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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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जल-उपवास कुछ चेतनाएँ उत्पन्न करने के लिए

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(पू. गुरुदेव का अपने निराहार उपवास के सन्दर्भ में विशेष सन्देश)

यह अंक पाठकों के हाथ में पहुँचने तक हमारा 24 दिन का जल-उपवास तथा विशिष्ट तप-साधना का क्रम पूर्ण हो चुका होगा। जिन दिनों यह पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं उन दिनों वह चल रहा है। यह साधना विशुद्ध व्यक्तिगत एवं आध्यात्मिक है। इसके पीछे न तो कोई आग्रह था और न उत्तेजना उत्पन्न करना। यह शक्ति-सम्पादन एवं आत्म-शोधन के अभिप्राय से किया गया एवं विशुद्ध धर्मानुष्ठान कहा जा सकता है। तो भी उसके कुछ पक्ष ऐसे हैं जिनसे सर्वसाधारण को, विशेषतया अखण्ड-ज्योति के परिजनों को अवगत होना ही चाहिए। यह आवश्यकता न समझी गई होती तो सम्भवतः उसे गोपनीय और नितान्त व्यक्तिगत ही रखा गया होता, जैसी कि हमारी अन्यान्य कठिन तप-साधनाएँ समय-समय पर होती रहीं हैं और होती रहेंगी।

उपवास का दूसरा कारण शेष जीवन की अति स्वल्प अवधि में अत्यधिक महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए आवश्यक शक्ति सम्पादित करना है। आयुष्य ने शरीर पर प्रभाव डाला है और वृद्धावस्था ने उस क्षमता का अपहरण कर लिया है जो युवावस्था में थी। इतने पर भी काम का दबाव पहले की अपेक्षा कई गुना बढ़ गया है। साथ ही समय की कमी और काम की विशालता को देखते हुए निपटाने की जल्दी भी है। विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की ऐसी आधारशिला हमें खड़ी करनी है, जो अगले बुद्धिमानी युग में तर्क, तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर जन-मानस को आत्मा के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति आस्थावान बनाये रह सके। दूसरा कार्य है यज्ञ विद्या का पुनर्जीवन और उसके आधार पर मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं का समाधान। तीसरा, कार्य है सभी प्रमुख धर्मों को एक दूसरे का पूरक सहगामी एवं एक ही लक्ष्य की दिशा में चलने वाले पथिकों की स्थिति में ला खड़ा करना। उनके संकीर्णतावादी तत्वों को मानवी एकता एवं गरिमा के लिए प्रयत्नरत बना देना। यह तीनों ही कार्य गहरे शोध प्रयासों की अपेक्षा करते हैं। मात्र प्रतिपादन ही नहीं उनका प्रचलन भी तो करना है। ऐसी दशा में कार्य भार और भी अधिक गुरुतर हो जाता है॥ कम समय में अधिक भारी काम निपटाने में कितनी अधिक शक्ति लगती है, कितना सन्तुलन बनाये रहना और कितने साधन जुटाना अभीष्ट होता है, इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। अपनी स्थिति भी ठीक ऐसी ही है।

इतनी महत्वपूर्ण क्षमताएँ तपश्चर्या के अतिरिक्त और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकतीं। भौतिक साधन तो मन से, बुद्धि से, प्रतिभा से, संगठन से भी जुटाये जा सकते हैं, पर आन्तरिक बल तो तप-साधना के बिना और किसी प्रकार मिलता नहीं है। भागीरथ का गंगावतरण, विश्वामित्र का नवयुग प्रवर्तन, पार्वती का शिव वरण, परशुराम का कुठार, अगस्त का समुद्र शोषण, ध्रुव का ब्रह्माण्ड केन्द्र पद, दधीचि का अस्थि वज्र, तपश्चर्या के ही परिणाम थे। सृष्टि सृजन के लिए ब्रह्माजी का कमल पुष्प पर-सम्वर्धन पोषण के लिए विष्णु का शेषासन पर सन्तुलन, परिवर्तन के लिए शिव की श्मशान साधना के पौराणिक उपाख्यान सर्वविदित हैं।

