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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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माताएँ शिशुओं को स्तन-पान कराने में संकोच न करें।

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इन दिनों सोचा जाता है कि बच्चे को दूध पिलाने से माता का स्वास्थ्य दुर्बल होता है। इसलिए शिशुओं को ऊपरी दूध पिलाना चाहिए ताकि माता की स्वास्थ्य रक्षा सम्भव हो सके। सुसम्पन्न और शिक्षित लोग प्रायः ऐसा ही करते हैं।

यह एकाँगी चिन्तन है। माता के स्वास्थ्य और सौन्दर्य की रक्षा के लिए समुचित ध्यान दिये जाने और सौन्दर्य की रक्षा के लिए समुचित ध्यान दिये जाने और उसकी सुरक्षा व्यवस्था बनाने की बात का औचित्य सहज ही समझ में आता है। इस सन्दर्भ में जो कुछ भी सम्भव हो सो किया ही जाना चाहिए, पर यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि जिस बालक को आमन्त्रित करके बुलाया गया है उसके परिपोषण एवं विकास के सम्बन्ध में कृपणता क्यों बरती जाय?

नवजात बालक का पाचन तन्त्र इतना कोमल और संवेदनशील होता है कि माता का दूध ही सरलतापूर्वक पच सके। जिस शरीर के भीतर रह कर उसने अपना अस्तित्व विकसित किया है। उसी के रासायनिक पदार्थ अनुकूल पड़ते हैं। पशुओं के दूध तथा अन्यान्य खाद्य पदार्थों को पचाने की क्षमता तो धीरे-धीरे ही विकसित होती है। जन्मकाल से लेकर कई महीने तक पेट की स्थिति इसी स्तर की बनी रहती है कि वह माता के दूध को ही ठीक तरह पचा सके और उससे उचित एवं अनुकूल पोषण प्राप्त कर सके।

नवजात असहाय बालक की सेवा सुश्रूषा, देख-भाल, स्नेह दुलार के लिए ही नहीं, उचित आहार के लिए भी माता की ओर ही आशा भरी दृष्टि से निहारना पड़ता है। यदि उस अंचल में भी उसे शरण न मिले तो किसका मुँह जोहे, किसका पल्ला पकड़े? यों उसकी क्षुधा शान्त करने के लिए तो डिब्बे का पशुओं का दूध भी काम दे सकता है, पर उसकी वह आवश्यकता जिसमें न केवल शरीर का वरन् प्राणों का भी रस टपकता है, अन्यत्र कहाँ से मिलेगा। पति और पत्नी भी कहने को तो एकत्व का दावा करते हैं, पर तात्विक दृष्टि से माता और बालक की एकात्मता ही सही सिद्ध होती है। पति पत्नी अपना रिश्ता तोड़ और नया सम्बन्ध जोड़ सकते हैं, पर माता और संतान के बीच इस जोड़-तोड़ की कोई गुंजाइश नहीं है। जन्म देने तक तो उदरस्थ बालक माता की सत्ता में घुला ही रहता है। प्रसव के उपरान्त भी बहुत समय तक यह परिपोषण चलता रहता है घटोत्तरी तो तब आरम्भ होती है जब बालक को संसार की अन्य वस्तुएँ आकर्षित करने लगती हैं।

गर्भस्थ शिशु को सींचने की प्रक्रिया प्रसव के उपरान्त भी बहुत समय तक माता को जारी रखनी पड़ती है। यह सम्पर्क सूत्र अन्य आधारों के साथ-साथ स्तन पान के साथ विशेष रूप से जुड़ा रहता है। पेट में माता का परिपोषण किसी कारणवश शिथिल हो जाय तो भ्रूण की सत्ता अविकसित स्थिति में ही पड़ी रहेगी और अपना अस्तित्व खो बैठेगी। यह तथ्य जन्म के उपरान्त भी जारी रहता और उसमें क्रमशः ही कमी आती है। नवजात शिशु को बहुत समय तक माता के दूध की आवश्यकता बनी रहती है। क्योंकि शारीरिक एवं मानसिक पोषण के अतीव उपयोगी तत्व उसी केन्द्र से मिल सकते हैं जिसने उसे जन्म दिया है। इतनी अधिक अनुकूलता अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सकती, जितनी कि बच्चे को माता से मिलती है।

