
प्रौढ़ साधकों के उपयुक्त प्रखर साधना
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गायत्री महामन्त्र के अक्षरों में ब्रह्मविद्या का समस्त तत्वज्ञान बीज रूप में विद्यमान है। साधना विज्ञान की दृष्टि से विविध अनुष्ठानों, पुरश्चरणों एवं तप साधनाओं का विशाल परिकर उसी के साथ समन्वित है। गायत्री का ज्ञान पथ ब्रह्मविद्या और विज्ञान पक्ष वर्चस् कहलाता है। दोनों को मिलाकर ब्रह्मवर्चस् शब्द बनता है। यह आध्यात्मिक प्रौढ़ता और प्रखरता को पृष्ठभूमि बनाने वाली साधना है।
साधना का स्तर जैसे-जैसे उठता है वैसे ही वैसे उसमें अधिक तन्मयता और तत्परता का समावेश होता चलाता है। सामान्य उपासना में जप और ध्यान पर्याप्त समझा जाता है। ध्यान आन्तरिक न बन पड़े तो प्रतिमा के सहारे प्रत्यक्ष दर्शन से भी वह काम किसी प्रकार चला जाता है। धीरे-धीरे जब स्तर बढ़ता है तो अनुष्ठानों और पुरश्चरणों के माध्यम से साधक को अधिक कठोर अनुशासनों में कसना आरम्भ कर दिया जाता है। सभी जानते हैं कि पुरश्चरणों में जप की संख्या का नियत होना ही पर्याप्त नहीं वरन् उसके साथ-साथ उपवास, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन, अपनी सेवा आप करना जैसे प्रतिबन्ध लगते हैं। और नियत समय, नियत संख्या, अन्त में अग्नि-होत्र ब्रह्म-भोज आदि के कितने ही उपक्रम जुड़ जाते हैं। वैसा कुछ न हो केवल अस्त-व्यस्त रीति से जब संख्या पूरी कर ली जाय तो पुरश्चरण का जो माहात्म्य बताया गया है, वह उपलब्ध न हो सकेगा। सच पूछा जाय तो साधना के उच्चस्तरीय क्षेत्र में पहुँचने पर तपश्चर्या ही प्रमुख हो जाती है। वही बन्दूक का काम करती है। मन्त्र तो उसके साथ कारतूसों की तरह समन्वित रहते हैं।
पुनर्गठन वर्ष से युग निर्माण परिवार के समस्त साधकों को व्यक्तिगत जीवन में तपश्चर्या का समावेश करने के लिए गुरुवार को अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य एवं दो घन्टे के मौन की तप साधना का समावेश अनिवार्य कर दिया गया है। ज्ञान यज्ञ के लिए सम्पर्क की तीर्थयात्रा को सामाजिक क्षेत्र की तपश्चर्या कहा गया है और जो जप, मात्र करके अपनी साधना की पूर्णता मान लेते थे उन्हें कहा गया है कि तपश्चर्या की दिशा में बढ़ना चाहिए। इस दिशा में वे जितनी प्रौढ़ता और प्रखरता का परिचय देंगे, उसी अनुपात से वे अपने साधन प्रयत्नों को सफल होते देखेंगे। देवता को अनुनय-विनय से फुसलाया नहीं जा सकता। भागीरथी तप द्वारा उनका अनुग्रह खरीदा जाता है। यह तथ्य क्रमशः परिजनों के सामने उजागर होता चला जा रहा है। उन्हें दबाव देकर अब अपनी परिष्कृत मनःस्थिति और आन्तरिक प्रौढ़ता के अनुरूप साधन क्षेत्र में अधिक कठोरता अपनाने के लिए अनुरोध आग्रह किया जा रहा है। आखिर मिशन के सूत्र संचालकों ने भी अपनी विशेष स्थिति तपश्चर्या का अवलंबन करके ही प्राप्त की है। अनुकरण कर्ताओं को भी इसी पुण्य परम्परा को अपनाने और कुछ कहने लायक उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए इन दिनों विशेष रूप से इंगित किया जा रहा है।
समय साध्य और क्रमशः अधिक कठोर होती चलने वाली साधना पद्धति का एक महत्वपूर्ण सुनियोजित एवं सुसम्बद्ध साधनाक्रम चान्द्रायण व्रत की तपश्चर्या और पंचकोशी योग साधना पद्धति के साथ जुड़ा हुआ है। इसका परिचय प्रशिक्षण और अभ्यास करने के लिए इन दिनों गंगा की गोद, हिमालय की छाया सप्त ऋषियों की साधना स्थली और समर्थ संरक्षण में ब्रह्मवर्चस् साधना क्रम चल पड़ा है। आरम्भिक प्रक्रिया के रूप में यह साधना सत्र एक-एक महीने के रखे गये हैं। और महीना अंग्रेजी महीने न रखकर भारतीय कलैण्डर के अनुरूप पूर्णिमा से पूर्णिमा तक का कर दिया गया है। चान्द्रायण व्रत की उसी से