
ध्यानमुद्रा साधक का निजी पुरुषार्थ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जागृत आत्माओं को-नव सृजन की समर्थता प्राप्त करने के लिए दैवी अनुदानों का जो सहज वितरण इन दिनों हो रहा है, उसका लाभ उठाने की सुविधाप्रत्येक सत्पात्र को मिल सकती है। इसकी पृष्ठभूमि पिछले पृष्ठों पर प्रस्तुत की जा चुकी है। वही समझने और ध्यान देने योग्य है। दिशाधारा का तालमेल बैठ जाने पर आदान-प्रदान की क्रिया-पद्धति को समझने और उसका लाभ मिलने में फिर कोई बड़ी कठिनाई शेष नहीं रह जाती ।
प्रसारण ही कठिन होता है। उसे उपलब्ध करने के लिए छोटे से टाँ्रजिस्टर में सही नम्बर पर सुई घुमा देने भरसे काम चल जाता है। प्रसारण समर्थ सत्ता का है। उसे इसके लिए क्या करना पड़ रहा होगा, इसकी चिन्ता करने या जानकारी की गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं है। अपना रेडियो ठीक रखने और समय परसही जगह सुई घुमा देने भर की छोटी-सी प्रक्रिया अभीष्ट आनन्द दे सकती है। युग सृजन की पुण्य-प्रकिया में निरत महाकाल ने इस प्रसारण का प्रबन्ध किया है। सूक्ष्म होने के कारण उसे इन्द्रियों से-यन्त्रों से तो अनुभव नहीं किया जा सकता किन्तु जागृत अन्तरात्मा की भाव-सम्बेदना उसकी अनुभूति भली प्रकार कर सकती है।
इस प्रसरण का समय और उद्देश्य निर्धारित है- प्रातःकाल दिन निकलने से एक घण्टा पूर्व से लेकर ठीक सूर्योदय तक । रात्रि को दिन छिपने से दो घण्टा उपरान्त से लेकर तीन घण्टा रात्रि गये तक । दोनों समय मात्र एक-एक घण्टा ही इस वितरण और ग्रहण के लिए नियत है। प्रातः एकाकी ध्यान धारणा के लिए और रात्रि की सामूहिक साधना के लिए । जहाँ जैसी आवश्यकता और सुविधा समझी जाय वहाँ वैसा प्रबन्ध किया जाय । चूँकि दिन घटते-बढते रहते हैं और सर्दी-गर्मी के बीच-घड़ी घण्टों के समय की स्थिति में काफी अन्तर पड़ जाता है, इसलिए समय का निर्धारण सूर्योदय एवं सूर्यास्त के अनुरुप ही करते रहना चाहिए इसमें घण्टे-मिनटों का अन्तर प्रायः हर महीने या हर सप्ताह करते रहने की आवश्यकता पडे़गी।
स्नान करके उपासना पर बैठने की उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते । किन्तु इस ध्यान धारणा में उसकी अनिवार्यता नहीं है। नित्य कर्म से निपट कर बिना स्नान के भी इसे किया जा सकता है। रात्रि की सामूहिक साधना में तो हाथ-पैर धोकर बैठ जाना ही पर्याप्त है। आसन बिछा कर बैठा जाय। खुली जमीन पर न बैठें। ऊपर से आने वाली बिजल शरीर में प्रवेश करने के उपरान्त धरती में न उतर जाय-इसके लिए अवरोध आसन बिछाया जाना आवश्यक है। कुशा, चटाई, जूट, ऊन का हो तो और भी उत्तम है, अन्यथा कपडे़ का आसन भी काम दे सकता है।
साधक पालथी मारकर बैठें । पंच पात्र आदि अन्य किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं है। स्थान जहाँ तक हो सके खुला हवाहदार ही ढूँढा जाय । बन्द और घुटन के स्थान में दीवारों का अवरोध उत्पन्न होता है।
सभी प्रकार की ध्यान साधना में “धान मुद्रा” बनाने का नियम हैं उस का पालन इस विशिष्ट ध्यान धारणा में तो अनिवार्य रुप से किया जाना चाहिए । ध्यानमुद्रा के पाँच अनुशासन हैं- (1) स्थिर शरीर (2) शान्त चित (3) कमर सीधी (4) हाथ गोदी में (5) आँखे बन्द । शरीर और मन की स्थिति इस स्तर की बना लेने के उपरान्त ही ध्यान योग की साधना सधती है।
स्थिर शरीर का तार्त्पय है-देह को लकड़ी, पत्थर की बनी प्रतिमा जैसी बना लेना। अंगो का ऐन्द्रिक संचालन रोक देना । श्वास-प्रश्वास, आकुँचन-प्रकुँचन, निमेष-उन्मेष जैसी अनैच्छिक क्रियायें भर चलने देना । ऐसी स्थिति लाने के लिए शिथिलासन, शवासन, अर्ध मृतक मूर्छित जैसी भावना करनी पड़ती है । शरीर की हलचले जितनी कम होंगी - ध्यान उतना ही अच्छी तरह लगेगा । हिलते-जुलते, मटकते-फरवते रहने से मन की चंचलता बनी ही रहती है।