सप्त ऋषियों से लेकर अन्यान्य महामानवों ने आत्मिक शक्ति का अर्जन तप-साधना से ही किया था। शृंगी ऋषि ने दशरथ का पुत्र वरदान और परीक्षित को अकाट्य शाप देकर तप की शक्ति का परिचय दिया था। ऐसे असंख्यों पुराण उपाख्यान तप द्वारा उत्पन्न शक्ति का प्रतिपादन करते हैं। भगवान् बुद्ध योगी अरविन्द जैसे अनेकों तपस्वी अपने तपोबल से युग समस्याओं के समाधान में प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान देते रहे हैं। जिसके मार्ग-दर्शन में हमारा जीवन प्रवाह बहता आया है वह महामानव भी तप के आधार पर ही सिद्ध समर्थ बना है। उसने हमें आरम्भ से ही अपने अनुकरण का संकेत किया और जितनी सामर्थ्य देखी उतना उँगली पकड़ कर चलाया। 24 महापुराणों से लेकर बार-बार हिमालय की एकान्त साधनाओं का समय-समय पर विशिष्ट तपश्चर्याओं का सिलसिला किसी न किसी प्रकार-किसी न किसी रूप में चलता ही रहा है। आत्म-परिष्कार और लोक-कल्याण की दिशा में यदि कुछ बन पड़ा तो उसे बुद्धि का, साधनों का, परिस्थितियों का, सहयोग सम्पादन का नहीं, मात्र तप शक्ति का नगण्य-सा चमत्कार ही मानना चाहिए।

गत मास की 24 दिवसीय जल-उपवास सहित विशेष तप-साधना उसी जीवन नीति का एक छोटा-सा अवसर कहा जा सकता है। नये उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए अभीष्ट शक्ति प्राप्त करने के लिए उसे सामयिक एवं सामान्य प्रयास ही समझा जाना चाहिए। उसमें न तो कोई आश्चर्य की बात है और न अनोखी, न अटपटी। आवश्यकतानुसार आगे भी ऐसे ही या उससे भी बड़े-छोटे फिर कभी कोई अनुष्ठान हों और उनकी जानकारी संयोगवश किन्हीं को मिल जाय तो इससे परिजनों में से किसी को भी असमंजस में नहीं पड़ना चाहिए, वरन् उसके सत्परिणामों की आशा भरी दृष्टि से अपेक्षा करनी चाहिए। मार्गदर्शक शक्ति, सदा से कठिन प्रसंगों में हमारी सहायता करती रही है और वही अभी भी आगे कभी जब तक अपना वरद्हस्त हमारे सिर पर रखे हैं तब तक किसी अकल्याणकारी अनिष्ट की आशंका नहीं की जानी चाहिए।

प्रस्तुत उपवास के उपरोक्त दो आधार ऐसे हैं जिनका उद्देश्य लोक-कल्याण होते हुए भी समझने की दृष्टि से उन्हें व्यक्तिगत भी कहा जा सकता है। क्योंकि उनका समाज पर प्रत्यक्ष कम और परोक्ष प्रभाव अधिक है। मूल्याँकन तो प्रत्यक्ष का ही किया जाता है, इसलिए परोक्ष को व्यक्तिगत कहने की परम्परा है। योग-साधनाएँ आमतौर से व्यक्तिगत समझी जाती हैं। यद्यपि उनका प्रभाव समष्टिगत भी होता है। जो हो यह गत उपवास का ऐसा पूर्वार्ध है जिसके सम्बन्ध में परिजनों को अधिक तो नहीं, पर इतना तो प्रभाव ग्रहण करना ही चाहिए कि आत्म-परिष्कार के लिए-आत्मबल सम्वर्धन के लिए अपनी सामर्थ्यानुसार तप-साधना की दिशा में उन्मुख रहने का प्रयत्न करना हर किसी के लिए श्रेयस्कर हो सकता है। प्रयास के अनुपात और स्तर के अनुरूप हर किसी को उस मार्ग पर चलने में न्यूनाधिक लाभ प्राप्त करने का सुअवसर मिल सकता है।

उपवास का तीसरा कारण विशुद्ध रूप से अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों से सम्बन्धित है। मनोरंजन के लिए इस पत्रिका को कदाचित ही कोई मंगाता हो। जो पढ़ते हैं वे अनुभव करते हैं कि यह उनके अपने विचार हैं अथवा उन्हीं के व्यक्तिगत पत्र के रूप में लिखे गये हैं। लेखकों और पाठकों के बीच कदाचित ही कभी कोई सघन सम्बन्ध बनता हो, पर हम लोगों की स्थिति भिन्न है। अखण्ड-ज्योति की पंक्तियाँ बुद्धि को नहीं, हृदय को छूती हैं और यह स्पर्श सघन आत्मीयता के रूप में विकसित होता चला जाता है। कारण स्पष्ट है, हम लोग चिर अतीत से परस्पर एक विशिष्ट शृंखला में बँधे चले आये हैं और स्थान की दृष्टि से दूर रहते हुए भी हम लोग अति निकटवर्ती जैसी मनःस्थिति में रहते हैं।