माता रुग्ण अथवा अशक्त हो तो उस स्थिति में शिशु के आहार की ऊपरी व्यवस्था की जा सकती है। किन्तु जब दूध निकलता हो तो उसे इसलिए नहीं रोका जाना चाहिए कि इससे माता को दुर्बलता घेरेगी। यही बात थी तो गर्भ स्थापना से ही बचा जाना चाहिए था। भ्रूण का विकास माता के शरीर को क्षति पहुँचाये बिना सम्भव नहीं। प्रसव वेदना के साथ साथ होने वाले रक्त स्राव में कितनी क्षति पहुँचती है यदि इसका हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि स्तन पान कराने में होने वाली क्षति उससे कहीं कम है जो प्रसव से पूर्व हो चुकी। यह तो मुहर देने के उपरान्त एक पैसे पर झंझट करने जैसी बात हुई।

बालक के शारीरिक, मानसिक पोषण के साथ उसके समग्र व्यक्तित्व के अन्तःकरण के, विकास की भी आवश्यकताएँ रहती हैं इनकी पूर्ति माता के भावनात्मक एवं रासायनिक अनुदानों से ही हो पाती है। स्तनपान में अवरोध खड़ा होने पर बालक तो निश्चित रूप से घाटे में रहता है। शिशु आहार के नाम पर जिन वस्तुओं का गुणगान किया जाता है वस्तुतः उनकी उत्कृष्टता माता के दूध की तुलना में शताँश भी नहीं होती। यों बहकाने को तो द्रोणाचार्य ने अपने बेटे अश्वत्थामा की दूध माँग को खड़िया मिट्टी का सफेद पानी पिला कर भी काम चला लिया था। माता के दूध से वंचित बालक को जिस तिस वस्तु के सहारे इसी प्रकार अपना गुजारा करना पड़ता है। ऐसी स्थिति उत्पन्न करना किसी सहृदय माता के लिए किस प्रकार संतोषजनक हो सकता है। इसे मोटे तर्कों और भौतिक स्वार्थों को आगे रख कर नहीं किया जा सकता। ऐसे मार्मिक प्रसंगों में तथाकथित स्वास्थ्य एवं सौन्दर्य रक्षा की बात सोचते समय बालक के विकास और भविष्य को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

असभ्य लोगों में अपने ढंग के अन्धविश्वास उठते मरते रहते हैं। सभ्य कहलाने वाले लोग भी इस मामले में उनसे पीछे नहीं हैं। असभ्यों की मूढ़ मान्यताओं पर सभ्य लोगों द्वारा व्यंग उपहास करने की बात समझ में आती है पर आज की स्थिति में यदि तथाकथित समझदार और सभ्यताभिमानी लोगों पर पिछड़े लोग कभी मूर्खता का आरोपण करने लगें तो उसे भी अनुपयुक्त नहीं कहा जा सकता। सभ्य अन्ध विश्वासों में से एक यह भी है कि बच्चे को दूध पिलाने से माता कमजोर हो जाती है। वस्तुतः वैसा कुछ नहीं। प्रसव के उपरान्त जिस स्तर के आहार विहार की सतर्कता बरतनी चाहिए उसमें त्रुटि करने से स्वास्थ्य को आघात पहुँच सकता है और उस गड़बड़ी को स्तन पिलाने के साथ जोड़ा जा सकता है। यह आत्म प्रवंचना फिर भी तथ्यों से प्रतिकूल ही बनी रहेगी।

