
नास्ति जीवन्ते सनातनाः
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श्मशान घाट पर अनेक बार करुणाजनक चीत्कारें सुनी गई हैं, किन्तु यह दृश्य तो इतना हृदय विदारक था कि दर्शकों ने नेत्र छलछलाये बिना नहीं रहते। अभी कुछ ही दिन तो हुए श्रावस्ती के अत्यन्त कुलीन वंश में जन्मी उब्बिरी का कौशल नरेश के साथ पाणिग्रहण हुआ था। उब्बिरी के सौन्दर्य के सम्मुख शची और रती ऐसी ही थीं जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा के समक्ष टिमकते खद्योत। न केवल कौशलपुर अपितु स्वयं अधिपति ने उब्बिरी को पाकर अपने पूर्व जन्मों के पुण्यों को सराहा था। आज वही उब्बिरी श्मशान घाट में जब अम्म जीवे! अम्म जीवे!! ओ जीवन्ती तुम कहाँ हो? ओ जीवन्ती तुम कहाँ हो?? की पुकार के साथ प्रलाप करतीं तो सारे वातावरण में हाहाकार छा जाता, मनुष्य तो मनुष्य जीव-जन्तु और वृक्ष वनस्पति तक उब्बिरी के शोक में डूबे हुए थे। श्मशान घाट करुणा की साक्षात् मूर्ति बना हुआ था। दर्शन की समस्त परिभाषा इस परिवर्तन में ही तो सन्निहित है। नियति अपनी बलवत्ता, परमात्मा अपना अस्तित्व और प्रकृति अपनी महामाया, यदि यह परिवर्तन न होते तो, कैसे अभिव्यक्त कर पाते?
उब्बिरी को अन्तःपुर में आये एक वर्ष ही हुआ था। उनका अपना अनिन्द्य सौन्दर्य, कौशल राज की अनन्त श्री और राज प्रसाद के संस्कार लेकर उनकी कोख से एक कन्या ने जन्म लिया जो अप्रतिम सुन्दर और अद्भुत संस्कारवान थी। उसे पाकर कौशल नरेश फूले न समाये। उन्होंने उब्बिरी को राज महिषी का पद-प्रदान किया। उस दिन जो शोभा यात्रा निकाली गई वैसी प्रजाजन ने पहले कभी नहीं देखी थी। मनुष्य अपने भाग्य पर इतराता है, पर उस महान चक्र को भूल जाता है, जो आज नहीं तो कल आने को मानता नहीं, यही तो जीवन की विडम्बना है। यदि लोग उन विभीषिकाओं का पूर्ण स्मरण रखें तो आधे से अधिक औद्धत्य, अपकर्म और अवांछनीयताएँ मात्र इस मान्यता से ही दूर हो जायें शेष आधी आध्यात्मिक आस्थाओं का प्रकाश दूर कर दे।
बालिका का नाम जीवन्ती रखा गया। बालिका ने अपनी सुन्दरता और चपलता से राज-दम्पत्ति को पूरी तरह मोह लिया। यह आसक्ति कितनी कठिन है कि मनुष्य को क्षणिक जीवन के क्रिया व्यापार में तो लगाये रखती है, पर जीवन के सनातन उद्देश्य आत्म-कल्याण की ओर ध्यान भी नहीं बंटने देती। वह उब्बिरी के साथ भी हुआ। एक वर्ष ही कठिनाई से बीता था एक दिन हँसते-खेलते जीवन्ती ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी। राज परिवार शोक-सागर में डूब गया।
अम्म जीवे- जीवन्ती तुम कहा हो अम्म जीवे! जीवन्ती तुम कहा हो! की आर्त्त पुकार श्मशान घाट में गूँजते कई मास बीत गये। राजमहिषी ने अपनी स्मरण शक्ति खो दी, बहुत प्रयत्न करने पर भी वे न तो राज प्रासाद में टिकीं और न कहीं अन्यत्र। शोक विह्वल क्षत-विक्षत देह वे श्मशान में ही पड़ी चिल्लाती रहतीं।
आज तथागत का उधर ही आगमन हुआ है। उन्होंने भी उब्बिरी की दारुण-गाथा सुनीं। वे सीधे श्मशान घाट पहुंचे, उनका अपूर्व तेजस देखते ही राजमहिषी स्तम्भित हो उठीं। तथागत ने उन्हें शान्त करते हुए पूछा- देवी! इस श्मशान में अब तक कितने लोगों का दाह हुआ होगा तुम उनकी संख्या बता सकती हो?
नहीं देव! उब्बिरी ने सिर हिलाया।यदि वह सभी लोग बिछुड़ों हुओं की याद में यों ही रुदन करें तो यह सृष्टि कितने दिन चलेगी?
उब्बिरी मौन थीं।
पुत्री! बिछुड़ तो मनुष्य की आत्मा भी उसी से गई है, पर तुमने कभी उसे पाने के लिए इतना दुःख किया क्या? क्या तुम अपने स्वरूप को पहचानती हो, यहाँ से चले गयी जीवन्ती के आत्म तत्व को तुम ढूंढ़ सकती हो क्या?
नहीं! नहीं!! नहीं!!! देव! मैं नहीं जानती वहाँ तक पहुँचने का मार्ग क्या है?
तो उठो और उस सनातन गरिमा आत्म-तत्व को ढूंढ़ने का प्रयास करो जहां भूत भविष्य और वर्तमान सभी कुछ एकाकार हैं।
उब्बिरी की आंखें खुल गईं, मोह माया का परित्याग कर वे आत्म साधना में निरत हुईं तो पूर्णता प्राप्त करके ही लौटीं।
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