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Magazine - Year 1976 - Version 2

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विकास प्राणी की इच्छित दिशा में ही होता है।

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इन दिनों जीव-विज्ञानी विकासवाद के सिद्धान्त का बहुमत से समर्थन कर रहे हैं। यह मान्यता बहुचर्चित-बहुश्रुत होते-होते बहुमान्य भी हो गई है कि जीवन का आरम्भ अविकसित स्तर पर हुआ और वह क्रमशः आगे बढ़ता चला आया। आज-कल यही जाता है कि आदमी की आदि सत्ता अभिनन्दनीय नहीं है। उसका पूर्व इतिहास गौरवास्पद नहीं है। आज का मनुष्य अपने पूर्वजों से कहीं अधिक अच्छी स्थिति में हैं, यह मान्यता हमें अहंकारी ही नहीं बनाती वरन् पूर्वजों के प्रति अश्रद्धा, एवं उपहास के भाव भी पैदा करती है। ऐसी दशा में इतिहास का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। तब अविकसित लोगों के रचे हुए वेद, शास्त्र आज के विकसित लेखकों द्वारा लिखे गये अश्लील, जासूसी और तिलस्मी उपन्यास कहीं अधिक कला एवं कल्पना के आधार कहे जा सकते हैं।

यदि तथ्य ऐसे ही होते और उनके पीछे प्रमाण एवं तर्क का समुचित समावेश रहा होता तो जो कुछ कहा जा रहा है उसे सत्य की प्रतिष्ठा के नाम पर अपनाना ही समीचीन होता, भले ही उससे अतीत के प्रति उपहास बुद्धि ही क्यों न उपजती, भले ही पूर्वजों की क्षुद्रता पर व्यंग करना पड़ता और अपनी प्रगतिशीलता पर निस्संकोच गर्व करने का द्वार खुलता।

विकासवाद के सिद्धान्त का एक अंश ही ग्राह्य हो सकता है। जैसे बालक का शरीर और मस्तिष्क अविकसित होता है, समयानुसार उसकी सर्वतोमुखी प्रगति होती है और युवावस्था में पहुँचने पर वह प्रौढ़, प्रगल्भ परिपक्व बन जाता है। इतने पर भी उसकी मूल चेतना में शुक्राणु में ही वंश परम्परा की आश्चर्यजनक सम्भावनाएँ विद्यमान मानी जाती हैं। गेहूँ के बीज से गेहूँ उत्पन्न होता है। आम की आकृति और स्वाद का पूरा ढाँचा उस गुठली में भरा रहता है जिससे कि नया पौधा उगता है। इस वंशधर में अपने पूर्वजों के गुण ही विकसित होते पाये जायेंगे। विकास क्रम की यह परम्परा कहीं भी देखने में नहीं आती कि सरसों का बीज क्रमशः विकसित होते-होते कटहल जैसे फूल लगाने लगा हो। मूँग की बेल पर कद्दू जैसे स्वाद और आकार के फल लग सकना शायद कभी भी सम्भव न हो सकेगा।

प्रस्तुत विकासवाद के सिद्धान्त हमें यह सिखाना चाहते हैं कि जीव का मूल स्वरूप ही नहीं स्तर, स्वभाव और आधार भी विकसित, परिवर्तित होता आया है। एक कोषीय इन्द्रिय चेतना से रहित जीवनक्रम उलट-पुलट करते-करते मनुष्य जैसे विकसित प्राणियों की स्थिति में आ धमका है। इतना मान भी लिया जाय तो प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि वर्तमान प्राणी जिस स्थिति में है वह कब तक बनी रहेगी ? विकास सिद्धान्त उनमें परिवर्तन करते-करते अन्ततः कहाँ पहुँचा देगा और प्रगति की अनन्त प्रक्रिया प्राणियों और पदार्थों को क्या स्वरूप प्रदान करेगी ?

