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Magazine - Year 1976 - Version 2

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वरदान और अभिशाप की पृष्ठभूमि

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First 13 15 Last
दिव्यात्माओं के वरदान से सामान्य मनुष्य भी निहाल होते देखे गये हैं। पुराणों में ऐसी असंख्य कथा-गाथाएँ भरी पड़ी हैं जिनमें देवताओं एवं ऋषियों के अनुग्रह से लोगों ने ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कीं, जिन्हें वे अपने सामान्य प्रयत्नों एवं स्वल्प साधनों से नहीं ही प्राप्त कर सकते थे। कभी-कभी गुरुजनों का आशीर्वाद भी फलता है और किसी दीन-दुःखी की सहायता करके गिरे को उठा कर उपकार किया होगा तो उसकी कृतज्ञता अभिवृद्धि भी उपकारकर्त्ता के लिए कल्याणकारी परिणाम उपस्थित कर सकती है। न तो इतिहास के पृष्ठों पर वरदानों के सत्परिणाम बताने वाली घटनाओं की कमी है और न वर्तमान में भी ऐसे प्रसंग कम हैं जिनसे वरदान के प्रत्यक्ष परिणाम सामने आते हैं।

विशिष्ट संवेदनाओं के साथ प्रकट हुई सद्भावनाएं ही आशीर्वाद बन कर प्रस्फुटित होती हैं। ऐसे आदान-प्रदान मात्र शिष्टाचार अथवा माँगने देने के उपक्रम से सम्भव नहीं होते। क्योंकि गहरी संवेदनाएँ ऐसे ही अकारण नहीं उपज पड़तीं। किसान, माली, विद्यार्थी, व्यापारी, कलाकार आदि को अभीष्ट सफलताएँ प्राप्त करने के लिए आवश्यक मूल्य चुकाना पड़ता है। धरती की करुणा सुप्रसिद्ध है, पर बिना उर्वरक प्रयत्न किये वह भी किसी को अपना हरीतिमा एवं खनिज सम्पदा से लाभान्वित नहीं करती। गाय को दुहे बिना दूध निकालना कठिन है। वरदान प्राप्त करने की प्रक्रिया में वाचालता एवं बाल-उपहारों के सहारे प्राप्त करने की बात नहीं सोची जानी चाहिए। पात्रता और प्रामाणिकता के सहारे ही महत्वपूर्ण व्यक्तियों पर छाप छोड़ी जा सकती है। उदार होते हुए भी वे परखी होती हैं और आशीर्वाद रूप में परिणित होने वाली अपनी तप सम्पदा का कहाँ, कितनी मात्रा में और किस निमित्त, अनुदान दिया जाना चाहिए, उसे विवेकपूर्वक देखते समझते हैं और वही करते हैं, जो औचित्य की दृष्टि से सही सिद्ध होता है।

अब तक की इस प्रकार की घटनाएँ एक ही सुनिश्चित तथ्य उपस्थित करती हैं कि तप के मूल्य पर ही वरदान मिले हैं। तप का अर्थ शरीर उत्पीड़न नहीं वरन् आदर्शों के लिए त्याग बलिदान प्रस्तुत कर सकने एवं कष्ट सह सकने की उदात्त निष्ठा का परिचय देना है। दूसरे शब्दों में इसी वर्चस्व को उस स्तर की प्रामाणिकता कहा जा सकता है जिससे द्रवित होकर उच्चस्तरीय आत्माएँ अपनी दिव्य सम्पदा का पय-पान कराती हैं। मात्र दर्शन, प्रणाम, पुष्प अक्षत एवं गिड़गिड़ाने की कीमत पर कोई छुटपुट भीख मिल सकती है, पर कोई कहने योग्य लाभ इस उथली विडम्बना द्वारा प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं होता। मात्र भिक्षुक की याचना ही तो सब कुछ नहीं है। दानी को अपनी जेब, याचक का स्तर और दान के सदुपयोग आदि तथ्यों का ध्यान रखना होता है। दुःखी, दरिद्र, लोभी, लोलुप भी यत्किंचित् वरदान जहाँ तहाँ से बटोर सकते हैं, पर वे होते उतने ही हैं जितने समुद्र तट पर बिखरे सीप, घोंघे बीनना। महत्वपूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्राप्तकर्त्ता को भी उसी स्तर की उदारता का परिचय देना पड़ता है जैसा कि दाता से उदार अनुग्रह करने की अपेक्षा की गई है। आदान के साथ प्रदान का ध्यान न रखने वाले सामान्य व्यवहार की दृष्टि से भी घाटे में रहते हैं और उच्चस्तरीय अनुदान पाने की औंधी-तिरछी तिकड़में भी व्यर्थ चली जाती हैं। स्वयं संकीर्ण स्वार्थपरता से बेहतर जकड़े हुए लोग जब किन्हीं दिव्यात्माओं से अपनी कष्ट संचित सम्पदा मुफ्त में ही-बिना औचित्य का ध्यान दिये ही उड़ेल देने की अपेक्षा करते हैं तो वे विश्व की सुनियोजित विधि व्यवस्था को ही झुठलाते हैं।

