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Magazine - Year 1976 - Version 2

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Language: HINDI
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हम कितने समृद्धिशाली?

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शिशु का जब जन्म होता है तो लोग समझते हैं कि वह कुछ भी लेकर पैदा नहीं हुआ है, परन्तु कानून उस बच्चे को अपने पिता की सम्पत्ति और जायदाद का उत्तराधिकारी तभी से मान लेता है। वह यदि किसी राजघराने में उत्पन्न हुआ है तो भावी सम्राट्, लखपति परिवार में जन्मा हो तो अपने समृद्ध पिता की सम्पत्ति का हकदार और धनवान के घर में उत्पन्न हुआ तो धनिक पुत्र का विशेषण अनायास ही उसके साथ जुड़ जाता है। उसी प्रकार व्यक्ति जो वस्तुतः परमात्मा का पुत्र है, सब ऐश्वर्यों और सम्पदाओं का स्वामी है भी, अपने पिता की विभूतियों का समान भाग स्वत्व के रूप में प्राप्त कर लेता है। हवा, धूप, आकाश, पृथ्वी पर रहने का जीवन अधिकार और उपार्जन निर्वाह की चेष्टाएँ उसे परमात्मा की ओर से अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं।

इनके अतिरिक्त भी उसे मिलता है सोच विचार करने की क्षमता वाला मस्तिष्क, अमूल्य शरीर, शक्ति, स्वास्थ्य, करोड़ों रुपये खर्च करके भी पुनः न लौटाया जाने वाला समय, प्रतिभा और गुण जिनके आधार पर कि संसार के प्रत्येक महापुरुष ने साधारण जीवन से असाधारण प्रगति की है। इतना सब होने के बावजूद कई लोग दीनता, दरिद्रता और अभावग्रस्तता का रोना रोते हुए देखे जाते हैं। इसका कारण यह नहीं कि नियति ने उनके साथ भेदभाव बरता है, वरन् वास्तविक कारण है-उनकी विचार पद्धति का अस्वस्थ होना और समृद्धि को केवल भौतिक उपलब्धि समझना यही कारण है कि जितने लोग गरीबी से दुःखी होते हैं उनमें से अधिकाँश गरीबी के विचार से दुःखी होते हैं।

बुद्धि, श्रम, शक्ति और समय का सदुपयोग करके ही दुनिया के सभी लोग समृद्धिशाली बने हैं। मानव इतिहास के जिस काल को आदिम युग कहा जाता था, उस युग में कौन समृद्ध था। बताया जाता है कि आज का सभ्य मानव तब जंगल में पशुओं की तरह रहता था और जब भूख लगती तब भोजन की तलाश करता, जब पानी गिरता या धूप तेज होती तो छाँह खोजता। आज के समृद्ध दिखाई देने वाले व्यक्तियों की वंश शृंखला भी उसी युग से आरंभ हुई जिससे कि गरीब कहे जाने वालों की शुरू हुईं। परन्तु उन लोगों ने या उनके किन्हीं पूर्वजों ने परमात्मा की ओर से मिलने वाले अनुदानों का-बुद्धि, श्रम, शक्ति और समय का सदुपयोग करना सीखा फलतः आज इस स्थिति तक पहुँच सके।

यहाँ चर्चा लोगों की जा रही है जिन्होंने परिश्रम और लगन द्वारा ईमानदारी से सम्पत्ति कमाई, उनकी नहीं, जो अपनी कुछ बुद्धि से लोगों का श्रम और सम्पत्ति लूटते रहे। कहा गया है कि बुद्धि, श्रम और शक्ति, समय का जिन लोगों ने सदुपयोग करना सीख लिया उनके लिए तो सम्पन्नता एक सहज उपलब्धि बन गई, पर जो मन की निर्धनता को यथावत् बनाये रहे और बाहरी निर्धनता हठात् भाग जाने की प्रतीक्षा करते रहे उनके लिए समृद्धि दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और क्या सिद्ध होगी? किसी विचारक का यह कथन अपनी अन्तर्निहित समृद्धि को उघाड़ने के तरीके का इशारा करता है जिसमें उसने कहा है-‘‘सच्ची समृद्धि मन की समृद्धि से ही आती है। जिसका जन्म आशा और उल्लास की गोद में होता है। जिस ईश्वर ने सारे संसार को पूर्णता प्रदान की है। उसके भण्डार में प्रत्येक व्यक्ति के लिए सब कुछ है। सीमाएँ बाँधने वाला तो स्वयं व्यक्ति ही है अन्यथा ईश्वर तो सदैव ही प्यासी आत्मा के लिए अमृत बरसाता रहता है।

