
प्रगति के लिये कल्मषों का निवारण आवश्यक
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आयुर्वेद के प्रख्यात ग्रन्थ माधव निदान के प्रणेता माधवाचार्य अपने साधना काल में वृन्दावन रहकर समग्र तन्मयता के साथ गायत्री महा पुरश्चरणों में संलग्न थे। उन्होंने पूर्ण विधि विधान के साथ लगातार ग्यारह वर्षों तक अपनी साधना जारी रखी। इतने पर भी उन्हें सिद्धि का कोई लक्षण प्रकट होते दिखाई न पड़ा। इस असफलता से उन्हें निराशा भी हुई और खिन्नता भी। सो उसे आगे और चलाने का विचार छोड़कर काशी चले गये ।
काशी के गंगा तट पर वे बड़ी दुःखी मनःस्थिति में बैठे हुए थे कि उधर से एक अघोरी कापालिक आ निकला। साधक की वेषभूषा और छाई हुई खिन्नता जानने के लिए वह रुक गया और कारण पूछने लगा। माधवाचार्य ने अपनी व्यथा कह सुनाई। कापालिक ने आश्वासन दिया कि उसे भैरव की सिद्धि का विधान आता है। एक वर्ष तक उसे नियमित रूप से करते रहने से सिद्धि निश्चित है। माधवाचार्य सहमत हो गये और कापालिक के बताये हुए विधान के साथ मणिकर्णिका घाट की श्मशान भूमि की परिधि में रहकर साधना करने लगे। बीच-बीच में कई डरावनी और लुभावनी परीक्षाएँ होती रहीं। उनका धैर्य और साहस सुदृढ़ बना रहा। सो वर्ष पूरा होते-होते भैरव प्रकट हुए और वरदान माँगने की बात कहने लगे।
माधवाचार्य ने आँख खोलकर चारों ओर देखा, पर बोलने वाला कहीं दिखाई न पड़ा। उन्होंने कहा-यहाँ आये दिन भूत-पलीत ऐसी ही छेड़खानी करने आया करते हैं और ऐसी ही चित्र-विचित्र वाणियाँ बोलते हैं। यदि आप सचमुच ही भैरव हैं तो सामने प्रकट हों। आपके दर्शन करने, चित्त का समाधान कर लूँ तो वरदान माँगू। इसका उत्तर इतना ही मिला। आप गायत्री उपासक रहे हैं। आपके मुख मण्डल पर इतना ब्रह्म तेज छाया हुआ है कि सामने प्रकट होकर अपने को संकट में डालने की हिम्मत नहीं है। जो माँगना हो ऐसे ही माँग लो।
माधवाचार्य असमंजस में पड़ गये यदि गायत्री पुरश्चरणों से इतना ही ब्रह्म तेज उत्पन्न होता है तो उसकी कोई अनुभूति मुझे क्यों नहीं हुई ? सिद्धि का आभास क्यों नहीं हुआ ? यह प्रश्न बड़ा रहस्यमय था, जो भैरव के संवाद में ही उपजा था। उन्होंने समाधान भी उन्हीं से पूछा। कहा-देव ! यदि आप प्रकट नहीं हो सके और गायत्री उपासना को इतनी तेजस्वी पाते हैं तो कृपा कर यह बता दें कि मेरी इतनी लम्बी और इतनी निष्ठा भरी उपासना निष्फल कैसे हो गई ? इतना समाधान करा देना भी आपका वरदान पर्याप्त होगा। जब आप गायत्री तेज के सम्मुख होने तक का साहस नहीं कर सकते तो फिर आपसे अन्य वरदान क्या माँगू।
भैरव ने उसकी इच्छा पूर्ति की। और पिछले ग्यारह जन्मों के दृश्य दिखाये। जिनमें अनेक पाप कृत्यों का समावेश था। भैरव ने कहा-आपके एक-एक जन्म के गायत्री पुरश्चरण से एक-एक जन्म के पाप कर्मों का परिशोधन हुआ है। ग्यारह जन्मों के संचित पाप प्रारब्धों के दुष्परिणाम इन ग्यारह वर्षों के तप साधन से नष्ट हुए हैं। अब आप नये सिरे से फिर उसी उपासना को करें। संचित प्रारब्ध की निवृत्ति हो जाने से आपको अब के प्रयास में सफलता मिलेगी।
माधवाचार्य फिर वृन्दावन लौट गये और बारहवाँ पुरश्चरण करने लगे। अब की बार उन्हें आरम्भ से ही साधना की सफलता के लक्षण प्रकट होने लगे और बारहवां वर्ष पूरा होने पर इष्टदेव का साक्षात्कार हुआ। उन्हीं के अनुग्रह से वह प्रज्ञा प्रकट हुई, जिसके सहारे माधव निदान जैसा महान ग्रन्थ लिखकर अपना यश अमर करने और असंख्यों का हित साधन कर सकने की उपलब्धि उन्हें मिली और जीवन का लक्ष्य पूरा कर सकने में सफल हुए।
