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Magazine - Year 1979 - June 1979

Media: TEXT
Language: HINDI
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मनुष्य और पशुओं में यह अन्तर है कि मनुष्य अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को उठता, उमगता अनुभव करता है। तथा पशु नहीं। यों मनुष्य और पशु में बुद्धि का अन्तर भी है। पर वह गौण है। कई प्राणी मनुष्य से भी अधिक बुद्धिमान होते हैं और अपना हित और अहित मनुष्य से भी ज्यादा अच्छी तरह समझते है। मनुष्य की बुद्धिमता श्रेष्ठ और सर्वोपरि लगती है तो इसलिए कि इसके अन्त में इच्छा आकाँक्षाओं के ज्वार निरन्तर उठते हैं और उनकी प्रेरणाओं से ही वह नयी उपलब्धियां प्राप्त करता है। नयी शोधें करता है। जब कि पशुओं में सीमित इच्छायें होती है -या कि वे अपनी नैसर्गिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही बुद्धि का प्रयोग करते है।

कहने का आशय यह कि आकांक्षायें ही मनुष्य की बौद्धिक क्षमता को गति देती हैं उन्हें सक्रिय करती हैं। मनुष्य अपने आस पास कुछ ऐसी, स्थितियाँ ऐसी क्षमतायें और ऐसे साधन देखता है जो उसे पास नहीं है। बुद्धि उन्हें पास कर देती है और उसी का सूक्ष्म रूप अन्तः करण उन्हें पाने के लिए मचल उठता है, तथा जिसे हम बुद्धि के नाम से जानते हैं वह चेतना उसे प्राप्त करने के उपाय सोचती है। उन्हें प्रयोग में लाने की चिन्ता और व्यवस्था करती है।

अतः बुद्धि कहें या इच्छायें -यही वह तत्व या चेतना है जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करती है। अन्य प्राणी न स्वास्थ्य की कामना करते है - न धन चाहते हैं, न ही उन्हें इस बात की चिन्ता है कि उनका प्रभाव क्षेत्र कितना व्यापक है तथा न ही वे यश की कामना करते हैं। यह मनुष्य ही है जिसके मन में कामना आकांक्षायें उठा करती हैं और वह उन आकांक्षाओं की पूर्ति में व्यस्त हो जाता है। सामान्य मनुष्य स्वास्थ्य, धन यश और प्रभाव की कामना करता है। उसके मन में इन्हीं के कल्पना चित्र बनते बिगड़ते रहते हैं। जैसे ही कल्पना चित्र स्थिर हुआ कि वह इनकी पूर्ति में लग जाता है। उसकी मानसिक शक्तियाँ उस चित्र को साकार करने में जुट जाती हैं। उसके शारीरिक क्रिया कलाप अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सक्रिय होने लगते हैं।

इच्छाओं और आकांक्षाओं को इसी कारण मनुष्य की प्रगति का मूल कहा जाता है। क्योंकि दिखाई देने वाली प्रवृत्तियां तो बाद में उभरती हैं, वे प्रवृत्तियां आकांक्षाओं के रूप में ही जन्म लेती हैं। यों हमारे मन में कितनी ही इच्छायें उठती रहती हैं पर पूरी शायद उसकी एक प्रतिशत भी नहीं हो पातीं। बाजार जा रहे हैं और दुकानों पर कई सुन्दर-सुन्दर चीजें दिखाई देती है। मन चुपचाप उन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता चलता है। उन्हें अच्छा या बुरा बताता जाता है। इसका यही अर्थ हैं कि मन उन्हें प्राप्त करने और छोड़ देने के निर्णय करता जा रहा है। ये प्रतिक्रियायें इस बात का संकेत हैं कि मन उन चीजों की प्राप्ति की कल्पना करता चल रहा है, और उस कल्पना से आनन्दित होता जा रहा है। क्योंकि मत का स्वभाव है कि जिस चीज को वह पसन्द करता है उसे प्राप्त भी करना चाहता है।

