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Magazine - Year 1978 - Version 2

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Language: HINDI
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अभिवर्धन से पूर्व परिशोधन करना होगा।

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अभिवर्धन से पूर्व परिशोधन की आवश्यकता सामान्य जीवन में सर्वत्र समझी जाती है, पर आत्मिक प्रगति का प्रसंग जब आता है तो उस ओर से एक प्रकार मुँह ही मोड़ लिया जाता है। इस उपेक्षा का ही कारण है कि प्रगति के लिए किये गये प्रयास प्रायः निरर्थक चले जाते हैं और यह शिकायत बनी रहती है कि आत्मिक क्षेत्र की सफलताएं प्राप्त करने के लिए जो उपाय बताये गये, वे सारगर्भित नहीं थे। अधिकांश साधकों को ऐसी ही असमंजस की स्थिति में फंसा और निराशा से खिन्न मनःस्थिति की ओर जाता देखा जाता है। आरम्भिक उत्साह को बहुत समय तक स्थित रखने वाले कोई विरले ही दीखते हैं। इसमें अधीरता तो एक कारण है ही, पर उस कठिनाई की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती, जिसके कारण साधनाएं अपने प्रभाव का कोई परिचय प्रस्तुत नहीं करतीं और आशा का कुसुम असमय में ही मुरझाने लगता है।

तथ्यों को खोजने पर एक भयंकर भूल सामने आती है कि अभिवर्धन से पूर्व परिशोधन के सिद्धान्त की उपेक्षा कर दी जाती है। सरलतापूर्वक जल्दी उपार्जन के लोभ में ऐसी आतुरता अपनाई जाती है जिसके अत्युत्साह में परिशोधन की प्रक्रिया पूरी करने के लिए ठहरना बन ही नहीं पड़ता। फलतः एकाकी प्रयास अधूरे रहते हैं, सफलता के लिए समग्र प्रयास चाहिए। आधी-अधूरी प्रक्रिया हर काम में असफलता उत्पन्न करती है तो फिर आत्मिक क्षेत्र ही उसका अपवाद कैसे रह सकता है। साधनाओं की असफलता का मूल कारण यह अधूरापन ही होता है जिसमें परिशोधन जैसी आरम्भिक आवश्यकता को पूरा किये बिना ही आगे की छलाँग लगा दी गई।

दुष्कर्मों के कारण चित्त पर जमे हुए कुसंस्कारों की मोटी परतें आत्मिक प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। उन्हें हटाने को ‘परिशोधन’ कहते हैं। उपासना का महत्व कृषि कर्म करने-उद्यान लगाने जैसा है जिसके लिए बीजारोपण से भी पूर्व भूमि शोधन की आवश्यकता है। अच्छी तरह जोतना भूमि के कंकड़, पत्थर हटाना, खर पतवार उखाड़ना, नमी रखना, खाद देना जैसे कई काम करके भूमि को इस योग्य बनाया जाता है, कि उसमें बोया हुआ बीज ठीक तरह उग सके। अंकुरों को बढ़ने और फलने-फूलने की स्थिति तक पहुँचने के लिए उपयुक्त भूमि की आवश्यकता होती है। यदि उसके बनाने में आनाकानी की गई है और जल्दी फसल कमाने के लोभ में भूमि साधना का श्रम निरर्थक समझा गया है तो उसे भूल ही कहा जायगा। जो आरम्भ में तो श्रम बचाने की बचाने की बुद्धिमत्ता समझा गया था, पर पीछे उसमें बीज भी गँवा बैठने की निराशा ही हाथ लगती है।

आत्मिक प्रगति की साधना का पूर्वार्ध है-आत्मशोधन और उत्तरार्ध है-आत्म विकास। उपासनाएं आत्म-विकास का प्रयोजन पूरा करती हैं। इसके लिए योगाभ्यास वर्ग के अनेकानेक विधि-विधानों का प्रचलन है। अपनी रुचि, आवश्यकता और परम्परा के अनुसार उनमें साधक चुनाव करते हैं और प्रगति का उपक्रम आरम्भ करते हैं, यह उत्तरार्ध है। यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि उत्तरार्ध से लाभ पाने के नये आधार और दृश्य सामने आते हैं और कुछ पाने की आशा तो बंधती है, पर पूर्वार्ध की उपेक्षा करके यह छलांग प्रायः असफल ही होती देखी गई है। पूर्ण असफल न भी हो तो भी उसका प्रतिफल इतना स्वल्प दिखाई देता है जो आरम्भ में सोचे या बताये गये माहात्म्य की तुलना में बहुत ही कम होता है और साधक का मन उदास कर देता है।

