
आदमी की आह (kavita)
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आदमी की आह प्रभु की अर्चना करने न देती ।ध्यान पल-पल टूटता है, पीड़ितो की चीख सुनकर ।वृतियाँ रहती नहीं थिर, छटपटाता देख पिंजर ॥
सिसकियाँ उनकी विकल, आराधना करने न देतीं।आदमी की आह प्रभु की अर्चना करने न देती ॥
मन्त्र-स्वर ही मौन हो जाते, मनुष्य कराह सुनकर ।आचमन जल फैल जाता , आँसुओं का देख निर्झर ॥
पीड़ितों की पीर-प्रतिमा,प्रार्थना करने न देती ।आदमी की आह प्रभु की अर्चना करने न देती॥
देखते है रोज दुनियाँ, दीन दूर धकेलती है।खून पीकर मुस्कुराती, जिन्दगी से खेलती है॥
वेदना उनकी हमें, विभु वन्दना करने न देती ।आदमी की आह प्रभु की अर्चना करने न देती ॥
चाहते हम दर्द का मन्दिर बनें, संसार सारा ।पीड़ितों की पीर में ही मिल सके , वह प्राण प्यारा॥
वीर-प्लावित भावनायें, वंचना करने न देती ।आदमी की आह प्रभु की अर्चना करने न देती ॥
*समाप्त*