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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अविज्ञात भूत और अकल्पित भविष्य जानना भी सम्भव है।

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First 27 29 Last
खगोल विद्या की गणित विधि अमुक सिद्धान्तों- अनुभवों और निष्कर्षों पर आधारित है। चन्द्र, सूर्य और पृथ्वी की चाल का उनकी कक्षाओं का,-विवरण हमें ज्ञात है अस्तु भविष्य में सूर्य या चन्द्र पर ग्रहण कब लगेगा-कितनी छाया पड़ेगी-इसकी पूर्व घोषणा बिना किसी कठिनाई के की जा सकती है। यह भविष्य कथन वैज्ञानिक है। इसे भाग्यवाद या विधि विधान की व्याख्या के अन्तर्गत तभी तक लाया जाता रहा होगा जब तक खगोल विद्या का क्रमबद्ध विकास नहीं था। अब ग्रह−नक्षत्रों के उदय अस्त-ग्रहण-उनके मार्गी वक्री होने की भावी सम्भावना को गणित व्यवस्था के अन्तर्गत ले लिया गया है इसमें अनिश्चित भाग्यवाद या विधि विधान जैसी कोई बात नहीं है।

भविष्य कथन का धन्धा करने वाले तो ऐसे ही तीर तुक्का मिलाते रहते हैं। सामान्य अनुमान ही उनका प्रधान अस्त्र होता है जिसे पोथी पत्रा की उलट पुलट के बहाने लोगों को बताते सुनाते रहते हैं। इनमें से बहुत सा सही और बहुत सा गलत निकलता रहा है जिनका सही निकला वे ज्योतिषी जी की प्रशंसा करते और भेंट पूजा चढ़ाते हैं, जिनका गलत निकला वे मन मसोस कर रह जाते हैं। यह तो ऐसे ही अटकल पच्चू से खेलविनोद हैं जिनमें धूर्त और मूर्ख अपने कारणों से रुचि लेते और भ्रम जंजाल की बेल को पोसने फैलाने की विडम्बना रचते रहते हैं।

चर्चा ऐसे लोगों की नहीं, उनकी की जा रही है जो अपनी अतीन्द्रिय क्षमता के कारण व्यक्तिगत अथवा समूहगत भविष्य की घोषणा करते हैं और वे प्रायः सही सिद्ध होती हैं। इन का आधार सूक्ष्म जगत में पक रही वह खिचड़ी होती है जो वर्तमान और भूतकाल की परिस्थितियों एवं हलचलों के दाल चावल को डाल कर तैयार की गई है। इसे देख सकना असामान्य होने के कारण आश्चर्यजनक तो है, पर वह असम्भव अथवा आधार रहित नहीं है।

तथ्य यह है कि समस्त विश्वब्रह्माण्ड चेतना का एक सुविस्तृत समुद्र है। स्थूल जगत में जो होता है, उसकी प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत में निश्चित रूप से होती है। उसे देख समझ सकना, हर किसी के लिए सम्भव नहीं होता, पर जिनकी चेतनात्मक स्थिति विशिष्ट है वे उस अदृश्य को दृश्य की तरह देख सकते हैं और सुविदित की तरह जान सकते हैं।