शरीर विज्ञान के जानकार भली प्रकार समझते हैं कि प्रकृति हर प्राणी के शरीर में सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप कई प्रकार के अतिरिक्त उत्पादन करती है। उनका सही प्रयोग होता रहे तो इससे स्वास्थ्य बिगड़ता नहीं वरन् उलटी सुरक्षा होती है। किशोरियों को मासिक धर्म प्रारम्भ होता है और हर महीने रक्त जाता है। साधारणतया नस काट कर उतना रक्त बहाया जाया करे तो उससे हानि होगी, पर मासिक धर्म नियमित होते रहने से उनका स्वास्थ्य बिगड़ता नहीं वरन् बनता है किसी सामान्य अंग का असामान्य रूप से बोझिल हो जाना चिन्ता का विषय है। ट्यूमर, रसौली, गाँठ, फोड़ा आदि के उभार आपत्तिजनक माने जाते हैं किन्तु लड़कियों की उठती उमर में वक्षस्थल का उभार स्वाभाविक माना जाता है। लड़कियों की आयु बढ़ जाने पर भी यदि मासिक धर्म आदि यौवन चिन्ह प्रकट न हों तो इसमें स्वास्थ्य संकट जैसी चिन्ता करनी पड़ती है। शिशु जन्म से पूर्व ही माता का दुग्ध संस्थान विकसित एवं सक्रिय हो जाता है। प्रकृति प्राणी की आवश्यकताओं का भली प्रकार ध्यान रखती है और उनकी पूर्ति के साधन जुटाती रहती है। इस स्वाभाविक क्रिया प्रक्रिया में किसी विपत्ति की आशंका नहीं करनी चाहिए। उत्पादन विसर्जन का चक्र हर क्षेत्र में घूमता है और क्षति पूर्ति की व्यवस्था अनायास ही होती रहती है।

शरीर विज्ञानी जानते हैं कि यौवन के आरम्भ होते ही ‘इस्टेरोजन’ और प्रोजेस्टोरान हारमोन सक्रिय हो जाते हैं और स्तन संस्थान को विकसित एवं दुग्ध उत्पादन के लिए सक्षम बनाते हैं। गर्भावस्था में इस संस्थान का चरम विकास होता है। प्रसव के उपरान्त प्रोजेस्टोरान अकेला ही शरीर की सामान्य प्रक्रिया के अन्तर्गत ही शिशु आहार के लिए आवश्यक दुग्ध बनाते रहने का काम सँभाल लेता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत दुग्ध स्राव के कारण होने वाली क्षति की पूर्ति भी साथ-साथ होते चलने की व्यवस्था है। यदि दुग्ध स्राव बन्द कर दिया जाय तो प्रकृति उलट कर प्रोजेस्टोरान को निष्क्रिय बनाती है अन्यथा दूध बनते रहने पर भी उसके निकलने का प्रबन्ध न रहने के कारण उस संस्थान में भयंकर पीड़ा एवं अर्बुर आदि उठ खड़े होने का संकट हो सकता है। उपरोक्त हारमोन जब अपना कार्य समेटता है तो उसके साथ ही माता को पयपान के कारण होने वाली क्षतिपूर्ति के अतिरिक्त आधार भी बन्द हो जाते हैं। दूध पिलाने के बदले प्रकृति से जो अन्य अतिरिक्त अनुदान मिल रहे थे, उनका स्रोत बन्द हो जाने से माताएँ किसी लाभ में नहीं रहती, वरन् बच्चे को उचित पोषण से वंचित करके अपने गौरव से गिरती ही हैं।

माता के दूध में कई अतिरिक्त पदार्थ हैं जो पशुओं से प्राप्त अथवा रसायन निर्मित पदार्थों से बने दूध में सम्भव नहीं। रक्त के ग्लुकोज से लेवटोन, अमीनो ऐसिड से प्रोटीन और न्यूटरल पेन्टस से पेन्टस बनता है। यह तीनों पदार्थ माता के दूध में ही उस स्तर के पाये जाते हैं जिनसे शिशु पोषण की संतुलित व्यवस्था बन सके। यों इनके स्थानापन्न में अन्य पदार्थ भी मिलाये जा सकते हैं, पर उनका स्तर माता के दूध की तुलना में कहीं घटिया होता है अस्तु उससे शिशु पोषण के उपयुक्त आहार में त्रुटि ही रह जाती है।

