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Magazine - Year 1980 - Version 2

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अब सभी जाग्रत परिजनों को यह लाभ मिलेगा

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युग परिवर्तन की दो निर्धारणाएँ हैं-(1) मनुष्य में देवत्व का उदय (2) धरती पर र्स्वग का अवतरण इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जन-जन की मनःस्थिति में उत्कृष्टता का समावेश और परिस्थिति में आदर्शवादिता का समन्वय करना पड़ेगा । यही दो चरण हैं जिन्हे उठाते हुए निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव हो सकता हे। संक्षेप में इन कार्यक्रमों को विचार क्रान्ति और सत्प्रवृति सर्म्बधन कह सकते हैं।

इन प्रयासों को अग्रगामी बनाने का उत्तरदायित्व जागृत आत्माओं को उठाना पड़ेगा । नव-सृजन के अग्रदूतों में उन्ही की गणना होगी। साँचे में खिलौने या पुर्जे ढलते हैं। इसलिए पहले साँचे बनते हैं, पीछे खिलौने या पुर्जे सरलतापूर्वक ढलते चले जाते हैं। परिवर्तन तो 400 करोड़ मनुष्यों का होना है और परिस्थितियाँ मील व्यास वाले धरातल की बदली जानी हैं, इतना विस्तार एकाकी नहीं हो सकता । उसके लिए क्रमिक गतिशीलता आवश्यक है। लेखनी या वाणी द्वारा किया गया प्रचार मात्र मस्तिष्कीय हलचल उत्पन्न करता हैं। अनुगमन के लिए जन समुदाय को तैयार करने के लिए ऐसे अग्रगामियों की आवश्यकता पड़ती है जो अपने उदाहरण से दूसरों में साहस उत्पन्न कर सकें । उनके प्रयासों से सपरिणाम उत्पन्न होते या नहीं, यह देख कर ही सर्वसाधारण को उस प्रतिपादन को अपनाने का उत्साह मिल सकता है। इसलिए व्यापक क्षेत्र में सुगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए प्रतिपादनों की लाल मशाल ही नहीं उसे मजबूती से पकड़ने वाली संकल्पवान भुजा भी होनी चाहिए । विचार-क्रान्ति की ज्ञान गंगा का जब कभी उल्लेख किया जाता है तो उसे कर सकने वाले भागीरथों का-जागृत आत्माओं की भूमिका भी आवश्यक बताई जाती हैं।

प्रज्ञापीठों, शक्तिपीठों के निर्माण और प्रतिमा प्रतिष्ठा का अभियान एकाँगी नहीं है। उद्देश्य रहित बनते चले जाने वाले मन्दिरों में उनकी गणना नहीं हो सकती । दृश्य निर्माणो के पीछे वे अदृश्य योजनाएँ हैं जिन्हे नियुक्त परिव्राजकों द्वारा स्थानीय एवं क्षेत्रीय गतिविधियों द्वारा सत्प्रवृत्ति समबर्धन एवं दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के रुप में सम्पन्न किया जायगा । दृश्य को काया और अदृश्य को प्राण कहते हैं। प्रज्ञा अवतरण की कार्य पद्धति जनमानस के परिष्कार और नव सृजन के रचनात्मक क्रिया कलापों को गतिशील करने में उभयपक्षीय है।

इसके लिए धर्म तन्त्र की पृष्ठ भूमि को अपनाया गया है। अर्थशास्त्र, राजनीति, समाज शास्त्र आदि भी सत्प्रवृत्ति सर्म्बधन के लिए तर्क, उत्साह एवं कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकते हैं, पर उन सबमें एक ही कमी है कि आधार सुविधा सर्म्बधन मात्र रहने से भौतिकता की परिधि में लिपट कर छोटा रह जाता है। जबकि यह सारी प्रक्रिया उत्कृष्टता की भाव सम्वेदना पर आधारित है। आत्मीयता, उदारता, सज्जनता, सेवा, शालीनता, संयम त्याग बलिदान जैसी सद्भावनाएँ ही उन प्रयोजनों को किसी से पूरा करा सकती है जो युग अवतरण के लिए अभीष्ट है। भौतिकता की सीमा सुविधा सर्म्बधन तक हैं। उसके तर्क और उत्साह इससे आगे नहीं बढ़ते । आध्यात्मिकता ही है जो किसी को स्वंय तपस्वी रहने और दूसरों के प्रति असीम करुणा बखेरने के लिए सहमत कर सकती हैं, धर्म ही उच्चस्तरीय कर्तव्य निष्ठा के साथ मनुष्य को जोडे़ रह सकता है।

यु सृजन का आधार चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश करना है। यह दोनों ही कार्य उथले भोतिक दर्शनों के आधार पर चिरस्थायी रुप से सम्पन्न नहीं किये जा सकते हैं। इन्हें लालच, लुभा कर नहीं-श्रद्धा भरे सद्भावना जगाकर ही सम्पन्न कराया जा सकता है। यह कार्य वस्तुतः धर्म और अध्यात्म का है। भौतिक दर्शन के आधार पर समृद्धि सर्म्बधन में अमेरिका, रुस, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्राँस आदि कितने ही देश आर्श्चयजनक परिमाण में सफल हुए है । इतने पर भी वहाँ सतयुग जैसी मनस्थिति और परिस्थिति बनने के लक्षण कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रहें । सर्वविदित है कि शालीनता के अभाव से समृद्धि उपयोगी नहीं रहती। कई बार तो वह दरिद्रता से भी अधिक विघातक बन जाती है। सम्पन्नता का अपना महत्व है किन्तु उत्कृष्टता की गरिमा तो उससे भी असंख्य गुनी बड़ी है।