विकासवादी व्याख्या के अनुसार ‘प्रोटोजोआ’ से मनुष्य क्रमशः विकसित हुआ। अमीना, स्पंज, हाइड्रस, फिर विभिन्न सीढ़ियाँ पार करता मछली, मेंढक, साँप, छिपकली, चिड़िया, घोड़े, हाथी, बंदर आदि विकसित होते-होते मनुष्य बना। जिस अंग का प्रयोग न किया जाए, वह जंग खा कर नष्ट हो जाता है। प्रयोग वाले अंग विकसित होते जाते हैं। यही है “थ्योरी आफ यूज एण्ड डिसयूज।” जीवों में अवशेष तथा विभिन्न प्राणियों की शारीरिक संरचना का तुलनात्मक अध्ययन कर विकासवादी क्रम निरूपण किया जाता है।

लेकिन यह विकासवादी व्याख्या बुद्धि संगत नहीं जान पड़ती। प्रकृति के परमाणुओं में भी ऐसी व्यवस्था नहीं कि एक बीज से दूसरे भिन्न बीज की या भिन्न बीज वाले पदार्थ की उत्पत्ति हो सके।

कार्नेल यूनीवर्सिटी के ‘सेल, फिजियोलॉजी ग्रोथ एण्ड डेवलपमेन्ट्स’ विभाग के निर्देशक श्री एफ0 सी0 स्टीवर्ड ने एक प्रयोग में एक गाजर काटी, उसमें असंख्य कोशिकाएँ थीं। प्रत्येक कोशिका में समान गुण थे। श्री स्टीवर्ड ने कुछ कोशिकाएँ निकालकर काँच की नलियों में रखीं और उनमें नारियल का पानी भर दिया। एक कोशिका के और टुकड़े नहीं किए जा सकते, पर नारियल का पानी पाते ही गाजर की कोशिकाएँ 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 के क्रम में बढ़ने लगीं और अन्त में प्रत्येक कोष एक स्वतंत्र गाजर का पौधा बन गया। इससे कोषों के भीतर अपनी जाति के नये कोषों को बना सकने की शक्ति का पता चलता है, पर नई जाति का कोष वे नहीं बना सकते।

सर्वप्रथम हमें विकासवादी सिद्धान्त की कुछ मुख्य स्थापनाओं का अवलोकन करना होगा। इसके अनुसार लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व “आस्ट्रेलो पिथेकस’ नामक वनमानुष विकसित हुआ। जब पहला विशाल ग्लेशियर दक्षिण की ओर सरका तथा यूरेशिया और उत्तरी अमेरिका के बड़े हिस्से को ढंक लिया, उस समय यानी आज से 10 लाख वर्ष पहले यह ‘आस्ट्रेलो पिथेकस’ दक्षिण अफ्रीकी जंगलों में घूमता था और ‘जिन्जनथ्रोपस’ नामक वनमानुष उत्तरी अफ्रीका में। ‘आस्ट्रेलो पिथेकस’ चिम्पेंजी की तरह ही होता था, पर वह सीधा तनकर चलता था और वृक्षों पर कम, भूमि में अधिक रहता था। उसके दाँत आधुनिक मनुष्यों के दाँत जैसे थे। इसी ‘आस्ट्रेलो पिथेकस’ का विकास ‘पिथेकेन्थ्रोपाइन’ मनुष्यों के रूप में हुआ, जो अफ्रीका के साथ ही पीकिंग के आस-पास तथा जावा में भी रहते थे।

इसके बाद लगभग 60 हजार वर्ष पूर्व हुए ‘निएण्डरथल’ जो कि प्रारम्भिक मानव माने जाते हैं। इनमें बौद्धिक सामर्थ्य होने के प्रमाण मिले हैं। ये औजार बनाते थे, शिकार करते थे तथा अपने मृतकों को समारोह पूर्वक दफनाते थे। किन्तु अगले 50 हजार वर्षों में ये क्रमशः नष्ट हो गये और उनका स्थान ‘क्रो मैगनन’ मानव ने ले लिया आज से लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व। ये वर्तमान मानव के पूर्व पुरुष माने जाते हैं।

अब यहाँ जड़ विकासवादी व्याख्या पर एक प्रश्न-चिन्ह लगता है-मनुष्य में अब कोई महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन क्यों नहीं हुए? क्या प्रकृति की विकास-प्रक्रिया रुक गई है?

