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Magazine - Year 1980 - Version 2

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दिव्य अनुदान दिव्य प्रयोजनों के लिए

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दैवी अनुदान उपलब्ध करने वालों की सूची तैयार की जा सके तो अनादिकाल से लेकर अद्यावधि एक भी ऐसा न मिलेगा जो उन वरदानों को पुण्य-प्रयोजनों में खर्च न करके अपनी वासना-तृष्णा की पूर्ति में लगाता बर्वाद करता रहा हो । जिनने ऐसी भूल की है या जिन देवताओं ने भूल की है उन दानों को ही दुर्गति सहन करनी पड़ी है । भस्मासुर का प्रसंग सर्वविदित है जिसमें उपलब्धकर्त्ता और दानी दानों को ही यातना और निन्दा का भागी बनना पड़ा था । रावण, कंस, रिण्यकश्यपु, मारीच ने दैवी-सिद्धियाँ प्राप्त करके उनसे निकृष्ट स्वार्थो की सिद्धि सोची और उनका प्रयास परिश्रम लाभदायक सिद्ध न होकर हानिकारक परिणाम ही उत्पन्न कर सका , यही सनातन क्रम है। ‘देवी अनुदान दिव्य प्रयोजनों के लिए’ -का अकाट्य सिद्धान्त जो सही रुप से समझ पाते हैं उन्हीं की सर्वागीण प्रगति में दैवी अनुकम्पा का , गुरु कृपा का समुचित सदुपयोग बन पड़ता है। उन्हीं को सच्चा लाभ मिलता है।

इन दिनों यह सुविधा अधिक सरलतापूर्वक असंख्यों को उपलब्ध हो रही है। वर्षा के दिनों नमी और हरितमा का दृश्य अधिक स्थानों पर देखा जा सकता हैं । युग सन्धियों में दैवी तत्वों को उभारने के लिए दिव्य अनुकम्पा वर्षा की तरह झरती है और जहाँ भी थोड़ी अनुकूलता पाती है वहीं अपनी उत्पादन शक्ति का परिचय देने लगती है। गड्ढे और नाले भी बिना प्रयास के भरेपूरे दीखने लगते है। अवतारों के प्रकटीकरण की बेला में यह प्रवाह और भी तेजी से बहने लगता है। रीछ-बानरों ने, ग्वाल-बालो ने अपनी सदाशयता भर निश्चित की थी इतने भर से उन्हें सामर्थ्य और श्रेय का अजस्त्र अनुदान मिलने लगा था, ठीक वैसी ही अवसर इन दिनों भी है।

कुछ समय ऐसे होते हैं जब साधकों को सिद्ध ढूँढते रहते हैं । कुछ समय ऐसे आते हैं जिसमें सिद्ध को साधक ढूँढने पड़ते है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं । समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए भगवान तूफान की तरह युगान्तरीय चेतना बनकर आते हैं और अपने प्रवाह में धूलिकणों और तिनकों तक को उछाल कर गगनचुम्बी बनने का अवसर प्रदान करते हैं । इसमें सारा पुरुषार्थ प्रवाह का होता है। उड़ने वालों में मात्र हलका होने की पात्रता भर होती है। भारी लठ्टों को तो तुफान भी नहीं उड़ा पाता । बुद्ध के परिब्राजक और गाँधाी के सत्याग्रही उन कृपणों की अपेक्षा कहीं अधिक लाभ में रहे जिन्हे लोभ,मोह की हथकड़ी, बेडी पुण्य पव्र के रहते हुए भी ढीली करते न बन पड़ी ।

सामान्य अवसरों पर सेना में भर्ती होने के लिए अनेक प्रकार की जाँच प्ड़तालों में पास होना पड़ता है तब जगह मिलती है किन्तु देश पर शत्रु चढ़ आने की स्थिति में आपत्तिकालीन नियम बनते हैं और अनिच्छुक वयस्कों को भी बलपूर्वक सेना में भर्ती होने के लिए विवश किया जाता है। युग सन्धि ऐसी ही असामान्य बेला है जिसमें ध्वंस को सृजन में-दैत्य को देव में परिवर्तित करने के लिए सूक्ष्म और स्थूल जगत में कायाकल्प जैसी प्रक्रिया उफनती दृष्टिगोचर होगी । लोक चेतना में भरी हुई अवाँछनीयता की गलाई और उसकी उपयुक्तता के ढाँचे में ढलाई होने जा रही है। इसका दृश्य कैसा होता है इसकी झाँकी किन्हीं इस्पात गलाने ढालने वाले विशालकाय कारखाने में जाकर की जा सकती है। इस बीस वर्षो में ऐसी ही उथल-पुथल चलेगी। अन्ततः उसके सत्परिणाम ही निकल कर आवेंगे । समुद्र मन्थन के समय कैसा ही कुहराम, कोलाहल क्यों न मचा हो, अन्ततः उसके फलस्वरुप बहुमूल्य रत्न ही निकले थें । उज्जवल भविष्य की सम्भावना सुनिश्चित हैं । कष्ट कर तो परिवर्तन काल की प्रसव पीड़ा भर हैं।

