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Magazine - Year 1978 - Version 2

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ब्रह्मवर्चस् की योगाभ्यास साधना

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योग शब्द डरावना-सा लगता है। उससे किसी अत्यन्त कष्ट साध्य उपासना पद्धति का अनुमान होता है और लगता है इसमें कोई गड़बड़ी पड़ने से किसी विपत्ति की आशंका रहेगी। यह आशंका तभी सच हो सकती है जब सर्वथा मनमानी बरती जाय और साधक की शक्ति तथा स्थिति को जाने बिना चाहे जिससे चाहे जिस साधना को कराने लग जायें। ब्रह्मवर्चस् सत्र में सभी आरम्भिक साधनाएँ शिशु स्तर की करायी जाती हैं और ऐसी हैं जिनमें प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की तनिक भी आशंका नहीं है। चान्द्रायण तप ‘यति’ स्तर का कठोर भी होता है और शिशु स्तर का सरल भी। ब्रह्मवर्चस् साधना में अनभ्यस्त और दुर्बल मनःस्थिति को ही ध्यान में रखकर सारी योजना बनाई गई है। अस्तु ‘चान्द्रायण तप’ भी शिशु स्तर का सरल है। जो बिना किसी हानि कठिनाई के सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यही बात उन योगाभ्यास साधनाओं में भी है जो इस प्रक्रिया के लिए निर्धारित की गई है वे सरल तो हैं ही उनमें कोई भूल रहने पर भी किसी प्रकार की हानि की तनिक भी आशंका नहीं है।

एक महीने के सत्र में सवा लक्ष गायत्री का पुरश्चरण तथा चांद्रायण तप का समावेश है। जप के साथ ध्यान साधना क्रम भी चलता रहेगा। अतिरिक्त योगाभ्यास साधना में पंचमुखी गायत्री का पंचकोश अनावरण का योगाभ्यास है। इसमें पाँच योगों का समावेश है- (1) त्राटक बिन्दुयोग (2) सूर्यवेधन प्राणायाम, प्राणयोग (3) शक्तिचालिनी, कुण्डलिनी योग (4) खेचरी मुद्रा लययोग (5) सोऽहम् साधना, हंसयोग। इस समन्वय का यम द्वारा नचिकेता को सिखाई गई कठोपनिषद् वर्णित पंचाग्नि विद्या भी कह सकते हैं। इस सरल योगाभ्यास का सामान्य परिचय इस प्रकार है-

(1) बिन्दुयोग (त्राटक)

भगवान विष्णु और भगवती दुर्गा के भ्रू-मध्य भाग में तीसरा नेत्र चित्रित किया गया है। यह तीसरा नेत्र है। दिव्य दृष्टि इसी में रहती है। दिव्य दृष्टि सामान्यतया दूरदर्शिता और विवेकशीलता को कहते हैं। उच्चस्तरीय स्थिति में उसे दूर दर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमता माना जाता है। वेधक दृष्टि भी यही है। इस केन्द्र से प्रचण्ड विद्युत शक्ति निकलती है और उसके द्वारा दूसरों को कोई प्रकार के अनुदान देना सम्भव हो जाता है। भगवान शिव ने इसी तीसरे नेत्र से निकलने वाली प्रचण्ड विद्युत शक्ति के सहारे आक्रमणकारी कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था। संजय इसी केन्द्र का उपयोग टेलीविजन की तरह करते थे उन्होंने धृतराष्ट्र के पास बैठ कर ही सुविस्तृत क्षेत्र में फैले हुए महाभारत का समाचार सुनाते रहने का काम अपने जिम्मे किया था। मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म जैसे चमत्कारी प्रयोगों के लिए इन दिनों त्राटक साधना का ही अभ्यास किया जाता है।