प्रयत्नपूर्वक चेतना का अतींद्रिय विकास किया जा सकता है और अपनी जानकारी का क्षेत्र इन्द्रिय शक्ति के आधार पर सीमित रहने का बन्धन तोड़ कर वह सब भी जाना जा सकता है जो इस ब्रह्माण्ड में किसी भी क्षेत्र में हो रहा है या हो चुका है। जब तक बूँद समुद्र से अलग है तब तक उसका विस्तार, मूल्य एवं बल स्वल्प है, किन्तु जब वह समुद्र में मिल जाती है तो फिर उसका स्वरूप सागर जैसा सुविस्तृत बन जाता है और ज्वार−भाटों की तरह ऊँचा उठने लगता है और नीचे गिरने की नई सामर्थ्य प्राप्त करने का अवसर मिल जाता है। बूँद रहने पर उसका अपना अलग स्वरूप और स्वाद था, पर अब उसमें आमूल-चूल परिवर्तन हो गया। समुद्र जल का खारीपन- भारीपन उसमें ओत-प्रोत हो गया। ब्रह्माण्डीय चेतना से-ब्रह्म सत्ता से -सम्बद्ध व्यक्ति सीमा बन्धन तोड़ कर असीम बनता है। उसकी जानकारी का क्षेत्र असीम हो जाता है। स्तर बढ़ते चलने पर स्थिति और भी आगे बढ़ती है। आत्मा में वे गुण उत्पन्न हो जाते हैं जो परमात्मा में हैं। परमात्मा सत्, चित, आनन्दमय है-सत्यं शिवं सुन्दरं है। ब्रह्म परायण का व्यक्तित्व इन्हीं विभूतियों का प्रतीक प्रतिनिधि बन जाता है। इतना ही नहीं ईश्वर में जो सामर्थ्यों एवं विशेषताएं हैं उनकी झाँकी भी ऐसे मनुष्यों में होने लगती है। वे महानताओं-महामानवों एवं देवताओं अवतारों जैसे उस प्रकार के काम करते हैं जो सामान्य लोगों को अपने लिए अद्भुत एवं असंभव प्रतीत होते हों। युग प्रवाह को मोड़ना और व्यापक असन्तुलन को सन्तुलन में बदलना ऐसे ही महामानवों के लिए सम्भव होता है, जो ब्रह्म सत्ता के साथ अपना विशेष सम्बन्ध बना कर असाधारण आत्म-शक्ति के अधिकारी बन गये हैं। सीमित व्यष्टि चेतना भव-बन्धनों में-पंचभूत कलेवर में-जकड़े हुए लोग तो अपना सामान्य निर्वाह तक ठीक प्रकार नहीं कर पाते और उतने भर प्रयोजन में रोते कलपते असफलता पर हाथ मलते पाये जाते हैं। जबकि आत्मशक्ति सम्पन्न न केवल अपना वरन् व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करते और समय की आवश्यकता को पूरी करते देखे जाते हैं।

आत्म-शक्ति का अभिवर्धन ब्रह्म सत्ता के साथ घनिष्ठता स्थापित करने से सम्भव होता है। तपश्चर्याएँ एवं योग साधनाएँ उसी प्रयोजन के लिए की जाती हैं। यह ऊँची स्थिति एवं आगे की बात हुई। ऊपर की पंक्तियों में ब्रह्म सम्बन्ध बनाने और योगी की दिव्य शक्ति प्राप्त करने का प्रसंग है। इससे पहले की हलकी स्थिति वह है जिसमें आत्म-शक्ति बढ़ाने के लक्षण तो नहीं मिलते पर मस्तिष्कीय चेतना से सीमाबन्धन टूटते और असीम के साथ सम्बन्ध बनते हैं। यह पंच भौतिक प्रकृति के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश की बात है। भौतिक जगत उतना ही नहीं है जितना कि आँख से देखा हाथ से छुआ या अन्य इन्द्रियों के आधार पर प्रत्यक्षतः जाना जाता है। अप्रत्यक्ष एवं अविज्ञात भी असीम हैं वैज्ञानिक शोधों द्वारा उसी को खोजा जा रहा है जो अप्रत्यक्ष होने पर भी प्रत्यक्ष की तुलना में अत्यधिक शक्तिशाली है। इसी सूक्ष्म प्रकृति के नेत्र में मस्तिष्कीय चेतना का प्रवेश होता है और प्रत्यक्ष जगत की जो छाया- प्रतिक्रिया-सूक्ष्म जगत में विद्यमान है उसका परिचय स्पष्ट रूप से मिलने लगता है।