प्यास केवल प्यास-प्यास कहते रहते से न तो पूरी होती है और न ही पानी सामने रखा हो तो गला नम होता है। परन्तु ईश्वर ने अपने अनुदानों से मनुष्य के लिए समृद्धि इतनी सहज बना दी है जैसे मुँह में पानी और उसके बाद भी कोई उसे गले से नीचे न उतारे व प्यास की पीड़ा भोगता रहे तो न इसमें दोष पानी का है और न प्यास का। ईश्वर के उपहार मनुष्य को समृद्ध बनाने के लिए चौबीसों घण्टे हाथ में हैं। वस्तुतः मनुष्य है ही समृद्ध, फिर भी मन से वह दीन हीन, दरिद्र, निर्धन बना रहे तो त्रुटि अपनी ही कही जायगी।

एक-एक अनुदान के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि मनुष्य लाखों और करोड़ों की सम्पत्ति का नहीं अनन्त सम्पदा का स्वामी है। वह उसके उपयोग न करने की भूल करता है और अभाव तथा दरिद्रता में ही जीता रहता है। उसकी स्थिति उस भिखारी जैसी है जो एक गड़े हुए खजाने के ऊपर की जमीन पर बैठकर भीख माँगता रहा और जीवन में दो पैसे भी नहीं जोड़ सका।

जिस बिजली से जीरो पावर का मन्दिम प्रकाश उत्पन्न होता है उससे सौ किलोवाट का तेज चौंधिया देने वाली रोशनी का बल्ब भी जल सकता है। जिन शक्तियों और साधनों से हम अपना रोज का काम चलाते हैं, उन्हीं साधनों और शक्तियों से अपनी निर्धनता को भी दूर भगा सकते हैं। पर हमारी स्थिति ऐसी है जैसे इस उधेड़ बुन में उलझे हुए व्यक्ति की जिसे जीरो पावर बल्ब को जलाने वाली बिजली की बड़ी सामर्थ्य पर ही शंका होती है जिन क्षमताओं और शक्तियों का सहारा लेकर निर्धन से निर्धन और धनवान से धनवान व्यक्ति अपना निर्वाह करते और काम चलाते हैं वे हैं-बुद्धि, शक्ति, स्वास्थ्य और समय।

ईश्वर प्रदत्त एक-एक अनुदान अमूल्य है और उनमें सर्वप्रथम गणना होती है बुद्धि की। बुद्धि को परमात्मा की ही देन कहा जायगा क्योंकि उसे न तो किसी कारखाने में बनाया जा सकता है और न खेत में ही उगाया। कहा जा सकता है कि कम्प्यूटर, स्वचालित ज्ञान और अन्य विकसित वैज्ञानिक उपकरण मनुष्य बुद्धि से कहीं इक्कीस हैं। परन्तु यह प्रतिपादन वहीं निरस्त हो जाता है जहाँ यह विचार आता है कि ये साधन आविष्कृत और विकसित तो आखिर मनुष्य की बुद्धि द्वारा ही हुए हैं और उनका संचालन मनुष्य की बुद्धि से ही होता है। किस आधार पर उन्हें स्वतः उद्भूत या विकसित कहा जा सकता है। बुद्धि के रूप में-प्रज्ञा के रूप में मनुष्य को एक ऐसा दैवी वरदान मिला है जिसके द्वारा अर्जित सूझ-बूझ, विकसित ज्ञान और सतर्कताओं तथा सावधानियों का ध्यान मनुष्य की सफलता का मार्ग कदम-कदम पर प्रशस्त करता है।

शक्ति भी मनुष्य को एक दैवी वरदान के रूप में मिली है। जिसका बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग उसे धन, ज्ञान, प्रभाव और प्रगति से सम्पन्न सफल बनाता है। यह शक्ति भी कई रूपों में प्राप्त होती है। शरीर बल, मनोबल ज्ञानबल, आत्मबल आदि इसकी कई शाखा-प्रशाखाएँ हैं। परन्तु दीनता के अभिशाप से ग्रस्त लोग इन शक्तियों का अपव्यय, दुरुपयोग अथवा निरुपयोग ही करते हैं। व्यर्थ के कार्यों में अपनी शक्तियाँ खर्च करना या निठल्ले बैठे रहना ही दैन्य के दो प्रमुख कारण हैं। अधिकाँश व्यक्ति शरीर बल और बुद्धिबल को ऐसे कार्यों में नियोजित करते रहते हैं जिनका कोई अर्थ ही नहीं होता। निष्प्रयोजन ही अपनी शक्तियों का अपव्यय यदि रोका जाय और उन्हें उपयोगी दिशा में प्रवृत्त रखा जाय तो मनोवाँछित उपलब्धियाँ सहज ही प्राप्त की जा सकती हैं। इसके लिए विवेक बुद्धि का सहारा लेकर अपनी शक्तियों को लक्ष्य साधन की ओर लगाना ही एकमात्र रास्ता है।