होना यह चाहिए था कि विकास प्रयासों का उत्तरार्ध अपनाने के साथ-साथ पूर्वार्ध का परिशोधन पक्ष भी ध्यान में रखा गया होता। इसे तप साधना कहते हैं। इसके हलके भारी अनेकों प्रकार हैं। उन्हें अपनाने से मनोभूमि की कुसंस्कारिता हटती है और उर्वरता उत्पन्न होती है। यही भूमि शोधन है जिसमें अंकुर उपजाने जैसे उत्साहवर्धक दृश्य तो तत्काल सामने नहीं आते, पर दूरदर्शिता के सहारे निकट भविष्य में अभीष्ट सफलता मिलने का आश्वासन अवश्य मिलता है। अस्तु साधना की सनातन परम्परा में आत्मशोधन की- तपश्चर्या की भी उतनी ही आवश्यकता और महत्ता बताई गई है जितनी कि उपलब्धियों की झलक दिखाने वाली योग साधनाओं की। अदूरदर्शिता की भूमि की उखाड़-पछाड़ बेकार लगती है और अंकुर उपजाना या पौध लगाना प्रत्यक्ष लाभदायक दीखता है। इतने पर भी तथ्य तो तथ्य ही रहेंगे। शोधन की उपेक्षा करके उपार्जन की उतावली अन्ततः निराशाजनक ही सिद्ध होती है।

उपासना विधानों का प्रचलन इन दिनों तेजी पर है। बताने वाले ऐसे गुरुओं की बाढ़-सी आई हुई है जो बहुत ही सरल पूजा प्रक्रिया बताकर लम्बे-चौड़े लाभ मिलने का आश्वासन देकर पहली ही बार अनेक को आकर्षित कर लेते हैं। उनका आरम्भ कर देने वाले लोगों की भी कमी नहीं रहती। क्योंकि वे बहुत ही सरल होते हैं। इतने सरल जिससे शारीरिक-मानसिक या अन्य किसी प्रकार का दबाव नहीं पड़ता। ऐसे ही बाल-क्रीड़ा की तरह उस पूजा पत्री को पूरा कर देना चुटकी बजाने जैसे खेल मात्र होता है। इतना कुछ करने पर भी देवता को प्रसन्न करके और उससे तरह-तरह के वरदान पाने का लाभ यदि मिलता है तो उसे कौन छोड़े। लाटरी खुलने के लाभ की कल्पना करके जब एक रुपये का टिकट खरीदने वाले लाखों मिल सकते हैं तो अत्यन्त सरल पूजा विधि के सहारे प्रचुर लाभ पाने का लोभ कौन संवरण कर सकेगा? स्पष्ट है कि चमत्कारी फल श्रुति बताने वाले को अपनी बताई विधि को अपनाने वालों की कमी नहीं मिलती। किन्तु बताये हुए लाभ न मिलने पर जो निराशा होती है वह अनास्था में बदलती जाती है। ऐसी दशा में सस्तेपन का प्रलोभन बताने वाले के लिए, उपासना पद्धति के लिए, साधक के लिए, लोक-मान्यता के लिए, अहित कर ही सिद्ध होता है।

उपयुक्त मार्ग यही है कि साधना विज्ञान को सही रीति से अपनाया जाय। उचित मूल्य चुकाकर महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त करने के सिद्धान्त पर विश्वास किया जाय। उपासनात्मक प्रक्रिया अपनाने के साथ या उससे भी पहले आत्मशोधन की महत्ता और आवश्यकता समझी जाय। प्रगति के प्रयासों में उसे अनिवार्य रूप में सम्मिलित रखा जाय। योग और तप दोनों एक दूसरे के पूरक और अन्योन्याश्रित हैं। इन्हें धुलाई और योग को रंगाई कहा जा सकता है। मैले, कुचैले, चिकनाई और गन्दगी से सने कपड़े पर कोई भी रंग नहीं चढ़ता और रंग का पैसा एवं रंगाई का श्रम निरर्थक चला जाता है। इसी प्रकार साधना मार्ग पर चलते हुए आत्मिक प्रगति के साथ जुड़ी हुई अति महत्वपूर्ण सफलताएं जिन्हें सिद्धियों या विभूतियों के नाम से जाना जाता है-प्राप्त कर सकना तभी सम्भव हो सकता है जब आत्मशोधन और आत्म विकास की दोनों ही प्रक्रियाएं समानान्तर चलती रहें।