लेकिन कई इच्छायें तो उठ कर ही बैठ जाती हैं। कुछ होती है जिन्हें साकार करने का विचार भर आता है। और कुछ ऐसी होती हैं जिन्हें प्राप्त करने की व्यक्ति चेष्टा भी करता है। इन सब के बाद कुछ एक ही ऐसी होती है जो पूरी हो पाती हैं। पर यह सत्य है कि मनुष्य इच्छाओं का पुतला है और उसकी इच्छायें किस स्तर की हैं यह उसकी कार्यपद्धति, विचारों और क्रियाकलापों से पता चल जाता है। यह बात कई लोग कहते हैं कि मनुष्य कैसा है- यह उसके चेहरे पर लिखा होता है और उसके चेहरे को देख कर पता लगाया जा सकता है कि वह क्या चाहता है। यह ठीक भी हो सकता है। शाँत झील में जिस प्रकार एक पत्थर फेंकने से लहरें उठने लगती हैं। और किनारे पर आकार ही दम लेती हैं। ठीक इसी प्रकार हमारी इच्छायें क्या हैं या क्या हो सकती हैं यह चेहरे पर आने वाले हाव भावों से मालूम पड़ जाता है। कुछ ऐसी मोटी कसौटियाँ हैं भी जिनके आधार पर मनुष्य का निर्णय किया जा सता है। जैसे व्यभिचारी और कामुक व्यक्ति की आँखों से निर्लज्जता टपकती रहती है। चौर, डाकू और बदमाशों के चेहरे पर एक नृशंस डरावनापन छाया रहता है। बधिक की दुर्गन्ध से ही बकरी मिमियाने लगती है। इसी प्रकार सदाचारी, सौम्य सज्जन स्वभाव के व्यक्तियों की मुखाकृति बता देती है कि यह व्यक्ति सात्विक स्वभाव का है। विचार युक्त और गम्भीर मुँह कह देता है कि यह व्यक्ति विद्वान् और विचारशील है। प्रेम व आत्मीयता के भाव से जीव-जन्तुओं की ओर देखें तो वे हमारी ओर खिंचे चले आते हैं। उसी क्षण यदि हम अपने चेहरे का भाव बदलते और उन्हें क्रूर दृष्टि से देखने लगें तो पास खड़े जान कर दूर खिसक जायेंगे।

यह सब सिद्ध करता है कि मनुष्य इच्छाओं का पुतला है और आकांक्षायें उसका जीवन हैं। इच्छाओं और आकांक्षाओं के चक्कों पर ही मनुष्य जीवन की गाड़ी दौड़ती है अन्यथा उसकी सामान्य आवश्यकतायें तो इतनी थोड़ी सी है जिन्हें आधारभूत कहा जा सके कि वे थोड़े से समय और थोड़े श्रम द्वारा ही पूरी हो सकती हैं। आवश्यकताओं के आधार पर ही यदि मनुष्य का मूल्याँकन और महत्व विश्लेषित किया जाय तो लगेगा कि पेट भर खाना मिल जाय तन ढकने का कपड़ा मिला और हवादार आरामदेह मकान हो-तो इसके बाद उसकी कोई जरूरत नहीं है। इससे आगे शिक्षा और मनोरंजन भी जोड़े जा सकते हैं, पर वे भी बौद्धिक विकास के आधार पर है बौद्धिक आवश्यकता न हो तो इनकी कोई जरूरत नहीं है। शिक्षा जहाँ मनुष्य के बौद्धिक विकास और मानसिक शिक्षण से सम्बन्ध रखती है, वहीं मनोरंजन इन विशिष्ट चेतनाओं को विश्राम देने तथा सुख प्राप्त कराने के लिए होता है। पशु भी अपने बच्चों के साथ अठखेलियाँ करते हैं और किलकारियां भरते हैं। पर उन क्रियाओं को मनोरंजन नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पशुओं में बुद्धि और उसकी स्फुरणा इच्छा जैसी कोई हलचल नहीं दिखाई देती। अगर कुछ होती भी है तो नहीं के बराबर।