शक्ति और बुद्धि की तरह ही परमात्मा की अनुकम्पा स्वास्थ्य के रूप में प्राप्त है। स्वस्थ रहना हमारा स्वभाव है। यदि हम न चाहें तो कोई भी परिस्थिति हमें रुग्ण नहीं बना सकती। आहार विहार का असंयम, स्वास्थ्य के प्रति असावधानी और आवश्यकताओं के प्रति लापरवाही ही हमें बीमार और रोगी बनाती है। चटोरापन, व्यसन, अनियमितता, गन्दगी और सामर्थ्य से अधिक दबाव डालना भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करने की परिस्थितियाँ पैदा करता है। अन्यथा प्रकृति ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य और शरीर प्रक्रिया के सुचारु संचालन की अतिसुगम व्यवस्था कर रखी है उसमें अपनी ओर से जरा भी असावधानी स्वस्थ शरीर के लिए अस्वास्थ्यकर बन जाती है। दुनिया में जितने भी डॉक्टर चिकित्सक और वैद्य हकीम हैं-उनमें नैसर्गिक स्वास्थ्य को लाखों रुपयों में भी खरीदा नहीं जा सकता क्योंकि औषधियाँ और उपचार सामयिक शिथिलता मात्र लाती हैं। जब तक प्राकृतिक जीवन-क्रम न अपनाया जाय तब तक स्वास्थ्य की आशा-आकाँक्षा पूरी नहीं होती है।

उपरोक्त विभूतियों की भाँति मनुष्य समय की संपदा का स्वामी भी है। समय-जिसके एक-एक क्षण का सदुपयोग मनुष्य को क्षुद्र से महान और निर्धन से धनाढ्य बना सकता है। विश्व के जिन भी प्रसिद्ध धनपतियों ने दैन्य दारिद्रय से उठकर समृद्धि का शिखर चूमा है, उन्होंने अपने एक-एक क्षण का सदुपयोग किया है। आमतौर पर देखा जाता है कि अभावग्रस्त और कंगाल परिस्थितियों में रह रहे व्यक्तियों में कई लोग ऐसे होते हैं जो अपना समय गपशप या निन्दा, आलोचना में ही खर्च करते हैं। सभी की यह प्रवृत्ति हो- ऐसी बात नहीं है, पर जिनमें यह दोष किन्हीं कारणों से आ गया हो उन्हें समय का मूल्य समझना चाहिए।

ये विभूतियाँ ऐसी हैं जो हर व्यक्ति को प्राप्त हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो मनुष्य को जो कुछ प्राप्त है या मिलता रहता है वह किसी भी प्रकार कम नहीं है। ये विभूतियाँ हमें स्थायी सम्पत्ति के रूप में मिली हैं। इनके द्वारा अपनी निर्धनता को दूर करना कोई बड़ी बात नहीं है और व्यक्ति को मेरे पास कुछ नहीं है मैं अकिंचन हूँ, दीन हीन हूँ, अभावग्रस्त हूँ यह सोच-सोचकर संतप्त होते रहने का कोई कारण नहीं है और सचमुच ही जो गरीब है, निर्धन है, अभावग्रस्त है, वह भी अपनी गरीबी, निर्धनता और अभावों को भी इस अमूल्य सम्पदा के बल पर दूर हटा सकता है और अपनी रचनात्मक क्षमताओं के द्वारा समृद्धि और सम्पन्नता ही नहीं सुख-शान्ति का भी अर्जन कर सकता है।

वस्तुतः दैन्य न तो बाहरी साधनों और भौतिक संपत्ति की विपुलता से हटाया जा सकता है और न ही उसका रोना रोते रहने से। दारिद्रय घर में नहीं मन में रहता है। विपुल सम्पत्ति रहते हुए भी धन लिप्सा के उचित अनुचित का ध्यान न रखकर रुपये पैसों का अम्बार लगाने के लिए दौड़ते रहने वालों को क्या सम्पन्न कहा जायगा? अध्यात्म की भाषा में वे उसी स्तर के दीन हैं जिस स्तर के साधनहीन रोते कलपते रहने वाले लोग।

समृद्धि का सम्बन्ध धन से नहीं मन से है। सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे और व्यक्ति उसी में सुखी सन्तुष्ट रहकर आगे की प्रगति के लिए प्रयत्नशील रहे। अध्यात्म की भाषा में वही व्यक्ति भौतिक साधनों से सम्पन्न कहा जायगा। अतः भौतिक साधनों की अन्धी दौड़ में ठोकरें और धक्के खाते रहने के स्थान पर हमें अपनी वास्तविक सम्पदा को देखना चाहिए और यथार्थ समृद्धि का मार्ग वरण करना चाहिए।

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