दूसरा प्रश्न यह कि प्राणिशास्त्र के अनुसार जब प्रत्येक जीव में सामान्य से विकास में करोड़ों वर्ष लगते हैं, तब मनुष्य जैसे विलक्षण जीव के रूप में वनमानुष का सहसा विकास क्योंकर हुआ? क्योंकि वनमानुष से मनुष्य की मस्तिष्कीय संरचना तो भिन्न है ही, अन्य प्रमुख भिन्नताएँ भी हैं। शारीरिक संरचना भी बहुत भिन्न हैं। प्रकृति (स्वभाव) में अत्यधिक अन्तर है तथा यौन-आकांक्षाएं व प्रवृत्तियाँ तथा यौनावेगों का स्वरूप भी दोनों में सर्वतः भिन्न है।

विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार 6 हजार वर्ष पूर्व सुमेरिया में गुफावासी आदिम मानव नीयोलिथिक रहता था। तब बुमेरियन सभ्यता इतनी विकसित क्यों थी? विकसित सुमेरियन सभ्यता के अनेकों प्रमाण मिले हैं। वहाँ नगर-जीवन, कृषि-विकास तथा कला क्षमताओं के प्रमाण मिले हैं।

हिन्दू सभ्यता और मयसभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यताएँ मानी जाती हैं। दोनों सभ्यताओं में ऐसी गाथाएँ प्रचलित व लिपिबद्ध हैं जिनमें अन्तरिक्ष से आने वाले विमानों और देवताओं के विवरण हैं। यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है।

भू वेत्ताओं की कई खोजें भी विकासवाद की जड़वादी व्याख्या को असंगत ठहरा रही हैं। हाथी का ही आकार-प्रकार पहले क्रमशः बढ़ा और अब क्रमशः घट रहा है। पूर्वस्थिति में वापसी विकासवादी विश्लेषण के विरुद्ध है।

विश्व के विभिन्न हिस्सों में प्राप्त हाथियों के फासिल्स के आधार पर भू-वेत्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि करोड़ों वर्ष पूर्व हाथी की उत्पत्ति हुई तथा उस समय वह कुत्ते के से आकार का होता था।

करोड़ों वर्ष पूर्व हाथी भारत में शिवालिक के जंगलों में विशाल संख्या में विचरते थे। शिवालिक घाटियों के भू-गर्भीय पाषाणों का अध्ययन विश्लेषण यह बतलाता है कि चार करोड़ वर्ष पहले ओलिंगोसीन युग से ही वहाँ हाथी थे। हाथी का आदिम विकास ‘मोरोथिरियम’ जीव रूप से हुआ। पहला हाथी ‘फियोमिय’ वर्ग का है, जो ‘मोराथिरियम’ का विकसित रूप कहा जाता है। ‘मोरोथिरियम’ गैंडे के से आकार के स्तनधारी जीव थे। ‘फियोमिय’ का आकार भी वैसा ही था। इसके बाद अगली पीढ़ी ‘टैटरा बेलोडान’ हाथियों की थी। फिर आये ‘मास्टाडान’ और तब ‘स्टेगोडान’। ‘स्टेगोडान’ का आकार-प्रकार ‘फियोमिय’ से बिलकुल भिन्न था। ‘फियोमिय’ तीन फुट ऊँचे थे। ‘टैटरा बेलोडान’ 5 फुट के, ‘मास्टाडान, 8-9 फुट ऊँचे और ‘स्टेगोडान’ की ऊँचाई 15 फुट थी। इस विशालकाय हाथी के नुकीले बाह्य दाँत 12 फीट लम्बे और 27 इंच व्यास के होते थे। अफ्रीका में उस समय जो हाथी थे, वे इनसे कुछ कम ऊँचे होते थे और उनके दाँत 23 इंच व्यास वाले तथा 10 फुट लम्बे होते थे। ‘स्टेगोडान’ के बाद शिवालिक के जंगलों में ‘अरकी डिस्कोडन प्लैनिफ्रानस’ नामक हाथी सत्ताधारी बना। इसकी खोपड़ी कुछ कम विकसित थी। हाथी का आकार भी धीर-धीरे घटने लगा। दाँतों की लम्बाई भी। अब 10 से 12 फुट ऊँचे हाथी होते हैं। इन दिनों भारतीय हाथियों की ऊँचाई लगभग 10-11 फुट और बाहरी दाँत की लम्बाई 8-9 फुट होती है। भू-तत्वशास्त्रियों के अनुसार हाथी की ऊँचाई फिर घटने लगी है। सम्भव है कि अगले 1-1॥ करोड़ वर्ष में वे फिर 3 फुट ऊँचे अर्थात् कुत्ते जैसे होने लगें।

