया-कलाप का मूल्याँकन स्वतन्त्र रूप से किया जा सकता है। किन्तु वस्तुतः वह विशाल समुद्र का अविच्छिन्न अंग है। उसकी स्वतन्त्रता सागर की परतन्त्रता में जुड़ी हुई है। लहर को सागर से पृथक कर दिया जाय तो उसकी सुन्दर और सुव्यवस्थित उछल-कूद का अन्त ही हो जायेगा। तब वह अपने अस्तित्व को उस तरह अनन्त काल तक अक्षुण्ण बनाये न रह सकेगी जैसे कि सम्बद्ध स्थिति में था। पृथक होने पर हवा और गर्मी के मामूली से दबाव भर से उसकी सत्ता समाप्त हो जायेगी। उसकी स्वतन्त्रता सत्य है, पर यह स्वतन्त्रता सागर की परतन्त्रता के साथ ही सार्थक भी है और सम्भव भी।
चेतना में बीज रूप से अपनी निजी शक्ति भी असीम है। पिण्ड को ब्रह्मांड का प्रतीक माना जा सकता है। सौर-मण्डल की सारी गतिविधियाँ ठीक इसी क्रम में परमाणु घटक के अन्तराल में चलती हुई देखी जा सकती हैं। ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ की उभयपक्षीय सत्ता आकृति में तो लघु और विभु की तरह देखी जा सकती है, पर उसकी प्रकृति में कोई अन्तर नहीं। अणु विस्फोट में अधिकाँश शक्ति तो अन्तरिक्ष में ही विलीन हो जाती है जो प्रभाव एवं परिचय में आती है, वह अति स्वल्प है। अणु को एक छोटा-किन्तु उन्हीं विशेषताओं से सम्पन्न पूर्ण सूर्य माना जा सकता है। बीज में वृक्ष की और शुक्राणु में पूर्ण पुरुष का समग्र अस्तित्व मौजूद है। इन कणों को विकास का अवसर मिले तो वे अपना सुविस्तृत एवं सक्षम परिचय प्रस्तुत कर सकते हैं। ठीक इसी प्रकार जीव चेतना को अवसर मिले तो वह अपने विराट् एवं विभु रूप का परिचय दे सकता है।
तनिक गहराई में प्रवेश करके देखें तो जड़ चेतन का प्रत्येक घटक-अपने से ऊँचे घटकों के साथ सम्बद्ध होकर उससे पोषण प्राप्त करता दृष्टिगोचर होगा। बच्चा माँ का आंचल पकड़ता है-माता पति का आश्रय पाती है-पति फैक्ट्री में काम करके आजीविका पाता है-फैक्ट्री शेयर होल्डरों की पूंजी से बनी है- शेयर होल्डरों ने वह सम्पदा किसी अन्य साधन से कमाई और उस साधन का स्रोत कहीं अन्यत्र है। इस प्रकार प्रत्येक घटक आगे एवं ऊँचे आधारों का अवलम्बन ग्रहण करके अपना काम चला रहा है। उपलब्धियों का अनुदान जितना बढ़ा-चढ़ा होता है उतना ही वह घटक बलिष्ठ होता चला जाता है।
इसी तरह व्यष्टि-चेतना स्वतन्त्र तो है, पर समष्टि-चेतना के अंश के ही रूप में। व्यष्टि-चेतना के विकास का लक्षण एक ही है- समष्टि-चेतना के साथ तादात्म्यता की प्रखर अनुभूति की दिशा में आगे बढ़ना।
जिस प्रकार मन के दो भाग चेतन और अचेतन कहे जाते हैं। उसी प्रकार ब्रह्माण्डीय चेतना का एक पक्ष वह है जिसे स्थूल प्रकृति कहते हैं और जो वैज्ञानिक पर्यवेक्षण के क्षेत्र में आ गई है। सूक्ष्म प्रकृति वह है जो अभी तक मनुष्य के लिए प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु अपने अस्तित्व का परिचय समय-समय पर देती रहती है। यन्त्रों की पकड़ में यह क्षेत्र अभी नहीं आया है, पर मस्तिष्कीय उपकरण उसके साथ यदा-कदा सम्बन्ध बना लेते हैं और वहाँ जो कुछ विद्यमान है बच रहा है उसके देखने-समझने में समर्थ हो जाते हैं। ऐसे ही असामान्य अनुभवों को अतीन्द्रिय अद्भुत चमत्कार एवं ऋद्धि-सिद्धि आदि नामों से पुकारा जाता है।
संसार में विभिन्न हलचलें होती है। इनका स्थूल स्वरूप और सूक्ष्म कारण होती हैं। दृश्य शरीर स्थूल है। प्रत्यक्षतः वही समस्त हलचलें करता दीखता है। प्रेरक सत्ता मन है, पर वह दीखता नहीं। ठीक इसी प्रकार पदार्थों के स्वरूप और उनकी जिन हलचलों को इन्द्रिय शक्ति अथवा उपकरणों के सहारे प्रत्यक्ष किया जा सकता है उन्हें स्थूल कह सकते हैं। नितान्त प्रेरक एवं सशक्त होते हुए भी प्रकृति का जो अंश प्रत्यक्ष नहीं हो उसे सूक्ष्म कहते हैं। समष्टि मन तत्व को सूक्ष्म कह सकते हैं। तथा प्रकृति के वे प्रवाह जिनमें घटनाओं की भूत-कालीन, वर्तमान की तथा भावी सम्भावनाओं की छायाएँ काम करती है। ब्रह्माण्डीय चेतना के- प्रकृति क्षेत्र के अन्तर्गत आती हैं।
कारखाने में लगी मोटर चलती तो स्वयं ही है। उसी की बिजली उसे चलाती है, पर वस्तुतः वह दूरवर्ती किसी बड़े बिजली घर से तारों द्वारा सम्बद्ध होती है। बड़ा बिजली घर ही इस छोटी मोटर को आवश्यक मात्रा में शक्ति प्रदान करता है और उसी के सहारे वह अपनी गतिविधियों को संचालित कर सकने में समर्थ होती है। व्यक्ति की स्थूल सत्ता- शरीर और मन में काम करने वाली वे हलचलें जिन्हें जीवन यात्रा के लिए अभीष्ट कहा जा सकता है, भौतिक प्रकृति के अन्तराल में काम करने वाली ब्रह्माण्डीय चेतना का अनुदान समझी जा सकती हैं।