अतीन्द्रिय चेतना की चर्चा अध्यात्म ग्रन्थों में आज्ञाचक्र एवं तृतीय नेत्र के रूप में होती रही है। शिव के-दुर्गा के मस्तक में भृकुटि के मध्य एक तीसरा नेत्र होने का उल्लेख है। इसे दिव्य चक्षु भी कहते हैं। दिव्य दृष्टि इसी में रहती है। शिव ने इसी का उन्मूलन करके काम विकार को जला कर भस्म किया था। अर्जुन को विराट् ब्रह्म का दर्शन इसी दिव्य चक्षु से हुआ था। संजय ने महाभारत का घटना क्रम इसी नेत्र से देखते हुए धृतराष्ट्र को सारा वृत्तांत सुनाया था। ‘अदृश्य दर्शन’ इसी केन्द्र का काम है। यह रूप शक्ति का- ‘दृष्टि’ क्षेत्र का प्रसंग है। शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श की अन्य ऐसी अनुभूतियाँ भी अतीन्द्रिय क्षमता से हो सकती हैं जो प्रत्यक्ष सम्पर्क से तो बहुत परे हैं, पर देश काल की सीमा लाँघ कर अपना अस्तित्व अन्यत्र कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप में बनाये हुए हैं। इसी प्रकार के अनुभव सर्व साधारण को नहीं होते, इसलिए वे अद्भुत, अलौकिक प्रतीत होते हैं किन्तु वस्तुतः वे होते सर्वथा लौकिक एवं सामान्य ही हैं। इस संसार में जो कुछ घटित होता है वह नितान्त क्रमबद्ध और प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप ही होता है। अन्तर इतना ही है कि हम प्रकृति के थोड़े से नियमों से ही परिचित हैं। जो अभी भी अविज्ञात बना हुआ है उसका क्षेत्र, विज्ञात की तुलना में असंख्य गुना अधिक है। इन्द्रिय शक्ति के आधार पर जितनी अनुभूतियाँ हमें होती हैं वे ही सामान्य अथवा लौकिक प्रतीत होती हैं। इसमें आगे की सभी बातें असामान्य एवं अलौकिक हैं। जो सब नहीं कर सकते कोई विशिष्ट ही कर पाते हैं उन्हें ‘अद्भुत’ कहा जाता है। उस स्थिति पर पहुँचे हुए व्यक्ति देखते हैं कि उनकी विशिष्ट उपलब्धियाँ वस्तुतः सामान्य ही हैं और प्रकृतिक्रम से बाहर की कोई बात उनमें नहीं है।

प्रकृति व्यवस्था की सामान्य जानकारी अत्यल्प है। उससे गहरे जाकर जो लोग अन्तर्निहित नियम-सूत्रों तथा विधि-व्यवस्थाओं की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं और प्रकृति की सूक्ष्म तथा गहरी परतों के विश्लेषण एवं अर्थ संकेतों को समझने की क्षमता अपने में विकसित कर लेते हैं, उन्हें यद्यपि प्रकृति-गर्भ में पक रही घटनाएँ प्रत्यक्षवत् ही दृष्टिगोचर होती हैं, किन्तु सामान्य लोकानुभव में तो इन घटनाओं को वर्षों बाद ही आना है और उस समय तो वे सर्वतः अज्ञात व अनुमानातीत ही होती हैं। अतः भविष्य की उन घटनाओं का कथन जनसामान्य में विस्मय का कारण बने, यह स्वाभाविक ही है।

वर्तमान में जो सामने है जिसे जानने के साधन उपलब्ध हैं उसे जाना जा सकता है, पर जो स्थान की दृष्टि से दूर हैं-जहाँ के समाचार साधन रहित स्थिति में हैं पहुँच नहीं सकते वहाँ की परिस्थितियों को प्रत्यक्ष घटना की तरह दृश्य रूप में देखने, श्रव्य रूप से सुनने की घटनाएँ निश्चय ही आश्चर्यजनक हैं। वर्तमान का ज्ञान भी तभी मिल सकता है जब वे इन्द्रिय अनुभूति के द्वारा प्रत्यक्ष हों अथवा पत्र, संदेश, टेलीफोन, तार रेडियो, टेलीविजन जैसे उपकरणों के सहारे उन्हें जाना जा सकता है। ऐसी स्थिति न होने पर भी यदि कोई घटनाक्रम प्रत्यक्ष की भाँति ही जाना जा सके तो उसे आश्चर्यजनक एवं अतीन्द्रिय क्षमता का चमत्कार ही कहा जाएगा।

वर्तमान में दूरवर्ती घटनाक्रमों को देख या सुन सकना भी विकसित इन्द्रिय शक्ति की परिधि में आ सकता है, पर भूतकाल की अविज्ञात घटनाओं का इस प्रकार प्रस्तुत करना कि उनकी प्रमाणिकता में कोई संदेह न रहे, सचमुच ही आश्चर्य की बात है। इससे भी अधिक आश्चर्य उन सम्भावनाओं की जानकारी का है जो अभी घटित ही नहीं हुईं और अनुमान के आधार पर भी उस प्रकार की कल्पना करने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता।