संगति भी है। यह एक महीने चलेगा। साथ ही इसी एक महीने में सवालक्ष गायत्री का पुरश्चरण भी करना होगा। पुरश्चरण के अतिरिक्त पाँच कोशों के अनावरण के लिए पांच साधनाएँ अतिरिक्त रूप से भी करनी होंगी (1) त्राटक (2) सूर्य भेदन प्राणायाम (3) शक्तिचालिनी मुद्रा (4) खेचरी मुद्रा (5) हंसयोग सोऽहम् साधना। इन पाँचों का समन्वित साधनाक्रम ऐसा है जिसमें पंच कोशों के अनावरण के अतिरिक्त कुण्डलिनी जागरण का प्रारम्भिक चरण भी इसी अवधि में पूरा हो जाता है। पीछे के लिए आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक ले पहुँचने वाला यह अवरुद्ध द्वार खुल जाता है, जिस पर चलते हुए पग-पग पर भौतिक सिद्धियों से लौकिक सफलता और आत्मिक विभूतियों की अतीन्द्रिय क्षमता उपलब्ध करते चलना सम्भव हो जाता है।
साधना की अवधि में मात्र गंगा जल पीना होता है। गंगा अति निकट है। वहीं से अपने पीने के लिए सभी साधक स्वयं गंगाजल लाते है और उसी से प्यास बुझाते है। युवाओं के लिए नित्य गंगा स्नान में भी कोई कठिनाई नहीं पड़ती। वृद्धों को शीत ऋतु में गंगा जल गरम करके स्नान करने की भी सुविधा रहती है। नित्य प्रातः काल पंचगव्य पान करना होता है। इसके उपरान्त ही अन्य कोई पेय या भोजन मुख में जा सकता है। नित्य आहार में हविष्यान्न (तिल, जौ, चावल) से बनी एक रोटी और अमृत कल्प (ब्राह्मी, शतावरि, वच, शंखपुष्पी, गोरख मुण्डी, आंवला, अदरक और सेन्धा नमक) में आध्यात्मिक अष्ट वर्ग सम्मिश्रित रहता है। च्यवन प्राशावलेह में शरीर को युवा बनाने वाला अष्टवर्ग है। हविष्यान्न की रोटी और अमृत अष्टवर्ग की चटनी का आहार ऐसा है जिससे ‘‘जैसा खाये अन्न वैसा बने मन’’ की उक्ति प्रत्यक्ष चरितार्थ होती है। विचारो में उत्कृष्टता का अभिनव परिचय आहार में इस चरु का समावेश होने से तत्काल दीखने लगता है। चान्द्रायण व्रत में यों शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से हर दिन चौदहवाँ अंश घटाया जाता है। इसके बाद एक चौदहवां भाग बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पूर्ण आहार तक पहुँचाना होता है। यह कई दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्तियों के लिए कठिन पड़ता है। इसलिए इस अवधि में शाक और दूध या छाछ की मात्रा बढ़ाते रहकर सन्तुलन बनाये रहने की सुविधा रखी गई है। हविष्यान्न की एक रोटी को प्रसाद चरु माना जाता है। इससे भी कुछ आहार बना रहता है। हविष्यान्न में प्रयुक्त होने वाले जौ, गौ मूत्र में भिगोकर सुखाये और संस्कारित किये जाते। इस प्रकार के विशिष्ट विधि से बने हुए जौ और छाछ के ऊपर अपने चौबीस पुरश्चरण भी पूरे हुए थे। प्रायः इसी स्तर के आहार का समावेश ब्रह्मवर्चस् साधना सत्र में गायत्री की उच्चस्तरीय साधना करने वाले साधकों को मिलता रहे इसका विशेष प्रबन्ध रखा गया है।
प्रातः 3:30 बजे उठना, उठते ही सामूहिक प्रार्थना फिर शौच स्नान से निवृत्ति प्रातःकाल का जप ध्यान, छह बजे पंचगव्य चाय। इसके अतिरिक्त सात से साढ़े आठ तक यज्ञ। साढ़े नौ बजे भोजन। मध्याह्न बाहर से डेढ़ बजे प्रवचन। तीसरे पहर चाय। अपरान्त विचार गोष्ठी। पाँच बजे सांय भोजन। गंगा दर्शन गंगा जल लाना। सात से साढ़े सात सामूहिक आरती। साढ़े सात से आठ सामूहिक ध्यान। साढ़े आठ बजे सो जाना। गुरुवार को अस्वाद व्रत। जैसे नियमों उपनियमों का पालन करते हुए परम सात्विक दिनचर्या का निर्वाह करते हुए एक महीने का योग, तप, विनियोग साधा जाता है। इसी अवधि में दिव्य संरक्षण और दिव्य अनुदान का अनवरत लाभ मिलता रहता है। साधना की सफलता ऐसे ही अनेक सुयोगों का संगम मिल जाने से किस प्रकार सम्भव होती है इसे साधक प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।