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Magazine - Year 1980 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्मिक विकास के लिए स्वप्नों का उपयोग

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मनोवैज्ञानिकों का कथन हे कि कोई भी व्यक्ति बिना स्वप्न देखे एक पल भी नहीं सोता । जागृत स्थिति में आँखे कुछ न कुछ देखती रहती है , मन में कई तरह के विचार और कल्पनाएँ घुमड़ती रहती है । मनःशास्त्र के अनुसार वही विचार और कल्पनाएँ सुप्तावस्तथा में भी उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं और तरह-तरह के चित्र-विचित्र दृश्य दिखती है । स्वप्न को सामान्यतः इच्छाओं और कल्पनाओं की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी कही जाता है । चूँकि निद्रित अवस्था में शरीर तो सोता रहता है , किन्तु मन मस्तिष्क के क्रिया-कलाप , चिन्तन , विचार और कल्पनाओं की उड़ान चलती ही रहती है । मन मस्तिष्क के यही क्रिया-कलाप स्वप्न के रुप में दिखाई देते हैं । मनोविज्ञान अब तक इसी रुप में स्वप्न को व्याख्यायित करता रहा हे । किन्तु अब मनावैज्ञानिक के अनुसार स्वप्न का एक और पक्ष उद्घाटित हुआ है , जिन्हें अतीन्द्रिय स्वप्न कहा जाता है । रुसी मनःशास्त्री पावलोव के अनुसार मनुष्य का अवचेतन मन अनन्त सम्भावनाओं और सम्वेदनाओं का भण्डार है , उसे सामान्य रीति से समझ पाना अति दुष्कर है । इस सर्न्दभ में सन् 1883 में वोस्टल ग्लोव नामक अमरीकी समाचार पत्र के सम्बाददाता द्वारा प्रालेप द्वीप में भयन्कर ज्वालामुखी विस्फाट का स्वप्न दृश्य देखने और उसे खबर के रुप में प्रकाशित होने की घटना उल्लेखनीय है। इस तरह की और भी अगणित घटनाएँ है , जिनमें लोगों ने स्वप्न द्वारा किसी सुदूर स्थान में घट रही घटनाओं की जानकारी प्राप्त की , भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का आभास प्राप्त किया और हजारो मील दूर स्थित अपने प्रियजनों के हाल जाने । इस तरह के सैकड़ो प्रसग अब विश्व विख्यात हो चुके हैं जिनकी वैज्ञानिकों द्वारा छान-बीन किये जाने के बाद उन्हें सही पाया गया । मनःशास्त्रियों के अनुसार इस तरह के स्वप्त अतीन्द्रिय स्वप्त होते हैं और सामान्य लोगों को भी स्वप्न में कभी-कभी ऐसी अनुभूतियाँ हो जाती है।

भारतीय मनीषियों ने इस तरह के स्वप्नों को आध्यात्मिक स्वप्न कहा है और बताया गया है कि आत्म-चेतना ही मन के द्वारा जागृत अवस्था में लौकिक दृश्यों को और सुप्तावस्था में स्वप्न जगत को देखता है । आत्मा की शक्तियों का विवेचन करते हुए ऋषि ने कहा है -

स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभी येनानुपश्यति । महान्तं विभुभात्माभत्वा ............................॥

अर्थ - निद्रा की स्थिति में स्वप्न के दृश्यों को और जागृत अवस्था में प्रत्यक्ष अनुीत दृश्यों को मनुष्य बार-बार देखता है , वह शक्ति आत्मा से ही प्राप्त होती है और आत्मा महान विभु परमात्मा ही है।

