
अग्निहोत्र में ताप और ध्वनि शक्ति का सूक्ष्म प्रयोग
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
अग्निहोत्र यों मोटी दृष्टि से देखने में एक धार्मिक कर्मकाण्ड प्रतीत होता है और उसके लाभों में वायु शोधन, रोग निवारण आदि को प्रमुख माना जाता है। देवताओं को प्रसन्न करने और बदले में उपयोगी वरदान पाने की मान्यता भी प्रचलित है।
यदि इतनी−सी ही बात रही होती तो यज्ञ को भारतीय संस्कृति का प्रतीक और गौरव भरी परम्परा का आधार न माना गया होता। अन्य धर्मकृत्यों की तरह ही उसे भी रुचि भिन्नता के आधार पर किये जाने वाले चयनों की तरह ही स्वेच्छा माना गया होता, पर देखा जाता है कि यज्ञ भारतीय तत्व−दर्शन और ज्ञान−विज्ञान के साथ अविच्छिन्न रूप से गुंथा हुआ है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त किये जाने वाले षोडश संस्कारों में यज्ञ की अनिवार्यता है। पर्व, त्योहारों से लेकर देव−पूजन एवं शुभ समारम्भों तक का कोई भी हर्षोत्सव यज्ञ के बिना सम्पन्न नहीं होता। होलिकोत्सव वार्षिक यज्ञ है जो सामूहिक रूप से हर गाँव, मुहल्ले में विस्तार से और घरों में वैयक्तिक रूप से छोटी विधि के साथ मनाया जाता है। राजनैतिक उद्देश्यों को लेकर किये जाने वाले बड़े अश्वमेध यज्ञ और धर्म चेतना को सुव्यवस्थित करने के लिए किये जाने वाले वाजपेय यज्ञों को बढ़ी−चढ़ी महत्ता प्रदान किये जाने से प्रतीत होता है कि भारतीय महान् परम्पराएँ यज्ञ−विज्ञान के साथ गहराई के साथ जुड़ी हुई हैं।
यज्ञ का विज्ञान पक्ष इन दिनों प्रामाणिकता के आधार पर मान्यता प्राप्त करने की स्थिति में नहीं रह गया है तो भी उसके पीछे वे आधार विद्यमान हैं जिनकी शोध की जा सके और प्रयोग परीक्षणों की सहायता से लोकोपयोगी बनाया जा सके तो उसे अध्यात्म विज्ञान की अद्भुत उपलब्धि सिद्ध हो सकते हैं जो अन्य आविष्कारों की तुलना में कम महत्वपूर्ण सिद्ध न होंगे।
यज्ञ के सूक्ष्म आधारों की यहाँ चर्चा न करके केवल भौतिक विज्ञान की दृष्टि से भी देखा जाय तो भी प्रतीत होगा कि उसमें ध्वनि और ताप की दोनों ही शक्ति धाराओं का उच्चस्तरीय उपयोग एवं समन्वय किया गया है। मन्त्रोच्चार में ध्वनि विज्ञान के रहस्यमय सिद्धान्तों का समावेश किया गया है। अग्निहोत्र प्रक्रिया में ताप शक्ति का विशिष्ठ प्रयोग कहा जा सकता है। इन दोनों शक्तियों को भौतिक विज्ञान की प्रधान धारा माना गया है। इनका समन्वय करके अध्यात्म उद्देश्य की पूर्ति के लिए उस संयुक्त शक्ति को लगा दिया जाय तो उसका सत्परिणाम वैसी ही होता है जैसा कि यज्ञ विज्ञान के जन्मदाताओं ने सुविस्तृत फल श्रुति के रूप में प्रस्तुत किया है।
ताप की शक्ति का परिचय मनुष्य को बहुत पहले से मिल रहा है। उसकी जानकारी और उपयोग पद्धति का अनुभव क्रमिक विकास के अनुरूप बढ़ता आया है। इस सन्दर्भ में अब तक बहुत कुछ जानकारी मिल भी चुकी है किन्तु जो जानना शेष है वह प्रस्तुत उपलब्धियों से कहीं अधिक है। घर्षण से अग्नि उत्पन्न करने और ईंधन के सहारे उसे प्रज्वलित करने की विधि अब से लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य के हाथ लग गई थी। उससे चमत्कारी प्रकटीकरण के वह नित नूतन लाभ उठाता चला आ रहा है। भोजन पकाने, सर्दी से बचने, धातु पिघलाने, कूड़ा−करकट समाप्त करने, अशक्तता में शक्ति उत्पन्न करने, प्रतिपक्षियों से जूझने, रोशनी का लाभ लेने जैसे असंख्यों उपयोग आग के हैं। यदि यह उपलब्धि हाथ में न आई होती तो आदिमानव की स्थिति से बहुत आगे बढ़ सकना सम्भव न हुआ होता।