इस गाथा से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि साधना की सिद्धि में प्रधान बाधा क्या है? संचित दुष्कर्म ही उस मार्ग की सफलता में प्रधान रूप से बाधक होते हैं। यदि उनके निराकरण का उपाय सम्भव हो सके तो अभीष्ट सफलता सहज ही मिलती चली जायगी। यही बात संचित पुण्य कर्मों के बहुत देर में फल देने वाली व्यवस्था में जल्दी भी हो सकती है। द्रुतगामी वाहनों पर सवार होकर पैदल चलने से देर में सम्पन्न होने वाली यात्रा अपेक्षाकृत कहीं जल्दी पूरी की जा सकती है। हमारे वर्तमान प्रयत्न ही सब कुछ नहीं होते उनमें पूर्व संचित सत्संग्रहों का भी योगदान होता है। उनका योगदान मिलने से सफलताओं का परिणाम स्वल्प प्रयत्न से भी इतना अधिक हो सकता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़े।
संचित संग्रहों में से अशुभों का निराकरण और शुभ सुखदों का शीघ्र परिपाक होने के दोनों उद्देश्य तपश्चर्या द्वारा सम्पन्न हो सकते हैं। ताप कहते हैं गर्मी को। गर्मी ही आग है। आग से दो काम होते हैं-(1) जलाना, नष्ट करना (2) शक्ति सामर्थ्य को असंख्य गुना बढ़ा देना। धातुओं में मिली हुई विकृतियाँ उन्हें भट्टी में डालने से जल कर नष्ट हो जाती है। कूड़े-कचरे को आग लगा देने से उसकी सड़न, दुर्गन्ध से छुटकारा मिल जाता है। गरम पानी में खौलाने से कपड़ों का मैल छूट जाता है। इसके अतिरिक्त यह गर्मी ही शक्ति बन कर काम करती है। ठण्डी बारूद को विस्फोटक बनाने का काम चिनगारी ही करती है। पानी को भाप बनाकर रेलगाड़ी जैसे भारी वाहन को वह द्रुतगति से घसीटती चली जाती है। तेल को शक्ति में परिणत करने का काम भी आग ही करती है उसी से मोटरों और जहाजों को चलाया जाता है। बिजली भी आग का ही एक स्वरूप है। अणु विस्फोट से निकलने वाले विकरण भी अग्नि ही होते हैं। शरीर को जीवित रखने और अवयवों के संचालन में भी जठराग्नि राग्नि ही काम करती है। सूर्य से लेकर चूल्हे तक अग्नि का ही सर्वत्र साम्राज्य छाया हुआ है। पदार्थ में हलचल और प्राणी में चिन्तन की जो सामर्थ्य काम करती दीखती है उसे अग्नि के ही भेद-उपभेदों के अन्तर्गत गिना जा सकता है। इसी अग्नि का एक नाम आपत है। आध्यात्म क्षेत्र में उसके उत्पन्न करने पद्धति का नाम ‘तप’ है। तपस्वी ही ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी कहलाते हैं। यह सभी शब्द ‘शक्ति मंत्रों’ के प्रतीक हैं। प्रकाश अग्नि का ही गुण है। प्रकाश को जीवन के अर्थ में भी प्रयुक्त किया जाता है और ब्रह्म को ज्योति के रूप में ध्यान करने तथा उसका विवेचन वर्णन करने की परम्परा है।
तपश्चर्या को साधना का प्रधान अंग माना जाता है। उससे संचित कषाय-कल्मषों का निराकरण होता है और सुसंस्कारों को फलित होने का अवसर मिलता है। प्रगति के प्रधान अवरोध अशुभ प्रारब्ध के निराकरण की प्रक्रिया प्रायश्चित्त कहलाती है। इसे तप साधना का प्रथम लक्ष्य माना गया है। संचित अशुभ से पीछा छूट सके-निराकरण समाधान हो सके, तो उसका परिणाम साधन की सफलता में अत्यधिक सहायक हो सकता है। इसी प्रकार यदि प्रार्थना पूजा की साधना के साथ तपश्चर्या का समावेश हो तो उसको अधिक अच्छी तरह फलित होने का अवसर रहता है। विलासिता और शिथिलता की स्थिति में रहकर उपासना करने वालों की तुलना में तपश्चर्या की रीति-नीति अपनाकर भजन प्रयोजनों में लगने वाले व्यक्ति अपने लक्ष्य तक अधिक अच्छी तरह जा पहुँचते हैं।
न केवल अध्यात्म क्षेत्र में वरन् भौतिक जीवन में भी यही सिद्धान्त काम करता है। रक्त विकार जैसे रोगों को दूर करने के लिए कुशल वैद्य पेट की सफाई करने के उपरान्त अन्य रक्त शोधक उपचार करते हैं। कायाकल्प चिकित्सा में बलवर्धक औषधियों का नहीं, संचित का निष्कासन करने वाले उपायों को ही प्रधान रूप से कार्यान्वित किया जाता है। वमन, विरेचन, स्वेदन आदि क्रियाओं द्वारा मल निष्कासन का ही प्रयास किया जाता है। इसमें जितनी सफलता मिलती जाती है उसी अनुपात से जरा जीर्ण रोगग्रस्त व्यक्ति भी आरोग्य लाभ करता और बलिष्ठ बनता चला जाता है। कायाकल्प चिकित्सा का विज्ञान इसी सिद्धान्त पर आधारित है।
