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Magazine - Year 1978 - Version 2

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Language: HINDI
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उच्च रक्तचाप की महाव्याधि का संकट

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क्रोध के आवेश या भय के आतंक से मनुष्य का मस्तिष्क जब उत्तेजित होता है तब उसकी मुखमुद्रा कैसी भयानक लगती है उसे बहुतों ने बहुत बार कहीं न कहीं देखा होगा। आपत्ति काल की वर्तमान कठिनाइयों और भावी आशंकाओं से उद्विग्न मनुष्य कातर, असन्तुलित और उद्विग्न बना हुआ अर्धविक्षिप्त जैसा दीखता है। उससे कुछ ही कम बेचैनी, बढ़े हुए रक्तचाप की स्थिति में पाई जाती है।

जीवन सम्पदा की सार्थकता उसे धारण करने वाले जीवधारी को सुखी समुन्नत बनाये रहने में है। पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में ईश्वर प्रदत्त इस सौभाग्य भरे सुअवसर का सदुपयोग है। किन्तु रुग्णता का व्यवधान तो इस लाभ से वंचित ही किये रहता हैं। रुग्णता के अनेक भेद-उपभेद हैं। उनमें देखने में सरल किन्तु भुक्त भोगी के लिए अति कठिन बनकर रहने वाला नागपाश जैसा रोग बढ़ा हुआ रक्तचाप है। उसे तथाकथित सभ्यता का अभिशाप कह सकते हैं। प्रकृति प्रकोप की गणना में अन्य रोग तो सरलता से गिने जा सकते हैं, पर रक्तचाप की उत्पत्ति का बहुत कुछ दोष मनुष्य की अपनी ही अस्त−व्यस्तता पर निर्भर है। यदि आहार−विहार और स्वभाव दृष्टिकोण को सुव्यवस्थित बनाये रहकर अपनी जीवनचर्या को सुसंतुलित और चिन्तन प्रक्रिया रखा जा सके तो इस महाव्याधि से बच रह सकना सरल है। साथ ही जो इस कुचक्र में फँस गये हैं उनको छुटकारा पाना भी कुछ कठिन नहीं है।

बढ़ी हुई बेचैनी, दिल का अधिक धड़कना, आवेश ग्रस्तता, प्यास, सिर दर्द जैसे लक्षणों से बढ़े हुए रक्तचाप का आरम्भिक परिचय दर्द जैसे लक्षणों से बढ़े हुए रक्तचाप का आरम्भिक परिचय प्राप्त होता है। विश्वस्त सूचना तो मापक यन्त्र से ही मिल सकती है। बेचैनी के आधार पर दबाव की वृद्धि और शिथिलता के लक्षणों को देखकर उसकी न्यूनता का पता चल सकता है। निम्न चाप में कमजोरी तो बहुत सताती है और लंघन अथवा प्रसूता जैसे स्थिति मालूम पड़ती है फिर भी उसमें उतना जोखिम नहीं है जितना कि बढ़े हुए चाप में। रक्तचाप यदि पुराना हो जाय और काबू से बाहर रहने लगे तो उससे दिल का दौरा पड़ने एवं पक्षाघात होने जैसी भयंकर दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। ज्वर ग्रसित रहने जैसी स्थिति में रोगी को कुछ पुरुषार्थ तो करते धरते बन ही नहीं पड़ता। उसकी गणना एक प्रकार से आशक्त एवं अपंग जैसी रहने लगती है। न तो गहरी नींद आती है और न थकान दूर होती है। ऐसी दशा में जीवनी शक्ति का अपव्यय होते−होते अकाल मृत्यु की सम्भावना ही बनती चली जाती है।

इस बढ़ती हुई महाव्याधि के विस्तार का क्रम जिस तेजी से चल रहा है उसे देखते हुए भय होता है कि कहीं इसकी चपेट में अधिकांश मनुष्य समाज को निकट भविष्य में फँस न जाना पड़े।

पिछले दिनों ऑल इण्डिया इन्स्टीट्यूट आफ मेडीकल साइन्स ने जो सर्वेक्षण किया है उससे पता चला है कि केवल दिल्ली नगर में उस समय 40 हजार रोगी इलाज करा रहे थे जिनमें 15 प्रतिशत उच्च रक्तचाप के मरीज थे।

औद्योगिक क्षेत्रों में फैली हुई रुग्णता का अन्वेषण करने वाले शोध संस्थानों का कथन है कि क्या ग्रामीण क्या शहरी दोनों ही क्षेत्रों श्रमिक वर्गों में रक्तचाप का आक्रमण जोरों से हो रहा है और उसका अनुपात न्यूनतम 4 और अधिकतम 15 प्रतिशत तक जा पहुँचा है। पिछले वर्षों की तुलना में इस सन्दर्भ में चिकित्सा के साधन बढ़ने पर भी कमी नहीं आई वरन् बढ़ोत्तरी ही हुई है।