उपासना को योग पक्ष कहते हैं। उसकी विधि व्यवस्था में जप, ध्यान, प्राणायाम, नाद, मुद्रा, बन्ध, प्रत्याहार, समाधि आदि प्रौढ़ स्तर का और पूजा-पाठ, स्नान, देवदर्शन, कथा, कीर्तन जैसे बाल स्तर को अनेकानेक उपचारों का समावेश है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली क्षुद्रता को महानता के साथ सम्बद्ध करने वाली, व्यवहार में आदर्श भर देने वाली और जीवात्मा को परमात्मा बना देने वाली यह समस्त गतिविधियाँ योग कहलाती हैं। योग का अर्थ है-जोड़ना। अपूर्ण को पूर्ण के साथ जोड़ना। योग साधना को, उपासना प्रक्रिया को, आत्मिक प्रगति का उत्तरार्ध कहते हैं।

परिशोधन को तपश्चर्या कहते हैं-इस प्रकरण में अपनी अवांछनीय आदतों और मान्यताओं को उलटने के लिए अन्तःक्षेत्र में जमी कुसंस्कारिता से संघर्ष करना पड़ता है और आदर्श पालन के लिए कष्ट, कठिनाई को जानबूझकर आमन्त्रित करना और हंसते-हंसते सहना होता है। इसी स्तर के हलके भारी क्रिया-कलापों को तपश्चर्या कहते हैं। व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, मौन, अभ्यस्त सुविधाओं का परित्याग, मितव्ययिता एवं सादगी का वरण, सत्कार्यों के लिए श्रमदान एवं साधनों का अंशदान इसी वर्ग में आते हैं। परमार्थ के लिए किये जाने वाले सभी पुण्य प्रयास इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं। स्वयं कष्ट सहकर उस बचत का लाभ दूसरों को देने के समस्त उपचारों को तपश्चर्या की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।

साधना की प्रौढ़ता में उन दोनों वर्गों का समावेश आवश्यक है। नित्य कर्म की बात दूसरी है उसमें योग और तप के सिद्धान्तों का समावेश अनिवार्य नहीं है। आवश्यकता तो हर किसी के लिए है और बनी ही रहेगी। कौन कितना कर सकता है? किसके लिए कितना साहस कर सकना कितना सरल या कठिन पड़ता है? इस आधार पर नित्य कर्म के रूप में उपासना का नित्य नियम बनाना दूसरी बात है। इसे उच्चस्तरीय साधना क्रम में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार शौच, स्नान, दंतमंजन, कपड़े धोना, कमरा बुहारना, फर्नीचर झाड़ना, बर्तन माँजना, स्वच्छता बनाये रहने और गन्दगी न जमने से होने वाली हानि से बचने के लिए आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार मनःक्षेत्र में भीतर से उठने वाली गन्दगी और अनुपयुक्त वातावरण से अवांछनीय छाप को निरन्तर हटाते रहने के लिए इतनी उपासना तो हर किसी के लिए आवश्यक है जिसे नित्य नियम कहा गया है और संध्या-वन्दन नाम दिया गया है। इसका इतना ही लाभ है कि मलीनताएं जमते रहने से जिस अशुभ की आशंका थी उससे बचा जा सकता है। आत्मिक प्रगति के लिए जो विशिष्ट पुरुषार्थ करने पड़ते हैं वे साधना कहे जाते हैं। उनमें प्रौढ़ता रहती है। प्रखरता की आवश्यकता पड़ती है। समग्र साधना को योग और तप का समन्वय कह सकते हैं। उसका मार्ग भी कष्ट साध्य है और महत्व भी असाधारण है।

