
पूर्वाग्रह छोड़ प्रगतिशीलता अपनायें
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विचारशीलता तथा बुद्धिमत्ता अब इसी बात में है कि प्राचीन परम्पराओं, रीति-रिवाजों तथा रूढ़ियों को विवेक की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही अपनाया जाय। पुरातन होना मात्र किसी रीति-रिवाज अथवा परम्परा की महत्ता और उपयोगिता को सिद्ध नहीं करता है। पुरातन के नाम पर ही रूढ़ियों को पोषण दिया जाता रहेगा तो सामाजिक विकास न हो पायेगा। रूढ़िगत समाज आर्थिक एवं मानसिक रूप में अपने आप ही उन बन्धनों में बँधा रहता है तथा अपने प्रगति पथ प बढ़ने वाले चरणों को कम देता है। आज सम कहता है और पुकार रहा है। प्राचीनता का व्यामोह छोड़ो इसका निर्देशन तो हमारे शास्त्र भी देते है।
जनोऽयमन्यस्यमृतः पुरातनः,
पुरातनैरेव समोभविष्यति।
पुरातने पिवत्यन्त स्थितेषु,
कः पुरातनों कन्तान्य परीक्ष्यरोचयेत्। (सिद्धसेन)
-जो पुरातन काल था वह मार चुका। वह दूसरों का था, आज का जन यदि उसको पकड़कर बैठेगा तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो जायेगा। पुराने समय के जो विचार हैं वे तो अनेक प्रकार क हैं। कौन ऐसा है जो भली प्रकार उनकी परीक्षा किये बिना अपने मन को उधर जाने देगा।
प्राचीन रूढ़ियों पर अन्धश्रद्धा के साथ चलने वालों को बौद्धिक रूप से परावलम्बी ही कहा जाना चाहिए। ऐसे लोगों की प्रगति हो सकना सम्भव नहीं इसी बात को स्पष्ट करते हुए विद्वान् ने लिखा है -
विनिश्चंधनैति यथा-यथा लसस्तथा तथा,
निश्चितवान् प्रसीदति।
अपन्धवाक्या गरवोऽहमल्पधीरिति,
व्यवस्यन स्ववधाय धावतिं
(पूर्व नूतन द्वात्रिशिका-6)
अर्थात् - जो स्वयं विचार करने में आलसी है, वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता। जिसके मन में सही निश्चय करने की बुद्धि है उसी के विचार प्रसन्न और साफ सुथरे रहते हैं। जो यह सोचता है कि पहिले आचार्य और धर्मगुरु जो कह गये हैं, वह सब सच्चा है। उनकी सब बात सफल हैं और मेरी बुद्धि या विचार शक्ति टटपूंजिया है। ऐसा “बाबा वाक्य प्रमाण” के ढंग पर सोचने वाला मनुष्य केवल आत्म-हनन का मार्ग अपनाता है।
किन्तु खेद की बात है कि जहाँ हमारे वेद और शास्त्र हमेशा चलते रहने की, विवेक, बुद्धि की और ज्ञान की प्रेरणा देते हैं अपने हाथ-पैरों को ही नहीं अपनी अकल को भी जकड़े हुए है। वे रूढ़ियों के जाल में फँसे हुए हैं। इनमें केवल अशिक्षित, अज्ञानी, असभ्य लोग ही बाँधे होते तो कुछ कहने की बात थी लेकिन इसमें तो पण्डित, शास्त्री, पढ़े-लिखे, शिक्षित कहाने वाले लोग भी फँसे है। यह बात और भी अधिक खेदजनक है।
अपनी प्रगति की इच्छा रखने वालों के लिए मनुस्मृति में स्पष्ट निर्देश है कि -
प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च विविधागमम्।
त्रयं सुविदित कार्य धर्मशुद्धिमभीप्सता॥
(मनु. 12/105)
अर्थात्- धर्म शुद्धि चाहने वाले को उचित है कि वह प्रत्यक्ष, अनुमान एवं विविध आगमन शास्त्र इन्हें भली−भांति हृदयंगम करें तथा वाद में उन पर आचरण करें।
पवित्रता की रक्षा, देवत्व की प्रतिष्ठा, निष्ठा- भावना सब अच्छा बातें हैं पर यदि उन्हें विवेक की परिधि से परे और पूर्वाग्रह की स्थिति में पहुँचा दिया जाय तो उससे अनेक विकृतियाँ सामने आ सकती हैं।