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Magazine - Year 1978 - Version 2

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पाप कर्मों का परिमार्जन मात्र प्रायश्चित्त से

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सामान्य कर्मफल व्यवस्था का स्वाभाविक क्रम हमारे चिरकालीन अभ्यास का अंग है। इसलिए वह साधारण प्रतीत होता है और उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं जाता। अभ्यस्त गतिविधियाँ कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हों अपने दैनिक व्यवहार को अंग बन जाने से महत्वहीन प्रतीत होने लगती हैं। शरीर निर्वाह में अन्न-जल का महत्व इसलिए है कि हर समय उनका सेवन नहीं किया जाता। साँस के द्वारा निरन्तर मिलने वाली ‘ऑक्सीजन’ का किसी को ध्यान भी नहीं आता। यद्यपि मूल्य और महत्व की दृष्टि से उसे अन्न और जल की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचा मान मिलना चाहिए। कर्मफल की यथार्थता का परिचय पग-पग पर मिलता है, पर वह एक प्रकार से सामान्य चर्चा में सम्मिलित होकर रह जाती है। उस पर न कोई ध्यान देता है और न किसी विशेष चर्चा करने की ही आवश्यकता समझी जाती है। अपवाद ही सिर पर छाये रहते हैं और उन्हीं को अत्यधिक महत्व देकर यह समझने की भूल होने लगती है कि संसार में जो कुछ हो रहा है अपवाद है। भाग्य ही भाग्य है। इसलिए भाग्य को बदलने वाले वे प्रयत्न करने चाहिए जो दैवी या चमत्कारी कहे जाते हैं। तथाकथित पूजा, उपासना में लगे हुए लोगों का बहुत बड़ा समुदाय इसी प्रकार का होता है जो ऐहिक समृद्धियों और सफलताओं के लिए जन्त्र-मन्त्रों का, देवी-देवताओं का, सिद्ध योगियों का आश्रय लेता और आशा-निराशा के झूले में झूलता रहता है। इस विडम्बना का पर्यवेक्षण करने पर यही प्रतीत होता है कि यह जन-समुदाय अपवादों को प्रधानता देता और भाग्य को फेरने वाली किन्हीं पगडंडियों की तलाश में फिरते रहने वाले लोगों का परिष्कार है। उपासना बिलकुल दूसरी बात है। साधना तो चेतना शक्ति को प्रखर बनाने का एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। उसमें आत्म-शोधन और आत्म-परिष्कार की ही सांगोपांग विधि व्यवस्था है। उस ओर से आँखें बन्द करके मात्र मनोकामनाएँ पूरी करने और संकट हटाने के लिए उनका मनुहार करते हैं जो भाग्य बदलने में समर्थ हैं। जिनके सहारे अपवाद पद्धति से मनोरथ पूरे हो सकते हैं।

अस्त-व्यस्त मान्यताओं की समीक्षा करना यहाँ इसलिए आवश्यक हो गया कि तथ्य के तलाश करने के मार्ग में जो भटकाव खड़ा है उससे परिचित रहा जा सके। अन्यथा अविज्ञात तथ्यों पर आधारित ‘अपवाद’ प्रक्रिया पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करना और किसी सही निष्कर्ष पर पहुँच सकना सम्भव ही न हो सकेगा।

अपवाद और भाग्य का समान अर्थ लिया जा सकता है। देखना यह है कि जब अन्य प्रकृति अन्यान्य-असामान्य घटनाएं भी किसी-किसी प्रकृति नियम के अनुसार ही घटित होती हैं तो मनुष्य जीवन में ऐसे अवसर किस कारण से आते हैं जिनका उसको प्रत्यक्षतः कोई इतना बड़ा दोष दिखाई नहीं पड़ता जिसके कारण उन संकटों या अवरोधों का त्रास सहन करना पड़ता। प्रगति क्रम में जब अन्य लोग सहज स्वभाव बढ़ते, चलते जाते हैं तो अमुक व्यक्ति को ही क्यों असफलताओं का मुँह ताकना पड़ता हैं? यह “भाग्य” किस कारण व्यक्ति विशेष को सताता और उसके प्रगति पथ को अवरुद्ध करके रख देता है।