मस्तिष्क विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि भ्रू-मध्य भाग की तनिक-सी गहराई में पीनियल और पिट्युटरी नामक दो ग्रन्थियाँ हैं। इन दोनों की क्षमता एक दूसरे को प्रभावित करती और एक संयुक्त प्रभाव चक्र बनती हैं। इस चक्र की कार्य पद्धति से मस्तिष्क के विभिन्न भाग प्रभावित होते हैं। मेरुदण्ड से सम्बन्धित नाड़ी गुच्छकों तथा हारमोन ग्रन्थियों से भरी हुई विशिष्ट क्षमता को इसी चक्र से प्रेरणा एवं दिशा मिलती है। चेतन और अचेतन मन को- गतिविधियों को दिशा देने का काम इसी चक्र का है। इसलिए उसे अध्यात्मचेतन से आज्ञाचक्र कहा जाता है। आज्ञाचक्र अर्थात् काया के स्थूल और सूक्ष्म संस्थानों को विभिन्न गतिविधियाँ अपनाने के लिए आज्ञा वाला दिव्य संस्थान है। इस दिव्य केन्द्र में असीम सामर्थ्य भरी पड़ी है, पर वह किसी उच्च उद्देश्य में प्रयुक्त न किये जाने के कारण अंधेरे में भटकती है। कुसंस्कारों से आच्छादित रहती और मूर्छित पड़ी रहती है। इसे जागृत करने की साधना का नाम त्राटक है।

इसके लिए प्रकाश का अवलम्बन लेना पड़ता है।

त्राटक साधना में घृत दीप जला कर सामने रखते हैं। उसे एक बार आँखें खोलकर देखते हैं। फिर आँखें बन्द कर लेते हैं। भ्रू-मध्य भाग में ध्यान करते हैं कि प्रकाश ज्योति भीतर जल रही है और अंतःक्षेत्र में विद्यमान तृतीय नेत्र को ज्योतिर्मय बनाती हुई, दिव्य दृष्टि उत्पन्न कर रही है। इस ध्यान में दीप ज्योति से सहायता मिलती है। संकल्प बल द्वारा आज्ञाचक्र में उसकी प्रतिष्ठापना होती है और अभ्यास से उसे इतना परिपक्व बनाया जाता है कि चर्मचक्षुओं की तरह से उसे विश्व-व्यापी दिव्यता का भान होने लगे। जड़ के आवरण में छिपी हुई आत्मा की झाँकी मिलने लगे। पदार्थों में परमेश्वर परिलक्षित होने लगे। इसे विवेक का जागरण भी कह सकते हैं। सामान्य बुद्धि जहाँ अवांछनीयता से समझौता कर लेती है और मोह जंजाल में भ्रमित होकर कुछ का कुछ निर्णय करने लगती है। त्राटक साधना से जो दूरदर्शी तत्वदर्शी विवेक जागृत होता है उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। गायत्री मन्त्र का धियः तत्व वही है। इस जागरण को आत्म-जागरण की संज्ञा दी जाती है। इसे भौतिक और आत्मिक जीवन की महा उपलब्धि ही कह सकते हैं।

