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Magazine - Year 1980 - Version 2

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क्या मनुष्य सर्वतः स्वतन्त्र है ?

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यों देखने और कहने-सुनने में तो प्रत्येक मनुष्य एक स्वतन्त्र इकाई हैं। उसके किये गये दुष्कर्मों का स्वयं उसे ही दण्ड भोगना पड़ता है । उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति यदि शराब पीता है । तो शराब पीने से हाने वाली हानियाँ, पीने वाले को ही उठानी पड़ती हैं । जाहाँ तक स्वयं से सम्बन्धित रहने वाली बुरी आदतों या कामों को बात है , उनका दुष्परिणाम स्वयं करने वाले व्यक्ति को ही उठाना पड़ता है । इस दृष्टि से मनुष्य को स्वतन्त्र कहा जा सकता है, पर वास्तव में ऐसा है नहीं कोई भी व्यसन या कुटेव जो प्रत्यक्ष रुप में व्यक्ति का ही अहित करती दिखाई देती है अप्रतयक्ष रुप से समाज को भी प्रभावित करती हैं । उन व्यससनों को देखकर दूसरे लोगों को भी वैसी ही आदतें अपनाने का मन होता है और अधिक गहराई में जायें तो उस कुकृत्य का दुष्प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है । आदतें ही नहीं बुरे विचार तक जिनका कहीं प्रकटीकरण नहीं किया जाता पूरे समाज को प्रभावित करते है ।

यह तथ्य तो अब सिद्ध हो ही चुका हैं कि पदार्थां की तरह विचारों का भी अस्तित्व रहता हैं और वे भी कभी नष्ट नहीं होते । मनमें उठने वाले विचार और भावनाएँ किस छेडे़ गये तार की तरह वातावरण में अपनी झंकार से कम्पन उत्पन्न करते हैं और उस पर प्रभाव उलते हैं। भले ही वह प्रभाव नगण्य हो, पर ऐसे प्रभावों का समुच्चय बडे़ परिणाम उत्पन्न करता है । इस दृष्टि से मनुष्य दूसरों का बुरा करने या बरा सोचने में ही नही, अपना बुरा करने अपना बुरा सोचने में भी स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उसका समाज पर अनिवार्य प्रभाव पड़ता है ।

परमात्मा ने इस सृष्टि का निर्माण ही इस प्रकार किया है कि उसका कोई भी घटक अपने आप में स्वतऩ् और अकेला नहीं हैं। वह दूसरे अन्य घटकों से जहाँ प्रभावित होता हैं वही स्वयं भी उन पर अपना प्रभाव डालता हैं । दीखने में प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र अपने आप में अकेला रहता और अपनी धुरी पर घूमता दिखाई पड़ता है, पर वस्तुतः प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र आपस में एक-दूसरे के साथ ऐसी मजबूत जंजीरों से बँधे हुए दिखाई तो नहीं पड़ते, पर उनकी मजबूती आर्श्चयजनक होती है। इसी भाँति मनुष्य अपने आपमें अकेला और स्वतन्त्र दीखता भर है, पर वह जीवनयापन से लेकर प्रभाव ग्रहण करने तक अन्यान्य वयक्तियों और वस्तुओं वातावरण पर इतना अधिक निर्भर है कि यदि उसे निर्भरता के सूत्र तोड़ने के प्रयास किये जाँय तो मानसिक सरसता और क्षुधा निवृति एक सारे सूत्र टूट जायेंगे । इस अनभ्यस्त स्थिति में पड़ जाने पर निश्चित ही मनुष्य के अस्तित्व का अन्त हो जायेगा।

प्रकृति प्रेरणा के अनुरुप या ईश्वरीय व्यवस्था के अनुसार ग्रह-नक्ष़त्र एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह परस्पर निर्भरता और आदान-प्रदान का क्रम ही उन्हें जिलाये और गतिशील किये रखता है । उदाहरण के लिए सूय्र अपने नियमि क्रम से उगता और अस्त होता है थोडे़ बहुत अन्तर से बारह-बारह घण्टे के दिन रात होते है । यदि इस क्रम में तनिक भी व्यतिक्रम उत्पन्न हो तो पृथ्वी पर बहुत बड़ा अनर्थ घटित हो जायेगा । यदि सूर्य केवल 72 घनटे ही पृथ्वी पर उदय न हो तो पृथ्वी पर अन्धकार इतना घनीभूत हो जायेगा कि उस अन्धकार में आसमान से चमकने वाले तारे भी नहीं दिखाई देंगे । सूर्य किरणों से पृथ्वी पर ऊष्मा उत्पन्न होती हैं , यदि बहत्तर घण्टे की रात हो जाय तो सारी धरती पर इतनी भयंकर शीत पड़ सकती है कि उस पर तीन मीटर ऊँची बर्फ की पर्त जम जायगी।