तत्वदर्शियों की सनातन मान्यता एक ही रही है कि मनुष्य के संचित कर्म ही भले या बुरे भाग्य का रूप धारण करके सामने आते हैं। संचित कर्मों के कालान्तर में मिलने वाले परिपाक को ही भाग्य कहा जाता रहा है। साथ के साथ ही अधिकतर कर्मों का फल मिलता और निपटता रहता है। कुछ ही विशेष कर्म ऐसे बचते हैं जिनके फल उत्पन्न होने में समय लग जाता है। शारीरिक परिश्रम और बुद्धिकौशल के प्रतिफल प्रायः साथ के साथ ही थोड़े बहुत समय के फेर से मिलते चले जाते हैं। देर उनमें लगती है जो ‘नैतिक’ होते हैं। पाप और पुण्य ही फलित होने में देर लगाते हैं। हथेली पर सरसों उगाई जा सकती है जो बोने से दस दिन में ही उनके अंकुर छह इंच ऊँचे उग आते हैं किन्तु जिनका जीवन लम्बा हो जो चिरस्थाई हैं उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती है। नारियल की गुठली बो देने पर भी एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षों में धीरे-धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष भी देर लगाता है। जबकि अरंड का पेड़ कुछ ही महीनों में छाया और फल देने लगता है। हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, ह्वेल जैसे जलचर अपना बचपन बहुत दिन में पूरा करते हैं जबकि खरगोश जैसे छोटे प्राणी एक वर्ष में ही बच्चे पैदा करने लगते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत ही जल्दी आता है, पर वे मरते भी उतनी ही जल्दी हैं। शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार-विहार का, व्यवहार शिष्टाचार का प्रतिफल हाथों-हाथ मिलता रहता है। उनकी उपलब्धियाँ सामयिक होती हैं, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है उनके साथ भाव सम्वेदनाएं और आस्थाएँ जुड़ी होती हैं। जड़ें अन्तरंग की गहराई में धँसी रहती हैं इसलिए उसके भले या बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैं और लम्बी अवधि तक ठहरते हैं। इन कर्मों के फलित होने में प्रायः जन्म-जन्मान्तरों जितना समय लग जाता है।

अपनी दृष्टि सामयिक ही होती है। प्रत्यक्ष ही सब कुछ दीखता है। पुण्य और पाप का भला-बुरा प्रतिफल तत्काल न मिलने पर अधीरता और अनास्था उत्पन्न होती है और उस स्थिति में तो एक प्रकार का अंतर्द्वंद्व ही उठ खड़ा होता है जब संचित कर्मों के प्रतिफल और आज के क्रिया-कलाप के मध्य विपरीतता दिखाई पड़ने लगे। पूर्व जन्म का पुण्य जिन दिनों फलित होकर शुभ परिणाम उत्पन्न कर रहा था, संयोग वश उन्हीं दिनों उस व्यक्ति ने नया दुष्कर्म कर डाला। देखने वालों को यह भ्रम होता है कि अभी-अभी जो दुष्कर्म किया था उसका फल इस विशेष लाभ के रूप में सामने आया। कहा जाने लगता है-” कलियुग की ऐसी ही महिमा है। भला करने का बुरा और बुरा करने का अच्छा फल मिलता है।” इस कथन के प्रतिपादन में उन प्रमाणों को प्रस्तुत कर दिया जाता है जिनमें अशुभ कर्त्ता को दुष्कर्म करने के दिनों में ही संचित पुण्य फल का लाभ संयोग वश मिल गया था।

ऐसे ही प्रसंग वे होते हैं जिनमें उस समय अच्छा कर्म करने के दिनों ही किसी संचित अशुभ कर्म का बुरा प्रतिफल कष्ट रूप में सामने आ गया। तब भी ऐसी ही विसंगति बिठा दी जाती है कि अच्छा करने वाले को दुःख भुगतना पड़ता है। यह समय की महिमा है। ऐसी विसंगतियाँ कभी-कभी ही सामने आती हैं तो भी उतने से भी सामान्य बुद्धि को असमंजस में पड़ने का अवसर मिल ही जाता है। ऐसे ही प्रसंगों को देखते हुए शास्त्रकारों ने कर्म की गति बड़ी गहन बताई है और “गहना कर्मणो गतिः” कहकर उसकी जटिलता का संकेत किया है।

