
महामानव अर्थात् चरित्र-निष्ठा
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मेसीडोन के राजा फिलिप अपने पुत्र सिकन्दर को एक महान् पुरुष के रूप में देखना चाहते थे। उसकी प्रतिभा, शक्ति, सामर्थ्य, क्रियाशीलता, धैर्य, साहस और सूझ-बूझ से वे अच्छी तरह परिचित हो गये थे। अब इस बात की आवश्यकता अनुभव कर रहे थे कि किस व्यक्ति के पास अपने बच्चे को शिक्षा हेतु भेजूँ जो इसकी इन शक्तियों को कुमार्गगामी बनने से रोके ओर महामानव बनने की प्रबल प्रेरणा उत्पन्न कर सके। सोचते-सोचते उनकी नजर तत्कालीन महान्-दार्शनिक अरस्तू पर पड़ी जो इस कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकते थे। सिकन्दर उनकी पाठशाला में भेज दिया गया।
आचार्य अरस्तू सिकन्दर की विलक्षण प्रतिभा देखकर फूले न समाये। उनकी यह प्रबल इच्छा हुई कि इस बच्चे की शक्तियों का सद्मार्ग में विकास करना चाहिए। यदि ऐसा हो सका तो निश्चय ही यह संसार के महान् व्यक्तियों में से एक होगा।
शिक्षा के साथ-साथ गुरु का ध्यान गुण, स्वभाव और चरित्रबल की तरफ विशेष था। दार्शनिक अरस्तू यह जानते थे कि जीवन के महान् विकास के लिए इन गुणों के विकास की नितान्त आवश्यकता है। जिन दुर्गुणों से मनुष्य की शक्तियों का क्षरण होता रहता है यदि उनका उन्मूलन न हो सका तो फिर शक्ति का स्रोत किसी अन्य मार्ग से निकलकर व्यर्थ हो जायेगा। फिर जीवन विकास के सारे प्रयास निर्बल, निस्तेज और निष्प्राण हो जायेंगे।
इन्हीं बातों को सोच-सोचकर अरस्तू अन्य विद्यार्थियों के साथ-साथ सिकन्दर के हर क्रिया-कलाप पर विशेष ध्यान रखते थे। उन्हें सिकन्दर का उतना ही ध्यान रहता था जितना किसी पिता को अपने एक होनहार पुत्र का रहता है।
एकबार सिकन्दर का किसी स्त्री से अनुचित सम्बन्ध हो गया। अरस्तू को इस बात का पता चल गया। उन्होंने सिकन्दर को समझाया और डाँटा तथा इस को छोड़ने का आग्रह किया। उस स्त्री को यह सब पता चला तो सोचने लगी की यह अरस्तू ही मेरे प्रेम सम्बन्ध में रोड़े अटका रहा है। अतः ऐसा करना चाहिए जिससे गुरु शिष्य में शत्रुता हो जाय। फिर मेरा काम आसानी से चलता रहेगा।
वह कुटिल नारी एक दिन अरस्तू के पास पहुँची और एकान्त में मिलने का प्रस्ताव रखा। अरस्तू ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और जिस उद्यान में उन्हें मिलने के लिए बुलाया गया था उसमें ठीक समय पर पहुँच गये।
मनोवैज्ञानिक अरस्तू यह जानते थे कि कोरी शिक्षा की अपेक्षा प्रमाण का मनोभूमि पर अधिक प्रभाव पड़ता है। वे इस कुटिल चाल से लाभ उठाना चाहते थे। अरस्तू ने अपने अन्य शिष्यों द्वारा इस घटना की सूचना सिकन्दर तक भी पहुँचवा दी। साथ ही सूचना-अरस्तू ने भिजवाई है यह भेज न खुलने की कड़ी मनाई कर दी। सिकन्दर आकर एक छिपे स्थान में टोह में बैठ गया।
कुछ समय बाद वह तरुणी आई। उसने अरस्तू के गले में बाहुपाश डाले और कहा-’क्या हो अच्छा होता-थोड़ी देर तक हम लोग क्रीड़ा विनोद का आनन्द लेते।, अरस्तू की स्वीकृति मिल गई। युवती ने दार्शनिक अरस्तू को घोड़ा बनाया उनकी पीठ पर सवार होकर उन्हें चलाने लगी। बूढ़ा घोड़ा युवती को अपनी पीठ पर बिठाकर घुटनों के बल चल रहा था। स्वाभिमानी सिकन्दर जो जीवन में कभी झुकना नहीं जानता था अपने गुरुदेव की यह स्थिति अधिक देर तक सहन न कर सका और तुरन्त सामने आकर कहा, “क्यों गुरुदेव! यह सब क्या हो रहा है?”
अरस्तू ने कहा- देखते नहीं। मुझे यह माया किस तरह घुटनों के बल चलने को विवश कर रही है, फिर तुमको तो पेट के बल रेंगने को विवश कर देगी। सिकन्दर को वस्तुस्थिति समझ में आ गई। उसने अपना मुँह मोड़कर चरित्र गठन में अपना सारा ध्यान लगा दिया जिससे वह संसार का एक महान् पुरुष - ‘सिकन्दर महान’ कहलाया।