इसलिए मनुष्य के समग्र विकास और उसकी सभ्यता के उच्चस्तर का दारोमदार बुद्धि आकाँक्षा पर जाता है। सामान्य इच्छाओं से ऊँचा उठ कर और समाज को दृष्टि गत रख कर अपनी क्रियाओं को नियोजित करने वाले व्यक्ति मनुष्य के विकास में योगदान दे पाते हैं। इस श्रेणी के व्यक्ति महामानव स्तर के होते हैं और इसका सबसे निचला छोर है उन लोगों की मनोभूमि जो अपने ही सुख को केंद्र मानकर चलते हैं। एक को श्रेय सम्मान मिलता है तो दूसरे की आत्यन्तिक लिप्तता उसे अपमान तथा निन्दा का पात्र बनाती है। क्योंकि दूसरों का सहयोग, अनुदान और उपकारों से हम आगे बढ़ते हैं तो देवत्व की इस मर्यादा के अनुरूप हमें भी तो चलना होगा।

देवत्व की यह विशेषता है जिसके कारण मनुष्य जीवन और समाज आगे बढ़ता है, गतिवान होता है। उस स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती जब कि कोई वैज्ञानिक दुनिया के रागरंगों को छोड़ कर मशीनों का आविष्कार नहीं करता और मनुष्य के श्रम की कठोरता को कम नहीं करता तो क्या होता। कोई चिकित्सा विज्ञान का साधक होता है और अपनी सारी जिन्दगी बीमारियों से लड़ने तथा उनका इलाज खोजने में बिता देता है। कोई एक साहित्यकार होता है जो मनुष्य के चिन्तन को आगे बढ़ाता है और पुस्तकों के रूप में अपनी विरासत अगली पीढ़ी के लिए छोड़ जाता है। सम्भव है कि इन कार्यों के मूल में व्यक्ति की अपनी महत्वाकाँक्षा भी जुड़ी हो, पर वह महत्वाकाँक्षा इतने ऊँचे स्तर की होती है कि उसमें मनुष्य जाति के कल्याण का उद्देश्य भी जुड़ा होता है और उन आकाँक्षाओं को पूरा करने में जो कठोर श्रम करना पड़ता है तथा जिन कठिनाइयों से सामना होता है वे स्थितियाँ व्यक्ति की साधना को तपसाधना बना देती है।

उत्कृष्ट और मध्यम स्तर की इच्छाओं के साथ ऐसी इच्छायें रखने वाले व्यक्ति भी मिलते हैं जिन्हें न समाज की चिन्ता रहती है, और नहीं इस बात से कोई सरोकार कि हमारे प्रयत्नों में से थोड़े बहुत देवत्व की सीमा में भी आते हैं या नहीं। अपना सुख ही उनके लिए सर्वोपरि लक्ष्य होता है। और उसकी प्राप्ति के लिए हर तरह के प्रयास औचित्य में आते हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता भी नहीं रहती कि हमारे प्रयत्नों से किसी का भला हो रहा है अथवा बुरा? जैसे कोई व्यक्ति धन को ही सर्वोपरि मानता है और उसे प्राप्त करने के लिए हर उचित अनुचित प्रयास करता है। अगर व्यापारी हो तो मुनाफाखोरी से लेकर मिलावट और अपने उत्पादन का गुणानुवाद कर अपने माल को खपाने की कोशिश करेगा। नौकरपेशा हुआ तो किसी काम के लिए आने वाले व्यक्ति से अनाप शनाप रिश्वत ऐंठने का प्रयत्न करेगा। मजदूर हुआ तो कम काम कर अधिक पैसा प्राप्त करना चाहेगा। यह सब इच्छायें निकृष्ट स्तर की - पशुता से भी गिरी हुई कही जायगी।

