• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • पवित्रता, महानता और संयमशीलता
    • प्रगति के लिये कल्मषों का निवारण आवश्यक
    • Quotation
    • अभिवर्धन से पूर्व परिशोधन करना होगा।
    • Quotation
    • कर्मफल की सुनिश्चितता बनाम आस्तिकता
    • Quotation
    • कर्मफल की अस्त-व्यस्तता एवं अपवाद शृंखला
    • पाप कर्मों का परिमार्जन मात्र प्रायश्चित्त से
    • प्रारब्ध न तो अन्धविश्वास है और न अकारण।
    • तत्काल फल न मिले तो भ्रम में न पड़ें।
    • कुसंस्कारों का परिपाक कष्टों और संकटों के रूप में
    • Quotation
    • कर्मफल भोगे बिना छुटकारा नहीं
    • आकस्मिक विपत्तियों और दुर्घटनाओं की परोक्ष पृष्ठभूमि
    • अनेक संकटों के कारण मनुष्य के संचित पाप कर्म
    • व्यक्तित्व को प्रखर और भविष्य को उज्ज्वल बनाने की साधना
    • प्रौढ़ साधकों के उपयुक्त प्रखर साधना
    • Quotation
    • सर्वतोमुखी प्रखरता उत्पन्न करने वाली तप-साधना
    • Quotation
    • चांद्रायण तप की शास्त्रीय परम्परा
    • चांद्रायण तप और पंचकोशी योगाभ्यास
    • विश्व भ्रमण पर थे (kahani)
    • ब्रह्मवर्चस् साधना में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का समन्वय
    • Quotation
    • ब्रह्मवर्चस् की योगाभ्यास साधना
    • Quotation
    • ब्रह्मवर्चस् साधना के लिए आमन्त्रण
    • साधना का पारस!
    • साधना का पारस (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • पवित्रता, महानता और संयमशीलता
    • प्रगति के लिये कल्मषों का निवारण आवश्यक
    • Quotation
    • अभिवर्धन से पूर्व परिशोधन करना होगा।
    • Quotation
    • कर्मफल की सुनिश्चितता बनाम आस्तिकता
    • Quotation
    • कर्मफल की अस्त-व्यस्तता एवं अपवाद शृंखला
    • पाप कर्मों का परिमार्जन मात्र प्रायश्चित्त से
    • प्रारब्ध न तो अन्धविश्वास है और न अकारण।
    • तत्काल फल न मिले तो भ्रम में न पड़ें।
    • कुसंस्कारों का परिपाक कष्टों और संकटों के रूप में
    • Quotation
    • कर्मफल भोगे बिना छुटकारा नहीं
    • आकस्मिक विपत्तियों और दुर्घटनाओं की परोक्ष पृष्ठभूमि
    • अनेक संकटों के कारण मनुष्य के संचित पाप कर्म
    • व्यक्तित्व को प्रखर और भविष्य को उज्ज्वल बनाने की साधना
    • प्रौढ़ साधकों के उपयुक्त प्रखर साधना
    • Quotation
    • सर्वतोमुखी प्रखरता उत्पन्न करने वाली तप-साधना
    • Quotation
    • चांद्रायण तप की शास्त्रीय परम्परा
    • चांद्रायण तप और पंचकोशी योगाभ्यास
    • विश्व भ्रमण पर थे (kahani)
    • ब्रह्मवर्चस् साधना में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का समन्वय
    • Quotation
    • ब्रह्मवर्चस् की योगाभ्यास साधना
    • Quotation
    • ब्रह्मवर्चस् साधना के लिए आमन्त्रण
    • साधना का पारस!
    • साधना का पारस (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


