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Magazine - Year 1978 - Version 2

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ध्यान धारण का आत्म-निर्माण में योगदान

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ध्यान की गहराई से शारीरिक और मानसिक हलचलों में शिथिलता आती है। फलतः ऑक्सीजन की खपत और कार्बनडाई ऑक्साइड की उत्पत्ति घट जाती है। इससे जीवन यन्त्र चलाने में शरीर के कलपुर्जों को जो शक्ति खर्च करनी पड़ती है उसका अनुपात कम होने से विश्राम का लाभ मिलता है। यह विश्राम थकान दूर करता है। रोग निरोधक क्षमता और जीवनी-शक्ति बढ़ाता है। फलतः अभ्यास करने वाले को शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अधिक स्वस्थ एवं समर्थ बनने का अवसर मिलता है। इस आधार पर उपलब्ध हुई ताजगी एक ऐसी सम्पदा है जिसका किसी भी क्षेत्र में उपयोग करके उपयुक्त लाभ उठाया जा सकता है।

नींद का अपना लाभ है। उसकी आवश्यकता उपयोगिता से सभी परिचित है, पर जब अचेतन मन पर अवलम्बित है। जब चाहें तब उसे बुला लें, ऐसा नहीं हो सकता। किन्तु कई परिस्थितियों में ऐसी आवश्यकता होती है कि जागृत-स्थिति में शरीर और मन पर छाये हुये अतिरिक्त दबाव को हटाने या घटाने के लिए तत्काल निद्रा का लाभ मिल जाय। किसी प्रकार वह मिल जाता है तो, थकान और तनाव से उत्पन्न कष्ट से राहत मिल जाती है। श्रम करते समय बीच-बीच में विश्राम लेने से बहुत बड़ी राहत इस प्रकार की मिल जाती है। शिथिलीकरण मुद्रा में शरीर को ढीला करके भी ऐसा ही कुछ प्रयास किया जाता है, पर इनसे लाभ सीमित ही मिल पाता है। आराम शरीर को ही तो मिला मन पर इसका सीधा प्रभाव तो बहुत कम ही हो पाता है। ध्यान की प्रत्यक्ष विशेषता यह है कि मन की उत्तेजना को शान्त करने में उसका प्रयोग बड़ी अच्छी तरह हो सकता है। ध्यान से उत्पन्न मानसिक शिथिलता की, हलकी स्थिति को योगनिद्रा और गहरी स्थिति को समाधि कहते हैं। हिप्नोटिज्म स्तर के सभी प्रयास योगनिद्रा पद्धति के अन्तर्गत होते हैं। गहरी परतों की सघन विश्रान्ति समाधि के अनेक स्तरों में उसके स्तर के अनुरूप मिलती है। इसके लाभ मानसिक तनावों और दबावों से छुटकारा पाने के रूप में साधनकर्त्ता को मिलता है।

योगसाधना का वैज्ञानिक दृष्टि से क्या महत्व हो सकता है इसकी शोध करने के लिए फ्रांस की हारवर्ड इन्स्टीट्यूट फॉर साइकिक एण्ड कल्चरल रिसर्च की ओर से डॉ0 घेर से ब्रोसे की अध्यक्षता में एक मण्डली ने विश्वव्यापी परिभ्रमण किया था। वह टोली भारत भी आई थी। परीक्षणों के उपरान्त इस शोध प्रयास ने यह स्वीकार किया कि ध्यान अभ्यास से श्वास-प्रश्वास एवं हृदय की सिकुड़न को संकल्पपूर्वक अभीष्ट मात्रा में घटाया जा सकता है। मानसिक उद्वेग भी घटाते-घटाते सघन निद्रा की स्थिति में पहुँचा जा सकता है। यह दोनों ही उपलब्धियाँ शारीरिक और मानसिक दृष्टि से बहुत उपयोगी है।

ध्यान की सघनता से मानसिक विश्राम की बात उतनी बड़ी नहीं हैं जितनी की कोशाओं, ऊतकों से लेकर छोटे-बड़े सभी अवयवों को उनकी अभ्यस्त शक्ति व्यय प्रक्रिया को सुधार देने या घटा देने से। इन घटकों में कारणवश उत्तेजना भर जाती है और शक्ति का अनावश्यक, अपव्यय होने लगता है। इस कारण संचित जीवनीशक्ति का भण्डार अनावश्यक रूप से खर्च होता चला जाता है। फलतः समूचे व्यक्तित्व पर क्षरण और आवेश के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। यह स्थिति चिन्ताजनक है। इसमें दुर्बलता, रुग्णता एवं अकाल मृत्यु का संकट उत्पन्न होता है।