वरदान एक तथ्य है। आशीर्वाद का सत्परिणाम सुनिश्चित है, पर वह निकलना गहन अन्तस्तल से चाहिए। दिव्य शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए बलिदान और दिव्यात्माओं का अनुग्रह पाने के लिए तप करना पड़ता है। इन शब्दों का सही अर्थ न समझने वाले प्राणी वध जैसे क्रूर कर्म को बलिदान से जोड़ते और शरीर उत्पीड़न को तप मान बैठते हैं, जब कि यह दोनों ही प्रयोग आदर्शों के लिए उदारतापूर्वक कुछ महत्वपूर्ण त्याग करने और कष्ट सहने की गतिविधियाँ अपनाने पर ही क्रियान्वित होते हैं।

वरदान की तरह आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों के रोष अभिशाप बन कर भी सामने आते हैं। गुरुजनों का असन्तोष भी कष्टकारक होता है। अभिभावकों के साथ दुष्टता बरतने वाली सन्तानें अभिशप्तों की तरह दुःख पाती हैं। निर्दोष को सताने, छल और विश्वासघातपूर्वक किसी को तिलमिला देने वाले लोग भी उनकी ‘हाय’ के शिकार बनते हैं और अपना बोया आप काटते हैं। ऐसे लोगों को इस प्रकार के शोक-सन्ताप सहन करने ही पड़ते हैं।

अभिशापों के दुःखद परिणामों की घटनाएँ भी वरदान अनुदानों की तरह ही सुविस्तृत हैं। शाप-सन्तप्त लोगों को क्या-क्या सहना पड़ा इसकी अगणित घटनाएँ प्राचीन काल की भी मौजूद हैं और आज भी उनकी कमी नहीं है।

सगर पुत्रों का कपिल मुनि के शाप से भस्म हो जाना शृंगी ऋषि के शाप से परीक्षित को साँप द्वारा काटा जाना, मेघदूत वर्णन में यक्ष का वियोग दुःख सहना, गांधारी के शाप से यदुकुल का लड़ मर कर समाप्त होना, नहुष का सर्प बनना, त्रिशंकु का उलटा लटकना, दमयन्ती के शाप से व्याध की दुर्गति होना जैसी असंख्य पुराण कथाएँ सुनी जाती हैं।

शाप प्रकरण के वर्तमान घटनाक्रम भी कम नहीं हैं। विगतकाल के अनेकों प्रमाण इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अभिशाप न केवल व्यक्तियों के पीछे पड़ कर उन्हें भाँति-भाँति के कष्ट देता है वरन् पदार्थों तक पर छा जाता है और उन वस्तुओं के सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति भी आग छूने पर जलने की तरह कष्ट भुगतते हैं।

मिश्र के पिरामिड समूह में एक कब्र वहाँ के किसी तूतन खामन नामक राजकुमार की है। उसके बाहर एक शिलालेख पर लिखा है-‘‘इस कब्र से छेड़खानी करने वाले को बेमौत मरना पड़ेगा।” पुरातत्ववेत्ताओं ने कुछ समय से इसकी खोजबीन करने के सिलसिले में उखाड़ पछाड़ की और उनमें से अधिकाँश को सचमुच ही बेमौत मरना पड़ा।

