
काशी की एक सुनसान गली (kahani)
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उस दिन मैं काशी की एक सुनसान गली में होकर गुजर रहा था। वहाँ बन्दरों का अड्डा था। मैं सहज स्वभाव आगे बढ़ रहा था कि वे चारों ओर से इकट्ठे होकर मेरे ऊपर हमला करने लगे। इस तरह अकेला घिर जाने पर मैं घबराया और भागने का उपक्रम करने लगा।
उलट कर थोड़ा ही भागा हूँगा कि बन्दरों की हिम्मत दूनी हो गई और उन्होंने हमले आरम्भ कर दिये। पैर नोंच डाले और कपड़े फाड़ डाले। इतने में एक जानकार व्यक्ति चिल्लाया-‘‘भागो मत-सामना करो।” मैंने हिम्मत बाँधी और उलट कर घूँसा तानते हुए बन्दरों की ओर लपका।
देखते-देखते-पासा पलट गया। आक्रमणकारी बन्दर एक-एक करके खिसकने लगे और मैदान खाली हो गया। तब मैं छाती ताने हुए बन्दरों को घूँसे से डराता हुआ, अपने गन्तव्य स्थान को चला गया।
सुझाया किसी अज्ञात व्यक्ति ने-बन्दरों से आत्म-रक्षा के सन्दर्भ में था, पर वह तथ्य निर्देश मेरे रोम रोम में बस गया है-‘भागो मत-सामना करो।’
-स्वामी विवेकानन्द
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