
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः
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सामान्यतया सोचा यह जाता है कि कार्या की सिद्धि या सफलता दैवी अनुकम्पा या अन्यों के सहयोग पर पूर्णतया आधारित होती है और इसके लिए दैवी अनुग्रह या जन सहयोग की याचना ही पर्याप्त है, जिसके प्राप्त हो जाने पर अभीष्ट कार्य स्वतः पूर्ण हे जायेंगे। परन्तु वास्तविकता इससे कुछ भिन्न ही है। दैवी सहयोग या अन्यों की सहायता- कार्यों की सिद्धि में यत्किंचित सहायक तो हो सकती है लेकिन उनके ही द्वारा कार्य सिद्ध नहीं होते। इसमें व्यक्ति का प्रबल-पुरुषार्थ या स्वयं की कार्यक्षमता ही सफलता की हेतु बनती है। अपनी सामर्थ्य के अभाव में प्राप्त अनुदानों का भी सदुपयोग नहीं हो पाता, जबकि पुरुषार्थ - परिश्रमशीलता के बल पर अन्यों को सहयोग देने के लिए विवश किया जा सकता है। तात्पर्य यह कि मनुष्य के समस्त कार्य उसके ही प्रयास के सत्परिणाम स्वरूप ही सिद्ध और सफल हुआ करते हैं। इस के प्रमाण सर्वत्र उपलब्ध होते है-
प्रयाति वाँछितं वान्यद्दृढं ये व्यवसायिनः।
नाविज्ञातं न चागम्यं नाप्राप्यं दिवचेह वा॥
-मार्कण्डेय पुराण
‘दृढ़ संकल्प वाले कर्मनिष्ठ व्यक्ति ही सफलताएँ प्राप्त करते हैं। मनस्वी व्यक्ति के लिए इस संसार में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं और कोई भी स्थान अगम्य नहीं है।’
क्वभूतलं क्व च ध्रौव्य-स्थानं यत्प्राप्तबन्ध्रुवः।
उत्तानपाद नृपतेः पुत्रः सद् भूमि गोचरः॥
-मार्कण्डेय पुराण
“उत्तानपाद राजा के पुत्र ‘ध्रुव’थे, उन्होंने अपने पुरुषार्थ से ही अद्भुत स्थान प्राप्त कर लिया। कहाँ पृथ्वी और कहाँ ध्रुवस्थान।”
मनुष्य के लिए पुरुषार्थ द्वारा कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं होती, इसके द्वारा वह अपने भाग्य का निर्माण स्वतः कर लेता है -
न तदस्ति जगत्कोशे शुभकर्मानु पातिना।
यत्पौरुषेण शुद्धेन न समासाधते जनैः॥
-धोगवशिष्ठ
“कोई दूसरा हमारे भाग्य का निर्माण नहीं करता है। संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं जो समर्थ और सही पुरुषार्थ से प्राप्त न हो सके।”
‘अप्राप्य नाम नेहास्ति धीरस्य व्यवसायिनः।
-कथासरित्सागर
“धैर्यशाली और व्यवसायी (उद्यमी) व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है। अपने पुरुषार्थ के बल पर वह सब कुछ प्राप्त कर सकता है।”
यो यदर्थ प्रार्थयते यवर्थ घटतेऽपि च।
अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तोनिवर्तते॥
“जो जिस वस्तु की चाह करता है और उसके लिए प्रयास करता है, वह उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है, यदि निराश होकर प्रयास न छोड़ दे।”
उद्योगिनो मनुष्यस्य ननुमत्यकिं दुर्घटम्।
आकाशमषि पानम्लमेकी कुर्यात्कदाचम्॥
“उद्योगी (पुरुषार्थी) मनुष्य के लिए कौन सा कार्य अकरणीय होता है, वह चाहे तो आकाश और पाताल को एक कर दे।”
वास्तव में प्रत्येक कार्य की सफलता का मूल कारण उसके लिए किया गया प्रयास है, न कि केवल उसी सफलता की कामना कर लेना। इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति दोनों मिल कर ही व्यक्ति को सफलता के लक्ष्य तक पहुँचाती है। प्रत्येक महापुरुष के जीवन में दिखाई पड़ने वाले चमत्कार का यही कारण है, वे कार्य की सिद्धि को अपने प्रबल-पुरुषार्थ से सहज ही करतलगत कर लेते हैं। किसी के सामने हाथ नहीं पसारते, उन्हें इस सिद्धान्त पर पूर्णतया विश्वास होता है -
कार्यों की सिद्धि या सफलता उद्यम (परिश्रम) से होती है, केवल कामना करने से नहीं। यही सिद्धान्त सभी व्यक्तियों के लिए भी है। काश इसे हम समझ सके और इसके अनुसार क्रिया पद्धति को निर्धारण कर सकें। सफलता तो हमारे स्वागत को पहले से ही तैयार बैठी है। आवश्यकता केवल उसे स्वीकार करने की है।