युग-परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति अग्रिम भूमिका निभाते हैं, पर उनके पीछे एक दिव्य समुदाय पहले से ही किसी अदृश्य सूत्र शृंखला में बँधा आता है और उसी के समन्वित प्रयासों से महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत होते हैं। राम के साथ रीछ, वानरों की भूमिका रही। कृष्ण के गोवर्धन उठाने में गोप-बालकों का और महाभारत में पाण्डवों का योगदान रहा। बुद्ध की भिक्षु मण्डली में लाखों नर-नारी थे। गाँधी के सत्याग्रहियों की सेना का परिचय सभी को है। समय की महत्वपूर्ण भूमिका पूरी करने के लिए ऐसी ही सामूहिक शक्तियाँ अवतरित होती हैं, भले ही उसके नेतृत्व का श्रेय किसी को भी मिले।

अपना विशिष्ट समय है। इन्हीं क्षणों मानव जाति के भविष्य का भला या बुरा फैसला होने जा रहा है। या तो मनुष्य जाति को युद्ध विभीषिका, बढ़ती जनसंख्या एवं निकट स्तर की आपाधापी में उलझ कर सामूहिक आत्महत्या करनी पड़ेगी या फिर लोक-एकता, समता, ममता, शुचिता जैसे उच्च आदर्शों को अपनाकर मनुष्य में देवत्व के अवतरण और धरती पर स्वर्ग के वातावरण का आनन्द लेंगे। इन निर्णायक घड़ियों में विशिष्ट आत्माओं को विशिष्ट परिश्रम करना पड़ेगा- विशेष कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व निभाना होगा। इतने बड़े कार्य अनायास ही नहीं हो जाते। उसके लिए जन-मानस का प्रखर मार्ग-दर्शन करने के लिए जागृत आत्माओं को वाणी से नहीं अपने अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करने होते हैं। अखण्ड-ज्योति परिजनों से ऐसी ही अपेक्षा की जा सकती है। उन्हें युग-परिवर्तन की इस विशिष्ट वेला में अपनी जीवन नीति इस प्रकार प्रस्तुत करनी चाहिए जो जनसामान्य के लिए अनुकरणीय बन सके।

हम बारीकी से इस सन्दर्भ में तीखी दृष्टि परिजनों पर डालते रहते हैं। कथनी नहीं करनी से ही किसी का मूल्याँकन होता है। इस दृष्टि से अपने परिजन हमारी अपेक्षा, आकाँक्षा के अनुरूप वजनदार नहीं बैठते तो वह हलकापन हमें अखरता है। पेट और प्रजनन में तो नर-कीटक भी लगे रहते हैं। लोभ और मोहग्रसित आपा-धापी में नर-पशुओं को भी प्रवृत्त देखा जा सकता है। वासना, तृष्णा से प्रेरित नर-वानरों के क्रीड़ा-कौतुक तो पिछड़े क्षेत्रों में भी देखे जा सकते हैं। हम भी उसी स्तर की इच्छा और क्रिया अपनायें रहें तो फिर विशिष्ट समय में विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिए भेजी गई विशेष-आत्माओं का अवतरण ही निरर्थक हो गया। यह कैसी कष्टकर स्थिति है।

परिजनों से हमारी अपेक्षा रही है कि वे वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा के दल-दल से अपने को निकालें। सुविस्तृत परिवार पर जब इस दृष्टि से नजर डालते हैं तो सन्तोष स्वल्प और असन्तोष बड़े परिमाण में सामने आ खड़ा होता है। दूसरों की दृष्टि में युग-निर्माण परिवार के सदस्य नव-निर्माण की मूक साधना में अत्यन्त निष्ठापूर्वक संलग्न रहकर मानवी आदर्शों का अभिवर्धन करने वाले, रचनात्मक कार्यों में कीर्तिमान स्थापित करते हुए कहे जाते हैं। किसी हद तक यह मूल्याँकन सही भी है। पर इतने से हमें तो सन्तोष नहीं होता। हमें अधिक चाहिए। परिजनों की जीवन विद्या प्रकाशपूर्ण, अनुकरणीय और प्रेरणाप्रद बन सके, यही अपनी अपेक्षा है। इससे कम में युग की पुकार को पूरा कर सकने वाले प्रयास बन ही नहीं पड़ेंगे। ज्यों-ज्यों कुछ आधा-अधूरा, काना-कुबड़ा चलता भी रहा तो उतने से कितनी देर में-क्या कुछ बन पड़ेगा ?