ध्यान द्वारा उपलब्ध होने वाली विश्रान्ति इस संकट को दूर करती है। सामयिक आवेशों को हटाने में तो उसकी सफलता तत्काल देखी जा सकती है। पर यह तो हलका, उथला और सामयिक लाभ है, असली लाभ तो वह है जिसके अनुसार शक्ति के अपव्यय के अभ्यस्त ढर्रे की रोकथाम होती है और स्वास्थ्य संकट की, मानसिक विक्षेप की जड़ जमा कर बैठी हुई विपत्ति से छुटकारा पाने का अवसर मिलता है। विश्राम के बाद नये सिरे से नया कार्यक्रम बनाना सरल पड़ता है। छोटे-बड़े अवयव भी इसी आधार पर राहत प्राप्त करते हैं और नव-जीवन का नई ताजगी का लाभ लेते हैं।

भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली के परीक्षण यूनिट ने पिछले दिनों तक प्रायः 600 ध्यानस्थ योगियों के शरीरों की जाँच-पड़ताल की है। इस परीक्षण में मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह स्नायु संस्थान का आवेश तथा अन्यान्य स्वसंचालित गतिविधियों में शिथिलता लाने की बात असंदिग्ध रूप से देखी गई हैं। हृदय की सामान्य धड़कन एक मिनट में 72 बार को घटा कर 30 बार कर देने वाले प्रमाण तो कितने ही मिले हैं। कई तो भूमिस्थ समाधि में मृतक तो नहीं होते, पर लगभग उसी स्तर की शिथिलता उत्पन्न कर लेते हैं। जीवन प्रवाह के क्रम में शिथिलता आने के फलस्वरूप मिलने वाले विश्रान्ति का अपना महत्व है।

बार-बार उसका अभ्यास चलता रहे तो शरीर के अन्तराल में काम करने वाली गतिशीलता पर नियन्त्रण और सुधार परिवर्तन करना सम्भव हो सकता है। सामान्यता यह बहुत कठिन है। कहने भर को ही यह कहा जाता है कि मनुष्य अपना स्वामी आप है, पर यह उथली दर्पोक्ति है। वस्तुतः शरीर अचेतन की आदतों और मस्तिष्क संचित संस्कारों का गुलाम है। इस गुलामी से छूटने को ही मुक्ति कहा गया है। मुक्ति का आकर्षक और अलंकारिक वर्णन अध्यात्म शास्त्रों में अति विस्तारपूर्वक किया गया है। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए आत्म-नियंत्रण की क्षमता चाहिए, तभी आदतों और संस्कारों के प्रगाढ़ बन्धनों को ढीला करना और अन्तराल स्थिति तथा गति को बदलना सम्भव हो सकता है। यह सब कैसे सम्भव हो सकता है? यह जटिलता को सरलता में बदलने की ध्यान धारण का अभ्यास बहुत ही कारगर हो सकता है।

कैवल्यधाम, लीनावाला में योग द्वारा रोग चिकित्सा के प्रयोग बहुत समय से चल रहे हैं, उस प्रयोग परीक्षण के परिणाम उत्साहवर्धक माने जाते हैं। योगाभ्यासों के बाहरी विधि-विधानों में आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा जैसे क्रिया-कलाप ही आँखों से परिलक्षित होते हैं फलतः मोटी दृष्टि से उन्हें उतने तक ही सीमित मान लिया जाता है। वस्तुस्थिति इससे कहीं आगे तक चली जाती है। इन सभी गतिविधियों के साथ ध्यान धारण का-विचारणा, मान्यता और भावना का समावेश करने पर ही उपयुक्त लाभ मिलते हैं। यह ध्यान को ही प्रक्रिया है। एकाग्रता मात्र ही ध्यान नहीं है। मानसिक स्थिरता ही उसका स्वरूप नहीं है। निग्रहीत मन को किधर घुमाया जाय, किस कार्य में लगाया जाय यही है समग्र ध्यान धारणा। हर योगाभ्यास में किसी न किसी रूप में ध्यान धारण का समावेश करना होता है। शरीर द्वारा किये जाने वाले अभ्यासों से जो चमत्कारी परिणाम देख पाते हैं, वे अंग संचालन या श्रम साधना के नहीं, वरन् उनके साथ गुंथे हुये मनोयोग के हैं। मनोयोग का इच्छित नियोजन कर सकने की सामर्थ्य उत्पन्न करना ही ध्यान धारणा का उद्देश्य है। इस प्रकार उसे आत्म-नियन्त्रण, आत्म-परिवर्तन और आत्म-विकास की कुंजी भी कह सकते हैं। ध्यानयोग की गरिमा ऐसे ही अनेकानेक लाभों के साथ जुड़ी हुई है।

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