इन समस्त तथ्यों पर विचार करने के उपरान्त युग निर्माण योजना के प्रतिपादनों से सन्निहित दूरदर्शिता और सुखद सम्भावना में सन्देह करने की गुन्जाइश नहीं रह जाती । प्रस्तुत विभीषिकाओं को सुखद सम्भावनाओं में परिवर्तित करने के लिए ही किया जाना है जो युग सृजन अभियान के द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है।

प्रतिपादनों के क्रियान्वयन के लिए अग्रगमन का साहस करने वाले जागृत आत्माओं पर ही घुमा-फिरा कर वे समस्त उत्तरदायित्व आ जाते हैं जिसके द्वारा उज्जवल भविष्य को प्रत्यक्ष बनाया जाना है। तर्क और तथ्य की दृष्टि से युगान्तरीय चेतना का समर्थन करने वालों की कमी नहीं । पर कभी उस साहसिकता की है जो इस पुण्य प्रयोजन के लिए कुछ कर सकने का पराक्रम प्रदर्शित कर सकें। परिस्थितियाँ असंख्यो की ऐसी हैं जो चाहें तो सरलतापूर्वक युग सृजन के लिए आत्म-कलयाण और विश्व-कल्याण के लिए-बहुत कुछ कर सकते है, पर मनःस्थिति में विपन्नता भरी रहने के कारण वे बहाने बाजी करते और बगले झाँकते देखे जाते है। आदर्श जब उभरते हैं विपन्नता और व्यस्त लाभों से भी आर्श्चयजनक स्तर के सर्त्कम करा लेते हैं । इसके विपरीत जब अन्तःक्षेत्र सोया रहता है, तो सुयोग्य और सुविधा सम्पन्न भी मनसुबे भर बाँधते हैं कुछ कर नहीं पाते । जबकि आज की स्थिति में हर स्तर को, विचारशील को आपत्तिकालीन, कर्तव्य पालन की तरह युग सृजन के लिए कुछ न कुछ करना ही चाहिए । क्या करना चाहिए ? इस सर्न्दभ में नव-सृजन अभियान के अर्न्तगत बहुत कुछ कहा और किया जा रहा है। उस दिशा में हर स्थिति का प्राणवान व्यक्ति किसी न किसी रुप से कुछ न कुद योगदान कर ही सकता है।

जागृत आत्माओं में उच्चस्तरीय आत्मबल कैसे जागे ? और वे किस प्रकार सच्चे अर्थो में स्वार्थ परमार्थ की साधना करते हुए आत्म-सन्तोष एवं ईश्वरीय अनुग्रह के भागी बन सके ? इसका उपाय युग प्रवाह के सूत्र-संचालकों को यह सूझा है कि सत्पात्रों को अतिरिक्त प्राणचेतना का अनुदान दिया जाय और उन्हे बाहर से सामान्य रहते हुए भी भीतर से असामान्य बनाया जाय। शक्ति और प्रगति का मूलभूत आधार अन्तरंग से ही रहता है इसे सभी विज्ञ-जन भली-भाँति जानते है।

अनुदान उपलब्ध करना और कराना भी अध्याय क्षेत्र की एक महान परम्परा है। उसे साधनात्मक पुरुषार्थ से कम नहीं वरन् अधिक ही महत्व दिया जा सकता है। साधना दीर्घकालीन तपश्चर्या के आधार पर फलित होती है किन्तु अनुदानों का लाभ तत्काल मिलता है । युग सन्धि की इस पुण्य बेला में उच्च सत्ता ने सत्पात्रों का दिव्य प्रयोजनों के लिए अनुदान वितरण का क्षेत्र और भी अधिक बढ़ा दिया है। अब तक वह नैष्ठिकों के लिए था । अब उसे जागृतों के लिए उपलब्ध किया जा रहा है।

पूर्व अंका में नैष्ठिक उपासकों के लिए प्राण संचार के विशिष्ट अनुदान का उल्लेख किया गया है अब उसकी हलके स्तर की उपलब्धि उनके लिए भी सुलभा हो गई है जा युग पुरश्चरण में ता सम्मिलित नहीं हो सके किन्तु प्रज्ञा परिवार में सम्मिलित हैं और आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण के लिए कुछ करने की बात गम्भीरतापूर्वक सोचते रहते है। ऐसे लोगों के पैरों में गति और हाथों में प्रगति के सूत्र थमाने वाले अनुदान की आवश्यकता पडे़गी। इसकी पूर्ति करने के लिए महाकाल ने नया कदम उठाया है और दिव्य उपलब्ध कराने वाल ध्यान धारणा कानया द्वार खोला है । इस सुविधा का लाभ अब बिना युग पुरश्चरण में सम्मिलित हुए भी सभी जागृत आत्माओं को मिल सकेगा । इसे युग संधि का असाधारण उपहार समझा जाना चाहिए और उससे लाभन्वित होने का परिजनों में से प्रत्येक को प्रयत्न करना चाहिए ।

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