कुसंस्कारों का परिपाक कष्टों और संकटों के रूप में

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 11 13 Last
जैसे-जैसे हम स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे हमें संकटों और अभावों के कारणों के वास्तविक कारणों को समझने में सुविधा मिल रही है। मोटी बुद्धि सदा संकटों का कारण बाहर ढूंढ़ती है। व्यक्तियों, परिस्थितियों पर ही प्रस्तुत विपन्नताओं का दोष थोपकर चित्त हलका करने की विडम्बना चलती रहती है। समझदारी बढ़ने पर ही यह पता चलता है कि घटिया व्यक्तित्व ही पिछड़ेपन से लेकर समस्त संकटों के घाट हैं। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थिति बनती है उसे विचारशील ही स्वीकार करते हैं। अन्यथा आमतौर से कठिनाइयों के कारण बाहर ही ढूँढ़े जाते हैं। गहराई में प्रवेश किये बिना न तो वास्तविकता जानी जा सकती है और न उनके निवारण का कारगर उपाय ही बन पड़ता है। व्यक्तित्व का घटियापन सूझ ही न पड़े- उसके सुधार की कोई योजना बने ही नहीं तो परिस्थितियों की विपन्नता का समाधान हो नहीं सकता। वे एक से दूसरा रूप भर बदलती रहेंगी।

बहुत समय पहले शारीरिक रोगों को बाहरी भूत-पलीतों का आक्रमण माना जाता था। पीछे वात, पित्त, कफ का ऋतु प्रभाव का कारण उन्हें माना गया। उसके बाद रोग कीटाणुओं के आक्रमण की बात समझी गई। रोगों की शोधों में अगला चरण यह बना कि आहार की विकृति से पेट में सड़न पैदा होती है और उस विष से रोग उत्पन्न होते हैं। यह क्रम अधिकाधिक गहराई में प्रवेश करने का, अधिक बुद्धिमत्ता का, स्थूल से सूक्ष्म में उतरने का है। इस प्रगतिक्रम में उतरते-उतरते इन दिनों आरोग्य शास्त्र के मूर्धन्य क्षेत्र में इस तथ्य को खोज निकाला गया है कि शारीरिक रोगों के सन्दर्भ में आहार-विहार, विषाणु, आक्रमण आदि को तो बहुत ही स्वल्प मात्रा में दोषी ठहराया जा सकता है। रुग्णता का असली कारण व्यक्ति की मनःस्थिति है। मनोविकारों की विषाक्तता यदि मस्तिष्क पर छाई रहे तो उसका अनुपयुक्त प्रभाव नाड़ी संस्थान के माध्यम से समूचे शरीर पर पड़ेगा। फलतः दुर्बलता और रुग्णता का कुचक्र बढ़ते-बढ़ते अकाल मृत्यु तक का संकट खड़ा कर देगा। नये अनुसन्धान जीवनी शक्ति का केन्द्र हृदय को नहीं मस्तिष्क को मानते हैं। रक्त की न्यूनाधिकता या विषाक्तता को रुग्णता का उतना बड़ा कारण नहीं माना जाता जितना कि मानसिक अवसाद एवं आवेश को।

इन शोध प्रयासों में नये-नये तथ्य सामने आये हैं। उनसे पता चलता है कि शरीर की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रियाओं पर पूरी तरह मानसिक अनुशासन ही काम करता है। अचेतन मन की छत्र-छाया में रक्ताभिषरण, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वांस, निमेष-उन्मेष, ग्रहण-विसर्जन, निद्रा-जागृति आदि की अनैच्छिक कहलाने वाली क्रियाएं चलती रहती हैं। चेतन मन के द्वारा बुद्धिपूर्वक किये जाने वाले क्रिया-कलापों और लोक व्यवहारों का ताना-बाना बुना जाता है। शरीर की परोक्ष और प्रत्यक्ष क्षमता पूरी तरह अचेतन और चेतन कहे जाने वाले मनःसंस्थान के नियंत्रण में रहती है, उसी के आदेशों का पालन करती है। शरीर का पूरा-पूरा आधिपत्य मन मस्तिष्क के ही हाथों में रहता है। उस क्षेत्र की जैसी भी कुछ स्थिति होती है उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है। यदि मस्तिष्क आवेशग्रस्त होगा तो शरीर के अवयवों में उत्तेजना और बेचैनी छाई रहेगी। इस स्थिति में ऐसे रोग उत्पन्न होंगे जिनसे शरीर के उत्तेजित होने, गरम होने, फलने-फूलने जैसे अनुभव होने लगेंगे। यदि मस्तिष्क उदास-हताश, शिथिल हो जायगा तो उस अवसाद का प्रभाव अंग अवयवों की दुर्बलता के रूप में देखा जा सकेगा।