सम्पन्नता और सुविधा की कमी के कारण पौष्टिक आहार का न मिल पाना, कठिनाइयों से जूझना, अधिक श्रम करना आदि कारणों को स्वास्थ्य की गिरावट का आधार बताया जा सकता है। यह किसी हद तक सही भी है। पोषण और विश्राम का अभाव रहने, उपार्जन के लिए सामर्थ्य से अधिक परिश्रम करने तथा प्रस्तुत कठिनाइयों से जूझने से जो दबाव उत्पन्न होता है उसका कुप्रभाव शरीर और मस्तिष्क पर होना स्वाभाविक है। गरीबी के कारण दुर्बलता और रुग्णता उत्पन्न होने की बात स्वीकार करने में और रक्तचाप जैसे रोगों में उसे भी कारण मानने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

किन्तु जब सुसम्पन्न स्तर के लोगों को भी ऐसे ही रोगों से ग्रसित देखा जाता हैं तो आश्चर्य होता है। सुविधा और विश्राम की कमी न रहने पर यह वर्ग क्यों अपेक्षाकृत अधिक रुग्ण पाया जाता है।

रक्तचाप सम्बन्धी आँकड़े बताते हैं कि दरिद्रता की भाँति ही सम्पन्नता भी अभिशाप है और उससे भी रुग्णता की अभिवृद्धि में सहायता ही मिलती है। अमेरिका की सम्पन्नता में दो मत नहीं हो सकते। भौतिक दृष्टि से समुन्नत देशों से वह अग्रणी है। पोषण और चिकित्सा के समुचित साधन होते हुए भी वहाँ बढ़े हुए रक्तचाप की बीमारी 10 से 15 प्रतिशत लोगों को है। इनमें अधिकांश युवक−युवतियाँ हैं, वयोवृद्ध नहीं। वृद्धों की शारीरिक जीर्णता से इस प्रकार की व्यथाएँ उठ खड़ी होना समझ में आता है, पर भरी जवानी के दिनों नये रक्त में भी इस प्रकार की विपत्तियों के आ धमकने का क्या कारण हो सकता हैं?

योरोप के समृद्ध देशों में यह व्यथा 15 प्रतिशत लोगों को अपने शिकंजे में कस चुकी है, ऐसा समझा जाता है। अधिकांश की शारीरिक जाँच पड़ताल ठीक से हो नहीं पाती। वे स्वयं ही सामान्य गिरावट के अतिरिक्त वास्तविक कारण समझ नहीं पाते। फिर इलाज कैसे हो? डाक्टरों के द्वार तक जो पहुँच पाते हैं वे व्यथित रोगियों में से प्रायः एक तिहाई ही होते हैं। इन तिहाई लोग में से अच्छी चिकित्सा सुविधा पाने वाले और सतर्कता पूर्वक चिकित्सा कराने वाले कम ही होते हैं। फलतः चिकित्सा के उपरान्त भी व्यथा से छुटकारा पाने वाले लोगों की संख्या बहुत ही कम होती है। अधिकांश तो कठिनाई बढ़ने पर इलाज की बात सोचते हैं और कुछ कमी आ जाने पर उसे ओर से ध्यान हटा लेते हैं।

शोधकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि उच्च रक्तचाप का एक बड़ा कारण गुर्दों की खराबी है। ठीक तरह छनने की क्रिया सम्पन्न हो जाने के कारण अशुद्ध रक्त धमनियों में पहुँचता है और रक्ताभिषरण का सन्तुलन बिगाड़ता है। मूत्र नली की खराबी मूत्राशय में शोष्य ऐसे रोगियों को पाया गया है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि यही उसका प्रधान कारण होना चाहिए। किन्तु यह मानने की भी पूरी गुंजाइश है कि रक्त का दबाव बढ़ने से मूत्र संस्थान को अपेक्षाकृत अधिक क्षति पहुँचती है और वह दबाव किसी अन्य कारण से उत्पन्न होकर गुर्दों की व्यवस्था अस्त−व्यस्त करता हो।