यद्यपि उचित तो यह है कि व्यक्ति जितना समाज से ग्रहण करता है। उसके बराबर समाज को दे भी। माना कि पैसे से हर चीज खरीदी जा सकती है। पास में पैसा हो और इच्छित चीज न मिले तो पैसे की क्या उपयोगिता? पैसे की व्यवस्था और उससे क्रय विक्रय की परम्परा तो इसलिए बनी है कि उसके माध्यम से समाज के सभी सदस्यों की आवश्यकतायें पूरी होती रहें। अन्यथा पैसा देकर खरीदने से उस वस्तु का पूरा मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। और हम अपने समग्र जीवन में जिन वस्तुओं का उपयोग करते है- ज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा आदि व्यवस्थाओं का लाभ उठाता है और इन व्यवस्थाओं के निर्माण में जिन एकान्त साधकों का हाथ है, उनके नैतिक रूप से ऋणी हो जाते हैं। उस ऋण से उऋण होने का तकाजा है कि हम अपने प्रयत्नों द्वारा आँशिक रूप से ही सही उन परम्पराओं को कायम रखें जो कि उनके आविष्कर्ताओं ने आरम्भ की है। अब यह हो नहीं सकता कि रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा रची गयी कृतियों से अथवा पुरातन काल से चली आ रही ज्ञान-विज्ञान की धाराओं के प्रणेताओं को अपनी कृताँजलि अर्पित करें। जिन मनीषियों और साधकों का इन उपलब्धियों के मूल में सारे जीवन का पुरुषार्थ और सम्पूर्ण जीवन की साधना कारण रूप से उपस्थित है उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का यही व्यावहारिक उपाय रह जाता हैं कि उसी अनुपात में थोड़ा समाज के लिए भी करते रहें।

और जो इस नैतिक दायित्व से पलायन करते हैं उन्हें मानवीय गुणों से सम्पन्न तो नहीं कहा जा सकता। इतना भी न बन पड़े तो कम से कम यह नहीं होना चाहिए कि हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को हानि पहुँचा कर अनैतिक अनुचित उपाय अपनाकर अपना लाभ कमाने की बात सोचें। इस रीति नीति को अपना कर कोई व्यक्ति थोड़े समय के लिए सुखी बन कर अपने अहं को भले ही तुष्ट करे पर परिणामतः वह बुरा ही है। समाज के पक्ष में तो यह स्थिति बुरी कही जायगी जिससे कि सामाजिक सुव्यवस्था में कोई सहयोग मिलने के स्थान पर उल्टा विघ्न पड़ता है। स्वयं व्यक्ति के लिए भी कोई स्थायी लाभ का आधार नहीं बनाती।

हम इच्छायें तो करें। स्वास्थ्य, समृद्धि, सुख और यशकीर्ति की कामना भी करें। पर उपलब्ध के साथ जुड़े हुए सामाजिक अनुदान के प्रति भी कृतज्ञता अनुभव करें। न केवल कृतज्ञता अनुभव करें।, वरन उसका प्रतिपादन करने के लिए भी तत्पर रहें। आत्मतुष्टि को महत्व दें परन्तु यह भूल कर नहीं कि उससे कहीं किसी का अहित तो नहीं हो रहा है। दूसरों के हित की कामना और परमार्थपूर्ण प्रयास स्पृहणीय है, किये जाने चाहिए, पर उनके करने में असमर्थता अनुभव हो रही हो तो सामाजिकता को ही नहीं भुला देना चाहिए। स्मरण रखा जाय कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उस पर अपने परिवार, पड़ोस, गाँव एवं राष्ट्र की अनेकानेक जिम्मेदारियाँ हैं और अपनी सुख सुविधाओं के लिए न उन्हें अनदेखा किया जाय तथा न ही उपेक्षा। वरन् कर्त्तव्य भावना से स्वयं की सुख समुन्नति के साथ दूसरों के हितों का भी ध्यान रखा जाय।

First 14 16 Last


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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

June 1979
Type: TEXT
Language: HINDI
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