यह मोटा निष्कर्ष हुआ। बारीकी में उतरने पर पता चलता है कि अमुक शारीरिक, रोग अमुक मनोविकास के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं और वे तब तक बने ही रहते हैं जब तक कि मानसिक स्थिति में कारगर परिवर्तन न हो जाय। इस अनुसंधान ने उस असमंजस को दूर कर दिया है जिसके अनुसार रोगियों को चिकित्सकों के दरवाजे-दरवाजे पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। नित नई दवाएं बदलनी पड़ती हैं। किन्तु आशा निराशा के झूले में झूलते हुए समय भर बीतता रहता है। रोग हटने का नाम ही नहीं लेते। तेज औषधियाँ अधिक से अधिक इतना कर पाती हैं कि बीमारी के स्वरूप और लक्षण में थोड़ा-बहुत फेर बदल प्रस्तुत कर दे। जीर्ण रोगियों में से अधिकांश का इतिहास यही है। जिससे औषधि उपचार की निरर्थकता ही सिद्ध होती रहती है। आहार-विहार जन्य साधारण रोग तो शरीर की निरोधक जीवनी शक्ति ही अच्छे करती रहती है। उसी का श्रेय चिकित्सकों को मिल जाता है। सच्चाई तो यह है कि एक भी छोटे या बड़े रोग का शर्तिया इलाज अभी तक संसार के किसी भी कोने में किसी भी चिकित्सक के हाथ नहीं लगा है। कोई भी औषधि अपने आश्वासन को पूरा कर सकने में सफल नहीं हुई है। अंधेरे में ढेले फेंकने जैसे प्रयास ही चिकित्सा क्षेत्र में चलते रहते हैं, उसी भगदड़ में कभी-कभी किसी अन्धे के हाथ बटेर लग जाती है यदि ऐसा नहीं होता तो कम से कम चिकित्सकों को खुद तो रुग्ण रहना ही न पड़ता और उनके घर वाले तो सम्बन्धी तो बीमारियों से ग्रसित नहीं ही रहते। देखा यह गया है कि दवाओं की भरमार बीमारियों को घटाती नहीं वरन् उस नई विषाक्तता के शरीर में घुस पड़ने से नये-नये उपद्रव और खड़े होते हैं। सच तो यह है कि चिकित्सकों के शरणागत रहने वालों की अपेक्षा वे कहीं अधिक नफे में रहते हैं जिन्हें चिकित्सा का सौभाग्य या अभिशाप प्राप्त कर सकने का अवसर ही नहीं मिल सका।

शरीर शास्त्री अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आरोग्य और रुग्णता की कुँजी मनःक्षेत्र में सुरक्षित है। मानसिक असन्तुलन और प्रदूषण का निराकरण किये बिना किसी को भी स्वस्थ शरीर का आनन्द नहीं मिल सकता। जीवनी शक्ति का पिछले दिनों बहुत गुणगान होता रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे भी मिलाये जाते रहे हैं। टॉनिकों, हारमोनों और ग्रन्थि आरोपणों जैसे प्रयोग परीक्षणों की भरमार रही है। किन्तु गरीबों की बात तो दूर कोट्याधीश, शासनाध्यक्ष एवं स्वयं चिकित्सकों तक को उस प्रयास में कुछ पल्ले न पड़ा। अब यह निर्णय निकला है कि जीवनी शक्ति कोई शरीर गत स्वतन्त्र क्षमता नहीं है वरन् जिजीविषा की मानसिक प्रखरता ही अपना परिचय जीवनी शक्ति के रूप में देती रहती है। मानसिक स्थिति के उतार-चढ़ावों के अनुरूप यह जीवनी शक्ति भी घटती बढ़ती रहती है। शरीर की बलिष्ठता, सक्रियता, स्फूर्ति ही नहीं कोमलता, सुन्दरता और कान्ति तक मानसिक स्थिति पर अवलम्बित है। विपन्नता की मनःस्थिति में भय, शोक, क्रोध आदि के अवसर आने पर तो तत्काल आकृति से लेकर शरीर की सामान्य स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ते प्रत्यक्ष देखा जाता है। यदि मनोविकार जड़ जमा लें तो समझना चाहिए कि शरीर एक प्रकार से विपन्नता में फंस ही गया और उसे दलदल से निकल सकना चिकित्सा उपचार के बलबूते की बात भी नहीं रह गई है।