नित्य कर्म, नित्य नियम हर किसी के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। उसे बाल, वृद्ध रुग्ण, अशक्त हर किसी को किसी न किसी रूप में करना ही चाहिए। शुद्धता पूर्वक, नियत स्थान और नियत समय पर, निर्धारित विधि से न बन पड़े तो भी ईश्वर स्मरण का कोई सरल तरीका अपनी स्थिति के अनुरूप हर किसी की निकाल लेना चाहिए। मौन मानसिक जप किसी भी स्थिति में हो सकता है। भगवान की ध्यान धारण किसी भी समय की जा सकती है। नियमितता बन पड़े तो सर्वोत्तम, अन्यथा जिसके लिए जितना, जिस प्रकार सम्भव हो सके संध्या-वन्दन का नित्य कर्म किसी न किसी प्रकार पूरा कर ही लेना चाहिए। आस्तिकता के प्रतिफल महान हैं। उस बीज को सींचते रहने के लिए थोड़ा-बहुत समय निकालते रहना हर दृष्टि से बुद्धिमत्ता पूर्ण है। उस थोड़े का भी बहुत लाभ है। तथ्यों पर विचार करते हुए परिजनों में से प्रत्येक का कहा गया है कि वे अपने घरों में आस्तिकता का वातावरण बनाने के लिए इतनी परम्परा तो अपने घर में चला ही डालें कि नित्य नियम जितना उपासना का उपक्रम चल ही पड़े। गायत्री माता के चित्र को नमन वन्दन करके तब भोजन करने की परम्परा चल पड़े तो उस छोटे बीजारोपण में भी आस्तिकता का कल्पवृक्ष कभी प्रौढ़ बन जाने की आशा बनी रहेगी।

साधना का उच्चस्तरीय आधार अगला है। जिसके लिए इन दिनों विशेष रूप से प्रयत्न किया जा रहा है। यों चेतना को परिष्कृत करके भौतिक सम्पत्तियों की तुलना से लाखों गुनी अधिक महत्वपूर्ण विभूतियों के उपार्जन के लिए बहुत समय से समझाया और उकसाया जाता रहा है, पर अब उसके लिए अधिक आग्रह किया जा रहा है। उसके लिए उपयुक्त वातावरण बनाने और साधन जुटाने में भी कमी नहीं रखी जा रही है। यह प्रयास उस आत्मविकास की उस प्रौढ़ प्रक्रिया के संदर्भ में है जिसे उच्चस्तरीय साधना की संज्ञा दी जा सकती है।

ब्रह्मवर्चस् नाम यों एक नव निर्मित आश्रम को भी दे दिया गया है और एक साधना पद्धति का नामकरण भी यही किया गया है। किन्तु वस्तुतः यह एक अभियान है जिसका उद्देश्य मनुष्य के भीतर दबी हुई विशेषताओं एवं विभूतियों को उभारना है। लघु की विभु-तुच्छ को महान् पुरुष को पुरुषोत्तम-नर को नारायण बनाने की योजना एवं सम्भावना इसमें सन्निहित है। मनुष्य को वर्तमान स्थिति में नहीं रहना है उसे अपने गौरव के अनुरूप ऊँचा उठना है यही देवत्व का उदय है। अपने विश्व और समाज को यह दुर्गति नहीं रहनी चाहिए उससे सद्भावना पर सहकारिता के सहारे प्रगति और समृद्धि की सुख-शान्ति भरी परिस्थितियाँ उत्पन्न होनी चाहिए। यही है धरती पर स्वर्ग का अवतरण। युग परिवर्तन और युग निर्माण का स्वरूप एवं तथ्य क्या है? इसका संक्षिप्त उत्तर मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा जा सकता है। यह महान प्रयोजन अत्यन्त व्यापक, कठिन और साधना साध्य है। इसके लिए शक्ति चाहिए। कल कारखाने और छोटे-छोटे उत्पादन निर्माणों में किसी न किसी प्रकार शक्ति नियोजित करनी पड़ती है तभी वे चल पाते हैं। फिर युग परिवर्तन युग निर्माण जैसे महान कार्य के लिए भी शक्ति चाहिए ही। यह आत्म शक्ति ही हो सकती है। निर्माण एवं परिवर्तन जब विचारणाओं, भावनाओं और आस्थाओं के चेतना क्षेत्र का करना है तो शक्ति भी उसी स्तर की चाहिए। आत्म-शक्ति ही युग-शक्ति है। इसी को बड़े परिणाम में जुटाने के लिए ब्रह्मवर्चस् अभियान का स्थानीय शुभारम्भ है। इसका विश्व व्यापी विस्तार होना आवश्यक भी है और महाकाल की इच्छानुरूप होने के कारण सुनिश्चित भी।