(2) प्राणयोग सूर्यवेधन प्राणायाम-

इस निखिल ब्रह्माण्ड में वायु, ईथर ऊर्जा आदि की तरह ही एक ऐसा दिव्य तत्व भी भरा पड़ता है जिसे जड़ चेतन की समन्वित शक्ति प्राण कहते हैं। आरोग्य शास्त्री उसे जीवनी शक्ति कहते हैं और बताते हैं कि उसकी न्यूनाधिक मात्रा के कारण ही मनुष्य दुर्बल और समर्थ बनते हैं। मनःशास्त्री उमंग, स्फूर्ति, उत्साह, साहस के रूप में उसकी व्याख्या करते है और जीवट एवं प्रतिभा कहते हैं। अध्यात्म शास्त्री इसी प्राण को संकल्प, विश्वास आदर्श की परिपक्वता, प्रखरता कहते हैं। सम्वेदना क्षेत्र में इसी को सद्भावना श्रद्धा, कला, सरसता आदि के रूप में प्रतिपादित करते हैं और महानता नाम देते हैं। व्यक्तित्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करके यह प्राण ही ओजस्, तेजस्, वर्चस् के रूप में प्रकट होता है। मनस्वी, तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी व्यक्तियों में इसी प्रखरता का बाहुल्य पाया जाता है। चेहरे पर छाये हुए तेजोवलय के रूप में इसी का दर्शन होता है। यह प्राण ही शरीर विद्युत के रूप में सम्पर्क क्षेत्र में अपना चुम्बकीय प्रभाव छोड़ता है। आकर्षण, अनुदान, प्रहार जैसे कितने ही प्रभावशाली तत्व उसमें धुले रहते हैं। प्राण की छाया में जो सामर्थ्य का स्रोत है वह प्राण ही है। इसीलिए उसे प्राणी अर्थात् प्राण द्वारा संचालित कहा जाता है। इसके निकल जाने पर मृत्यु हो जाती है और घटा जाने पर जीवित रहते हुए भी मुर्दनी, सुस्ती, उदासी छाई रहती है। पिछड़ेपन से ग्रसित दीन-दरिद्र, अस्त-व्यस्त, अनिश्चित स्तर के लोगों को प्रधान कठिनाई प्राण तत्व की न्यूनता ही होती है। जिस प्राणी में जितना प्राण तत्व अधिक होगा वह उतना ही पराक्रमी पाया जायेगा। ऋषियों के आश्रमों में उन महामानवों का परिष्कृत प्राण ही उच्चस्तरीय वातावरण बनाये रहता था। उसी के प्रभाव से वहाँ पहुँचने पर सिंह, गाय एक घाट पानी पीते थे। सत्संग और कुसंग में इस प्राण चुम्बक का ही भला-बुरा प्रभाव काम करता है। विचारों प्रवचनों से समझने-समझाने भर से सहायता मिलती है। एक-दूसरे के मध्य जो प्रभाव या आदान-प्रदान होता है उसमें प्राण विद्युत ही काम कर रही होती है। दूसरों का प्रभावित करने का काम प्रायः इसी प्रखरता के सहारे सम्पन्न होता है।

पदार्थ जगत में ऊर्जा और गति के रूप में प्राण शक्ति की विभिन्न प्रकार की मन्द एवं तीव्र गतिविधियाँ उत्पन्न करती हैं। परमाणु के अन्तर्गत काम करने वाले छोटे घटक इसी चुम्बकत्व से परस्पर बंधे रहते हैं। द्रुत गति से अपनी कक्षा पर अनवरत गतिशील रहने की सामर्थ्य इसी दिव्य विद्युत से प्राप्त होती है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति में, सूर्य की ऊष्मा में, ग्रह पिण्डों को परस्पर जकड़कर रखे हुए सूत्र शृंखला में महा प्राण ही काम करता है। लेसर, एक्सरेल अल्ट्रावायलेट आदि विशिष्ट किरण इसी महाशक्ति की चिनगारियाँ हैं। परमाणुओं और जीवाणुओं के मध्य केन्द्र नाभिक, न्यूक्लियस, पदार्थ समुच्चय का प्राण कहा जा सकता है।

यह प्राण ही चेतना की सर्वोपरि सामर्थ्य है। उसी के सहारे किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर सकना सम्भव होता है। यह महातत्व अग्नि आकाश में प्राण तत्व ऑक्सीजन की ही तरह प्रचुर परिमाण में सर्वत्र भरा पड़ा है। इसकी अभीष्ट मात्रा को खींचना और आत्मसत्ता में धारण कर सकना प्रयत्नपूर्वक सम्भव हो सकता है। इस प्राण विनियोग की प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं। इसमें विशिष्ट क्रिया-प्रक्रिया के साथ श्वास-प्रश्वास क्रियाएँ करनी पड़ती है। साथ ही प्रचण्ड संकल्प बल का वैयक्तिक चुम्बकत्व समुचित मात्रा में समन्वित किये रहना होता है। इसी साधना को प्राणयोग कहते हैं। सामान्यतः इसे प्राणायाम कहते हैं। ‘लय’ और ‘ताल’ की महान शक्ति का ज्ञान सर्व साधारण को तो नहीं होता, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वविदित न होने पर भी यह सामर्थ्य कितनी प्रचंड है।