अपने परिवार में बुद्धिमानों की, भावनाशीलों की, प्रतिभावानों की, साधना सम्पन्नों की कमी नहीं। पर देखते हैं कि उत्कृष्टता को व्यवहार में उतारने के लिए जिस साहस की आवश्यकता है उसे वे जुटा नहीं पाते। सोचते बहुत हैं, पर करने का समय आता है तो बगलें झाँकने लगते हैं। यदि ऐसा न होता तो अब तक अपने ही परिवार में से इतनी प्रतिभाएँ निकल पड़तीं जो कम से कम भारत भूमि को नर-रत्नों की खदान होने का श्रेय पुनः दिला देतीं। व्यस्तता, अभावग्रस्तता, उलझन, अड़चन आदि के बहाने उपहासास्पद हैं। वे उन्हीं कार्यों के लिए प्रयुक्त होते हैं जिन्हें निरर्थक समझा जाता है। जो महत्वपूर्ण समझा जाता है उसे सदा प्रमुखता मिलती है और समय, साधन, मनोयोग आदि जो कुछ पास है सब उसी में लग जाता है। यदि युग पुकार को-जीवनोद्देश्य को महत्व दिया गया होता तो किसी को भी वैसी बहाने-बाजी न करनी पड़ती जैसी कि असमर्थता सिद्ध करने के लिए आमतौर से कही या गढ़ी जाती है। इससे आत्म-प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ बनता नहीं। जिन्हें कुछ करने की उत्कट अभिलाषा होती है वे उसके लिए कठिनतम परिस्थितियों के बीच रहते हुए भी इतना कुछ कर सकते हैं जितना साधन सम्पन्नों से भी नहीं बन पड़ता।

दो-पाँच मालाएँ उलटी-पुलटी घुमाकर-समस्त संकट दूर होने से लेकर प्रचुर धन सम्पदा मिलने तक की ऋद्धि-सिद्धियों में कमी पड़ने की शिकायतें तो आये दिन सुनने को मिलती हैं, पर यह बताने कोई नहीं आता कि उपासना बीज को खाद, पानी देने वाली जीवन-साधना में कोई रुचि है या नहीं। साधना के अविच्छिन्न अंग स्वाध्याय, संयम और सेवा की ओर भी ध्यान दिया गया है या नहीं। शिष्य होने का दावा करते और जिह्वाग्र भाग से गुरुदेव कहते तो कितने ही सुने जाते हैं, पर अपने परिवार में प्रवेश करने की पहली और अनिवार्य शर्त न्यूनतम एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य ज्ञान-यज्ञ के लिए निकालते रहने को कितने लोग पालन करते हैं, यह जाँचने पर भारी निराशा होती है। लगता है कर्मनिष्ठा का युग लद गया और वाचालता ने उसका स्थान हथिया लिया है। परिजनों ने यदि स्वार्थ परमार्थ का समन्वय किया होता तो निश्चय ही वे व्यक्तिगत लोभ, मोह के लिए जितनी भाग दौड़ करते और चिन्तित रहते हैं उतना ही उत्साह लोक-निर्माण के क्रिया-कलापों में भी प्रस्तुत करते। ढेरों समय आवारागर्दी और आलस्य में गुजर जाता है, उतना यदि नव-निर्माण प्रयोजनों में लग सका होता तो जीवन का स्वरूप ही दूसरा होता। विलासिता, फिजूलखर्ची और जमाखोरी में लगने वाले पैसे का उपयोग यदि रचनात्मक प्रवृत्तियों के परिपोषण में लग सका होता तो अपना छोटा-सा परिवार ही राष्ट्र की महती समस्याओं को सुलझा सकने के उपयुक्त साधन अपने घर से अपने ही हाथों जुटा सकते थे।

