
कर्मफल भोगे बिना छुटकारा नहीं
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कर्मफल की व्यवस्था सृष्टि की स्थिरता का सुनिश्चित आधार है। दुष्कर्मों के दुष्परिणाम भुगते बिना और कोई गति नहीं। सामान्य पूजा उपचारों से उनकी निवृत्ति संभव नहीं। दण्ड पाने से पूर्व स्वेच्छापूर्वक क्षति पूर्ति करने की प्रायश्चित्त व्यवस्था अपना लेना, मनुष्य के सत्साहस का चिन्ह है।
आत्मनैव कृतं कर्म ह्यात्मनैवोपभुज्यते।
इह वा प्रेत्य वा राजंस्त्वया प्राप्त यथा तथा ॥
(महा0 भीष्म0 अ॰ 77)
आत्म से अर्थात् स्वयं किया हुआ कर्म आत्मा से ही अर्थात् स्वयं ही भोगता, चाहे इस जगत में, चाहे परलोक में अपना ही भोगता है ।4।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि।
अवश्यं एवं भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्॥
बिना भोग के सौ करोड़ कल्प तक भी कर्म का नाश नहीं होता। जो कुछ किया है, उसका फल जरूर भोगना पड़ेगा। इस भोग का कारण कर्त्तृत्वाभिमान है, जीव अभिमान के वशीभूत होकर सोचता है कि मैं ही कर्त्ता हूँ, किन्तु वास्तव में जीव अकर्त्ता है।
स्वयमात्सकृतं कर्म शुभं वा यदि वाऽशुभम्।
प्राप्ते काले तु तत्कर्म दृश्यते सर्व देहिनाम्॥
हरि0 पु0 उग्रसेन अभि0 25
संसार के सम्पूर्ण प्राणियों को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। चाहे वह शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म हो। शुभ कर्मों का परिणाम सुखद होता है और अशुभ कर्मों का फल दुःखद होता है।
यत् करोत्यशुभं कर्म शुभं वा यदि सत्तम ।
अवश्यं तत् समाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः॥
मनुष्य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें संशय नहीं है।
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयन्तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयन्तस्माद्विमुच्यते॥
- चाणक्य
जीव आप ही कर्म करता है, उसका फल भी आप ही भोगता है, आप ही संसार में भ्रमण करता है और आप ही उससे मुक्त भी होता है, इसमें उसका कोई साझी नहीं।
तस्मिन् वर्षे नरः पापं कृत्वा धर्म्मच भो द्विजाः।
अवश्य फलमाप्नोति अशुभस्य शुभस्य च॥
- ब्रह्म पुराण
मनुष्य पाप कर्म करके तथा धर्म का कर्म करके अवश्य ही फल प्राप्त किया करता है चाहे वह कोई शुभ कर्म करे तो उसका अच्छा फल उसे अवश्य मिलता है और चाहे वह अशुभ कर्म करे तो उसका भी वह फल प्राप्त किया करता है।
सुखं वा यदि वा दुःख यत्किंचत क्रियते परे ।
ततस्तत्तू पुनः पश्चात सर्वात्मनि जायते॥
-दक्ष स्मृति 21
सुख या दुःख जो भी दूसरों के लिए किये जाते है वे कुछ बाद में पीछे सब अपने ही लिए उत्पन्न होते हैं।
यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति।
एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते।
यथा छाया तपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम।
यथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकर्मभिः॥
(म॰ अनु0 प॰ अ॰ 1।74।75)
जैसे मिट्टी के पिण्ड के कर्ता (कुम्हार) जो-जो चाहता है सो-सो करता है उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्मानुसार फल प्राप्त करता है। जैसे छाया एवं धूल निरन्तर नित्य साथ हैं वैसे ही कर्म और कर्ता अपने लिए कर्मों से बंधे हैं।
शुभानामशुभानां च नेह नाशोस्ति कर्मणाम्।
प्राप्यप्राप्यानुपच्यन्ते क्षेत्रं क्षेत्रं तथा तथा।
क्षेत्रं कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाऽशुभम्॥
(म॰ आश्वमे0 प॰ अ॰ 18।5)
इस संसार में शुभ और अशुभ कर्मों का नाश नहीं होता। यथा खेत-खेत को प्राप्त कर पकता जाता है फल लाता जाता है। इसी प्रकार कर्मों के पाक या फल का भी क्रम चलता रहता है। तदनुसार ही शुभ एवं अशुभ शरीर को मनुष्य कर्मानुसार प्राप्त किया करता है।
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