युग सन्धि का पर्व बीस वर्ष का है। सन् 80 से 2000 तक चलेगा । इसमें नैष्ठिक साधकों की सहायता से युग पुरश्चरण चल रहा है, उन्हें आत्मबल संग्रह करने के लिए सूर्यादय से पूर्व और सूर्यास्त के उपरान्त जो दिव्य अनुदान प्रस्तुत गायत्री जयन्ती (23जून) से मिलने लगे हैं उनका विस्तृत विवरण अखण्ड-ज्योति के पिछले अंगो में आ चुका है। तदनुरुप अनेकों साधक उस विशेष अनुदान को अति सरलतापूर्वक उपलब्ध करने लगे हैं। यह युग पुरश्ररण के भागीदारों और नैष्ठिक उपासना का युग सन्धि अवधि तक साधना में रहनें वालों का उच्चस्तरीय अनुदान है। इस आधार पर वे अपनी नैष्ठिकता बनाये रहकर आत्मबल सम्पादित करेंगे और आत्म-कल्याग का लाभ अर्जित करेंगे ।

यह एक विशिष्ट वर्ग के लिए विशेष प्रकार के अनुदान है। इसका लाभ प्रायः एक लाख ऐसे साधक उठा सकेंगे जिनमें संचित संस्कारों की पूँजी तो पहले से ही विद्यमान थी । इस समय उसे निखारा और गतिशील भर किया गया है। सिद्ध पुरुष अपनी ओर से ऐसे ही लोगों को तलाशते रहते हैं, जिनके साथ स्वल्प श्रम करके अधिक लाभ कमाया जा सके। युग पुरश्चरण से जहाँ अदृश्य वातावरण के अनुकूलन और दृश्य हलचलों में सत्प्रवृति सर्म्बधन की सम्भावना बढ़गी, वहाँ उसमें सम्मिलित होने वालों के व्यक्तित्व भी बिखरेंगे। इस निखार से महामानवों की शक्ति और संख्या में आशाजनक अभिवृद्धि होगी ।

युग पुरश्चरण की भागीदारी लम्बे समय की है और उसके साि कइ्र प्रतिबन्ध भी जुडे हुए हैं- इसलिए उसके निर्वाह का साहस सीमित व्यक्ति ही जुटा सकेंगे-यह निश्चित है। धार्मिकता और साधना के इतने बड़े क्षेत्र में इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए एक लाख साधकों का लक्ष्य रखा गया है और उतने भर लोगों से ही युग पुरश्चरण की दैनिक साधना 240 करोड बनाये रहने का व्रत लिया गया है। यह महापुरश्ररण सामूहिक अध्यात्म उपचारों के इतिहास में अनुपम और अद्भुत है। उस प्रयोग के सत्परिणाम भी दूरगामी होंगे । इतने पर भी यह मानना ही होगा कि यह सीमित लोगों द्वारा वातावरण अनुकूलन जैसे विशिष्ट प्रयोजन को लेकर किया गया उपचार है। इससे सद्भाव सम्पन्न साधारण जनों को लाभ नहीं मिल सकेगा। क्योंकि वे नियमितता और निष्ठा के साथ जुडी हुई व्रतशीलता का निर्वाह उच्चस्तरीय मनोबल के अभाव में कर नहीं सकेंगे । ऐसे भी बहुत हैं जो कर तो सकते हैं, पर उसके लिए आवश्यक मनोबल न होने के कारण हिचकिचाते ही रहेंगे और वैसा साहस जुटा नहीं सकेंगे । इस वर्ग को द्वतीय श्रेणी के परिजन कहा जा सकता है। उन्हें पिछले निर्धारण के अनुसार युग सन्धि में बहने वाले विशिष्ट प्राण प्रवाह का वह अनायास लाभ नहीं मिल सकता जो युग पुरश्चरण के भागीदारों के निमित्त निश्चित है।

इस द्वितीय वर्ग के असमंजस को ध्यान में रखते हुए इसी गायत्री जयन्ती के (23जून) से एक नया निर्धारण किया गया है कि गायत्री परिवार के परिजनों में से कोई भी इस दिव्य अनुदान प्रवाह का सीमित लाभ उठा सकेगा और आत्मिक प्रगति के लिए जिस ‘अनुदान’ प्रयोजन की आवश्यकता पड़ती है उससे वंचित रहने का असमंजस सहन न करेगा ।

कहा जा चुका है कि हिमालय के मध्यवर्ती ध््राव केन्द्र से एक विशिष्ट ऊर्जा प्रवाह गायत्री जयन्ती से निसृत होगा । उसके साथ सम्बन्ध जोड़कर युग पुरश्चरण के भागीदार उसके सहारे उपलब्ध होने वाले अनुदानों से लाभान्वित होते रहेंगे । उसकी विधि-व्यवस्था से सभी भागीदारों को परिचित कराया जा चुका है। अब उसी सर्न्दभ में दूसरा प्रवाह उस वर्ग के लिए आरम्भ होने की व्यवस्थ बन गई है जिसका लाभ सामान्य गायत्री उपासक बिना किसी प्रकार का व्रत लिए जब भी चाहे ग्रहण कर सकते हैं। असुविधा होने पर उसे छोड़ा भी जा सकता है।

यह शक्ति संचार के त्रिविधि अनुदान इन्हीं दिनों आरम्भ होने है। इससे सामान्य गायत्री उपासक भी अपने स्तर के ऐसे दिव्य अनुग्रह उपलब्ध कर सकते हैं जिनको अभिभावकों द्वारा अपनी सन्तान को दिये जाने वाले सहज अनुदानों के समतुल्य माना जा सके ।

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