इन दिनों जन-मानस पर छाई हुई दुर्बुद्धि जीवन के हर क्षेत्र को बुरी तरह संकटापन्न बना रही है। स्वास्थ्य, सन्तुलन, परिवार, अर्थ-उपयोग, पारस्परिक सद्भाव, समाज, राष्ट्र, धर्म, अध्यात्म जैसे किसी भी क्षेत्र को उसने विकृतिग्रस्त बनाने से अछूता छोड़ा नहीं है। फलतः बाहर ठाठ-बाट बढ़ जाने पर भी सर्वत्र खोखलापन और अधःपतन ही दृष्टिगोचर हो रहा है। विश्व की विभिन्न समस्याओं की जड़ में यह विकृत बुद्धि ही काम कर रही है। हमें अपने युग के इसी असुर से लोहा लेना है। यह अदृश्य दानव भूतकाल के रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, महिषासुर आदि सभी से बढ़ा-चढ़ा है। उनने थोड़े से क्षेत्र को ही प्रभावित किया था, इसने मनुष्य जाति के अधिकाँश सदस्यों को जकड़ लिया है। बात भलमनसाहत की भी खूब चलती है, पर भीतर ही भीतर जो पकता है उसकी दुर्गन्ध से नाक सड़ने लगती है। यदि मनुष्य जाति के भविष्य को बचाना है तो अवाँछनीयता, अनैतिकता, मूढ़ता और दुष्टता से पग-पग पर लोहा लेना पड़ेगा। ज्ञान-यज्ञ का, विचार क्रान्ति अभियान का, युग-निर्माण योजना का, युगान्तर चेतना का अवतरण इसी प्रयोजन के लिए हुआ है। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण प्रत्यक्ष देखने के लिए हमारे प्रयास चल रहें हैं। यह सार्वभौम और सर्वजनीन प्रयास है। उथली राजनीति वर्गगत, फलगत, क्षुद्र प्रयोजनों से हमारा दूर का भी नाता नहीं है। हमें दूरगामी और मानवी चेतना को परिष्कृत करने वाली सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को बोना, उगाना और परिपुष्ट करना है। इसके लिए अनेकों प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारात्मक कार्य करने के लिए पड़े हैं। जो हो रहा है उससे अनेकों गुनी सामर्थ्य, साहस और साधन समेट कर आगे बढ़ चलने की आवश्यकता है और यह प्रयास हमीं अग्रदूतों को आगे बढ़कर अपने कन्धों पर उठाना चाहिए।

यह कार्य तभी सम्भव है जब हममें से प्रत्येक अपनी अन्यमनस्कता एवं उपेक्षा पर लज्जित हो और अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करने का साहस समेटे। समय दिये बिना-आर्थिक अंशदान के लिए उत्साह सँजोये बिना यह कार्य और किसी तरह हो ही नहीं सकता। धर्म-मंच से लोक-शिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत बीस सूत्री कार्यक्रम बताये जाते रहे हैं। अन्य सामयिक कार्यक्रमों के लिए पाक्षिक युग-निर्माण योजना में निर्देश एवं समाचार छपते रहते हैं। स्थानीय आवश्यकता एवं अपनी परिस्थिति को देखकर इनमें से कितने ही कार्य हाथ में लिये जा सकते हैं। यह पूछना व्यर्थ है कि आदेश दिया जाय कि हम क्या करें ? अपने घर से आरम्भ करके सार सम्पर्क क्षेत्रों में ज्ञान-घटों की स्थापना और उनका सुसंचालन, झोला पुस्तकालय, चल पुस्तकालय, जन्म-दिन, पर्व संस्कारों के आयोजन, तीर्थयात्रा, शाखा का वार्षिकोत्सव, महिला शाखा की स्थापना जैसे कितने ही कार्य ऐसे हैं जिन्हें आलस्य छोड़ने और थोड़ा उत्साह जुटा लेने से ही तत्काल आरम्भ किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रौढ़ पाठशालाएँ, व्यायामशालाएँ, वृक्षारोपण, पुस्तकालय स्थापना जैसे अनेकों रचनात्मक और दहेज, मृत्युभोज, नशा, जाति और लिंग भेद के नाम पर चलने वाली असमानता, भिक्षा व्यवसाय, आर्थिक भ्रष्टाचार, अनाचार, प्रतिरोध जैसे अनेकों सुधारात्मक काम करने के लिए पड़े हैं। जिन्हें कभी भी कोई भी आरम्भ कर सकता है और अपने साथी जुटा कर इन्हें सफल अभियान का रूप दे सकता है।

प्रश्न कार्यक्रमों के अभाव का नहीं-अन्य लोग उपेक्षा बरतते या गड़बड़ी फैलाते हैं यह शिकायत गढ़ने का नहीं है। बात इतनी भर है कि हम अपना उत्साह जगायें, निष्ठावान बनें और अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई दें। इंजन चलेगा तो डिब्बे लुढ़कने ही लगेंगे। हमें हर स्थिति का समाना करते हुए अपनी भूमिका इंजन जैसी ही निभानी चाहिए।