मारक औषधियों का उपयोग जटिल रोगों के विषाणुओं को निरस्त करने के लिए किया जाता है। इनका सेवन बहुत समय तक चलता रहे अथवा व्यक्ति विशेष की सहन क्षमता से उसकी मात्रा अधिक हो जाय तो फिर उसकी प्रतिक्रिया स्वास्थ्य संरक्षक प्रणाली पर बहुत बुरी होती हैं। एन्टीबायोटिक्स औषधियों का अन्धा धुन्ध प्रचलन इन दिनों बढ़ रहा है। चिकित्सकों का अत्युत्साह होता तो रोगों को अच्छा करने के लिए है, पर मात्रा और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता न रहने का परिणाम रक्तचाप जैसे रोगों के रूप में सामने आता है। गर्भ निरोधक गोलियाँ खाने वाली महिला को तो इस विपत्ति में जान−बूझकर फँसना पड़ता है। आरम्भ में वे निरापद कही जाती थीं, पर अब उनकी हानि रक्तचाप बढ़ने के रूप में स्पष्टतः सामने आती चली जाती हैं।

रक्तवाहिनी धमनियों के सिकुड़ जाने या कठोर हो जाने से उस मार्ग में शरीर को विभिन्न अवयवों तक उचित मात्रा में यथा समय रक्त पहुँचाने में कठिनाई पड़ती है। जीवाणु पोषण के अभाव में दुर्बल होते जाते हैं; उधर हृदय को किसी कारणवश कठोर हुई नाड़ियों द्वारा यथा स्थान रक्त पहुँचाने के प्रयास में अतिरिक्त श्रम करना पड़ता हैं। ऐसे ही कुछ अन्य कारणों के मिल जाने से रक्तचाप बढ़ जाता है। क्रोध, भय जैसे मानसिक और उत्तेजक खाद्य, अधिक श्रम जैसे शारीरिक कारणों से भी शरीर में उष्णता और उत्तेजना भर जाती है। यह भी एक कारण है।

रक्तचाप की विपत्ति का आक्रमण रोकने की सतर्कता योजना बनाने अथवा उसके चंगुल से छुटकारा पाने का प्रयत्न करते हुए, यह जानना भी आवश्यक है कि रक्तचाप आखिर है क्या? वह कभी अवांछनीय रूप से ऊँचा या नीचा हो क्यों जाता है? इस सन्दर्भ में रक्त संचार तन्त्र की गतिविधियों की थोड़ी−सी जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है।

हृदय एक पम्प है जो देखने में छोटा होते हुए भी इतनी तेजी से और इतनी बड़ी मात्रा में पम्प करता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। वह 24 घण्टे में 10 हजार लीटर रक्त पम्प करता है। इसे समस्त शरीर में पहुँचाने के लिए जो छोटी−बड़ी नाड़ियाँ−पाली नालियों की तरह बिछी हुई हैं वे इतनी होती हैं कि उन्हें एक लाइन में बिछा दिया जाय तो वह लम्बाई साठ हजार मील होगी। यह लम्बाई पृथ्वी की ढाई बार परिक्रमा करने जितनी हो जाती है।

आमतौर से बढ़े हुए रक्तचाप को घटाने के लिए रावलफिया डिरोवेटिक्स (केसर पाइन) हाइड्रोलेजीन (अप्रेसेग्नलइन वेनेथाइडाइन (स्मेलिन) अल्फायेथाडीपा (अल्डोमेट) प्रोप्रालालीन (इन्डेरेल) आदि औषधियाँ दी जाती हैं। इनके प्रभाव से धमनियाँ की दीवारों में मुलाइमी आती है और अकड़न के कारण जो उन पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा था वह घट जाता है। इस प्रयोजन के लिए केमिस्टों की दुकानों पर ड्यूकेरिल, क्लारोथमाझाईट, हाइड्रोक्लोरोथायाइट, वेडीफ्लूथायाजइड क्लोरथाली डोन आदि औषधियों की बिक्री भी बहुत बढ़ रही है।

जड़ी बूटी वर्ग की सर्पगन्धा की−भी इन दिनों बहुत चर्चा है। उसकी जड़ों से निकला हुआ ‘रसक पीन’ बढ़े हुए रक्तचाप को गिराने के लिए उपयोगी माना गया है। भारतीय बूटी सर्पगन्धा का वैज्ञानिक नाम ‘राकैल्फिया सर्पेन्टिन’ है। उसे अन्य हृदय रोगों में भी प्रयुक्त किया जाता है। इसकी बड़े पैमाने पर उत्पादन करने तथा अनेक प्रकार के सम्मिश्रण करके रक्तचाप जैसी हृदय सम्बन्धित बीमारियों के लिए प्रयुक्त करने के लिए आवश्यक परीक्षण किये जा रहे हैं।