इन पेचीदगियों के होते हुए संचित कर्म और भाग्य की एकता में कोई तात्विक अन्तर नहीं है। कल का दूध आज दही के रूप में प्रस्तुत है उसे संचित कर्म और भाग्य का उदाहरण समझा जा सकता है। शास्त्रकारों ने इस तथ्य को समय-समय पर, स्थान-स्थान पर, उजागर भी किया है। भाग्य के स्थान पर बहुत बार ‘कर्म’ शब्द का भी उपयोग होता है। ‘करम में लिखा था’-’करम रेख मिटती नहीं’- जैसी लोकोक्तियाँ भी हैं। ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’ जैसी अर्धालियों में भले-बुरे भोगों के लिए कर्म को ही उत्तरदायी माना है।

कर्म का पूर्व रूप विचार है। विचार को, बीज और कर्म को, वृक्ष कहा गया है। जैसे विचार होते हैं वैसे ही प्रयास चल पड़ते हैं तद्नुरूप भली-बुरी परिस्थितियाँ सामने आ खड़ी होती हैं। यह तथ्य सर्वविदित है। पर एक पक्ष दूसरा भी है जो भाग्यवाद के पक्ष में जाता दीखता है। जैसी भवितव्यता होती है वैसे कर्म बन पड़ते हैं। कर्मों को जिस रूप में बनना है वैसे विचार उठेंगे। संचित कर्मों की प्रतिक्रिया इसी रूप में प्रकट होती है। रामायण में एक चौपाई आती है-”काल दंड लै काहु न मारा। हरेउ पथय तस बुद्धि विचारा।” संस्कृत में एक सूक्ति है-”देवता लाठी लेकर किसी को नहीं मारते जिसको दुःख देते हैं उसकी बुद्धि का अपहरण कर लेते हैं।” दैवी दुर्घटनाएं तो कभी-कभी ही होती हैं, आसमान से टूटने वाली विपत्तियाँ तो कभी-कभी ही किसी-किसी पर गिरती हैं। आमतौर से मनुष्य ऐसे मार्ग से चल पड़ते हैं जहाँ उनके लिए विनाश प्रतीक्षा कर रहा होता है। संचित कर्मों के फलस्वरूप जो दण्ड या पुरस्कार मिलने हैं उनका पूर्व रूप अन्तःकरण के किसी भीतरी कोने में बीज रूप से पनपने लगता है और बढ़ते-बढ़ते वही विपत्ति या सम्पत्ति की परिस्थितियों के रूप में प्रकट होता है। दैवी वरदान या अभिशाप का यही रूप है। इसमें प्रत्यक्षतः तो दोष कर्ता का ही दीखता है, पर परोक्ष कारण यह होता है कि संचित कर्मों का विष भीतर ही भीतर उफनता है और वह फोड़े के रूप में प्रत्यक्ष होकर कष्ट देता है। पुण्य कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाली सुविधा सफलता भी आसमान से नहीं उतरती, वरन् अन्तरंग के किसी कोने से सत्प्रवृत्ति बनकर अपनी जड़ जमाती है और उसके अमृत फल श्रेय, यश, सुख, सम्मान आदि की उपलब्धियों के रूप में सामने आ जाते हैं। “दैवेच्छा” शब्द ऐसे ही प्रसंगों के लिए उपयुक्त बैठता है। कई बार न चाहते हुए भी ऐसी भली-बुरी उमंगे भीतर से उठती हैं जो समझाने-बुझाने से भी नहीं रुकतीं और अपनी प्रेरणा से ऐसा कुछ करा लेती हैं, जो सामान्यतया मनुष्य के मन में पहले से नहीं रहा होता। ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं की कमी नहीं होती जिनकी भूमिका थी नहीं, किन्तु अनायास ही आँधी तूफान की तरह प्रकट हुई और सामान्य परिस्थितियों को तोड़ती, मरोड़ती मनुष्य को कहाँ से कहाँ उड़ा ले गई। ऐसी घटनाएं भले के लिए भी होती देखी गई हैं और बुरे के लिए भी।