सूर्यवेधन प्राणायाम में लय और ताल का विशेष समन्वय है। इड़ा और पिंगला शरीरगत दो विद्युत प्रवाह हैं, जो मेरुदण्ड के अन्तराल में काम करते रहे हैं। इनका मिलन केन्द्र सुषुम्ना कहलाता है। इड़ा पिंगला से सम्बन्धित श्वास प्रवाह को उलट-पुलटकर चलाने की प्रक्रिया विशिष्ट महत्वपूर्ण है। पेण्डुलम क्रम में उसी के तनिक से स्पर्श का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और घड़ी चलती रहती है। हृदय की धड़कन भी इसी उलट-पुलट का क्रम रक्त संचार के सहारे जीवन धारण किये रहने का महान कार्य सम्पादन करती है।

इसी लोभ-विलोभ क्रम से किया जाने वाला प्राण-योग सूर्य वेधन प्राणायाम कहलाता है। ब्रह्मवर्चस् साधना में इसी का अभ्यास कराया जाता है। साधक अपने भीतर प्राणतत्व की अभिवृद्धि का अनुभव करता है। इस प्रक्रिया के द्वारा उपार्जित प्राण सम्पदा साधन की बहुमूल्य संपत्ति होती है। इस पूँजी को आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। इसे बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्र का सामर्थ्य उत्पादक प्रयोग कह सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण के लिए तो इसी क्षमता की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ती है। विद्युत उत्पादन में जो कार्य जेनरेटर करते हैं, लगभग व्यक्तित्व में अनेक प्रयोजनों में काम आने वाली प्राण ऊर्जा का संचय सूर्यवेधन प्राणायाम की साधना द्वारा किया जाता है।

प्राणायाम के साथ बन्धों का प्रयोग किया जाता है। मुख्य बन्ध तीन है। (1) मूलबन्ध (2) उड्डियान बन्ध (3) जालन्धर बन्ध। प्राण प्रवाह को नियन्त्रित करने में इन्हें बाँध वाल्व के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। प्राण ऊर्जा के उत्पादन अथवा संग्रह के साथ उसे अवांछनीय दिशा में प्रवाहित न होने देने तथा वांछित दिशा में नियोजित करने के महत्व को समझते हुए उसके लिए इन योग क्रियाओं की सहायता ली जाती है।

भव बन्धनों में- मायाग्रस्त जकड़नों में कसे रहने वाली ग्रन्थियों से छुटकारा दिलाकर जीवन मुक्त स्थिति तक पहुँचाना बन्ध साधना का उद्देश्य है। ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि का वर्णन हठयोग की विवेचना में किया जाता है। ब्रह्मवर्चस् की बन्ध साधना में इन्हीं तीनों को खोलने का विधान है। मूलबन्ध जालन्धर बन्ध और उड्डियान बन्धों की साधनाएँ अधिकारी भेद से घटा-बढ़ाकर अथवा समन्वय करके कराई जाती है। इसी लिए प्राणायाम बन्ध सहित करने की प्रक्रिया अपनायी जाती है।

(3) कुण्डलिनी योग- शक्तिचालिनी

ब्रह्म शक्ति का केन्द्र ब्रह्मलोक और जीव शक्ति का आधार भू-लोक है। दोनों ही काया के भीतर सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। भूलोक-जीव संस्थान मूलाधारचक्र है। मूलाधार अर्थात् जननेन्द्रिय मूल। प्राणी इसी स्थान की हलचलों और संचित सम्पदाओं के कारण जन्म लेते हैं। इसलिए सूक्ष्म शरीर से विद्यमान उस केन्द्र को उद्गम स्थान मूलाधार चक्र कहा गया है। कुण्डलिनी शक्ति इसी केन्द्र में नीचा मुँह किये मूर्च्छित स्थिति में पड़ी रहती है और विष उगलती रहती है। इस अलंकारिक विवेचन में यह बताया गया है कि जीवात्मा का भौतिक परिकर इसी केन्द्र में सन्निहित है। प्रजनन कर्म इसी का एक सम्वेदना की दृष्टि से अति सरस एवं उत्पादन की दृष्टि से आश्चर्यचकित करने वाला एक छोटा-सा किन्तु चमत्कारी अनुभव है। इसे कुण्डलिनी शक्ति का सर्वविदित प्रतिफल कह सकते हैं।