भूतकाल और वर्तमान के बीच समय की दूरी एक प्रकार की खाई है जिसे पाट सकना सामान्यतया अति कठिन प्रतीत होता है। इतिहास के पृष्ठों पर अंकित लेखों- खंडहरों-पुरातत्व शोधों तथा जन श्रुति प्रसंगों के आधार पर ही भूतकाल का आधा, अधूरा विवरण प्राप्त होता है, पर उसे ज्यों का त्यों जान सकना-प्रसंगों को उसी प्रकार देख या सुन सकना कठिन है। सामान्य मानवी चेतना इतनी लम्बी खाई छलाँग सके ऐसे साधन उसके पास नहीं हैं। अतीन्द्रिय विद्या के सहारे यह सम्भव हो सकता है। विकसित चेतना भूतकाल की घटनाओं को उसी प्रकार देख, सुन या जान सकती है, जिस प्रकार कि हम सब वर्तमान के प्रत्यक्ष घटनाक्रम की जानकारी सरलता पूर्वक प्राप्त कर लेते हैं।

भविष्य दर्शन और भी कठिन है। जो हो चुका उसके स्थूल अथवा सूक्ष्म प्रमाणों का मिल सकना समझ में आता है। पुरातत्व शोधें जिस प्रकार अवशेषों के सहारे प्राचीन घटनाक्रम का निष्कर्ष निकालती हैं उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में विद्यमान किन्हीं प्रमाणों को सूक्ष्म चेतना द्वारा जाना जा सकना-तार्किक दृष्टि से सम्भव हो सकता है। उस प्रकार के उपकरणों का विकास अभी नहीं हो सका, यह दूसरी बात है, पर उसे जानने की सम्भावना को सिद्धान्ततः स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मस्तिष्क के किसी कोने में पड़ी चिर विस्मृत घटनाएँ कई बार प्रसंगवश तथा स्वप्न में अनायास ही उभर आती हैं इसी प्रकार ब्रह्माण्डीय मस्तिष्क में पड़ी भूतकाल की घटनाएँ भी जानी जा सकती हैं, यह सम्भावना सहज ही समझ में आती है। किन्तु जो हुआ ही नहीं- जो अनिश्चित है-उसकी जानकारी कैसे मिले?

यदि भविष्य निश्चित है और उसे हम जान सकते हैं तो एक नया संकट यह उत्पन्न होता है कि ‘कर्म’ की कोई उपयोगिता या महत्ता नहीं रहती। विधि का विधान-भाग्य का निर्धारण-यदि पूर्व निश्चित ही है तो फिर उसी की प्रतीक्षा में बैठे रहना कोई बुद्धिमानी है-तब विविध विधि दौड़ धूप करने की आवश्यकता क्या रही? ऐसी दशा में मनुष्य मात्र भाग्य की कठपुतली बन जाता है और पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं रहता। यह विचित्र स्थिति है। इसे स्वीकार करने पर तो भाग्यवाद का ही समर्थन बनेगा और अकर्मण्यता ही पनपेगी। तब मनुष्य कुम्हार द्वारा चाक पर घुमाई जाने वाली मिट्टी की तरह अपने को असहाय अनुभव करेगा और इस प्रतीक्षा में बैठा रहेगा कि देखें भाग्य हमें किस ढाँचे में ढालता और किस परिस्थिति में ले जा कर पटकता है। यदि यही तथ्य है तो फिर मनुष्य को दयनीय स्थिति में रहता हुआ ही अनुभव किया जा सकेगा और पुरुषार्थ की निरर्थकता घोषित करने में किसी को कोई संकोच न होगा।

तत्वतः भविष्य दर्शन और भाग्यवाद एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। समान दिखते हुए भी उनकी स्थिति में जमीन आसमान जितना अन्तर है। भाग्यवाद-सुनिश्चित विधि विधान का प्रतिपादन करता है जब कि भविष्य दर्शन इस बात पर निर्भर है कि जो कुछ वर्तमान में घटित हो रहा है अथवा भूतकाल में घट चुका है उसकी संयुक्त प्रतिक्रिया निकट भविष्य में क्या होने वाली है।

