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Magazine - Year 1978 - Version 2

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चेतना का हाथी भौतिकी की सुतली से न बाँधे

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मानवी सत्ता की व्याख्या भौतिकी नियमों के आधार पर ही प्रस्तुत करने के लिए हमें न तो आतुर होना चाहिए और न आग्रही। पदार्थ विज्ञान का जन्म और अभिवर्धन कुछ शताब्दियों का है जबकि सृष्टि का जीवन अरबों, खरबों वर्षों का। हर्मनवेल के अनुसार, “हम प्रकृति के रहस्यों का परिचय प्राप्त करने की दिशा में क्रमशः बढ़ रहे हैं। इसमें अधीर नहीं हो रहे हैं, फिर चेतना के रहस्यों को जानने के लिए विज्ञान की वर्तमान अपरिपक्व स्थिति को ही क्यों प्रमाण भूत आधार मानें? हमें धैर्य रखना होगा और वैज्ञानिक प्रगति की उस स्थिति के लिए प्रतीक्षा करनी होगी जहाँ पहुँच कर वह चेतना विज्ञान को भी अपने साथ सम्मिलित कर सके और अपने विकसित ज्ञान के आधार पर जीवन तत्व की व्याख्या कर सके।”

शरीर शास्त्री सर चार्ल्स शैरिंगटन ने अपनी पुस्तक ‘मैन आन हिज नेचर’ में लिखा है−”चेतना के स्तर की परीक्षा हम ऊर्जा नापने के उपकरणों से नहीं कर सकते। भावनाएँ और विचारणाएँ किस स्तर की है और व्यक्ति के आदर्श एवं आचरण किस श्रेणी के हैं, यह जानने के लिए किसी शरीर का रासायनिक विश्लेषण करने से क्या काम चलेगा? व्यक्तित्व अपने आप में एक रहस्य है उसकी गहराई में उतरने के लिए वे परीक्षण पद्धतियाँ असफल ही रहेंगी जो कोशिकाओं एवं ऊतकों की संरचना तक ही हाथ लेकर समाप्त हो जाती है। मनुष्य का कलेवर ही पदार्थों से बना है इसलिए इसी का विश्लेषण, वर्गीकरण तत्व परीक्षा द्वारा सम्भव हो सकता है। चेतना एवं उसके स्तर जिस संरचना से बने हैं उनका निरूपण एवं सुधार परिवर्तन करने के लिए भौतिकी के नियम, परीक्षण एवं उपकरण निरर्थक ही सिद्ध होंगे।”

भौतिकी में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो0 ई॰ पी0 बिगनर ने कहा है−”आधुनिक भौतिकी के सिद्धान्तों से चेतना की संरचना−स्थिति एवं उतार−चढ़ावों की व्याख्या नहीं हो सकती। जिन कारणों से चेतना में उभार, उतार, चढ़ाव, परिवर्तन आते हैं और उत्थान पतन के आधार खड़े होते हैं वे तत्व कुछ और ही हैं। वस्तुओं को जिस आधार पर प्रभावित परिवर्तित किया जाता है वे सिद्धान्त चेतना का परखने और सुधारने के लिए किसी प्रकार काम नहीं आ सकते। मस्तिष्क विद्या शरीर के एक अवयव की हलचलों का विश्लेषण तो कर सकती है, पर उस आधार पर किसी के विचार बदलने या सम्वेदनाओं को प्रभावित करने जैसे प्रयोजन बहुत ही स्वल्प मात्रा में हो सकते हैं। भौतिकी के आधार पर चेतना की व्याख्या करने के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं, उनमें विसंगतियाँ ही भरी रह जाती हैं।”