अब आरोग्य दशा और रोग निवृत्ति को दोनों ही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनःसंस्थान की खोज-बीन करना आवश्यक हो गया है और समझा जाने लगा है कि यदि मनुष्य के चिन्तन क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों की ओर ध्यान नहीं दिया गया। वहाँ जमी हुई वितृष्णाओं और विपन्नताओं का समाधान न किया गया तो आहार-विहार का सन्तुलन बनाये रहने पर भी रुग्णता से पीछा छूट नहीं सकेगा। चिकित्सा उपचार से भी मन बहलाने के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध हो नहीं सकेगा। अब क्रमशः औषधि उपचार का महत्व घटता जा रहा है और मानसोपचार को प्रमुखता दी जा रही है। मानसिक बीमारियों की पिछले दिनों अलग से गणना होती रही है और उनका क्षेत्र अलग रहा है। अब नये शोध प्रयोजनों ने कुछ दुर्घटना जैसे आकस्मिक कारणों से उत्पन्न होने वाले रोगों को ही शारीरिक माना है और लगभग समस्त बीमारियों को मनःक्षेत्र की प्रतिक्रिया घोषित किया है। गहरी खोजों के फलस्वरूप आरोग्य जैसे मानवी-जीवन के अति महत्वपूर्ण प्रयोजन पर नये सिरे से विचार करना होगा और आहार-विहार के ही गीत न गाते रहकर यह देखना होगा कि मनस्विता बनाये रहने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है?

मानसिक विकृतियों में से सामयिक उलझनों के कारण तो बहुत थोड़ी-सी ही होती है। अधिकतर उनका कारण नैतिक होता है। छल, दुराव एवं ढोंग, पाखण्ड के कारण मनुष्य के भीतर दो व्यक्तित्व उत्पन्न हो जाते हैं। एक वास्तविक, दूसरी पाखण्डी। दोनों के बीच भयंकर अंतर्द्वंद्व खड़ा रहता है। दोनों एक-दूसरे के साथ शत्रुता बनाये रहते हैं और विरोधी को कुचलकर अपना वर्चस्व बनाने का प्रयत्न करते हैं। यह देवासुर संग्राम सारे मनःक्षेत्र को अशान्त उद्विग्न बनाये रहता है। इस विग्रह के फलस्वरूप अनेक रोग उठ खड़े होते हैं और वे वैसे ही मानसिक स्थिति बने रहने तक हटने का नाम नहीं लेते।