ऋषि के अनुसार परमात्मा चेतना सर्वव्यापी है। आत्म-चेतना उसी एक अंश है । किन्तु विकारों , कषाय-कल्मषों के कारण उसका सम्बन्ध परमात्म सत्ता से एक तरह टूटा हुआ रहता है । दोनों के बीच माया का , भ्रान्ति का , अज्ञान का आवरण है जो दानों को एक - दूसरे से पृथक् करता है । फिर भी यदा-कदा बिजल की चमक के समान आत्म-चेतना में परमात्मसत्ता की दीप्ति चमक उठती है और उस स्थिति में व्यक्ति को इस स्तर की अनुभूतियाँ होने लगती हैं जिन्हें इन्द्रियों और मस्तिष्क द्वारा न अनुभव किया जा सकता है तथा न ही जाना जा सकता है , स्वप्नों के माध्यम से अतीन्द्रिय संकेत प्राप्त करना और आध्यात्मिक अनुभव करना भी उसी स्तर की अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ कहा जा सकता है ।

कहा जा चुका है कि व्यक्ति का अवचेतन मन अनन्त सम्भावनाओं और सम्वेदनाओं का भंडार है । स्वप्नों के माध्यम से अतीन्द्रिय दर्शन , दूरानुभूति उन्ही सम्भावनाओं की एक झलक मात्र है । इस तथ्य को समझने के लिए यसोगनिद्रा क थोडा़ परिचय देना आवश्यक होगा । योगनिद्रा वस्तुतः अवचेतन पर से चेतन का दबाव हआ लेने की विद्या है । ऐसी स्थिति में व्यक्ति की अन्तःचेतना अनन्त ब्रहृसत्ता की तरंगों की गतिविधियाँ देख पकड़ पाने में समर्थ हो जाती है और तब वह अतीत की बीत चुकी घटनाओं , वर्तमान में घटित हो रही तथा भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को सहज ही जान समझ लेती है । उस स्थिति में देशकाल की कोई सीमाएँ चेतना की पहुँच के मार्ग में बाधा नहीं बनती ।

अतीन्द्रिय दर्शन का आभास देने वाले स्वप्न भी उसी स्तर के होते है । चूँकि जागृत स्थिति में चेतन मन अधि जागृत और सक्रिय रहता है इसलिए उस दशा में अवचेतन मन प्रायः प्रसुप्त और निष्क्रिय अवस्था में ही रहता है । निद्रित अवस्था में चेतन मन अपेक्षाकृत शिथिल पड़ जाता है तो अवचेतन को थोड़ा जागने ओर सक्रिय होने का अवसर मिलता है । यदि व्यक्ति का अन्तःकरण शुद्ध , पवित्र और निष्कलुष होगा तो उस स्थिति में व्यक्ति की अन्तरिक शक्तियाँ उतना ही अधिक विकसित होने का अवसर प्राप्त करेंगी और तब न देखे हुए और न सुने हुए को भी देखने और सुनने का अवसर प्राप्त हो सकता है । प्रश्नोपनिषद में गार्ग्य मुनि के तीसरे प्रश्न के उत्तर में महर्षि पिप्पलाद यही बताते है -

अत्रैव देवः स्वप्ने महिमानमनु भवति ।

यद् दृष्टं दृष्टमनु पश्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थनु श्रृणेति ॥

देश दिगन्तरैश्य प्रत्यनु भूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति दृष्टं चादृष्टं च श्र तं चाश्रुतं चानुभूत चानुनू भ्तं च सच्चासच्य सर्व पश्यति सर्वः प्रश्यति ।

गार्ग्य मुनि का प्रश्न था कि कौन देवता स्वप्नों को देखता है। उत्तर में महर्षि पिप्पलाद बताते है कि इस स्वप्न अवस्था में जीवात्मा ही मन और सूक्ष्म इन्द्रियों द्वारा अपनी विभतियों का अनुभव करता है । इसका पहले जहाँ कहीं भी , जो कुछ बार-बार देखा ,सुना और अनुभव किया होता है उसी को वह स्वप्न में बार-बार देखता , सुनता और अनुभव करता रहता है । परन्तु यह नियम नहीं है कि जागृत अवस्था में इसने जिस प्रकार और जिस ढंग से , जिस स्थान पर जो घटना देखी , सुनी या अनुभव की है उसी प्रकार यह स्वप्न में भी अनुभव करे । स्वप्न में तो मन स्वच्छन्द विचरण के लिए स्वतन्त्र रहता है इसलिए वह किसी भी घटना का अपने अनुकूल और वाँछित अंश लेकर उसे अनुभव करने लगता है। ऐसा भी होता है कि शुद्ध-बुद्ध , पवित्र और निर्विकार आत्मा न देखे हुए को भी देखने लगे , न सुने हुए को भी सुनने लगे और न अनुभव किये हुए को भी अनुभव करने लगे ।