पदार्थ विज्ञान प्रकृति के विवरण प्रस्तुत कर सकता है पर उसकी संरचना एवं हलचलों के पीछे सन्निहित उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डाल सकता। परमाणु, उप−परमाणु, जीन, जीवाणु, कम्पन, ऊर्जा, प्रकाश, विकरण का स्वरूप ही भौतिकी हमें बता सकती है, पर यह नहीं बता सकती कि ब्रह्माण्ड में भरा हुआ पदार्थ किस लिए इतनी द्रुतगति से कहाँ दौड़ता चला जा रहा है? आकाशगंगाओं की विशालता और ग्रह−नक्षत्रों की मध्यवर्ती दूरी को नापने से हमारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? जब तक यह पता न चले कि उनका अस्तित्व किस उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न है। भौतिकी ही यदि सब कुछ है तो उसकी व्याख्या में इतना और जोड़ना चाहिए कि यहाँ सब कुछ निरुद्देश्य है। यदि पदार्थों और हलचलों का कोई उद्देश्य नहीं तो फिर मनुष्य की सत्ता का−उसकी जीवन सम्पदा का ही कुछ प्रयोजन क्यों होगा? उद्देश्य रहित अस्तित्व के लिए न कुछ कर्त्तव्य है और न अकर्त्तव्य। फिर नीति नियम, अनुशासन और आदर्श की बात करना भी व्यर्थ है। भौतिकी ही यदि सब कुछ है और तत्व−दर्शन निरर्थक है तो समझना चाहिए कि हम निरर्थक दुनिया में, निरर्थक जीवनयापन कर रहे है और अपनी उच्छृंखलता पर निरर्थक ही अंकुश लगाने की बात सोच रहे हैं। यदि भौतिकी उन्हीं निष्कर्षों तक हमें पहुँचाती है तो उस उपलब्धि की तुलना में आदिमकाल का पिछड़ापन किसी प्रकार भी बुरा नहीं ठहराया जा सकता।

दार्शनिक कोयरे के अनुसार- “विज्ञान ने अविज्ञान पर से बहुत से पर्दे उठाये हैं और अनजान स्थिति को हटाकर जानकारी की सम्पन्नता प्रदान की है। उस पर भी एक बड़ी हानि यह हुई है कि प्रत्यक्ष मनुष्य, अप्रत्यक्ष होता चला गया है और क्रमशः लुप्त होने के निकट जा पहुँचा है।”

विज्ञान के अनुसार परमाणु और जीवाणु का तो अस्तित्व है, पर चेतना का नहीं। कुछ समय पहले वेदान्ती इस संसार को माया, मिथ्या, स्वप्न और भ्रम बताया करते थे। अब विज्ञान ने उलट कर हमला किया है और यह कहना आरम्भ कर दिया है कि मनुष्य की सत्ता माया, मिथ्या, स्वप्न और भ्रम है। मनुष्य का न कोई अस्तित्व है और न उद्देश्य। जो कुछ है केवल पदार्थ ही है। पदार्थ ही सोचता है, चाहता है, यह कहते भी नहीं बनता फिर जो मनुष्य सामने खड़ा है और विज्ञान को उपार्जित करता है वह स्वयं क्या हैं? क्या वह विज्ञान की उपज है अथवा विज्ञान में ही विलीन होने जा रहा है।

भौतिकी के स्वरूप का निर्धारण और इतिहास को क्रमबद्ध बनाने वाले इर्विन श्रेन्डिगर ने अपनी प्रतिपादित “सीक फार दि रोड” में लिखा है पदार्थ का मूल स्वरूप, कण है या तरंग, यह विवाद उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि जड़ और चेतन के पारस्परिक सम्बन्धों की गुत्थी सुलझाना। क्या जड़ ही एक स्थिति में चेतन बन जाता है? अथवा क्या चेतना स्वयं ही जड़ है। क्या मात्र इस संसार में पदार्थ ही पदार्थ हैं? चेतना का कोई स्थायित्व या अस्तित्व भी है या नहीं, यह असमंजस भौतिकी ने उत्पन्न किया है। या तो उसे अपनी बात प्रमाणित करके यह घोषणा करनी चाहिए कि भौतिकी ही सब कुछ है, चेतना ही पृथकता या प्रमुखता की बात व्यर्थ है। अथवा दर्शन को इस स्तर के प्रमाण संचय करने चाहिए कि छाया हुआ असमंजस दूर हो सके और चिन्तन को आस्ति और नास्ति के बीच कोई स्वरूप दिशा धारा मिल सके।