वस्तुतः प्रकृति शक्ति का इस कुण्डलिनी केन्द्र, मूलाधार को भौतिक क्षमता का मानवी उद्गम कह सकते हैं। जिस प्रकार ब्रह्म सत्ता का प्रत्यक्षीकरण ब्रह्म लोक में होता है ठीक उसी प्रकार प्रकृति की प्रचण्डशक्ति का अनुभव इस जननेन्द्रिय क्षेत्र के कुण्डलिनी केन्द्र में किया जा सकता है। शारीरिक समर्थता मानसिक सजगता और सम्वेदनात्मक सरसता की तीनों उपलब्धियाँ इसी शक्ति केन्द्र के अनुदानों द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं।

शरीर के विभिन्न अवयवों में विभिन्न प्रकार की शक्तियों का प्रत्यक्ष परिचय मिलता है। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की समर्थता सरस सम्वेदनाओं और चमत्कारी सफलताओं से जीवात्मा को प्रसन्नता मिलती है। शरीर गत स्फूर्ति, ओजस्विता और सुन्दरता इसी प्रकृति शक्ति के बाहुल्य का परिचायक है। मन में उत्साह, साहस, धैर्य और पराक्रम की क्षमता बनती है। बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, कलाकारिता, आदर्शवादिता जैसी व्यक्तित्व को सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने वाली विशेषताएँ हैं। जिन्हें प्राप्त कर सकने वाला साहस मानवों की श्रेणी में जा पहुँचता है।

विभूतियाँ आत्मिक होती हैं। वे ब्रह्मलोक से उपलब्ध होती हैं। उनके सहारे मनुष्य को सन्त, ऋषि और देव बनने का अवसर मिलता है। आत्म बल के सहारे ही इन अनुदानों को प्राप्त किया जा सकता है। तपस्वी इसी का साधन जुटाते है। सिद्धियाँ भौतिक होती हैं, इन्हें पाकर व्यक्ति सुसम्पन्न और समुचित बनता है। शरीरगत ओजस्विता और मनोगत मनस्विता के यह प्रतिफल हैं। यह दोनों ही क्षमताएँ भौतिक हैं। शरीर में प्रकृति शक्ति का, बहुलता का, परिचय इसी रूप में मिलता है। इसी समता को अध्यात्म विद्या के विज्ञानी कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। सामान्यतया यह प्रसुप्त पड़ी रहती है और निर्वाह के साधन जुटाने तथा संयोग रस लेने का ताना-बाना बुनने जैसे तुच्छ कामों में ही उसकी समाप्ति हो जाती है। विवेकवान उसे जगाकर अनेक गुनी प्रखर बनाते हैं और जागरण की उस प्रखरता का उपयोग व्यक्तित्व को प्रतिभा सम्पन्न बनाने तथा उच्चस्तरीय काम हाथ में लेने तथा उन्हें पूर्ण बनाने के लिए प्रयुक्त करते हैं।

कुण्डलिनी जागरण को साधना में मूलाधार शक्ति को जगाने-उठाने और पूर्णता के केन्द्र से जोड़ देने का प्रयत्न किया जाता है। मूलाधार को प्रसुप्त कुण्डलिनी को जगाने और अधोमुखी से ऊर्ध्वगामी बनाने का प्रथम प्रयास शक्तिचालिनी मुद्रा के रूप में सम्पन्न किया जाता है। ऊर्ध्वमुखी कुण्डलिनी अग्नि शिखर की तरह मेरुदण्ड मार्ग से ब्रह्मलोक तक पहुँचती है। अपने अधिष्ठाता सहस्रार से मिलकर पूर्णता प्राप्त करती है। इसी को कुण्ड दग्ध सती का पार्वती के रूप में तप साधन और शिव विवाह के रूप में वर्णन किया गया है। इस मिलन संयोग से दो पुत्र जन्मे एक सद्बुद्धि के देवता गणेश, दूसरे प्रचण्ड पराक्रम के अधिपति कार्तिकेय। इस कथानक में प्रजनन कुण्ड में मरी पड़ी सती के रूप में मूर्छित कुण्डलिनी का वर्णन है। साधना से उसे पुनर्जीवन मिलता है। उच्च उद्देश्यों से जुड़कर वह पार्वती बनती है। और शिव-विवाह का सहस्रार में संयुक्त होने का आनन्द प्राप्त करती है। इस सफलता के फलस्वरूप गणेश और कार्तिकेय के रूप में तत्वज्ञान और प्रचण्ड पराक्रम के रूप में शारीरिक और बाह्य आनन्द उल्लास उपलब्ध होते चले जाते हैं।