दोष, दुर्गुणों के रहते चिरस्थायी प्रगति के पथ पर चल सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है। फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ नहीं पड़ता। पशु पालते और दुहने का श्रम निरर्थक चला जाता है। कषाय-कल्मषों से दोष, दुर्गुणों से लड़ने के लिए जो संघर्ष पुरुषार्थ करना पड़ता है उसी के विधि-विधानों को तप साधन कहते हैं। तपश्चर्या का तत्वदर्शन, आत्म-शोधन की आवश्यकता पूरी करने के लिए ही गढ़ा गया है। उसका उद्देश्य देवताओं के सम्मुख हठवादिता अपनाकर मनोकामना पूरी करने का दुराग्रह ठानना नहीं, वरन् आत्मशोधन के सहारे अपनी पात्रता का सम्वर्धन करना है। गड्ढा जितना गहरा होता है, पात्र जितना बड़ा होता है उसी अनुपात में वर्षा का जल उसमें जमा होता चला जाता है। आन्तरिक सत्पात्रता का सम्वर्धन करने के लिए तप−साधना को ही उपाय उपचार बताया है। चिड़िया की छाती की गर्मी पाकर ही अण्डे पकते हैं। पौधों के विकसित होने और फूलने-फलने में गर्मी का कितना बड़ा योगदान होता है इसे किसान और माली भली प्रकार जानते हैं। जप का समानान्तर शब्द तप। बोलचाल की भाषा में प्रायः जप, तप-दोनों को मिलाकर बोलने का रिवाज है।
ब्रह्मवर्चस् अभियान से तप साधना को प्रमुखता दी गई है। ‘वर्चस्’ शब्द ही तप का पर्यायवाची है। उपासनाओं के साथ कई प्रकार की छोटी-बड़ी तप साधनाओं की शृंखला जोड़ी गई है। उसकी आधारशिला चान्द्रायण व्रत पर रखी गई समझी जा सकती है। यह संचित कुसंस्कारों के परिशोधन और प्रसुप्त दिव्य-शक्तियों के जागरण के लिए शरीर और मन के सुविस्तृत क्षेत्र में अनुकूल वातावरण उत्पन्न करता है। भागीरथ ने गंगा अवतरण के लिए कई प्रकार के उपासना उपचार किये थे। गंगा की आराधना और शिव की अभ्यर्थना की साधना वे लम्बे समय तक करते रहे और अपने उद्देश्य में सफल होकर रहे। पर यह सफलता हाथ तभी लगी जब उपासना उपचार के साथ तपश्चर्या को अग्नि शक्ति का समावेश हो सका। यदि वे मात्र पूजा आराधना ही करते रहते और तप के कष्टसाध्य झंझट से बचकर रहना चाहते तो उन्हें उससे अधिक कुछ भी न मिलता जो शिव मन्दिरों और गंगा मन्दिरों के पुजारियों को नगण्य-सा प्रतिफल उपलब्ध होता है।
ब्रह्मवर्चस् साधना में सन्निहित तपश्चर्या का अभ्यास एक प्रकार से प्रखरता के उत्पादन का जीवन-दर्शन है। उसे अपनाने वाला न केवल आत्मिक क्षेत्र की सफलताओं का अधिकारी बनता है, वरन् भौतिक क्षेत्र में भी-लोक-व्यवहार में भी उसकी सफलताएं दूसरों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हो सकती हैं। इसलिए वह न केवल आत्मिक प्रगति के इच्छुकों के लिए वरन् भौतिक समर्थता प्राप्त करने के उत्सुकों के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती हैं।
यहाँ इस तथ्य को भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि संचित कर्मों को ही भाग्य कहते हैं और यह भाग्य विधान हमारी प्रगति अवगति में अत्यधिक महत्वपूर्ण निमित्त और आधारभूत कारण होता है। भाग्य की प्रतिकूलता का समाधान करने और अनुकूलता को बढ़ाने के लिए तपश्चर्या कितनी सहायक है इसका तत्वज्ञान समझना आवश्यक है। प्रसंग कुछ-कुछ रूखा-सा अवश्य है, पर जिन्हें इस मार्ग में अभिरुचि है उन्हें धैर्यपूर्वक और मनोयोग के साथ समझना भी चाहिए।
अगले तीन लेखों में संचित कर्मों का, भाग्य प्रारब्ध का, स्वरूप और जीवन के उत्थान-पतन में योगदान समझाने के लिए प्रयत्न किया जा रहा है। इसे समझने में थोड़ी कठिनाई तो पड़ेगी, पर इन लेखों को दो या तीन बार पढ़ने से वस्तुस्थिति समझ में आ जायगी कि भाग्य विधान की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलना किस प्रकार सम्भव हो सकता है। इस तथ्य को जान लेने पर प्रस्तुत अवरोधों को निरस्त करते हुए भौतिक और आत्मिक प्रगति के मार्ग पर सुनिश्चित रीति से बढ़ सकना हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है।