कोयरे ने झल्ला कर कहा है कि−‘‘यह कितनी विचित्र बात है कि विज्ञान ने हर पदार्थ को मान्यता दी है किन्तु मनुष्य का अस्तित्व ही मानने से इनकार कर दिया है। कभी धर्म गुरु कहते थे जो हमारे साथ नहीं चलेगा वह जहन्नुम में जायगा और अब विज्ञानी ने लगभग वैसी ही पहेली प्रस्तुत की है और कहना आरम्भ किया है जो विज्ञान को स्वीकार करेगा वह अपनी हस्ती ही गँवा बैठेगा।”

चेतना के अस्तित्व को अमान्य ठहराना और उसकी अवमानना करना मात्र वैज्ञानिक एवं दार्शनिक विवाद ही नहीं है। उसके निर्णय का प्रभाव मनुष्य की नैतिक, संस्कृति, समाज व्यवस्था पर भी पड़ता है। उतावली में ‘अस्वीकृति’ के प्रति आग्रह जमा लिया जाय तो उसका तात्कालिक प्रभाव यह होगा कि मानवी गरिमा का मूल्यांकन स्वतः मनुष्य की अपनी ही आँखों में हो जायगा। जब वह कुछ है ही नहीं, रासायनिक पदार्थों से बना ढकोसला ही जब उछल−कूद कर रहा है और उसका अस्तित्व क्षण भर का है तो फिर नीति और धर्म का अनुशासन मानकर कष्टसाध्य जीवन जीना निरर्थक है। तब फिर बुद्धिमत्ता इसी में है कि इन क्षणों में जितना अधिक मौज−मजा लूटा जाय उससे वंचित न रहा जाय। भले ही इसके लिए प्रचलित नीति मर्यादाओं का अतिक्रमण ही क्यों न करना पड़े?

आत्म−गौरव का तब कोई महत्व नहीं रह जाता जब अपना अस्तित्व ही संदिग्ध है। ऐसी दशा में समाज व्यवस्था के प्रति अपना योगदान करने को प्रवृत्ति ही क्यों उठेगी। तब देशभक्ति, समाज सेवा, लोकहित, परमार्थ जैसे उन आदर्शों का कोई मूल्य नहीं रह जाता जिनके ऊपर व्यक्ति की श्रेष्ठता का स्वरूप बताने और उसे अपनाने वाले को श्रेय सम्मान देने की परम्परा चलती रही है। नास्तिकता की प्रतिक्रिया चरित्र−निष्ठा और समाज−निष्ठा पर सीधा कुठाराघात करती है। उनका आस्था परक मूल्य समाप्त करती है फिर समाज व्यवस्था के नाम पर जो अनुशासन लादा जाता है वह कोई दर्शन नहीं रह जाता। मात्र व्यवहार रह जाता है। ऐसे व्यवहार को स्वार्थ साधन के लिए तोड़ फेंकने में किसी को कोई संकोच नहीं हो सकता।

आज धर्म और अध्यात्म की सूत्र संचालक आस्था−आस्तिकता− के प्रति लोकश्रद्धा, व्यक्तिवाद और विलासी दृष्टिकोण के कारण स्वतः ही गिरती चली जा रही है फिर यदि नास्तिकता को दार्शनिक और वैज्ञानिक मान्यता भी मिल गई तो उसे शोध की प्रगति या अन्य जो भी नाम दिया जाय, माना और गर्व किया जा सकता है किन्तु उसका दुष्परिणाम उस संचित पूँजी को गँवाने के रूप में ही सामने आवेगा जिसे मानवी प्रयासों की लम्बी शृंखला के उपरान्त बड़ी कठिनाई से गढ़ा गया है। उच्चस्तरीय आस्थाओं का बाँध तोड़ देने के उपरान्त तो रही बची आशा भी समाप्त हो जायगी। तब चरित्र संकट की अराजकता की प्रतिक्रिया मनुष्य को मनुष्य द्वारा फाड़−चीरकर न सही निचोड़ने, चूसने और दबाने के रूप में तो प्रस्तुत होगी ही। तब नीति और न्याय का समर्थन उथले और उपहासास्पद तर्कों के सहारे ही किया जा सकेगा और उसके किसी के गले उतरने की आशा नहीं ही की जायगी।