शक्तिचालिनी मुद्रा- गुदा संकोचन की एक विशेष पद्धति है जिसे सिद्धासन या सुखासन पर बैठकर, विशिष्ट प्राण साधना के साथ सम्पन्न किया जाता है। इस प्रक्रिया का समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर ऐसा प्रभाव पड़ता है जिससे उस शक्ति के जागरण और ऊर्ध्वगमन के दोनों उद्देश्य पूरे हो सकें। इस प्रयास में उत्पन्न हुई उत्तेजना का सदुपयोग करने वाले अनेक असाधारण काम सम्पन्न कर पाते हैं।

(4) लय योग-खेचरी मुद्रा

शान्त मस्तिष्क को ब्रह्म लोक और निर्मल मन को क्षार सागर माना गया है। ब्रह्म यों तो सर्वव्यापी हैं पर उसकी विशेष सत्ता ब्रह्मलोक में मानी जाती है। मनुष्य और ब्रह्मलोक का आदान-प्रदान ब्रह्मरन्ध्र मार्ग से होता है। ब्रह्मरन्ध्र अर्थात् मस्तिष्क का मध्य बिन्दु। ब्रह्माण्ड के मध्य में ब्रह्म लोक माना गया है। मस्तिष्क के मध्य में ब्रह्मरन्ध्र है। इसे जीव सत्ता का नाभिक-न्यूक्लियस कह सकते हैं। इसी का नाम सहस्रार कमल है। जीव और ब्रह्म के मध्य अति महत्वपूर्ण आदान-प्रदान का माध्यम यही है। पृथ्वी की संपदा अन्तर्ग्रही आदान-प्रदानों से संचित हो सकी है और सूक्ष्म आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटते रहते हैं। इस लेन-देन का द्वार ध्रुव केन्द्र है। ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क रूपी मानवों ब्रह्म लोक का मध्य केन्द्र ब्रह्म रन्ध्र सहस्रार कमल है- यह जितना सशक्त दुर्बल होता है, विकसित अविकसित रहता है, उसी अनुपात में जीव सत्ता को ब्रह्म सत्ता के अनुदान प्राप्त कर सकने की सम्भावना बढ़ती है।

पृथ्वी काया है और सहस्रार उसके आकाश में उगा हुआ सूर्य। धरती को अपरिमित अनुदान सूर्य से मिलते हैं। प्रत्यक्ष काय कलेवर को दिव्य विभूतियों का लाभ सहस्रार रूपी सूर्य से मिलता है। शास्त्रकारों ने ब्रह्म लोक की स्थिति ओर उपयोगिता को अलंकारिक चित्रणों द्वारा भली प्रकार समझा दिया है। विष्णु भगवान क्षीर सागर में सहस्र फन वाले सर्प पर शयन कर रहे हैं, लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही हैं। मस्तिष्क के खोखले में भरी हुई मज्जा ही क्षीर सागर है। सहस्र दल कमल, सहस्र फन वाला सर्प है। ब्रह्म तत्व का केन्द्रीय नाभिक- विष्णु इसी पर निद्रित स्थिति में पड़ा है। सिद्धियों और विभूतियों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी उसी प्रसुप्त विष्णु के साथ सटी हुई हैं। सूक्ष्म जगत की, सूक्ष्म सत्ता की स्थिति का यह अलंकारिक किन्तु सही चित्रण है। विष्णु सत्ता के सान्निध्य और अनुग्रह का लाभ लेना हो तो वहाँ तक पहुँचना चाहिए। यही खेचरी मुद्रा की साधना है।