ब्रह्मवर्चस् साधना में व्यक्ति का वर्चस्व और समाज का भविष्य समान रूप से समुन्नत बनते हैं। वस्तुतः यह अभियान एक साथ दोनों प्रयोजन पूरे करता है। व्यक्ति में महानता और समाज में सुसम्पन्नता का एक साथ उद्भव करना अपना उद्देश्य है। वस्तुतः दोनों एक ही हैं। व्यक्तियों का समुदाय ही समाज है। व्यक्ति की शालीनता समाज की सुसम्पन्नता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस प्रयास में स्वार्थ और परमार्थ का समान रूप से समन्वय है। ब्रह्मवर्चस् की उच्चस्तरीय साधना का मार्ग अपनाने वाला अपने आपको आत्म-शक्ति से समृद्ध करता है, फलतः उसे स्वर्ग, मुक्ति, सुख-शान्ति, सिद्धि, विभूति, सद्गति नाम दिये जा सकते हैं। चन्दन का वृक्ष बढ़ता है उसकी दूर-दूर तक सुगन्ध फैलती है। बादल उठते हैं तो प्राणियों और वनस्पतियों की प्यास बुझती है। धरती हरी-भरी दिखती है। इसी प्रकार व्यक्ति की उत्कृष्टता की समाज की सम्पन्नता और वातावरण की बसन्ती अनुकूलता के रूप में दृष्टिगोचर होती है।

इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ब्रह्मवर्चस् प्रौढ़ बनाने का प्रयत्न किया गया है। उसमें उपासना के योगाभ्यास पक्ष से सम्बन्धित उत्तरार्ध का भी परिपूर्ण समावेश है। उसका परिचय गत वर्ष मार्च, अप्रैल, मई, जून की अखण्ड-ज्योति अंकों में प्रस्तुत किया गया है। विषय की गम्भीरता उसके विस्तार व्यवहार को देखते हुए उसे संक्षिप्त एवं सांकेतिक ही कहा जा सकता है। सर्वसाधारण को प्राथमिकता जानकारी देने की दृष्टि से इतना ही पर्याप्त समझा गया। जिन्हें विशेष रुचि है उनकी विशेषता बढ़ाने एवं विशेष मार्ग-दर्शन प्रस्तुत करने के लिए आवश्यकतानुसार मौखिक अथवा लेखनीबद्ध मार्ग दर्शन उपलब्ध होता रहेगा।

पूर्वार्ध पहले बताया जाना चाहिए था। योग से भी पहले तप की महत्ता का वर्णन प्रशिक्षण चलना चाहिए था, पर लाभ का प्रलोभन समझ में आने के उपरान्त ही उसके लिए प्रयत्न करने की जो लोक परम्परा चल रही है उसी को अपनाने के लिए हमें भी बाध्य होना पड़ा। पहले कष्ट साध्य आधार बताते तब कहीं उसके लाभों की झाँकी मिलती तो अधिकांश को साहस ही समाप्त हो जाता। इसलिए पहले क्या-पीछे के अन्तर को विशेष महत्व न दिया जाय तो एक शब्द में इतना ही कहा जा सकता है कि योग और तप अविच्छिन्न हैं। दोनों कदम समन्वित तालमेल के साथ बढ़ाते चलने पर ही लक्ष्य तक पहुँचने की ही बात बनती है। तप का उद्देश्य परिशोधन है। मिट्टी मिले कच्चे लोहे को फौलाद बनने के अग्नि संस्कार को लोहे का तप कहा जा सकता है जिसके आधार पर उसके साथ जुड़ी हुई मलीनता जल कर अलग होती है और शुद्ध स्वरूप निखरता है। प्रायश्चित्त की तपश्चर्या इसी प्रयोजन के लिए आवश्यक समझी गई है।

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