यहीं हमें एक अन्य पहलू से भी विचार करना होगा। विश्व में तीन हजार-लाख वर्षों में जो जीवन-चक्र चल रहा है, वह आरम्भिक 2500 लाख वर्षों में अति मन्द गति से चला-उसमें केवल आदि जीवन के लक्षण हैं, जैसे कुकुरमुत्ता, जीवाणु आदि। 5 करोड़ वर्ष पूर्व से जीवन की विकास गति अधिक तीव्र हुई तथा 1 करोड़ वर्ष पूर्व पशु व वनस्पति जगत में विभिन्न प्रकार के जीवन के प्रमाण मिले हैं। मनुष्य के पूर्वज, जो कुछ लाख वर्ष पूर्व ही दृष्टिगोचर हुए, वे भी 1 लाख वर्ष पूर्व तक गुफावासी और पाषाण के उपकरणों पर निर्भर थे। मनुष्य का मानसिक विकास तो विगत 10-12 हजार वर्षों में हुआ तथा बौद्धिक विकास का अधिकतम प्रकाशन पिछले दो हजार वर्षों में हुआ है।

वर्तमान विकासवाद की एकांगी मान्यताएँ अपनी ही विसंगतियों के कारण आप ही सन्देहों और आक्षेपों की केन्द्र बनती जा रही हैं। प्रस्तुत कर्त्ताओं के तर्क उन्हीं के प्रतिपादित तथ्यों को काट रहे हैं। एक ओर तो अमीबा को ह्वेल और विशाल आकार में परिणत होने की बात कही जाती है तो दूसरी ओर आदिम काल के महागजों को मकुने भैंसें जितनी ऊँचाई के हाथियों की स्थिति में लौट पड़ने और महा सरीसृपों को छोटी छिपकली मात्र रह जाने के प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं। आकृति और प्रकृति के इतने अन्तर पूर्वजों और उनके वर्तमान वंशजों में होना गले नहीं उतरता जिसमें उनकी मूल सत्ता का कोई आधार ही शेष न रह जाय।

अगले दिनों विकासवाद को अपने प्रतिपादनों में कई नये तथ्यों का सुधार समावेश करना होगा। प्राणी निरन्तर बढ़ ही नहीं रहे वे घट भी रहे हैं। मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुरूप वे उठ भी सकते हैं और गिर भी। परिवर्तन उत्थान की दिशा में ही नहीं पतन की दिशा में भी हो सकता है। चलना आगे की ओर ही नहीं दाँई-बाँई और उलटी-तिरछी दिशा में भी सम्भव हो सकता है। यात्रा आकाश की ओर भी हो सकती है और पाताल की गहराई में उतरने को भी अपने ढंग की ‘प्रगति’ का नाम दिया जा सकता है। प्रकृति ने अथवा ईश्वरीय विधिव्यवस्था ने प्राणी को न तो प्रगति के लिए विवश किया है और न पतन के गर्त में गिरने से रोका है। प्राणी की स्वतन्त्र इच्छा शक्ति ही प्रधान है, वह किधर भी बढ़ या हट सकता है। यह सिद्धान्त ही अगले दिनों सर्वमान्य बन सकेगा।

ईश्वर ने हर प्राणी को अपनी स्वतन्त्र सत्ता सृष्टि के आरम्भ में ही दी है। अमीबा अभी भी अमीबा है। मनु की सन्तान मानव ने अपनी लम्बी यात्रा में कई उतार-चढ़ाव तो देखे होंगे। साधनों ने उसके चिन्तन कर्तृत्व एवं जीवनयापन के क्रम प्रकरण में भी परिवर्तन किया होगा इतने पर भी उसकी मूल सत्ता-जिसे ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कला-कृति कहा जाता है आरम्भ से ही अपनी मौलिक विशेषताओं को साथ लेकर जन्मी होगी और उन्हें पूर्णता का जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने तक अपने अन्तरंग में धारण ही किये रहेगी।

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