ब्रह्मा शान्त समुद्र में कमल पुष्प पर बैठ कर तप करते हैं यह भी मस्तिष्कीय ब्रह्मरंध्र का ही चित्रण है। कैलाश वासी शिव ने गले में सर्प पड़ा है। कैलाश मानसरोवर से घिरा है। यह भी प्रकारान्तर से वही वर्णन है। महासर्प का चित्रण यहाँ कुण्डलाकार ब्रह्म वैभव के रूप में किया गया है। वह विष्णु के नीचे और शिव के गले में है। इसका तात्पर्य यही है कि ब्रह्म सत्ता के निकट तक पहुँचने वाला ही भौतिक और आत्मिक वैभवों से सच्चे अर्थों में लाभान्वित हो सकता है।

अन्तर्जगत के इस ब्रह्मलोक की- सहस्रशीर्षा पुरुष की सहस्र धारा से सम्बन्ध बनाने और उससे होने वाली अमृत वर्षा का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा का साधन बताया गया है। ध्यान मुद्रा में शान्त चित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। सुहलाने जैसे मन्द-मन्द स्पन्दन पैदा किये जाते हैं। उसे उत्तेजना से सहस्र दल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति में बदलती है। बन्द छिद्र खुलते हैं। और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वाद जिह्वाग्र भाग के माध्यम से अन्त चेतना को अनुभव होता है। यही खेचरी मुद्रा है।

तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है और जिह्वाग्र भाग से उसे सुहलाना पयपान कहा गया है। तान्त्रिक हठयोगी उसे विषयानन्द स्तर का ब्रह्मानन्द कहते हैं। इस क्रिया से आनन्द और उल्लास की अनुभूति होती हैं यह दिव्यलोक से आत्मलोक पर होने वाली अमृत वर्षा का चिन्ह है। देवलोक से सोमरस झरता है। अमृत कलश से अनुदान पाकर आत्मा को अमरता की अनुभूति का आनन्द मिलता है। यह खेचरी मुद्रा की साधना से उत्पन्न होने वाली प्रति क्रियाओं का ही अलंकारिक वर्णन है। इन विवेचनाओं से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यदि भावना और क्रिया का सही समन्वय करके इस साधना को किया जा सके तो चेतना क्षेत्र में आनन्द और कार्य क्षेत्र में उल्लास की उपलब्धि होती है। यह लाभ ही प्रकारान्तर से भौतिक और आत्मिक जगत के अनेक लाभों का आभास कराता है। आत्मिक जगत के अनेक लाभों का आभास मिलता है। त्राटक के ऊपर से और खेचरी का नीचे से प्रभाव पड़ने के कारण साधक का ब्रह्म लोक उसका मध्य बिन्दु सहस्रार अपनी जागृत समर्थता का परिचय देने लगता है।

(5) हंसयोग-सोऽहम् साधना

शरीर निर्वाह में अन्न और जल से भी अधिक महत्व वायु का है। वायु में प्राण- वायु की, ऑक्सीजन की महत्ता सर्वोपरि है। ऑक्सीजन का महत्व विज्ञान के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। रक्त में लालिमा उसी की है। इसी ईंधन के जलने से शरीर का इंजन गर्म रहता है और सब कल पुर्जे अपना-अपना काम सही रीति से करते है। ऑक्सीजन का एक नाम प्राण वायु भी है। वह समुचित रूप से मिलती रहे तो शरीर बलिष्ठ बना रहेगा।

ऑक्सीजन प्राण के अधिक सूक्ष्म स्तर का प्राण है, जिसे जीवनी शक्ति, प्रतिभा और प्रखरता के रूप में माना जाता है। ऑक्सीजन पाने के लिए तेज और गहरी साँस चलाने वाले दौड़ने से लेकर दण्ड बैठक करने तक के अनेक व्यायाम किये जाते हैं। सूक्ष्म प्राण के रूप में ‘जीवट’ प्राप्त करने के लिए प्राणायाम किये जाते हैं प्राणायामों के अनेकों विधि-विधान हैं। उन्हीं में से एक सूर्यवेधन अनुलोम विलोम ब्रह्मवर्चस् साधना में प्राणयोग के नाम से सम्मिलित है। व्यायाम शरीर का बलवर्धन उद्देश्य पूरा करते हैं और प्राणायाम से मनस्वी तेजस्वी बनने का लाभ मिलता है। सूक्ष्म शरीर में प्रखरता उत्पन्न करना उसका उद्देश्य है।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर के लिए अभीष्ट मात्रा में प्राण संचय करने की प्रक्रिया व्यायाम और प्राणायाम कहलाती है। कारण शरीर के अन्तराल के दिव्य प्राण की आवश्यकता होती है। यह ‘महाप्राण’ है। इसे ‘ब्रह्मप्राण’ भी कहा गया है। सोऽहम् साधना इसी का नाम है। गायत्री उपासना के विज्ञान में इसे अजपा गायत्री कहते हैं।