यूरोप भर में ‘होप हीरा अपनी मनहूसियत के लिए बहुत समय चर्चा का विषय बना रहा है। यह हीरा बर्मा के एक बौद्ध मन्दिर की प्रतिमा में जड़ा था।’ इसे वहीं से वेपटिस्ट अर्वानेयर नामक अँग्रेज ने चुराया था। इसे ‘टामस होप’ नाम जौहरी ने खरीदा और वह कुछ ही दिन में दिवालिया हो गया। वहाँ से उसे वाशिंगटन की कोई धनी युवती-इवलिन मेक्वीन रेनाल्ड खरीद ले गई। कुछ महीने के भीतर ही उस पर ऐसा उद्वेग छाया कि नींद की गोलियाँ खाकर आत्म-हत्या कर ली। वहाँ से वह ‘एण्यनर’ नामक ठेकेदार के पास पहुँचा। परस्पर के झगड़ों में शत्रुओं ने उसका सिर ही काट लिया।

यहाँ से वह आगे बढ़ा राजकुमारी लम्बल उसे खरीद ले गई, उनकी भी हत्या हो गई अब ‘होप’ एक नये जौहरी फास की दुकान की दुकान में पहुँचा और चोरी चला गया। चोर की भी खैर नहीं रही उसने भी एक सप्ताह के भीतर ही आत्म-हत्या कर ली। पीछे अभिनेत्री फालीजवर्गन उसे खरीद ले गई। वह उसे पहन कर पहली बार ही रंग मंच पर उतरी थी कि किसी दर्शक ने गोली मारकर उसे ढेर कर दिया। स्टॉक मार्केट के करोड़पति व्यापारी ने उसे खरीदा तो उसका भी दिवाला निकल गया। वहाँ से ‘होप’ अरब के सुल्तान अब्दुलहमीद के यहाँ पहुँचा और उन्हें भी गद्दी से उतरना पड़ा। एक धनी महिला वाल्य मैकलीन ने उसे जिस दिन खरीदा ठीक उसी दिन उनका लड़का किसी मोटर की चपेट में कुचल कर मर गया।

कुछ दिन तो यह घटनाएँ व्यक्तिगत जानकारी तक सीमित बनी रहीं, पर पीछे जब सारे सूत्र मिलाये गये तो पता चला कि वह हीरा कितना दुर्भाग्यग्रस्त था।

कराची (पाकिस्तान) के एक भूमिप्लाट के दुर्भाग्यग्रस्त होने का विवरण कितने ही पत्रों में छपा था। कहते हैं कि उस जमीन में किसी पीर की कब्र है। वह आत्मा नहीं चाहती कि उस भूमि का कोई उपयोग करे। इस जमीन पर जो भी अधिकार करता है वही भारी विपत्ति में फँसता है। इस जमीन को खरीदकर एक पारसी ने बँगला बनाया। वह स्वयं-उसके दोनों पुत्र दुर्घटनाग्रस्त होकर कुछ ही दिन में मर गये। फिर उसे एक अंग्रेज ने खरीदा वह पागल हुआ और उसकी स्त्री ने आत्म-हत्या कर ली। इसके बाद चार अँग्रेज सेनाधिकारी उसमें रहे और वे भी दुर्घटनाग्रस्त होकर मर गये। इसके बाद वहाँ अमेरिकी दूतावास बना तो राजदूतों को आये दिन विपत्तियों का सामना करना पड़ा। इसके बाद उनने भी अन्यत्र दूतावास बना लिया।

बहुत समय तक यह कार सेराजेवो के गवर्नर के महल में रखी रही। पीछे उसे सेनापति पोत्थोरेक द्वारा अपने प्रयोग में लाया जाने लगा। सेनापति पर दुर्भाग्य बरसा। वे एक छोटी लड़ाई हार जाने के कारण पदच्युत कर दिये गये। अन्त में दुर्दिन गुजारते हुए वियना में एक भिखारी के यहाँ आश्रय पाकर मौत के मुँह में चले गये।

एक दिन एक कप्तान उसकी जाँच-पड़ताल करने सड़क पर ले गया तो वह एक पुलिया से जा टकराई और उसी दुर्घटना में उस बेचारे का भी प्राणान्त हो गया।

पीछे वह यूगोस्लाविया के गवर्नर के स्वामित्व में पहुँची। एक महीने के भीतर ही उसने पाँच दुर्घटनाएँ कीं और अन्तिम में तो गवर्नर का दाहिना हाथ ही कट गया। गवर्नर ने उस मनहूस को नष्ट कर देने का हुक्म दिया था, पर एक दुस्साहसी डॉक्टर ने अनुरोधपूर्वक उस लाखों रुपये की सम्पत्ति को कौड़ी मोल मात्र एक हजार रुपये में खरीद लिया। खरीदार का नाम था सरकिस। वह मनहूसी को अन्ध-विश्वास कहता था और वैसा समझने वालों का उपहास उड़ाता था। कोई ड्राइवर उसका चालक बनने को तैयार न हुआ तो वह स्वयं ही चलाने लगा। एक दिन वह कार न जाने कैसे बेलन की तरह लुढ़की और एक खड्ड में गिर पड़ी। वह बनी बहुत मजबूत थी इसलिए इतनी दुर्घटनाओं के बाद भी वह जीवित बनी रही और मामूली-सी मरहम पट्टी कराने के बाद स्वस्थ होती रही। यहाँ से बिकी उसे एक व्यापारी ने खरीदा और आत्म-हत्या करके अपनी जान गँवा बैठा। पीछे एक और डॉक्टर ने खरीदा जिसका धन्धा ही चौपट हो गया। उन्हीं दिनों स्विट्जरलैण्ड में कार दौड़ प्रतियोगिता हो रही थी। एक ड्राइवर ने इसके लिए उस गाड़ी को अधिक उपयुक्त समझा और खरीद लिया। दौड़ में अन्य गाड़ियाँ तो आगे-पीछे रहने का रिकार्ड बनाती रहीं, पर यह शाही कार एक दीवार से जा टकराई और ड्राइवर के प्राण लेकर एकान्त में बैठी रही।

एक मनचले किसान ने उसे सस्तेपन के लोभ में खरीद लिया। एक दिन वह बीच रास्ते में ही अड़ गई। सारे प्रयत्न करने पर भी उसे आगे न धकेला जा सका तो अन्ततः मजबूत बैलों से मोटे रस्सों के सहारे घसीट ले चलने का प्रबन्ध किया गया। इस प्रकार कुछ ही दूर खिसकी होगी कि अचानक स्टार्ट हो गई और बैलों को कुचलती हुई मालिक को भी डकार गई।

कार के साथ जुड़ा दुर्भाग्य लोगों को विदित तो था फिर भी दुस्साहसियों की कमी नहीं। ‘ड्राइवर हर्शफील्ड’ नामक एक मिस्त्री ने उसे खरीदा और अपने हाथों नये सिरे से मरम्मत करके उसे काम में लाने लगा। एक दिन हर्शफील्ड अपने चार मित्रों समेत किसी भोज में उसी पर सवार होकर जा रहा था कि सामने से आती एक मोटर से भयंकर टक्कर हो गई। दूसरी गाड़ी को तो कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ, पर वे पाँचों व्यक्ति बुरी तरह घायल हो गये। उनमें से एक ही किसी प्रकार जीवित बच सका।

इस दुर्भाग्यग्रस्त कार का क्या हो? वह बहुत कीमती भी थी और आकर्षक भी। अन्ततः उसे सरकार द्वारा आस्ट्रिया के अजायब घर में रखवा दिया गया। उन दिनों प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था। शत्रु के वायुयानों ने उस अजायब घर पर बम गिराये और इमारत के साथ उस कार की भी धज्जियाँ उड़ा दीं। इस प्रकार उस कार के साथ-साथ महायुद्ध का भी अन्त हो गया।

स्पेन का एक प्रतापी बादशाह हुआ है-‘एल्फँसो’। वह जन्मतः शाप सन्तप्त पैदा और जब भी उसने कभी कोई प्रयास आरम्भ किया तभी बुरी तरह असफल हुआ। उसके बारे में यह घोषणा सूक्ष्म दर्शियों ने आरम्भ से ही कर दी थी कि उसे चुपचाप किसी प्रकार दिन काटने चाहिएं। अन्यथा हर हलचल में उसे विपत्ति का सामना करना पड़ेगा।

इक्कीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उसे छह बार प्राण घातक हमलों का सामना करना पड़ा। जब वे कहीं गये तब वहाँ भी विपत्ति आई। एक बार वे इटली गये तो ठीक उन्हीं दिनों उस देश की पाँच नावें, एक पनडुब्बी तथा दर्जनों नाविक पानी में समा गये। यही उनकी पहली और अन्तिम यात्रा थी। जब भी उन्होंने कोई नया काम किया तभी उसमें भारी हानि उठानी पड़ी। वे डरे, सहमे महल में अपने दिन गुजारते थे। उनके शासन काल में प्रजा पर भी संकटों के बादल मँडराते रहे।

आधुनिक युग में भी विभिन्न सच्ची शाप कथाएँ सामने आई हैं और परामनोवैज्ञानिक उन पर खोज कर रहे हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध है हिटलर के घनिष्ठतम सहयोगी रुडोल्फ हैस को मैक्सिको के एक गुप्त विधाविद् विशारद डॉक्टर द्वारा दिया गया स्मृति-भ्रंश का शाप।

हरहैस, हिटलर का रणनीति-निर्धारक परामर्शदाता था। सर्वाधिक तीक्ष्ण बुद्धि। विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों के राजनेता जर्मनी के इस कूटनीतिज्ञ के चातुर्य से भयभीत हो उठे और उसे किसी भी तरह अक्षम बनाने का विचार करने लगे। पर यह सम्भव कहाँ था।

अन्त में ये राजनीतिज्ञ मेक्सिको के उक्त गुप्त विधा विशारद डॉक्टर को यह समझाने में सफल हुए कि विश्वशान्ति के लिए हैस को अक्षम बनाना आवश्यक है। डॉक्टर ने स्मृति-भ्रंश का शाप दिया और महान कूटवेत्ता, अप्रतिम मेधावी रुडोल्फ हैस स्मृति खो बैठा। पैराशूट से वह अपने शत्रु राष्ट्र इंग्लैण्ड में जा उतरा। उसका आतंक इतना था कि इंग्लैण्डवासी यह मानते रहे कि वह उन लोगों के गुप्त सैनिक भेद लेने के लिए स्मृति-भ्रंश का बहाना बना रहा होगा। पर धीरे-धीरे वास्तविकता स्पष्ट हो गई। हैस एक ही वाक्य अक्सर कहता-‘‘पता नहीं क्या हो गया मेरी स्मरण-शक्ति को? जैसे किसी ने उस पर एक आवरण डाल दिया हो।” न्यूरेर्म्वग जेल, जहाँ नाजी कैदियों को रखा गया था, वहाँ के मानस-रोग विशेषज्ञ डॉक्टर जी0एम0 गिलवर्ट ने ‘न्यूरेमवर्ग डायरी’ नामक अपनी पुस्तक में रुडोल्फ हैस के इस आकस्मिक स्मृति-भ्रंश पर प्रकाश डाला है। डॉ0 गिल्वर्ड स्वयं भी इसका कोई कारण नहीं जान पाये। काफी समय बाद उन्हें यह शाप वाली बात मालूम हुई

यहाँ स्मरणीय तथ्य यह है कि शाप अकारण ही किसी को नहीं दिया जा सकता। जब तक कोई तिलमिला देने वाली करारी चोट किसी को न लगे तब तक हास-परिहास में शाप नहीं दिया जा सकता। उसके पीछे कोई ठोस कारण होना चाहिए। दुष्टता एवं अनीति के बदले ही शाप दिये जा सकते हैं यदि भूल या भ्रम वश उतावली में शाप दिया गया हो तो वह उलट कर देने वाले का ही विनाश करता है। निर्दोष अम्बरीष को अकारण क्रोधजन्य होकर दुर्वासा ने शाप दिया है। वह उलट कर दुर्वासा पर ही संकट बनकर लौट पड़ा अन्यत्र भी ऐसा ही होता है। निर्दोष को शाप दिया जाना सम्भव नहीं। आत्मबल सम्पन्न भी वैसा नहीं कर सकते। वैसा प्रयास करने वाले तान्त्रिक, अघोरी, काल्पनिक स्तर के ओछे लोग अपनी संचित शक्ति को गँवा ही बैठते हैं अनीति अपनाने का दण्ड भुगतने के लिए प्रकृति व्यवस्था द्वारा बाध्य किये जाते हैं।

यदि हम अनीति से बचे रहें तो किसी के भी शाप से डरने की जरूरत नहीं है। किन्तु यदि स्वयं अन्याय करते हैं या अनीति में सहयोग देते हैं तो उसका दण्ड प्रकृति व्यवस्था के अनुसार तो निश्चित ही है। उसी में एक कड़ी दिव्यात्मा के रोष से उत्पन्न हुए अभिशाप की भी जुड़ सकती है।

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