उपचार की अनेकानेक पद्धतियाँ निकली हैं और नई−नई दवाएँ खोजी गई है, पर उनसे सामयिक राहत मिलने के अतिरिक्त व्यथा के स्थायी निराकरण में कोई कहने योग्य सहायता नहीं मिली है। मिलने की आशा भी नहीं है क्योंकि रोग उत्पन्न होने के मूल कारण को निरस्त किये बिना उसके उत्पादन स्रोत खुले ही रहेंगे और एकबार की चिकित्सा का लाभ प्राप्त होने से पूर्व ही नये कुपथ्य से संकट के नये पर्वत फिर से सामने खड़े दीखने लगेंगे।

संसार प्रसिद्ध स्वास्थ्य पत्रिका ‘लासेट’ के अब से प्रायः 50 वर्ष पूर्व के एक स्वास्थ्य अन्वेषण संस्थान का विवरण छपा था। जिसमें कहा गया था कि उन दिनों अफ्रीका के अस्पतालों में भर्ती मरीजों की जाँच पड़ताल करने पर उनमें से एक भी रक्तचाप का मरीज नहीं था। किन्तु अब स्थिति बिगड़ती जा रही है। वहाँ भी हृदय रोगों और रक्तचाप से पीड़ितों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वंश परम्परा और जलवायु की दृष्टि से ऐसे रोगों से दूर रहने वाले अफ्रीकी अमेरिका में बस गये तो उनने इन बीमारियों में वहाँ रहने वाले श्वेत लोगों से भी बाजी मार ली। पूरे अमेरिका में सरकारी जानकारी के अनुसार वहाँ ढाई करोड़ व्यक्ति उच्च रक्तचाप से पीड़ित है जिनमें से एक चौथाई अश्वेत है। अनुपात के हिसाब के अश्वेतों को यह अभिशाप कहीं अधिक संत्रस्त कर रहा हैं।

प्रश्न देश, समाज, रंग, वर्ण, शिक्षित, अशिक्षित और गरीब-अमीर का नहीं है। इस दृष्टि से न्यूनाधिक मात्रा में बीमारियों के कृपा पात्र दोनों ही वर्ग लगभग समान हैं। अशिक्षितों का अज्ञान और दरिद्रों का अभाव, उन्हें दुर्बल और रुग्ण बनाता है तो शिक्षितों एवं अमीरों को उनकी आपाधापी और उद्विग्नता के कारण लगभग उतनी ही हानि पहुँच जाती है। सुविधा सम्पन्न जीवन और चिकित्सा साधनों की उपलब्धि की आवश्यकता समझी जा सकती है, पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि जीवन के सद्व्यय का संयम, सन्तुलन का ध्यान रखे बिना ऐसी रीति नीति अपनाई न जा सकेगी जो उच्च रक्तचाप सहित अन्यथा रुग्णताओं के लिए मूलतया उत्तरदायी है।

बढ़े हुए रक्तचाप के प्रत्यक्ष कारणों में, भोजन में अधिक चिकनाई और मसालों का होना−बिना भूख लगे तथा ठूँस−ठूँसकर खाना, सिगरेट, खराब आदि नशों का सेवन, बहुत ठण्डे अथवा पेय पदार्थों का सेवन प्रमुख है।

विलासिता, आपाधापी, खीज, आवेश चिन्ता, शोक, एकाकीपन, व्यस्तता, आशंका, भय चिन्ता, निराशा जैसे मानसिक तनाव उत्पन्न करने वाले विचार भी रक्तचाप को जन्म देते और अनैतिक, छली, निष्ठुर, अहंकारी प्रकृति के मनुष्य उत्तेजित रहते हैं और उस व्याधि के शिकार बन जाते हैं। आमदनी से अधिक खर्च करने वाले, ईर्ष्या, द्वेष की आग में जलने, वाले, अपने आपको हर घड़ी विषाक्तता से घिरा हुआ अनुभव करते हैं और उच्च रक्त के शिकार बन जाते हैं। कई बार दरिद्रता−कुपोषण, अधिक श्रम, कलह जैसे कारण भी मनुष्य की मनःस्थिति को लड़खड़ा देते हैं और उसके कारण हृदय तथा रक्त प्रवाही नलिका संस्थान की सामान्य गतिविधियों में अवांछनीय अवरोध उत्पन्न होकर इस प्रकार की गड़बड़ियाँ प्रस्तुत करते हैं।

लिप्साएँ और लालसाएँ शरीर और मन दोनों पर ही अनावश्यक दबाव डालती हैं। हृदय और उससे सम्बन्धित नाड़ी संस्थान भी उसी दबाव की चपेट में आकर एक विचित्र संकट में फँस जाता है। उसी की चीख पुकार उच्च रक्तचाप है। सामयिक उपचार जो भी हो−ठीक है, पर जड़ काटनी हो तो संयम, सदाचरण की हलकी−फुलकी जिन्दगी जीने की दूरदर्शितापूर्ण नीति ही अपनानी पड़ेगी।

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