इस साधना में मनः स्थिति को ब्राह्मी भूत बनाना पड़ता है। अपने को शरीर मन से ऊपर की स्थिति में अनुभव कराने वाली ब्रह्म चेतना जगानी पड़ती है। अभ्यास करते समय आत्मिक चुम्बकत्व को अधिक प्रखर बनाना होता है। इतनी भूमिका बन पड़ने पर श्वास प्रक्रिया में इतना दिव्य आकर्षण उत्पन्न होता है जिसके सहारे अनन्त अन्तरिक्ष से दिव्य प्राण को अपने लिए आकर्षित करना और उपलब्ध अंश को धारण कर सकना सम्भव होता है। सोऽहम् साधना इसी का नाम है।

प्राणायाम में सांस खींचने की प्रक्रिया को पूरक कहते हैं। हंस योग में सांस खींचने के साथ अत्यन्त गहरे सूक्ष्म पर्यवेक्षण के उतरकर यह खोजना पड़ता है कि वायु के भीतर प्रवेश करते समय सीटी बजने जैसी ‘सो’ की ध्वनि भी उसके साथ ही घुली हुई है। यह ध्वनि प्रकृतिगत नहीं वरन् ब्राह्मी है। यह ध्वनि ईश्वरीय संकेतों संदेशों और अनुदानों से भरी हुई है। सांस के साथ भीतर प्रवेश करती है और सम्पूर्ण जीवन सत्ता पर अपना अधिकार जमा लेती है। सोऽहम् के कुंभक में यही भावना रहती है कि जीवन सम्पदा पर परिपूर्ण अधिकार ‘सो’ ‘हम्’ परमेश्वर का हो गया। सांस छोड़ते समय साँप की फुँफकार जैसी अहम् की ध्वनि का अनुभव अभ्यास में लाना पड़ता है और भावना करनी होती है कि अहंता को विसर्जित निरस्त कर दिया गया है। अहम् के स्थान पर ‘स’ (उस परमेश्वर) की प्रतिष्ठापना हो गयी। वेदान्त योग की यही एकत्व अद्वैत स्थिति है। इसी में पहुँचने में अयमात्मा ब्रह्म-प्रज्ञान ब्रह्म-शिवोऽहम्- सच्चिदानन्द वदोहमे-तत्वमसि आदि बोध शब्दों में व्यक्त की गई भावनाओं की अनुभूति होती है।

निरन्तर आत्मा और परमात्मा के साथ अपने सम्बन्ध को स्मरण करने और सम्पर्क सूत्र बनाये रहने के लिए हर श्वास के साथ ‘सोऽहम्’ का अजपा जाप जारी रखा है। सोऽहम् का अर्थ है मैं वह (परमात्मा) हूँ। शिवोऽहम् सच्चिदानंदोऽहम् आदि शब्दों में सोऽहम् का ही स्पष्टीकरण है। इस तथ्य को हर घड़ी स्मरण रखे रहने और स्मृति सूत्र को सुदृढ़ बनाने की सुविधा इसी अजपा जाप में मिलती है। ब्रह्म सान्निध्य ब्रह्म साक्षात्कार का लाभ इस साधना में मिलता है। उसके कितने ही आध्यात्मिक क्षेत्र के ऐसे प्रतिफल हैं, जिन्हें क्रमशः आत्मा और परमात्मा की एकता के ही प्रतीक माना जा सकता है। अपूर्णता को पूर्णता में परिणत करने वाली इस हंसयोग साधना को ब्रह्मवर्चस् योगाभ्यास का महत्वपूर्ण अंग उसकी गरिमा को ध्यान में रखते हुए ही बनाया गया है।

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