शारीरिक रोग प्रत्यक्ष होते हैं। इसलिए उनकी जानकारी भी सहज ही मिल जाती है और दवा दारू से इनका इलाज होने के भी साधन मौजूद रहते हैं। मानसिक रोगों के प्रायः विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त स्तर के ऐसे लोग गिने जाते हैं जो अपना सामान्य काम-काज चला सकने में असमर्थ हो गये हों, जिनका शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार लड़खड़ाने और लटपटाने लगा हो जो अपने लिए और साथी सम्बन्धियों के लिए भार बन गये हों। ऐसे रोगियों की संख्या भी लाखों से आगे बढ़कर करोड़ की संख्या अपने ही देश में छूने लगी है। यह विज्ञान विक्षिप्त हुए हैं। ऐसे लोगों की संख्या का कोई ठिकाना नहीं जो रोजी-रोटी तो कमा लेते हैं और खाते-सोते समय भी साधारण लगते हैं, पर उनका चिन्तन विचित्र और विलक्षण होता है। कितने ही दुष्टता की भाषा में सोचते और हर किसी पर दोषारोपण करते हुए शत्रुता की परिधि में लपेटते हैं। कितने ही आशंकाओं, सन्देहों, आक्षेपों के इतने अभ्यस्त होते हैं कि उन्हें अपनी पत्नी, बेटी, बहिन आदि तक के चरित्र पर अकारण संदेह बना रहता है। सम्बन्धियों और पड़ौसियों को अपने विरुद्ध कुचक्र रचते हुए देखते हैं। दुर्भाग्य और ग्रह-नक्षत्रों के प्रकोप से कितने हर घड़ी कांपते रहते हैं और विपत्ति का पहाड़ अपने ऊपर टूटता ही अनुभव करते रहते हैं। शेख चिल्लियों के से मनसुये बाँधते रहने वाले, सम्भव, असम्भव का विचार किये बिना अपने सपनों की एक अनोखी दुनिया बनाये बैठे रहते हैं। न अपनी पटरी दूसरों के साथ बिठा पाते हैं न किसी और को अपना घनिष्ठ बनने का अवसर देते हैं। परिस्थिति का मूल्यांकन कर सकना-दूसरों की मनःस्थिति और परिस्थिति समझ सकना उनके लिए सम्भव ही नहीं होता। अटपटे अनुमान लगाते और बेतुके निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। विचार जो भी उठें वे एक पक्षीय सनक की तरह बिना किसी तर्क-वितर्क का आश्रय लिये बेलगाम के घोड़े पर चढ़कर दौड़ते चले जाते हैं। जो सोचा जा रहा है उसका आधार क्या है-और उस सनक पर चढ़े रहने का अन्ततः परिणाम क्या निकलेगा इतना समझ पाना उनके क्षत-विक्षत मस्तिष्क के लिए सम्भव ही नहीं होगा। अकारण मुँह लटकाये बैठे रहने वाले, जिस-जिस पर दोषारोपण करने वाले, दुर्भाग्य की कुरूप तस्वीरें गढ़ने में उन्हें देर नहीं लगती। दुनिया को निस्सार बताने वाले, आत्म-हत्या की बात सोचते रहने वालों की संख्या अपने ही इर्द-गिर्द ढेरों मिल सकती हैं। हंसी-खुशी से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। कहीं न कहीं से मुसीबत की कल्पना ढूँढ़ लाते हैं और स्वयं दुख पाते, साथियों को दुख देते, जिन्दगी की लाश ढोते रहते हैं। यह सनक कभी-कभी आक्रामक हो उठती है तो जो भी उनकी चपेट में आता है उसे सताने में कसर नहीं छोड़ते। मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र समझने में उनकी अदूरदर्शिता पग-पग पर झलकती रहती है। ठगों के आये दिन शिकार होते रहते हैं। आयु बड़ी हो जाने पर भी सोचने का तरीका बालकों जैसा ही बना रहता है। किसी महत्वपूर्ण प्रसंग में उनका परामर्श तनिक भी काम का सिद्ध नहीं होता। अपनी कार्य पद्धति को किसी उद्देश्य के साथ जोड़ सकना उनसे बन नहीं पड़ता। जैसे-तैसे समय गुजारते हुए-ज्यों-त्यों करके ही मौत के दिन पूरे कर लेते हैं। इन्हें पागल तो नहीं कह सकते, पर व्यक्तित्व की परख की दृष्टि से उससे कुछ अच्छी स्थिति में भी उन्हें नहीं समझा जा सकता।