इन दिनों गणितीय जटिलताओं को सरल बनाने के लिए अनेकों प्रकार के कम्प्यूटर बने हैं। वे ऋतु सम्भावनाओं जैसी सामान्य ही नहीं-युद्ध, शान्ति एवं राजनैतिक सामाजिक उतार-चढ़ावों सम्बन्धी भविष्यवाणियां भी करते हैं और उनमें से अधिकाँश सही भी निकलती हैं। अब ज्योतिषियों का स्थान यह ‘कम्प्यूटर’ गृहण कर रहे हैं और उनके भविष्य कथन को अधिक विश्वस्त एवं प्रामाणिक माना जा रहा है। इन यन्त्रों को अमुक स्थिति का अमुक उतार चढ़ावों में अमुक परिणाम निकलता है इस सिद्धान्त के आधार पर बनाया गया होता है। फार्मूले पूर्व निश्चित होते हैं उसी आधार पर वे मशीनें निष्कर्ष निकालती चली जाती हैं। इन भविष्य घोषणाओं को चमत्कारी समझा तो जा सकता है, पर वस्तुतः उनमें वैसा कुछ है नहीं। तथ्यों की सुविदित प्रतिक्रिया के पूर्व निर्धारण का फलितार्थ ही है जिसे ‘कम्प्यूटर’अपनी विशेष संरचना के कारण सर्व साधारण के लिए सुलभ करते रहते हैं।

मामूली किसान भी प्रचलित अटकलों के आधार पर वर्षा और फसल सम्बन्धी अनुमान लगाते हैं और उनमें बहुत कुछ सचाई भी होती है। कई पशु-पक्षियों और कीड़ों की हलचलों को देख कर ऋतु परिवर्तनों एवं भावी घटना-क्रमों का अनुमान लगाया जाता है। शकुन विद्या में यदि कुछ तथ्य है तो उसका आधार अन्य प्राणियों की अतीन्द्रिय क्षमता के आधार पर दृष्टिगोचर होने वाली हलचलों को ही आधार भूत माना जा सकता है।

बुद्धिमान लोग अपनी सामान्य सूझ-बूझ के आधार पर भावी सम्भावनाओं का ऐसा निष्कर्ष निकालते हैं जो प्रायः सही ही बैठता है। ‘सटोरिये’ मात्र जुआरी नहीं होते वे वर्तमान घटनाक्रमों पर पैनी नजर रखते हैं और अनुभवों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इन परिस्थितियों की प्रतिक्रिया किस परिणाम को उपस्थित कर सकती है। यह सूझ-बूझ जिस सटोरिये में जितनी पैनी होती है वह उसी के सहारे दाव लगाता है और नफा उठाता है। बड़ी-बड़ी योजनाओं का निर्धारण इसी आधार पर होता है। भविष्य के स्वप्न साकार करने में किसी चाल से, किन साधनों के सहारे, किस प्रकार पहुँचना होगा, इसी सूझ-बूझ के सहारे योजनाएँ बनतीं और उन्हें पूरा करने का विधान बनता और सही सिद्ध होता है।

जिस प्रकार वर्तमान को देख कर भूतकाल के घटनाक्रमों का बहुत कुछ अनुमान लगा लिया जाता है उसी प्रकार वर्तमान की गतिविधियों का भावी परिणाम क्या हो सकता है इसकी कल्पना कर लेना कुछ कठिन नहीं है। ऐसा भविष्य दर्शन प्रायः हर मनुष्य करता है। उसमें अतिवाद घुसा हुआ हो तो बात दूसरी है अन्यथा दूरदर्शितापूर्ण चिन्तन अपने साथ क्रिया-प्रक्रिया लेकर लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होता है और बहुत अंशों में सफल ही होकर रहता है। छोटे-बड़े परिणाम में हर स्थिति के व्यक्ति को भावी कल्पनाएँ करनी और योजनाएँ बनानी पड़ती हैं। किसान अनुमान लगाता है कि अगले वर्ष अमुक कारणों से अमुक फसल बोने से अधिक लाभ हो सकता है। अस्तु वह अपने अमुक खेत में अमुक बीज बोने की तैयारी बहुत विचार मन्थन के बाद आरम्भ करता है। इस प्रकार प्रायः हर स्तर के व्यक्ति भविष्य दर्शन का प्रयत्न करते हैं- कल्पना तथ्य और अनुभव का समन्वय ऐसे निष्कर्ष निकालता है जो सचाई और सम्भावना के बहुत कुछ समीप होते हैं।

यह सामान्य जीवन की-सामान्य सूझ-बूझ परक चर्चा हुई। अब असामान्य को देखा समझा जाय- सूक्ष्म जगत का पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि भूत और वर्तमान के घटनाक्रमों की प्रतिक्रिया अपने ढंग से पकती और पनपती रहती है। समयानुसार उसका प्रकटीकरण तो होता ही है, पर सूक्ष्म बुद्धि उसका आभास पहले से ही लगा लेती है। प्रसव के बाद यह पता हर किसी को चल जाता है कि लड़का पैदा हुआ या लड़की। पर जानकार लोग गर्भवती में उभरे लक्षणों को देख कर उसकी भविष्यवाणी पहले से ही कर देते हैं। अमुक मुकदमे का क्या फैसला हो सकता है इसका अन्दाज न्याय विशेषज्ञों को पहले से ही लग जाता है।

सूक्ष्म जगत में प्रस्तुत परिस्थितियों एवं हलचलों के आधार पर सम्भावना बननी आरम्भ हो जाती है। समयानुसार उसका प्रकटीकरण तो होना ही है पूर्वाभास के रूप में भी उसे जानना सम्भव हो सकता है। भविष्य वक्ताओं की दिव्य चेतना उस अदृश्य को देखती और अव्यक्त को व्यक्त करती है जो निकट भविष्य में घटित होने जा रहा है। सामान्य अनुमान तो सभी लगाते और अपनी-अपनी सम्भावना व्यक्त करते हुए शर्त लगाते हैं। आश्चर्य तब माना जाता है कि सामान्य बुद्धि के आधार पर सोची जा सकने वाली बात की अपेक्षा कोई अटपटी बात कही जाती है और वह सत्य सिद्ध होकर रहती है। यही ‘विधि विधान’ मानने को मन करता है, पर वस्तुतः वैसा होता कुछ नहीं। भविष्य कथन प्रस्तुतः परिस्थितियों की ऐसी प्रतिक्रिया भर है जो सामान्य सूझ-बूझ की परिधि से आगे चली जाती है और ऐसे परिणामों का परिचय देती है जो मोटी बुद्धि के लिए अटपटे और असम्भव लगते हैं। यद्यपि वे सम्भावनाएँ होती तथ्यों पर आधारित ही हैं।

वर्तमान की घटनाएँ अन्यत्र अपने अदृश्य रूप में सूक्ष्म रूप धारण करने अनन्त आकाश में बिखर जाती हैं। उन्हें विशिष्ट व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों द्वारा पकड़ा एवं समझा जा सकता है। किसी के मन की बात बता देना-किसी के लिखे कागज गुप्त रखने पर भी पढ़ लेना जेब अथवा बन्द डिब्बे बक्से में रखी वस्तुओं का यथा विवरण परिचय प्रस्तुत कर देना-कई विशिष्ट अल्प क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों के लिए सम्भव होता है। ऐसे चमत्कारों के प्रमाण समाचार अनेक बार देखने, सुनने को मिलते रहते हैं।

विश्व चेतना के गर्भ में वर्तमान की हलचलों का सूक्ष्म रूप विद्यमान रहता है। उसे अन्यत्र पकड़ा और फिर पूर्व रूप में स्थूल किया जा सकता है इसके प्रमाण रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से भली-भाँति जानने चाहिएं। रेडियो स्टेशन में ब्रॉडकास्ट की हुई वाणी-ध्वनि कम्पनों के रूप में अनन्त अन्तरिक्ष में उसी तरह बिखरती है जिस तरह तालाब में ढेला फेंक देने पर उसकी लहरें चारों ओर चलने लगती हैं। इन्हीं लहरों को घरों में लगे रेडियो, ट्राँजिस्टर पकड़ते हैं और उन्हें फिर प्रत्यक्ष आवाज में परिणत करके सुनने वालों के सामने प्रस्तुत करते हैं। टेलीविजन में भी यही होता है। आवाज बिजली के रूप में परिणत होती है और तार के सहारे गन्तव्य स्थान तक चली जाती है। उस बिजली को रिसीवर फिर आवाज में बदल देता है। टेलीविजन में प्रकाश की तरंगें आकाश में फैलती हैं और उन्हें जहाँ भी उपकरण लगे होते हैं वहाँ फिर दृश्य रूप में बदल लिया जाता है। प्रत्यक्ष का अप्रत्यक्ष में बदलना और उसका फिर अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष हो जाना टेलीविजन, टेलीफोन, टेप रिकॉर्डर, ग्रामोफोन आदि यन्त्रों से स्पष्ट है।