भाग्यवाद के समर्थन में भी अगणित घटनाएं घटित होती रहती हैं। वे अपवाद तो होती हैं, पर इतनी कम मात्रा में नहीं होतीं कि उनकी उपेक्षा की जा सके। उनका तथ्य कारण जानने के लिए ग्रह-नक्षत्रों पर दोषारोपण करने या देवताओं को घसीटने, बदनाम करने की आवश्यकता नहीं है। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य से संचित कर्म-प्रारब्ध बनकर प्रकट हुए और उनने निश्चित परिणाम तक पहुँचाने के लिए भीतर उमंगे उठाने से लेकर बाहर साधन बनाने तक के अनेकानेक आधार परोक्ष रूप से खड़े कर दिये।

निदान सही हो जाने पर रोग की चिकित्सा सरल हो जाती है और बिना भटके उचित उपचार का सही लाभ मिल जाता है। प्रत्यक्ष कर्मों की तरह संचित कर्मों का स्वरूप समझ लिया जाय तो फिर भाग्यवाद और कर्मवाद के बीच जो विरोधाभास है उसकी आवश्यकता न रहेगी। तब किसी ग्रह-नक्षत्र की मनुहार किये बिना अपने पैर में अपनी ही भूल से चुभे हुए काँटे को निकालने का दूरदर्शिता पूर्ण प्रयत्न आरम्भ करना होगा। जिस प्रकार अपनी ही भूल से संकट उपजते हैं उसी प्रकार अपनी ही समझदारी से उनका निराकरण भी किया जा सकता है। समस्याएं खड़ी करने और गुत्थी उलझाने का दोष भी मनुष्य ही करता है, पर यदि वह संभलने और बदलने पर तैयार हो जाय तो उन्हें सुलझाने में भी सफल हो सकता है। अपने ही अनाचरण से रोग उत्पन्न होते हैं, पर उस कुमार्गगामिता को छोड़कर यदि पथ्य बरतने और उपचार करने पर उतारू हो सका जाय तो उन रोगों से छुटकारा पाने का भी आधार बन जाता है। विग्रह खड़ा करने वाले यदि चाहें तो संधि भी कर सकते हैं। अशाँति के उत्पन्नकर्त्ताओं के लिए यह भी सम्भव है कि वे शान्ति के लिए नये सिरे से प्रयत्न करें और अपनी सूझ-बूझ के सहारे उनमें सफल होकर रहें।

संचित कर्म अपना निज का उपार्जन एवं संग्रह है। इसमें हेर-फेर करना अपने काबू से बाहर की बात नहीं है। कर्म का फल निश्चित है, पर उसकी दिशा धारा मोड़ी जा सकती है। उसका निराकरण और समाधान भी हो सकता है। विष खा लेने पर भी जब उपचार द्वारा मरण संकट से बचाव हो सकता है तो कोई कारण नहीं कि प्रारब्ध-जन्य सम्भावनाओं में सुधार एवं हेर-फेर न हो सके। अशुभ प्रारब्ध के द्वारा उत्पन्न होने वाली विषम सम्भावनाओं का निराकरण सम्भव है। कर्जदारों को किस्तों में ऋण चुकाने के लिए सहमत किया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि अपने ही कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सम्भावित विपत्तियों से प्रयत्नपूर्वक छूटा न जा सके।

कर्मों का फल भोग निश्चित होने पर भी उसके निवारण और निराकरण के उपाय हो सकते हैं। ऐसे उपायों को धर्मशास्त्रों में ‘प्रायश्चित्त’ संज्ञा दी गई है। प्रायश्चित्त का अर्थ गिड़गिड़ाना या सस्ते मोल में विधि-विधान से बच निकलना नहीं, वरन् क्षति-पूर्ति करना है। दुष्कर्मों से अपने अन्तःकरण की, विचार संस्थान की तथा काय कर्मों में जिस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों से भर दिया गया था उसी साहस और प्रयास के साथ इन तीनों संस्थानों के परिमार्जन, परिशोधन एवं परिष्कार की प्रक्रिया को प्रायश्चित्त कहा गया है। पाप कर्मों से समाज को क्षति पहुँचती है। सामान्य मर्यादा प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न होता है। लोक परम्पराएं नष्ट होती हैं। अनेकों को कुमार्ग पर चलने के लिए अनुकरण का उत्साह मिलता है। जिन्हें क्षति पहुँची है वे विलाप करते हैं और उससे वातावरण विक्षुब्ध होकर सार्वजनिक सुख-शान्ति के लिए संकट उत्पन्न करता है। ऐसे-ऐसे अन्य अनेक कारण हैं जिन्हें देखते हुए समझा जा सकता है कि जिसे पाप कर्म द्वारा क्षति पहुँचाई गई अकेले उसी की हानि नहीं हुई, प्रकारान्तर से सारे समाज को क्षति पहुँची है। विराट् ब्रह्म को, विश्व मानव को ही परमात्मा कहा गया है। यह एक प्रकार से सीधा परमात्मा पर आक्रमण करना, उसे आघात पहुँचाना और रुष्ट करना हुआ। अपराध भले ही व्यक्ति या समाज के प्रति किये गये हों उनका आघात सीधे ईश्वर के शरीर पर पड़ता है और उसे तिलमिलाने वाले कभी सुखी नहीं रहते।