महर्षि पिप्पलाद ने मन और सूक्ष्म इन्द्रियों द्वारा जीवात्मा को ही स्वप्न देखने वाला बताया है और जब जीव चेतना इतनी पािवत्र तथा प्रखर हो जाय कि ब्रह्मण्ड-व्यापी चेतना से सर्म्पक करने में कोई व्यवधान न रहे तो सुनिश्चित रुप से व आध्यात्मिक अनुभूतियों का अधिकारी बनता चला जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आत्मा को पवित्र , निष्कलुष और निर्विकार बनाने के बाद व्यक्ति दिव्य अनुीतियाँ प्राप्त करने की क्षमता से सम्पन्न होता चला जाता है । अतीन्द्रिय स्वप्न मनःशास्त्रियों के अनुसार अवचेतन की जागृति मात्र है। और संस्कार शुद्ध व्यक्ति का अवचेतन भी शुद्ध होने से उसके स्वप्न भी यथार्थ की अभिव्यक्ति कर सकते हैं। यह यथार्थ सुदूर वर्तमान का भी हो सकता हे तथा सूक्ष्म जगत में सुनिश्चित हो चुके भविष्य का भी ।

व्यक्ति जब संस्कार शुद्धि के लिए योगतप का अनुष्ठान करता है तो उससे साधक की मनाभूमि का दिशा विशेष में निर्माण होने लगता है । श्रद्धा , विश्वास तथा संस्कार शुद्धि के लिए किये गये प्रयासों से उसकी अन्तःचेतना में आध्यात्मिक एवं सात्विक प्रवृतियाँ प्रमुख होने लगती है और उस स्थिति में निरर्थक स्वप्त बहुत ही कम आते है ।

शास्त्रकारो ने तो स्वप्नों के माध्यम से साधन मार्ग में प्रगति का लेखा - जोखा लेने की कसौटियाँ भी निर्धारित कर रखी है । कौन से ओर कैसे स्वप्न किन तत्वों की वृद्धि और निष्कासन की सूचना देते हैं , यह बहुत व्यापक और विस्तृत विषय है । सामान्यतः इस तरह के स्वप्नों को चार भागों में विभक्त किया गया है - ( 1) पूर्व संचित कुस्संकारों के विसर्जन , निष्कासन की सूचना देने वाले स्वप्न ( 2 ) श्रेष्ठ तत्वों के अभिवर्धन का स्वप्नों में प्रकटीकरण ( 3 ) भावी सम्भावना का पूर्वाभास और ( 4 ) दिव्य दर्शन ।

साधना मार्ग पर अग्रसर होते हुए साधक में जब आध्यात्मिक तत्वों की वृद्धि होने लगती है तो उन तत्वों का स्थान नियुक्त होने से पूर्व संचित का निष्कासन आवश्यक हो जाता है । उन संस्कारों के निष्कासन की प्रतिक्रिया स्वरुप जो विक्षोभ उत्पन्न होता है , जो कि स्वाभाविक ही है उसे स्वप्नावस्था में भयन्कर , अस्वाभाविक , अनिष्ट एवं उपद्रवकारी रुप में देखा जाना स्वाभाविक ही है। दूसरी श्रेणी के स्वप्न वे होते हैं, जिनसे इस बात का पता चलता है कि साधक के भीतर सात्विकता की वृद्धि हो रही है सात्विक कार्यों को करने या किसी अन्य के द्वारा इस तरह के कार्य होते दिखाई देने वाले स्वप्न ऐसा ही परिचय देते है ।