विक्षिप्त-अर्धविक्षिप्त और विक्षिप्तता के सन्निकट-सनकी लोगों से प्रायः आधा समाज भरा पड़ा है। मूढ़ मान्यताओं-कुरीतियों, अन्धविश्वासों से जकड़े हुए लोगों में तर्क शक्ति एवं विवेक बुद्धि का अभाव रहता है। उनके लिए अभ्यस्त ढर्रा ही सब कुछ होता है। उस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाने में उन्हें भय लगता है। स्वतन्त्र चिन्तन का प्रकाश उनकी आँखें चौंधिया देती हैं और औचित्य को समझने स्वीकार करने जैसा साहस उनके जुटाये जुट ही नहीं पाता। इस वर्ग के लोगों को मानसिक दृष्टि से अविकसित नर-पशुओं की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।

शरीर से असमर्थों, दुर्बलों और रुग्णों की ही तरह मानसिक पिछड़ेपन और विकारग्रस्तता के दल-दल में धंसे हुए लोगों का ही बाहुल्य अपने समाज में दृष्टिगोचर होता है। यह विक्षिप्तता भी एक प्रकार की बीमारी ही है जिसमें प्राणियों को तिरस्कार, असन्तोष, अभाव एवं चित्र-विचित्र प्रकार के दुख सहने पड़ते हैं।

विचारणीय है कि यह सब होता क्यों है? मनुष्य का प्रत्यक्ष कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता। जान-बूझकर ऐसा कुछ किया हो जिससे उन शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों का दुःख सहना पड़े ऐसा कुछ सूझ नहीं पड़ता। फिर ईश्वर ने ऐसी विचित्र संरचना क्यों की? किसी को ऐसा-किसी को वैसा क्यों बनाया? इसका भी कोई उत्तर नहीं हो सकता। ईश्वर न तो अन्यायी है न उसकी सृष्टि में अन्धेरगर्दी, अव्यवस्था। दूसरी ओर इन व्याधिग्रस्त लोगों का ऐसा कोई प्रत्यक्ष कसूर भी नहीं दीख पड़ता, जिसका दण्ड भुगतने जैसी बात कही जा सके।

इस असमंजस का समाधान मनःशास्त्र के आचार्य एक ही शोध निष्कर्ष के आधार पर देते हैं कि अनैतिक एवं असामाजिक चिन्तन और कर्तृत्व से मनःक्षेत्र में उत्पन्न होने वाला अंतर्द्वंद्व दुहरा व्यक्तित्व रच देता है और उससे निरन्तर उठने वाली आन्तरिक कलह सारे मनोभूमि को क्षत-विक्षत करके रख देती है। संचालक को आहत, घायल, उद्विग्न होने पर उसके आधीन काम करने वाले तन्त्र की दुर्दशा होना स्वाभाविक है। शरीर के अनाचार और मस्तिष्क के मनोविकार ही वे कारण हैं जिनके कारण आत्म-सत्ता का स्वसंचालित तन्त्र अनेकानेक प्रकार के आत्म-दण्डों की व्यवस्था अपने आप ही कर लेता।

नरक का अधिपति पुराणों में चित्रगुप्त को कहा गया है। वर्णन है कि इन चित्रगुप्त के बही खातों में मनुष्य के सभी कर्म निरन्तर लिखे जाते रहते हैं। उन अभिलेखों के आधार पर भगवान चित्रगुप्त प्रत्येक प्राणी के लिए दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था करते हैं। यह चित्रगुप्त विज्ञान की विवेचना के अनुसार अचेतन मन ही है जिसकी अत्यन्त सम्वेदनशील कोशाओं के ऊपर मनुष्य के भले-बुरे कर्म टेपरिकॉर्डर के फीते अथवा फोटोग्राफी की प्लेट की तरह अंकित होते रहते हैं। समयानुसार वे प्रकट एवं फलित होते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया का परिचय शारीरिक एवं मानसिक रोगों के रूप में सामने आता है। इन दो व्यथाओं के साथ तीसरी एक और भी अनायास ही जुड़ जाती है, वह है सामान्य जीवन में पग-पग पर असफलता।