अग्नि का ही एक रूप विद्युत है। बल्बों, पंखों और मोटरों में काम करने वाली बिजली तो विद्युत का सामान्य प्रवाह है। एक्सरे, लेसर, कॉस्मिक आदि अनेक अन्य प्रकाश किरणों में उसके अगणित स्तर खोजे और काम में लाये जा रहे हैं। अणु विस्फोट से लेकर विकरण तक के अनेक ऊर्जा प्रवाह विद्युत क्षेत्र में ही गिने जाते हैं। संक्षेप में यह ताप सत्ता है जो सृष्टि के अन्तराल में सर्वत्र संव्याप्त है और उसे समर्थ तथा गतिशील बनाने का सूत्र संचालन कर रही है। यदि इस सृष्टि में से ताप हटा दिया जाय तो न किसी प्राणी के रूप में कहीं जीवन दृष्टिगोचर होगा और न पदार्थों में हलचल शेष रह जायगी। सर्वत्र स्तब्धता निर्जीविता, तमिस्रा और कड़कती ठण्ड का सामंजस्य ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देगा जिसे कल्पना मात्र से उड़ा देने और कँपा देने वाली कहा जा सकता है।
यज्ञ विद्या के रहस्य समझने के लिए ताप की तरह ही दूसरी प्रमुख शक्ति शब्द के और ध्वनि के विज्ञान को भी जानना आवश्यक है। सर्वविदित है कि अन्य प्राणी मात्र प्रकृति प्रेरणा से ही ध्वनि उत्पन्न कर पाते हैं। छोटे जीवधारी शारीरिक हलचलों से ध्वनि उत्पन्न करते हैं और विकसित प्राणी कुछ भावनाओं को व्यक्त कर सकने योग्य थोड़ी−सी नपी−तुली अर्थहीन ध्वनियाँ कर सकते हैं। मनुष्य ही एक ऐसा है जो मुख गह्वर के विभिन्न विन्यास बना कर कितने ही प्रकार के शब्द उत्पन्न करता है और उनसे विचारों के आदान−प्रदान का, अभिव्यक्तियों के प्रकटीकरण का काम लेता है। पदार्थों में टकराव उत्पन्न करके भी उसे कितने ही तरह के संगीत, शोरगुल जैसी आवाजें पैदा करने का अनुभव है। जीभ की संरचना के अनुरूप शरीर से तथा आघातों के अभ्यास से जो ध्वनियाँ उत्पन्न की जा सकी हैं उनमें से भी सब का अनुभव कर सकना मनुष्य के बूते की बात नहीं है। प्रकृति ने कानों की सामर्थ्य बहुत सीमित रखी है। उनसे उसी स्तर की आवाजें सुनी जा सकती हैं जो जीवन निर्वाह के लिए उपयोगी एवं आवश्यक है। यदि इससे अधिक सुन सकना सम्भव रहा होता तो फिर इतनी गड़बड़ी मचती कि वर्तमान स्तर के मस्तिष्क कुछ सुन समझ ही न पाते और कानों में घोर कोहराम मचा रहता।
यह नहीं समझा जाना चाहिए कि हम जितने शब्द सुनते हैं उतने ही ध्वनि प्रवाह इस सृष्टि में उत्पन्न होते हैं। ताप का क्षेत्र अत्यन्त सुविस्तृत है। मनुष्य के परिचय और उपयोग में तो उसका एक बहुत छोटा अंश ही आता है। इसी प्रकार ध्वनि कम्पन का क्षेत्र भी असीम है। इतना असीम जिसे कल्पना से बाहर का कहा जा सकता है। इस विशाल अन्तरिक्ष में हलकी भारी ध्वनियों के अगणित प्रवाह कंपन चलते रहते हैं। इन्हें विज्ञान की भाषा में श्रवणातीत ध्वनियाँ कहा जाता है। आश्चर्य यह है कि इन अविज्ञात ध्वनियों में से कितनी ही इतनी अद्भुत और इतनी सूक्ष्म होती हैं कि उनके स्वरूप की कल्पना मात्र से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
ध्वनि विज्ञान के शोध सन्दर्भ में जो तथ्य सामने आये हैं, उनने इन श्रवणातीत ध्वनियों को मानवी उपयोग के अनेक कार्यों में प्रयुक्त कर सकना सम्भव बना दिया है। कुछ प्रवाह सृष्टि की अन्यान्य हलचलों के कारण स्वयमेव उत्पन्न होते रहते हैं। उनके आधार पर प्रस्तुत परिस्थितियों और भावी सम्भावनाओं के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अन्तरिक्ष में परिभ्रमण करने वाले मनुष्य प्रेषित राकेटों, गुब्बारों, यानों से मौसम सम्बन्धी कितनी ही जानकारियाँ मिलती हैं। रेडियो, टेलीफोनों का प्रबन्ध बन पड़ता है। आकाश में उड़ने वाले वायुयानों, प्रक्षेपणास्त्र का पता रैडारों पर उतरने वाली प्रतिध्वनि छाया के सहारे पता चल जाता है। तूफान, भूकम्प आदि की जानकारी इन उपकरणों के माध्यम से मिल जाती है।