श्वेताश्तवरोपनिषद् में योगाभ्यास के ठीक चलने की कसौटी भी कुछ विशेष दृश्यों के रुप में दिखाई देने के रुप में विवेचित की गई है। इस उपनिषद् में दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कहा गया है-

नीहार धूमाकी निल्मनल्पनाँ, खद्यातेविद्यु तस्फटिक शशीनाम् । एतानि स्पाणि पुरः सराणि , ब्रह्मण्यभिव्यक्ति कराणियोगे ॥

अर्थात् - परमात्मा की प्राप्ति के लिए किय जाने वाले योग में साधन में कुहरा , धुँआ , सूर्य , वायु और अग्नि के समान तथा जुगनू बिजली , स्फाटिक मणि और चन्द्रमा के समान बहुत से दृश्य योगी के सामने प्रकट होते हैं । ये सब योग की सफलता को स्पष्ट रुप से सूचित करते है ।

योगसाधना में चेतन मन के उत्पातों को रोकने के लिए शिथिलता , शून्यावस्था , समाधि , शवासन आदि को बहुत महत्व दिया जाता है । इन्हें योगनिद्रा कहते है । स्नायु संस्थान पर से तनाव दबाव हटाकर यदि श्राँत, विश्राँत , और सौम्य मनःस्थिति प्राप्त की जा सके तो उसे जागृत निद्रा समतुल्य माना जा सकता है । स्मरणीय है ध्यान धारणा की सीढ़ियाँ पार करते हुए समाधि तक पहुँचना साधना विज्ञान की चरम प्रक्रिया है । स्वपनावस्था में तो मनुष्य का अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रहता और न ही स्वसंकेत देने तथा अपने बलबूते पर अपने को इच्छित दिशा में मोड़ पाना सम्भव है । इसलिए आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली साधनाओं में कृत्रिम योगनिद्रा की स्थिति लाने का अभ्यास आवश्यक समझा गया है । इस स्थिति में मन और बुद्धि तो तन्द्राग्रस्त हो ही जाते हैं, पर चित्त में संकल्प जीवन्त रख जा सकते है । इन संकल्पो से अचेतन मन को प्रशिक्षित किया जाता हे । अतीन्द्रिय स्वप्न व्यक्ति चेतना और विराट् चेतना के बीच कोई सेतु होने का परिचायक है और सिद्ध करते हैं कि स्वप्नों के माध्यम से भी आत्म-परिष्कार सम्भव है , लेकिन उसके लिए योगनिद्रा जैसी स्थिति प्राप्त करना आवश्यक है । आत्म-परिष्कार की प्रधान योगसाधना इसी प्रकार सम्भव होती है । मन्त्र जप में , ध्यान तन्मयता में चित्त के भीतर उच्च स्तरीय सकल्प जागृत रखे जाते हैं । यदि इन प्रयागों को सही उद्देश्य समझकर सही रीति से कार्यान्वित किया जाय तो उसके आशाजनक परिणाम सामने आना सुनिश्चित है । भारतीय तत्व वेत्ताओं ने इसीलिए योगनिद्रा एवं समाधि के स्तर सामान्य असामान्य सभी तरह के साधकों की मनोभूमि को ध्यान में रखते हुए बनाये हैं। इनमें सचेतन को तन्द्रित करने और अर्न्तमन को प्रशिक्षित करने के तीनों ही उद्देश्य पूरे होते है । इस दिशा में जितनी सफलता मिलती है उतने ही सामान्य स्वप्नों में भी ऐसी अत्यन्त महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलने लगती हैं जिन्हे दिव्य-दर्शन अथवा अतीन्द्रिय प्रतिभा कहा जा सके ।

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