यह उपवास उन सब के विरुद्ध-प्यार भरी चेतावनी के साथ किया गया है जो जीवन्त और जागृत होते हुए भी सोने का उपक्रम कर रहे हैं। परिवार में अधिकाँश व्यक्ति ऐसे ही हैं जिनके पास समय, साधन, ज्ञान, प्रभाव, अवसर आदि सब कुछ हैं, पर युग की पुकार और जीवन लक्ष्य की पूर्ति के सम्बन्ध में मूक बधिर होकर बैठे हैं। दो-चार माला सटका लेना या आदर्शवादी बकझक करते रहने से कुछ काम नहीं चलेगा। बात तो श्रम , समय और साधनों के भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करने से बनती है। परिजनों से हमें सदा अधिक उत्साहवर्धक सत्प्रयत्नों की सूचना पाने की लालसा रहती है, पर जब निराशा हाथ लगती है तो जी टूटने लगता है और अपने प्रभाव की-आत्मबल की न्यूनता पर खेद होता है। इस खेद को हलका करने के लिए प्रस्तुत उपवास को एक सार्वजनिक घोषणा समझा जा सकता है। उसे परिजनों में से प्रत्येक अपने लिए व्यक्तिगत उद्बोधन, अनुरोध, आग्रह के रूप में ले सकता है और एक झकझोरने वाली चुनौती अनुभव कर सकता है।

उपवास का चौथा चरण भी कम विचारणीय नहीं है। उसी की व्यथा ने हमें इतनी जल्दी अप्रत्याशित रूप में यह कठोर कदम उठाने के लिए विवश कर दिया। अपने हाथों और औजारों की अप्रमाणिकता हमें असह्य है। जिन साथियों की सहायता से हम नव-युग का सृजन करने चले हैं यदि वे ही खोटे सिक्के सिद्ध होंगे तो फिर उस कलात्मक-शिल्प की सुगढ़ता कैसे सम्भव होगी जिसके लिए हमारा सारा जीवन खप गया और रहे बचे क्षण भी उसी में समर्पित हो रहे हैं। यों अपना परिवार बहुत बड़ा है उसके लाखों सदस्य और करोड़ों समर्थक हैं। इतने लोगों में सभी दूध के धुले होंगे ऐसी कल्पना हम नहीं करते। जन-आन्दोलन जब लोकप्रिय होने लगते हैं तब उनमें निहित स्वार्थों की घुसपैठ तीव्र हो जाती है और वे जहाँ भी जगह पाते हैं वहीं छद्म वेश बनाकर जा विराजते हैं और तरह-तरह से घात लगाते हैं। ऐसा प्रायः सभी जन-आन्दोलनों में होता रहता है। रखवाली और सफाई की सतर्कता रखने से इन अवाँछनीय तत्वों को रोका और हटाया जाता है। यही अपने यहाँ भी होता है, होना चाहिए। अधिक कष्ट तो तब होता है जब शिल्पी के औजार हथियार ही टूटने लगते हैं। इन दिनों अपने ही साथियों में से एकाध ने ऐसी दुर्बुद्धि का परिचय दिया जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न थी। इससे हमें गहरा आघात लगा। समझाने, उगलवानेडडडड और सुधारने का प्रयत्न निष्फल हुआ तो वह प्रायश्चित अपने ऊपर ओढ़ना पड़ा। इसके अतिरिक्त और कोई चारा शेष रह ही नहीं गया था। हारे हुए कप्तान का कोट-मार्शल होता है-भले ही भूल सैनिकों की रही हो। रेल मन्त्री स्व0 लालबहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना को लेकर अपने पद से इस्तीफा दिया, श्री कृष्णा मेनन को नेफा घटना के सिलसिले में त्याग पत्र देना पड़ा था। अपने साथियों का प्रायश्चित हम करें और दण्ड भुगतें तो यह सर्वथा उचित ही है।