गंगा और यमुना दो के संगम पर एक तीसरी सरस्वती कहीं पाताल में से अनायास ही प्रकट होकर उस समागम के स्थान पर आ धंसी है। ठीक इसी तरह शारीरिक व्याधियाँ और मानसिक आधियाँ जिसे घेरे हुए हैं, उस विकृत मस्तिष्क और अस्वस्थ शरीर के द्वारा न कुछ उपयुक्त सोचते बन पड़ेगा और न उचित कर सकना सम्भव होगा। अतएव अपनी अटपटी कानी-कुबड़ी गतिविधियाँ किसी महत्वपूर्ण सफलता तक पहुँचने ही न देंगी सम्बन्धित व्यक्ति उस बेतुके व्यक्ति से खिंचते, खीजते रहेंगे। फलतः सच्चे सहयोग से भी प्रायः वंचित ही रहना पड़ेगा। मतभेद बढ़ते-बढ़ते शत्रुता और विग्रह तक जा पहुँचते हैं और आक्रमण, प्रत्याक्रमण के कुचक्र में ऐसे व्यक्ति को भारी घाटा उठाना पड़ता है। प्रगति पथ तो प्रायः अवरुद्ध ही बना रहता है। यह नई विपत्ति शारीरिक और मानसिक रुग्णता की ही देन है। दो रंगों के मिलने से तीसरा एक और नया रंग प्रकट हो जाता है। आधि और व्याधि ग्रस्तों को अवरोध और असफलता का तीसरा संकट अतिरिक्त रूप से सहन करना पड़ता है।

शारीरिक रोग, मानसिक उद्वेग और सफलता के अवरोध का त्रिविध समन्वय कितना कष्ट कर और सन्तापदायक होता है उसे भुक्तभोगी ही जानता है। जिन्हें इन संकटों का त्रास सहना पड़ता है उनके लिए इस विपन्नता का प्रत्यक्ष नरक के रूप में ही अनुभव होता है। यमलोक के अधिपति चित्रगुप्त को-अचेतन मन ही समझा जाना चाहिए। उनका कार्य यमलोक वह मनःसंस्थान ही है जिसमें प्रतिफल को परिणित कर सकने की ईश्वर प्रदत्त क्षमता मौजूद है। यम-नियमन-व्यवस्था एवं अनुशासन को कहते हैं। मस्तिष्क को यमलोक और उसकी मूल भूत सत्ता चित्त को चित्रगुप्त की संज्ञा देकर शास्त्रकारों ने स्थिति का सर्वथा सही चित्रण किया है। ईश्वर ने सर्वत्र स्वसंचालित पद्धति रखी है। ताकि न्याय व्यवस्था का अलग से अतिरिक्त झंझट न उठाना पड़े। अपनी ही सत्ता का एक पक्ष कर्म करता है और दूसरा उसका प्रतिफल गढ़ कर तैयार कर लेता है। बाहर के न्यायाधीश को तो भ्रम में भी डाला जा सकता है, पर अन्तस् बैठे हुए हर दृष्टा की निष्पक्ष न्यायशीलता को झुठलाना तो किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता।

इतना सब जान लेने के उपरान्त हमें एक ही निश्चय निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि चेतन की मूल सत्ता अन्तःकरण को प्रभावित करने वाले नैतिक और अनैतिक विचार एवं कर्म ही हमारी भली और बुरी परिस्थितियों के लिए पूर्णतया उत्तरदायी हैं। इसी उद्गम से हमारे उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा होता है और यहीं से विपत्तियों के जाल गिराने वाली दुःखद सम्भावनाएं विनिर्मित होती हैं। इस मूल केन्द्र का परिशोधन करना ही एक प्रकार से आन्तरिक काया-कल्प जैसा प्रयास है। प्रस्तुत संकटों से छुटकारा पाने और निकट भविष्य में फलित होने वाले संचित प्रारब्धों का निराकरण करने के लिए आन्तरिक परिशोधन का प्रयास इतना अधिक आवश्यक है कि उसे अनिवार्य की संज्ञा दी जा सकती है और कहा जा सकता है कि विष वृक्ष की जड़ काटने से ही काम चलेगा। टहनियाँ तोड़ने और पत्तियाँ गिराने से स्थायी समाधान बन नहीं पड़ेगा।