भूतकाल की घटनाएँ भी अनन्त आकाश में अपना अस्तित्व बनाये रहतीं और ढूँढ़ खोज करने पर उन्हें फिर उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है जैसी कि वे अपने समय में थीं। प्रयत्न करने पर कृष्ण के मुख से निकली हुई गीता जिसे अर्जुन ने सुना था अब पुनः खोजी और उसी रूप में सुनी जा सकती है। आत्मा की तरह पदार्थ भी अविनाशी है। उसका रूपांतरण तो होता रहता है, पर अस्तित्व समाप्त नहीं होता। सूक्ष्म जगत में भूत काल का घटना क्रम अदृश्य रूप में विद्यमान रहता है, वह झीना पड़ता जाता है और बात जितनी पुरानी होती है उतना ही उसका ढूँढ़ निकालना कठिन पड़ता है, फिर भी इतना निश्चित है कि उसका अस्तित्व अनन्त काल तक बना रहता है। आवश्यकतानुसार उसे कभी भी प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ निकाला जा सकता है।

भूतकाल की घटनाएँ ही नहीं-वस्तुओं की सत्ता ही नहीं-कई बार तो उन मृतात्माओं के अस्तित्व का भी परिचय मिलता है जिनके शरीर अंत्येष्टि कर्म द्वारा समाप्त किये जा चुके हैं। वे अपना अस्तित्व चेतना क्षेत्र में एक प्रत्यक्ष सत्ता की तरह बनाये रहते हैं। इतना ही नहीं वे उस प्रकार के आचरण भी करते हैं। मानो उनकी स्थिति अभी भी प्रत्यक्ष जगत में हस्तक्षेप करने योग्य बनी हुई हो। स्थूल शरीर न रहने के कारण प्रत्यक्ष इन्द्रियाँ तो शेष नहीं रहतीं फिर भी उनका सूक्ष्म शरीर अपने सूक्ष्म उपकरणों के साथ इस स्थिति में बना रहता है कि साँसारिक क्रिया कलापों में अपना योगदान दे सकें एवं अभीष्ट व्यक्तियों को प्रभावित कर सकें।

भविष्य में होने वाली घटनाओं के भी कई बार ऐसे आभास मिलते हैं जिनकी उस समय कोई सम्भावना नहीं थी, पर वह पूर्व सूचना पर सही सिद्ध हुईं। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं। फलित ज्योतिष तो भविष्य कथन को आधार बनाकर एक व्यवसाय ही बन गई है। भविष्यवक्ताओं में से अधिकाँश तो बाजारू लोग होते हैं और ऐसे ही तीर तुक्का मारकर लोगों को बहकाने और जेब काटने में लगे रहते हैं। फिर भी इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भविष्य का आभास मिलना एक सचाई है और वह बहुत बार अपनी वास्तविकता एवं प्रामाणिकता का परिचय देती है।

परिस्थितियों का प्रवाह बदल जाय तो भविष्य दर्शन भी निश्चित रूप से बदल जायगा। भविष्यवाणियाँ वहीं सही उतरती हैं जिनसे घोषणा तथा फलित होने के मध्य घटना प्रवाह अपनी चाल पर यथावत् चलता रहता है। मनुष्य की सत्ता प्रचण्ड है वह अपने पराक्रम से सामान्य चाल को उलट कर नई रीति-नीति अपना सकता है। साहसी व्यक्ति ऐसे मोड़ बहुधा लेते रहते हैं। ऐसी दशा में उनके सम्बन्ध में बताया गया भविष्य भी निश्चित रूप से उलटे या मोड़ लिया देखा जायगा। व्यक्ति की भाँति ही-समूहगत सामाजिक हलचलें भी अपने प्रवाह की दिशा धारा बदल सकती हैं। ऐसी दशा में समूहगत भविष्य कथन भी बदलते देखे जाएंगे।

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