यह तो एक सामयिक प्रसंग हुआ, पर उसका प्रभाव पूरे परिवार और समाज पर चेतावनी के रूप में पड़ना चाहिए। प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति की विशेषता, युग-निर्माण परिवार के सदस्यों की दृष्टि अनौचित्य के प्रति अत्यन्त कड़ी रहनी चाहिए। जहाँ भी वह पनपे, सिर उठाये, वहीं उसके असहयोग एवं विरोध प्रदर्शन से लेकर दबाव देने तक की प्रक्रिया उठ खड़ी होनी चाहिए। अनौचित्य के प्रति हममें से प्रत्येक में प्रचण्ड रोष एवं आक्रोश भरा रहना चाहिए। इतनी जागरुकता के बिना दुष्प्रवृत्तियाँ रुक नहीं सकेंगी। छिपाने, समझौता कर लेने से सामयिक निन्दा से तो बचा जा सकता है, पर इससे सड़न का विष भीतर ही भीतर पनपता रहेगा और पूरे अंग को गला कर नष्ट कर देगा। कई व्यक्ति ऐसे प्रसंगों पर उदारता बरतने, भूल जाने और छिपा लेने की वकालत करते और अपने को अधिक सद्भाव सम्पन्न सिद्ध करते देखे गये हैं ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि पाप को सहन करते रहने की नीति ने ही संसार में अधर्म को बढ़ाया है। इससे अनीति की रक्षा होती है और खाद-पानी पाकर उसे और भी अधिक परिपुष्ट होने का अवसर मिलता है। बात को गई गुजरी कर देना प्रकारान्तर से उसका समर्थन, परिपोषण और अभिवर्धन करने के समान है। इसमें हानि ही हानि है। पाप के प्रायश्चित में दो शर्तें अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती हैं कि हुए अपराध पर सच्चे मन से खेद किया जाय। उन्हें कम से कम ऐसे प्रामाणिक व्यक्तियों के सामने पूरी तरह उगल ही दिया जाय जो उसे इस प्रकटीकरण का दुरुपयोग न करें। साथ ही अपराधी को भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा बहकाने के लिए नहीं ईश्वर को साक्षी देकर सच्चे मन से ही करनी चाहिए। जितना हो सके उस पाप की क्षति-पूर्ति के लिए भी दण्ड रूप में प्रायश्चित करना चाहिए। इतना करने पर पाप का प्रायश्चित हो जाता है। गलती सुधर सकती है।

युग-निर्माण परिवार बढ़ेगा। उसमें अवाँछनीय घटनाएँ भी होती रहेंगी, इतने बड़े समुदाय में एक भी अपूर्ण, अपवित्र व्यक्ति न तो पैदा होगा और न प्रवेश कर सकेगा इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती, पर वह दृष्टि जीवन्त रहनी चाहिए कि श्रद्धा के साथ विवेक कायम रखा जाय। औचित्य का समर्थन करते हुए अनौचित्य की सम्भावना को नजर, अन्दाज न किया जाय। अति श्रद्धा और अति विश्वास भी इस जमाने में जोखिम भरा है। इसलिए नीति समर्थक और अनीति निरोधक दृष्टि सदा पैनी रखी जाय और सड़न पनपने से पहले ही उसकी रोकथाम कर दी जाय।

सड़े टमाटर को फेंक देने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। पके फोड़े का मवाद निकाल दिया जाना चाहिए। सड़े दाँत को उखाड़ने से ही दर्द बन्द होता है। अनौचित्य के प्रति यही नीति अपनाई जानी चाहिए। अनाचार के विरुद्ध हमारा रोष और आक्रोश प्रचण्ड रहना चाहिए और मित्र तथा सम्बन्धी होने पर भी उसके असहयोग एवं प्रतिरोध की गीता में कही गई भगवान की बताई नीति अपनानी चाहिए।

यदि यह दृष्टि जीवन्त रखी जा सके तो मिशन का भविष्य उज्ज्वल बना रहेगा और जन-मानस के परिष्कार का प्रधान हथियार सृजन शिल्पियों का चरित्र-अक्षुण्ण बना रह सकेगा। स्मरण रखा जाय हम चरित्र-निष्ठा और समाज निष्ठा का आन्दोलन करने चले हैं। यह लेखनी या वाणी से नहीं उपदेशकों की व्यक्तिगत चरित्र निष्ठा में से ही सम्भव होगा। उसमें कभी पड़ी तो बकझक, विडंबना भले ही होती रहें, लक्ष्य की दिशा में एक कदम भी बढ़ सकना सम्भव न होगा। हममें से अग्रिम पंक्ति में जो भी खड़े हों उन्हें अपने तथा अपने साथियों के सम्बन्ध में अत्यन्त पैनी दृष्टि रखनी चाहिए कि आदर्शवादी चरित्र-निष्ठा में कहीं कोई कमी तो नहीं आ रही है। यदि आ रही हो तो उसका तत्काल पूरे साहस के साथ उन्मूलन करना चाहिए। यही हमारी स्पष्ट नीति रहनी चाहिए। भविष्य के लिए यह मार्गदर्शन परिजनों के मन में अतीव गहराई के साथ जमा देने की दृष्टि से भी यह उपवास है।