शान्त चित का अर्थ है- कलपनाओं की उड़ाने बन्द करना-एकाग्रता। यह स्थिति तभी प्राप्त होती है जब किसी श्रेष्ठ के साथ अपने को गुथा देने की-घुला देने की भावना की जाय। स्व को किसी विशिष्ट से तादात्मय बना देने को ही समर्पण या लययागे कहते है। एकता ही एकाग्रता है । तन्मयता से ही चित्त शान्त होता है। इसका भोंडा उदाहरण समर्पित रतिक्रिया है। विषयानन्द की उपमा देकर ब्रह्मनन्द की सरसता का परिचय दिया जाता है। अपने ‘स्व’ को इष्टदेव की सत्ता में भाव्यरिक के साथ गुथा दिया जाय- मन में मन को, प्राण में प्राण को, आत्मा में आत्मा को घुला देने का अभ्यास करें तो भक्ति भाव की उच्च भूमिका उत्पन्न होती है और शान्त चित्त की मनःस्थिति बन जाती है। ईधन का आग में बूँद का समुद्र में ,नमक का पानी में- जिस प्रकार विलय हो जाता हैं। दो शरीर जिस प्रकार एक प्राण बन जाते हैं उसी स्तर की भावना इष्टदेव के साथ करने में जितनी सफलता मिलेगी वह उतना ही ‘शान्ति चित्त का अनुभव करेगा । द्वैत ही चंचलता और अद्वैत ही एकाग्रता की भूमिका है। इष्टदेव का प्रथम निर्धारण सदगुरु के रुप में भी हो सकता है और प्रत्यक्ष परिचय होने के कारण उस माध्यम से अभ्यास और भी सरल पड़ता है।
मेरुदण्ड सीधा रखना इसलिए आवश्यक है कि ब्रह्मरन्ध्र उत्तरी ध््राव और मूलाधार-कुण्डलिनी केन्द्र दक्षिणी धु्रव । दोनों के मध्य प्रवाहक्रम जारी रहने से ही इस संसार में समर्थता एवं सम्पन्नता विद्यमान है। इसमें अवरोध होने से सुव्यवस्था लड़खड़ाती है और विश्व व्यवस्था में कई प्रकार की गड़बडी उत्पन्न होती हैं। ठीक यही बात मेरुदण्ड के सम्बन्ध में भी हैं। इडा,पिगला,सुषुम्ना के त्रिविधि प्राण प्रवाह उसी में होकर चलते है। षटचक्रों के दिव्य भण्डार इसी मार्ग में सन्निहित हैं। इस मार्ग को सीधा और साफ रखने के लिए मेरुदण्ड सीधा रखना योगाीयास का आवश्यक नियम हैं कमर में दर्द होता हो तो सहारा लेकर जितना सम्भव हो, सीधा रखने का प्रयत्न करना चाहिए ।
हाथ गोदी में रखने के साथ दोनों हाथ खुले रहें। बाँई हथेली के ऊपर दाहिना हाथ रहे । कर्मेन्द्रियों में हाथ ही सबसे अधिक सक्षम हैं, वे दोनो मिलते हैं तो नमस्कार से लेकर पुरुषार्थ तक के समस्त काम मिलकर भली प्रकार सम्पन्न करते हैं। साधना में भी दोनों के साथ होने से अन्तः विद्युत का एक उपयोगी सर्किल बनता हैं । ध्यान मुद्रा में यह स्थिति अतीब उपयोगी मानी गई है।
आँखे बन्द करने के दो उद्देश्य हैं- एक है बहुमुँखी वृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाना । दूसरा है आँखो से निरन्तर निस्तृत होने वाले विद्युत प्रवाह को इस महत्वपूर्ण अवसर पर बाहर बिखरने न देना । वाणी की मौन तपश्चर्या की तरह आँखो को बन्द रखना भी नेत्र-तप माना गया है। चित्तवृत्ति अन्तुर्मुखी होने से अर्न्तजगत के वैभव को समझना और कहाँ क्या छिपा है ? इस जानकारी के आधार पर उसे प्राप्त करना तभी सम्भव होता है जब उस क्षेत्र का पर्यवेक्षण किया जाय । बहिर्मुखी वृत्तियाँ बाहर ही उलझी रहती हैं। अतएव उस दिव्य भाण्डागार को देखने, समझने और उखाड़ने के लिए कुछ बन ही नहीं पड़ता । नेत्र बन्द करना, अन्तर्मुखी होना अर्थात् अर्न्तजगत में प्रवेश करना हैं आत्मोर्त्कष के लिए की जाने वाली ध्यान धारणा में सदा नेत्र बन्द रखे जाते है।
अकेली ध्यान मुद्रा में भी यदि आत्मिक उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के प्रति समर्पण की धारणा जारी रखी जाय तो उतने से भी ध्यानयोग का सामान्य प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता रह सकता है। इसके साथ यदि हिमालय के अनुदानों का ग्रहण और धारण करने का उपक्रम भी चल चड़े तो सोने में सुगन्ध की स्थिति बन पड़ती । पुरुषार्थ के रुप में ध्यान मुद्रा और अनुग्रह के रुप में अनुदान उपलब्धि कासुयोग बनने पर तो प्रगति का क्रम अनेक गुने वेग से दु्रतगति से चल पड़ता है।