भारतीय नास्तिकवाद में चार्वाक दर्शन प्रसिद्ध है। उनके मत का संक्षिप्त विवेचन इन दो श्लोकों में हुआ है।

देहस्थौल्यादियोगाच्च स एवात्मा न चापरः। न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः॥ यावज्जीवं सुखं जीवेद्ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥

अर्थात्−काया पंच तत्वों के सम्मिलन से बनी है। यह सम्मिलन ही आत्मा है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। स्वर्ग, अपवर्ग, आत्मा, परलोक आदि कहीं कुछ नहीं है।

इस मान्यता का फलितार्थ क्या होता है? इसका स्पष्टीकरण दूसरे श्लोक में देखा जा सकता है। जब आत्मा, कर्मफल, परलोक, पुनर्जन्म आदि कुछ है ही नहीं तो फिर जिस तरह भी हो उसी प्रकार स्वार्थ सिद्ध करने और मौज−मजा लूटने के लिए प्रयत्न करना ही अक्लमंदी है। फिर नीति, धर्म, समाज, सदाचार आदि पर ध्यान क्यों दिया जाय? और उनके बन्धनों में बँध कर अपनी सुविधाओं में कमी क्यों की जाय? दूसरे श्लोक में यही निष्कर्ष है। चार्वाक कहते हैं−

“जब तक जीना सुख से जीना−कर्ज लेकर भी घी पीना। देह तो भस्मी भूत है। फिर आने का तो सवाल ही नहीं।” इसी दिशा में जो मौज−मजा सम्भव हो इसी समय कर लेने की बात ही सही जँचती है। पुण्य परमार्थ, संयम, सदाचार, सेवा आदि के लिए ऐसी मनःस्थिति में कोई स्थान नहीं रह जाता।

चार्वाक की तरह ईसा से 300 वर्ष पूर्व यूनान का दार्शनिक एपीक्यूरस भी इसी मत का प्रतिपादन करता था। इसने भी प्राणी को पदार्थ कहा है और चेतना को काया का उत्पादन कहा है। इतने पर भी वह इस शंका समाधान करने में असमर्थ रहा कि यदि चेतना काया का धर्म है तो मरने के बाद वह काया से अलग क्यों हो जाती है? जबकि प्रत्येक पदार्थ का गुण उसके साथ अविच्छिन्न रूप से बना ही रहता है।

इससे अधिक स्पष्ट निष्कर्ष जर्मन वैज्ञानिक हेकल ने निकाला है। उनने अपने ग्रन्थ ‘दि रिडल आव दि युनिवर्स’ में यह सिद्ध किया है कि परमाणु में मात्र हलचल ही नहीं चेतना भी मौजूद है और वह अपने ढंग से उसी प्रकार आगे−पीछे सोचती है जैसा कि प्राणियों की सत्ता।

मानवी सत्ता की व्याख्या प्रयोगशाला के निष्कर्षों के आधार पर ही की जाय यह आवश्यक नहीं। प्रत्यक्ष ही सब कुछ नहीं हैं। उन भाव सम्वेदनाओं का महत्व तो दूर उनके अस्तित्व का कोई कारण तक सिद्ध नहीं किया जा सका जिनके ऊपर भावनाओं का आधार खड़ा हुआ है। स्पष्ट है कि यदि भाव तत्व हटा दिया जाय तो फिर मनुष्य सचमुच ही एक चलता−फिरता पौधा अथवा सोचने, हँसने वाला यन्त्र भर बनकर रह जायगा।

अधूरा प्रत्यक्षवाद यदि चेतना की व्याख्या करने में अतिशय उतावली करेगा। अपने साधन की अपूर्णता का ध्यान न रखेगा तो यह अत्युत्साह उस मानवी प्रगति की जड़ पर कुठाराघात ही करेगा जिसका एक अंग स्वतः विज्ञान है।

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