रासायनिक जाँच से यह सिद्ध होता है कि शिशु की आयु बढ़ने के साथ-साथ उसकी पोषण आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। उसे नये-नये रासायनिक पदार्थों की क्रमशः अधिकाधिक मात्रा अपेक्षित होती है। इस संतुलन को माता का दूध ही पूरा करता है। प्रसव काल के समय माता का दूध जिस स्तर का होता है उसमें क्रमशः परिवर्तन होता चला जाता है यह परिवर्तन छह महीने उपरान्त तो इतना अधिक हो जाता है कि उनमें आश्चर्यजनक भिन्नता देखी जा सकती है। यह सब इसलिए होता है कि बच्चा आयु वृद्धि के साथ-साथ अपनी पाचन प्रणाली तथा आवश्यकता के अनुरूप अधिक उपयुक्त पोषण प्राप्त कर सके। इस क्रम से कुछ घटोत्तरी होती है तो कुछ बढ़ोतरी। प्रथम मास में प्रोटीन अधिक होता है जो क्रमशः घटता है किन्तु आयु वृद्धि के साथ-साथ अभीष्ट कोसिनोजन की मात्रा में बढ़ोतरी होती चली जाती है।

डिब्बे बन्द दूध को चूर्ण अथवा चटनी के रूप में सूखा या गीला बनाने के लिए उसे उबालना आवश्यक होता है दूसरी यान्त्रिक एवं रासायनिक क्रियाओं की भी इस संदर्भ में सहायता ली जाती है। पेन्सिलवेनिया के रसायन विज्ञानी ब्रोकयन और जेफरी के अनुसार इस प्रकरण में लगभग आधे जीवन तत्व नष्ट हो जाते हैं और वह खाद्य अपनी प्रकृत विशेषताएँ बुरी तरह खो बैठता है। दूध का लायसिन रसायन जो दाँतों की सुरक्षा तथा अन्य पोषक प्रयोजनों के लिए नितान्त आवश्यक है, डिब्बा बन्द स्थिति में पहुँचते-पहुँचते अपना अस्तित्व बहुत बड़ी मात्रा में खो बैठता है। कैलिफोर्निया विश्व विद्यालय के प्रो0 डेश्विकी जेलिफ ने न्यूट्रिशन सोसाइटी में भाषण करते समय बताया था कि स्तनपान द्वारा उचित पोषण प्राप्त न कर सकने के कारण अकेले भारत में ही प्रायः एक करोड़ बच्चे बेमौत मरते हैं। यों माता की शारीरिक दुर्बलता ही दूध की कमी का प्रमुख कारण होती है, पर जान-बूझकर न पिलाने वाली माताएँ भी कम नहीं होतीं।

डॉ0 जेलिफ के अनुसार बच्चा माँ का दूध पीता रहे तो अगला बच्चा देर में पैदा होगा। यदि उसे बन्द कर दिया जाय तो प्रकृति नये बालकों के उत्पादन का सरंजाम जुटाने लगती है। माता को जल्दी मासिक धर्म शुरू हो जाता है और दो बालकों के बीच जितना अन्तर होना चाहिए उसकी तुलना में कहीं जल्दी नया बच्चा जन्मने का उपक्रम चल पड़ता है।

स्तन कैन्सर के कारणों का सर्वेक्षण करने पर यह पता चला है कि दूध पिलाने वाली माताओं की तुलना में उन्हें यह विपत्ति अधिक घेरती है जो दूध पिलाने में आना कानी करती हैं। स्वभावतः दूध आना बन्द हो जाय तो बात दूसरी है अन्यथा उत्पादन के उफान में कृत्रिम अवरोध उत्पन्न करने की प्रतिक्रिया हानिकारक ही होती है। इससे स्तन संस्थान में कई तरह की ऐसी विकृतियाँ उठ खड़ी होती हैं जिनसे पयपान करते रहने पर सहज ही बचा जा सकता था।

बच्चे को दूध पिलाने पर माता घाटे में रहती है यह शिक्षित कहे जाने वाले लोगों का अन्धविश्वास ही है। इससे माता और सन्तान दोनों को दुहरी हानि उठानी पड़ती है। वस्तु स्थिति को यदि समझा जा सके तो इस निरर्थक अवरोध में बढ़ता हुआ उत्साह घट सकेगा और उससे जननी तथा शिशु दोनों को ही लाभ मिलेगा।

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