यह वह क्षेत्र है जिसमें प्रवाहमान सूक्ष्म ध्वनियों के माध्यम से वे जानकारियाँ मिलती है जो सामान्य साधनों के सहारे जानी नहीं जा सकतीं। यह भी एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी उपलब्धि है। ध्वनि विज्ञान के सहारे रेडियो, टेलीफोन ही नहीं, वातावरण को शान्त एवं उत्तेजित करने जैसे प्रयोजन भी इस आधार पर पूरे करने की सम्भावनाएँ सामने आ रही हैं।
नया प्रयोग अपनी शताब्दी का यह है कि अभीष्ट प्रयोजन के लिए अभीष्ट स्तर की श्रवणातीत ध्वनियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं और उन स्वनिर्मित कंपनों का आश्चर्यजनक लाभ उठाया जा सकता है। ध्वनि उत्पन्न करके उसकी प्रतिध्वनि से लाभ उठाने का सिद्धान्त तो समुद्र की गहराई में चलने वाली पनडुब्बियों की हलचलों का पता लगाने की विधि हाथ में आ जाने के समय से ही विदित हो गया था, पर उसका अन्य क्षेत्रों में उपयोग कर सकने की विधियाँ अब बहुत शोध संशोधन के उपरान्त प्राप्त हुई हैं। यह प्रयोग चिकित्सा क्षेत्र में बहुत आगे बढ़े और बहुत सफल हुए हैं।
वियना के प्रो0 डसिक ने मस्तिष्क के अन्तराल में चल रही हलचलों और विकृतियों का पता लगाने के लिए श्रवणातीत ध्वनियों का सर्वप्रथम सहारा लिया था। उत्पन्न की हुई ध्वनि रोगी के मस्तिष्क में घुसी और टकरा कर वापिस लौटी तो उसने सारा भेद खोलकर सामने रख दिया। एक्सरे द्वारा जो भोंड़ी तस्वीरें भीतरी स्थिति की खिंचती थीं, उससे औंधे−सीधे अनुमान ही लग पाते थे। इन श्रवणातीत ध्वनियों के विवरण कहीं अधिक स्पष्ट, विस्तृत और सही प्राप्त हुए। शोध और भी अधिक उत्साह के साथ चली। विज्ञानी लेकसल, लैजेविन, हर्ज एडला−मान्ट, हेगेज, डोनाल्ड जैसे मनीषियों ने न केवल मस्तिष्क का वरन् शरीर के प्रत्येक अवयव के अन्तराल की सही स्थिति समझने में श्रवणातीत ध्वनियों को माध्यम बनाया और आशातीत सफलता पाई। पोलैंड में तो गर्भस्थ भ्रूणों की हृदयगत धड़कन और रक्ताभिषरण की अतीव मन्दगामी स्थिति का भी सही−सही लेखा−जोखा प्राप्त कर लिया। सही निदान विदित हो जाने पर चिकित्सा से कितनी सुविधा हो सकती है इसे सहज ही समझा जा सकता है। चिकित्सा उपचार में भी उनका उपयोग किया गया और अत्यन्त गहराई में धँसे हुए रोगों को उखाड़ कर ऊपर लाना और आँख की पुतली जैसे मर्मस्थानों के अति बारीक आपरेशन कर सकना सम्भव हो गया।
ऐसे−ऐसे अनेक आधार हैं जिनके सहारे यज्ञीय क्रियाकृत्य में उच्चारण किये गये मंत्रोच्चार से न केवल उपयोगी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होतीं वरन् उस आयोजन में सम्मिलित होने वाले लोगों को लाभदायक सत्परिणाम प्रस्तुत करती हैं। उसमें से बड़ी उपलब्धि श्रवणातीत ध्वनियों की है जो शब्द और ताप दोनों के समन्वय से उत्पन्न होती हैं उनसे सुविस्तृत क्षेत्र का वातावरण प्रभावित होता है। फलतः प्राणवान मेघवर्षा से लेकर अन्यान्य कई प्रकार के ऐसे आधार खड़े होते हैं जो सर्वतोमुखी सुख−शान्ति में सहायता कर सकें। सूक्ष्म वातावरण के परिशोधन और उसके फलस्वरूप सुख−शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाले वातावरण का सृजन भी यज्ञ विद्या का अति महत्वपूर्ण प्रतिफल है। ऐसे ही कारणों को ध्यान में रखते हुए भारतीय धर्म में यज्ञ को उच्चकोटि का श्रेय सम्मान दिया गया है।