कई शुभ चिन्तकों ने सुझाया कि उस उपवास में से प्रायश्चित वाला कारण हटा दिया जाय। इससे परिवार की निन्दा होगी और विरोधियों को आक्षेप का अवसर मिलेगा। उसका उत्तर उन्हें दिया गया कि सत्य जीवित रहना चाहिए। असत्य और दुराव का आश्रय लेकर ही यदि संगठन को जीवित रहना है, तो अच्छा है वह हमारे सामने ही मर जाय। हमें संस्था संगठन से मोह नहीं आदर्शों से प्यार है। विरोधी हमारी निन्दा करें इससे पहले हम अपनी निन्दा आप कर लें, अपनी सदाशयता और अधिक प्रबल प्रमाण दे सकती है और आपेक्ष करने वालों का मुँह बन्द कर सकते हैं। इसके विरुद्ध यदि गुप-चुप अनर्थ चलते रहे तो बात छिपती तो है नहीं, कानाफूसी के रूप में वह अधिक भयंकर तथा घातक सिद्ध होगी।

कई व्यक्तियों का आग्रह है, किसके विरुद्ध यह प्रायश्चित है यह बताया जाय ? इसका उत्तर भी यही दिया है कि वह व्यक्ति हम स्वयं ही हैं। शरीर का कोई अंग गलती करे तो उसका प्रतिफल जीवात्मा को ही भोगना पड़ता है। हमारे शरीर से जुड़े अवयव ही वे लोग हैं जिनके सहारे हम अपनी गाड़ी धकेलते हैं। उनकी प्रखरता बनाये रहना हमारे लिए सम्भव न हो सका तो यह दोष अपना ही हुआ। ऐसी दशा में वह दोष जिसके विरुद्ध यह उपवास था, अन्ततः हमीं है।

इस सन्दर्भ में अधिक आग्रह करने वालों से दूसरा उत्तर यह देते हैं कि हमारे बाद ‘आप स्वयं’ हैं। आप में अप्रामाणिकता के जितने अंश हैं, उसी अनुपात से उतनी ही मात्रा में यह उपवास आपके विरुद्ध भी है। आप अपने भीतर दृष्टि डालें और उनका परिमार्जन उसी तरह करें जिस तरह कि हम अपनी धुनाई, धुलाई करते हुए लम्बी जीवन यात्रा को मन्थर गति से पूरी करते चले आ रहे हैं। महत्व व्यक्ति का नहीं-नीति का है। हमने इस उपवास से परिवार के पूरे समुदाय को दिशा और चेतावनी दी है कि जो कार्य हम करने चले हैं उसे पूरा करने के लिए पवित्रता, चरित्र-निष्ठा और आदर्शवादिता की नीति को अत्यन्त दृढ़तापूर्वक अपनाया जाना आवश्यक है।

इस बहुद्देशीय उपवास में प्रथम तीन कारण ही मुख्य समझे जायँ। दो सीधे हमसे और हमारे भगवान् से सम्बन्ध रखते हैं। तीसरा समूचे परिवार में आदर्शवादी उत्साह उत्पन्न करने के लिए हैं। पाठक उसी पर सबसे अधिक ध्यान दें और आत्म-चिन्तन करके भविष्य के लिए ऐसी रीति-नीति निर्धारित करें जिससे आत्म-परिष्कार तथा लोक-निर्माण के दोनों तत्व उत्साहवर्धक मात्रा में जुड़े हुए हों। चौथा कारण ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों के विरुद्ध रोष-आक्रोश बनाये रहने और असहयोग प्रतिरोध संजोये रहने की चेतावनी के रूप में है। निर्माण के प्रति उत्साह और ध्वंस के प्रति आक्रोश के समन्वय से ही सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकना सम्भव हो सकता है। प्रस्तुत उपवास अपने उद्देश्य के लिए आवश्यक वातावरण बनाने और परिस्थितियाँ बनाने में सहायक सिद्ध होगा, ऐसी आशा सहज ही की जा सकती है।

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पू. गुरुदेव का विशेष लेख-

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