अवांछनीयताओं का तत्काल परिशोधन होता रहे। गन्दगी जमा न होने पाये यह उचित है। देर तक जमा रहने के उपरान्त गन्दगी की सड़न अधिकाधिक बढ़ती जाती है। शरीर में जमा हुआ विजातीय द्रव्य जितने अधिक समय तक ठहरेगा। उसी अनुपात से विष बढ़ता जायगा और सामान्य रोगों की अपेक्षा उससे असाध्य बीमारी उपजेगी। पुराना कर्जा ब्याज समेत कई गुना हो जाता है। मनोमालिन्य बहुत समय तक टिका रहे तो वह द्वेष प्रतिशोध का रूप धारण कर लेता है। संचित पाप कर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनका प्रतिफल भुगतने में जितनी देर होगी उतनी ही प्रतिक्रिया भयंकर होगी। नया अपच जुलाब की एक गोली से साफ हो जाता है किन्तु यदि कई दिन तक मल रुका रहे तो उसकी पत्थर जैसी कठोर गांठें बनकर ऐसे भयंकर उदर शूल का कारण बनती हैं, जिसके लिए पेट फाड़कर गाँठें निकालने के अतिरिक्त और कोई चारा ही शेष नहीं रह जाता। गन्दगी को जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही उत्तम है।

इस जन्म के विदित और स्मृत पापों से लेकर जन्म-जन्मान्तरों तक के पापों का निराकरण आवश्यक है। उन्हें निकालना और निरस्त करना आवश्यक है। विष खा जाने की गलती का परिमार्जन इसी प्रकार हो सकता है कि पेट और आँतों की धुलाई करके वमन विरेचन आदि द्वारा उसे जल्दी से जल्दी निकाल बाहर किया जाय। प्राण संकट उसी उपाय से टल सकता है। प्रायश्चित्त ही परिशोधन का एक मात्र उपाय है। नदी, तालाबों में स्नान करने से, देव मन्दिरों का दर्शन करने से या छुट-पुट से ही अन्य ऐसे उपचार कर देने से पाप नष्ट हो जायेंगे, ऐसा सोचना भूल है। यदि ऐसे ही दुष्कर्मों के दण्ड से छुटकारा मिल जाया करेगा तो फिर निर्भय होकर लोग वैसे ही कुकृत्य करते रहेंगे और दण्ड से बच निकलने के लिए ऐसे ही सस्ते तरीके ढूँढ़ लिया करेंगे। राज दण्ड से बचने के लिए रिश्वत का पहले ही बोलबाला है। लोकसेवी और धर्मात्मा का आडम्बर रचकर उसकी आड़ में समाज दण्ड से भी बचाव हो जाता है। ईश्वरीय दण्ड ही एक मात्र पाप से डरने का कारण रह गया था। उसी अंकुश से नीति-निष्ठा बनी रहने की सम्भावना है यदि उसे भी सस्ते कर्मकाण्डों के सहारे झुठला दिया गया तो समझना चाहिए कि उस आधार पर भरपेट पाप करते रहने और सरलता पूर्वक ईश्वरीय दण्ड से बच निकलने का एक और नया भ्रष्टाचार खड़ा हो गया। शारीरिक और मानसिक दुष्प्रवृत्तियों के परिमार्जन का एकमात्र उपाय प्रायश्चित्त ही है। उसमें दण्ड भुगतने-क्षति पूर्ति करने और भविष्य में वैसी गलती न करने के तीनों ही वे तत्व घुले हुए हैं। जिनके सहारे भूल सुधारने और अन्धकार को प्रकाश में बदलने का अवसर मिलता है।

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