साधारणतया समझाने-बुझाने की पद्धति ही सुधार परिवर्तन के लिए काम लायी जाती है, पर देखा यह गया है कि भीतरी परतों पर जमे हुए कुसंस्कार इतने गहरे होते हैं कि उन पर समझाने-बुझाने का प्रभाव बहुत ही थोड़ा पड़ता है। देखा जाता है कि नशेबाजी जैसी आदतों से ग्रसित व्यक्ति दूसरे अन्य समझदारी की तरह ही उस बुरी आदत की हानि स्वीकार करते हैं। दुःखी भी रहते हैं और छोड़ना भी चाहते हैं, पर उस आन्तरिक साहस का अभाव ही रहता है जिसकी चोट से उस अभ्यस्त कुसंस्कारिता को निरस्त किया जा सके। इस विवशता से कैसे छूटा जाय? इसका उपयुक्त उपाय सूझ ही नहीं पड़ता। लगता रहता है कि कोई दैवी दुर्भाग्य ऐसा पीछे पड़ा है जो विपत्ति से उबरने का कोई आधार ही खड़ा नहीं होने देता। पग-पग पर अवरोध ही खड़े करता और संकट पटकता भी वही दीखता है। यह दुर्भाग्य और कोई नहीं, अपने अन्तरंग पर छाये हुए कषाय-कल्मष कुसंस्कार ही हैं, जो अभ्यास और स्वभाव का अंग बन जाने के कारण छुड़ाये नहीं छूटते और पटक-पटककर मारते हैं। नरक के यमदूतों जैसा त्रास देते हैं। इस विपन्नता को उलटने का समर्थ उपचार आन्तरिक परिशोधन ही है। इस अन्तस् के काया-कल्प के लिए जितने भी उपाय खोजे गये हैं उनमें तत्वदर्शियों ने अपने अनुभवों के आधार पर चान्द्रायण तपश्चर्या को सर्व सुलभ और अत्यन्त प्रभावशाली पाया है।

First 11 13 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • पवित्रता, महानता और संयमशीलता
  • प्रगति के लिये कल्मषों का निवारण आवश्यक
  • Quotation
  • अभिवर्धन से पूर्व परिशोधन करना होगा।
  • Quotation
  • कर्मफल की सुनिश्चितता बनाम आस्तिकता
  • Quotation
  • कर्मफल की अस्त-व्यस्तता एवं अपवाद शृंखला
  • पाप कर्मों का परिमार्जन मात्र प्रायश्चित्त से
  • प्रारब्ध न तो अन्धविश्वास है और न अकारण।
  • तत्काल फल न मिले तो भ्रम में न पड़ें।
  • कुसंस्कारों का परिपाक कष्टों और संकटों के रूप में
  • Quotation
  • कर्मफल भोगे बिना छुटकारा नहीं
  • आकस्मिक विपत्तियों और दुर्घटनाओं की परोक्ष पृष्ठभूमि
  • अनेक संकटों के कारण मनुष्य के संचित पाप कर्म
  • व्यक्तित्व को प्रखर और भविष्य को उज्ज्वल बनाने की साधना
  • प्रौढ़ साधकों के उपयुक्त प्रखर साधना
  • Quotation
  • सर्वतोमुखी प्रखरता उत्पन्न करने वाली तप-साधना
  • Quotation
  • चांद्रायण तप की शास्त्रीय परम्परा
  • चांद्रायण तप और पंचकोशी योगाभ्यास
  • विश्व भ्रमण पर थे (kahani)
  • ब्रह्मवर्चस् साधना में ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग का समन्वय
  • Quotation
  • ब्रह्मवर्चस् की योगाभ्यास साधना
  • Quotation
  • ब्रह्मवर्चस् साधना के लिए आमन्त्रण
  • साधना का पारस!
  • साधना का पारस (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj