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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अधिक खाना स्वास्थ्य को गँवाना ही है।

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एक अँग्रेजी कहावत है-‘‘मनुष्य मरता नहीं वह अपने आपको मार डालता है।” इस उक्ति में बहुत कुछ सार इसलिए है कि लोग आवश्यकता से कहीं अधिक खाने की आदत डाल कर अपने पाचन तन्त्र को बिगाड़ते हैं और अपच के शिकार होकर उपयोगी भोजन को पेट में विष उत्पन्न करने वाली विकृति के रूप में बदल लेते हैं।

पेट की रचना ऐसी है कि उसे ठीक तरह काम करने देने के लिए हलका फुलका रखा जाय। इतना वजन डाला जाय जिसे वह आसानी से वहन कर सके। पशु पक्षी पचता-पचता खाते चलते हैं। पेट पर एक दम अनावश्यक भार वे नहीं डालते। यही आदत सृष्टि के अन्य प्राणियों की है। केवल कुछ ही भोंड़े-जन्तु इसके अपवाद हैं-शेर, सुअर, मगर आदि एक दम बहुत सा भोजन पेट में भरते हैं इसका फल यह होता है कि वे स्फूर्ति गँवा कर बहुत समय तक निःचेष्ट, आलस्यग्रस्त, उनींदे पड़े रहते हैं। अन्य सभी प्राणी पेट को हलका रखते हैं और अपनी स्फूर्ति बनाये रहते हैं। पेट को भी पाचन में सुविधा इसी क्रम से रह सकती है।

थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पचता-पचता भोजन करने का अभ्यास डाला जाय तो वह अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में और अधिक आसानी से पच जायगा। यदि उसमें असुविधा रहती हो तो वर्तमान स्थिति में दो बार भोजन करने से काम चल सकता है, पर उसकी मात्रा पेट की क्षमता के अनुरूप ही होनी चाहिए। आजकल शत-प्रतिशत मनुष्य पाचन क्षमता से कहीं अधिक खाते हैं और उससे स्वास्थ्य एवं पैसे की बर्बादी की दुहरी हानि उठाते हैं। यह भ्रम नितान्त असत्य है कि जितना अधिक खाया जायगा, उतना बल बढ़ेगा। सच यह है कि जो पचेगा वही हितकर सिद्ध होगा।

ईरान के बादशाह बहमन ने एक दिन राज्य चिकित्सक लेत्सुस से पूछा-स्वस्थ मनुष्य को दिन रात में कितना खाना चाहिए। लेत्सुन ने उत्तर दिया 39 तोला इस पर बादशाह ने पूछा-भला इतने कम भोजन से क्या काम चलेगा? चिकित्सक ने उत्तर दिया। स्वस्थ रहने के लिए तो इतना ही पर्याप्त है। वजन ढोने के लिए कितना ही खाया जा सकता है।

आहार पर संयम करने वाले अपने दीर्घायुष्य के बारे में निश्चिन्त हो सकते हैं। थाम्स एडीसन शर्त लगाकर कहते थे कि मैं सौ वर्ष अवश्य जीऊँगा। गाँधी जी भी अपने 125 वर्ष जीने की घोषणा की थी। यदि गोली से न मारे गये होते तो सम्भवतः उतनी लम्बी आयु वे अपने आहार संयम के बल पर पा भी सकते थे।

विश्व विख्यात डॉक्टर मैकफेडन ने कहा है-भोजन अभाव से संसार में जितने लोग अकाल पीड़ित होकर मरते हैं उससे कहीं अधिक अनावश्यक भोजन करने के कारण रोगग्रस्त होकर मरते हैं।

यूनान की एक कहावत है-तलवार उतने लोगों को नहीं मारती जितने अधिक खाकर मरते हैं। सुलेमान कहते हैं-जो अधिक खायेगा वह अपना दाना पानी जल्द खतम करके मौत के मुँह में समय से पहले ही चला जायगा

आस्ट्रेलिया के ख्यातिनामा डॉक्टर हर्न कहते थे। लोग जितना खाते हैं उसका एक तिहाई भी पचा नहीं पाते स्वास्थ्य विज्ञानी हेरी वेजामिन ने लिखा है-बेवकूफियों में परले सिरे की बेवकूफी है-अधिक भोजन करना। डॉक्टर लोएन्ड ने आयु को घटाने वाले जो दस कारण बताये उनमें प्रथम अधिक भोजन करने की बुरी आदत को गिना है।

संसार के महापुरुषों में से प्रायः प्रत्येक की यह विशेषता रही है कि उन्होंने पेट की माँग से कम मात्रा में भोजन लेने का नियम रखा और अपने स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रह सके।

संसार के दीर्घजीवियों में सात को अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जाता है। (1) अमेरिका केमेलेटोजा 187 वर्ष के होकर मरे (2) हंगरी के पीटर्स झोर्टन जो 185 वर्ष जिये (3) यार्क शायर के हेनरी जेनकिस जिन्होंने 161 वर्ष की आयु पाई (4) इटली के जोसेफ रीगंटन जिन्होंने 160 वर्ष की आयु पाई, जब वे मरे तब उनका बड़ा लड़का 108 वर्ष का और छोटा 8 वर्ष का था। (5) इंग्लैण्ड के थामस पार जिनकी मृत्यु 152 वर्ष की आयु में हुई (6) लेडी कैथराइन काउण्टेस डेसमाँड जो 146 वर्ष तक जीवित रहे और जिनके मुँह में तीन बार दाँत निकले (7) जोनाथन हारपोट जो 139 वर्ष के होकर मरे। उनके 7 पुत्र 26 पौत्र और 140 प्रपौत्र उनके सामने ही पैदा हुए थे।

इन सबने अपने दीर्घजीवन के अन्यान्य कारणों के अतिरिक्त एक कारण एक स्वर से बताया कि उन्होंने सदा भूख से कम भोजन किया और पेट को खाली रखने का स्वभाव बनाया।

बंगाल के प्रख्यात डॉक्टर और सर्वविदित कांग्रेसी नेता डॉ0 विधानचन्द्र राय कहते थे कि 80 प्रतिशत मनुष्य आवश्यकता से अधिक मात्रा में भोजन करने के कारण बीमार पड़ते हैं। पं0 नेहरू ने एक बार खाद्य समस्या पर प्रकाश डालते हुए संसद में कहा था-अपने देश में एक ओर तो अन्न की कमी है और दूसरी और आवश्यकता से अधिक खाने की बुरी आदत लोगों को पड़ी हुई है।

सर विलियम टेम्पिल ने अपने ‘लोंग लाइफ’ ग्रन्थ में मिताहार पर बहुत जोर दिया है और कहा है यदि अधिक दिन जीना हो तो अपनी खुराक को घटाकर उतनी रखो जितने से पेट को बराबर हलकापन अनुभव होता रहे।

व्रत उपवासों की परम्परा का प्रचलन इसी दृष्टि से हुआ है कि लोग कम खाने का अभ्यास करें और दीर्घजीवी बनें। समय-समय पर पेट को अवकाश देने की दृष्टि से तथा दैनिक जीवन में उपयुक्त मात्रा का भोजन औषधि रूप में सेवन करने की ही भारतीय परम्परा रही है।

दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाये। उनमें से एक मछली भी थी। जिसने जिह्वा की लोलुपता से अधीर होकर कांटे समेत आटे को निगला था और उसी मूर्खता की वेदी पर अपना प्राण गंवाया था। दत्तात्रेय ने निष्कर्ष निकाला कि जिसकी स्वादेन्द्रिय काबू में न होगी वह इसी तरह बेमौत मरेगा। यह बहुमूल्य शिक्षा प्रकारान्तर से देने के कारण उन्होंने मछली को भी एक गुरु माना था।

अश्विनीकुमारों ने वागभट्ट से पूछा- निरोगी कौन? उसके उत्तर में उन्होंने उत्तर दिया- ‘हित भुक् मितभुक्’ अर्थात् जो उपयोगी खाद्य-पदार्थ ही ग्रहण करता है और भूख से कम खाता है। इसी का दूसरा पक्ष यह है कि जो उपयोगिता को भुलाकर चटोरेपन पर आश्रित रहेगा और पेट पर अनावश्यक वजन लादेगा वह बीमार पड़ेगा।

आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ वागभट्ट में भोजन की मात्रा कम रखने का निर्देश दिया गया है। अन्नेन कुक्षेद्वविंशी पाने नैक प्रपूरयेत्।आश्रयं पवनादीनां चतुर्थ मवशेष येत्॥

अर्थात्- पेट का आधा भाग आहार से भरें चौथाई को पानी के लिए और चौथाई को हवा के लिए खाली रहने दें।चरक में ‘मात्रा शीस्यात्’ निर्देश में स्वल्प मात्रा में भोजन करने के लिए कहा है।

स्वामी रामतीर्थ ने पापों की चर्चा करते हुए कहा है- ‘खूब ठूंस-ठूंस कर खाना ही सबसे बड़ा पाप है।’

भगवान मनु का निर्देश इस सम्बन्ध में स्पष्ट है।मनुस्मृति का वचन है-

अनारोग्य मनायुष्य मस्वर्गचाति भोजनम्।

आयुष्यं लोक विद्विष्टम् तस्मात्तत् परिवर्जयेत्।

अति भोजन करना स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला, आयु को घटाने वाला, नरक में ले जाने वाला, पाप रूप और लोक निन्दित है। इसलिए इस कुटे व को अवश्य ही छोड़ देना चाहिए।

इस तथ्य को ध्यान में रखकर चला जाय तो हम वर्तमान भोजन मात्रा में कम से कम एक तिहाई कमी अवश्य ही करने का बाध्य होंगे। इसके स्वास्थ्य और धन की बर्बादी से सहज ही बचा जा सकेगा।

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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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Type: SCAN
Language: HINDI
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