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Magazine - Year 1978 - Version 2

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व्यवहार से ही ज्ञान की सिद्धि

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धनपति के परिवार में अभी तक किसी ने इतनी शिक्षा प्राप्त नहीं की थी जितनी कि उसका पुत्र धर्मकीर्ति प्राप्त कर लौट रहा था। महर्षि याज्ञवलक्य के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर लौट रहे धर्मकीर्ति के स्वागत तथा अभिनन्दन की तैयारियाँ की जा रही थीं। बीस वर्ष तक आश्रम में रहकर धर्मकीर्ति ने व्याकरण, छंदःशास्त्र, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, वेद−वेदांत और दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया था और उस गाँव का कोई युवक पहली ही बार इतना ज्ञानार्जन कर, इतनी योग्यता प्राप्त कर लौट रहा था सो स्वाभाविक ही गाँव वाले भी धर्मकीर्ति के स्वागत को आतुर थे।

धर्मकीर्ति ने जब गाँव में प्रवेश किया तो सारा गाँव मंगल गान और जयकार से गूँज उठा। इसके बाद कुछ दिन बीते। धनपति ने अपने पुत्र को पैतृक कारोबार सम्हालना चाहा। इधर कई लोग विवाह प्रस्ताव भी लेकर आ रहे थे। पर धर्मकीर्ति तो इन सब बातों को माया जाल समझ कर पारिवारिक तथा लौकिक उत्तरदायित्वों को धोखे की टट्टी ही समझ रहा था। पिता द्वारा पारिवारिक उत्तरदायित्वों का हस्तांतरण तथा विवाह सम्बन्ध को लेकर चल रही चर्चाओं के विषय में मालूम हुआ तो उसने कहा−‘पिताजी मैं विवाह नहीं करूंगा।’

“क्या”−धनपति ने पूछा।

“इसलिए कि यह शरीर नाशवान है। संसार और सम्बन्ध भी नाशवान है। मुझे ऐसे सम्बन्ध चाहिए जो जीर्ण और नष्ट न हों और ऐसा व्यवसाय जिससे मैं मोक्ष साधन कर सकूँ, धर्मकीर्ति ने कहा।

असमय ही इस वैराग्य धारणा ने धनपति को विचलित कर दिया। उन्होंने बहुत समझाया, पर धर्मकीर्ति नाशवान सम्बन्धों को किसी भी प्रकार स्थापित करने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। निदान धनपति महर्षि याज्ञवलक्य के पास पहुँचे और अपनी समस्या रखी। महर्षि ने समस्या के मूलकारण को जानते हुए धर्मकीर्ति को वापस अपने आश्रम में बुला लिया और वहीं रहने को कहा।

एक दिन की बात है। महर्षि ने धर्मकीर्ति को फूल चुनने के लिए भेजा। जिस उपवन में धर्मकीर्ति फूल चुन रहा था संयोग से उसका मालिक उधर आ निकला और धर्मकीर्ति को फूल तोड़ते देखकर एकदम आग−बबूला हो उठा। न कुछ पूछा और न ही कुछ कहा। सीधे उसने अपने हाथ की कुल्हाड़ी तानी और धर्मकीर्ति को मारने दौड़ा।

धर्मकीर्ति भागा और आश्रम में पहुँचा तो उपवन का मालिक भी उसके पीछे था। धर्मकीर्ति महर्षि के पास पहुँचा और उनके चरणों में गिर कर जल्दी−जल्दी उसने सारी घटना कह सुनाई। उपवन का स्वामी भी तब तक वहाँ पहुँच गया था और चुपचाप खड़ा था। महर्षि ने सारी बात सुनकर कहा−‘वत्स! यह देह तो नाशवान है। उपवन का स्वामी तुम्हारी इस देह को ही तो नष्ट कर रहा था। तुम्हारी सत्य आत्मा को तो कोई क्षति नहीं पहुँचा रहा था फिर तुम इतने भयभीत क्यों हों?’

धर्मकीर्ति कुछ न कह सका। जैसे उसका स्वप्न टूट गया हो और सत्य सामने खड़ा हो−वह महर्षि की ओर अपलक देख रहा था। तब याज्ञवलक्य ने कहा−‘आत्मा सत्य है। किन्तु देह भी सत्य है और देह के धर्म भी सत्य हैं। इसलिए जाओ और दोनों को साधो। जब तक सागर में प्रवेश नहीं करोगे तब तक तैरना कैसे सीखोगे। सीखे गये ज्ञान को व्यवहार में उतार कर ही तो सिद्ध किया जाता है। जल में रहकर उससे अस्पृश्य रहने वाले कमल की ही तो प्रशंसा होती है। अन्यथा जल में तो बहुतेरे पुष्प अलग रहते हैं। इसलिए जाओ देह और आत्मा दोनों के ही कल्याण की साधना करो तभी पाँचों ऋणों से उऋण होंगे।

----***----

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