सूर्य की अल्ट्राबायलेट किरणें शरीरधारियों को धरती पर प्राण धारण किये रहने योग्य बनाती है । उन्हीं से अन्न और वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं जो मनुष्य और अन्य प्राणियों के आहार का प्रमुख अग्ड है । यदि यह किरणें पृथ्वी तक पहुँचना बन्द कर दें तो अन्न और वनस्पतियों का उत्पन्न होना बन्द हो सकता हैं। इतना ही नहीं यह अल्ट्रावायलेट किरणें अन्तरिक्ष से आने वाले विषाणुओं को भी रोकती हैं। इन किरणों के अभाव में ये विषाणु निरविरोध रुप से पृथ्वी पर आने लग सकते हैं और हर किसी को रुग्ण बनाकर ही रहेंगें।

सूर्य में होने वाले परिवर्तनों का पृथ्वी बासियों पर क्या प्रभाव पड़ता है यह जानने के लिए रुस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक चिजोब्स्की ने विगत चार सौ वर्षो का इतिहास और सूर्य की पिछली गतिविधियों का अध्ययन किया । इस अध्ययन से चिजाब्स्की इस निर्ष्कष पर पहुँचे कि इन महामारियों और सूर्य के परिवर्तनों में गहरा सम्बन्ध है । सूर्य के सम्बन्ध में थोडा़ बहुत ज्ञान रखने वाले भी यह जानते हैं कि प्रत्येक ग्यारह वष्र पश्चात् सूर्य में काले धब्बे पड़ते है। चिजाब्स्की के अनुसार इन धब्बों और पृथ्वी पर पिछले दिनों फैली महामारियों का गहन सम्बन्ध रहा हैं। जितनी अवधि तक यह धब्बे गहरे या उथले रहते हैं उतनी अवधि तक उसी अनुपात से महामारिंयाँ पृथ्वी पर हलका या गहरा उत्पात मचाती हैं। इसके अतिरिक्त इन सूर्य धब्बों के कारण पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र भी लड़खडा़ने लगता हैं, रेडिया संचार में बाधा आती है तथा मौसम पर भी उसका प्रीव पड़ता हैं।

अभी तक समझा जाता था कि सूर्य और चन्द्र के अमावश्या, पूर्णमा पर पड़ने वाले प्रभावाँ के कारण केवल समुन्द्र में ही ज्वार-भाटे आते थे । लेकिन वैज्ञानिक माइकेलसन ने यह पता लगाया है कि अमावस्या, पूर्णिमा को पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्य, चन्द्र के प्रभाव से न केवल समुन्द्र में ही ज्वार-भाटे आते है वरन् पृथ्वी भी करीब नौ इंच फूलती और पिचक जाती हैं। विभिन्न समयों पर साँर में जो भूकम्प आते रहते हैं, उनमें से अधिकाँश अमावश्या या पूर्णिमा के आसपास ही आते है ।

डाक्टर बुड़ाई के अनुसार इन्हीं तिथियों में मृगी उन्माद और कामुक दुर्घटनाओं का दौर आता है । अमेरिका में तो इस बात का सर्वेक्षण कर पता लगाया गया है और इस तथ्य को एकदम सही पाया गया है कि इन तिथियों में विक्षिप्त और पागल लोगों पर सबसे ज्यादा पागलपन सवार होता है । इन वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य, चन्द्र की स्थिति का न केवल मौसम पर वरन् मनुष्य शरीर में काम करने वाली पिट् यूटरी , थायोराइड एंड्रीनल आदि हारमोन स्त्रावी ग्रन्थियों पर भी प्रभाव पड़ता है और वे उत्तेजित होकर शरीर एवं मन की स्थिति में भी असाधारण प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती हैं यही कारण है कि इन दिनों दुर्घटनाओं और अपराधों की संख्या और दिनो की अपेक्षा अधिक बढ़ जाती है ।

सूर्य, चन्द्र की स्थिति का केवल मनुष्य पर और अन्य जीव-जन्तुओं पर ही प्रभाव पड़ता हो ऐसा भी नहीं हैं। वृक्ष वनस्पति तक इससे प्रभावित होते है। वृक्षों के तने में प्रतिवर्ष एक पर्त बढ़ती हैं, जिसे “ट्रीरिंग” कहा जाता हैं। इन पर्तों के द्वारा ही वृक्ष की आयु का पता लगाया जाता है । यह पाया गया है कि सूर्य पर पड़ने वाले ग्यारह वष्र में धब्बों के प्रभाव से उस वर्ष की पर्त कुछ मोटी हो जाती है । सम्भवतः ऐसा इसलिए भी होता हो कि ग्यारह वर्ष के चक्र में उत्पन्न होने वाले सूर्य कलंक ( सन स्पाट ) के सूक्ष्म विकिरण से बचाव के लिए प्रकृति उस वर्ष वृक्ष की खाल मोटी कर देती हो।

ब्रिटेन के वैज्ञानिक आरनात्ड मेयर और कोलिस्को ने भी अपने पर्यवेक्षणों द्वारा यह सिद्ध किया है कि चन्द्रमा की स्थिति मनुष्यों , प्राणधारियों तथा वनस्पतियों को प्रभावित करती है। स्वीडन के वैज्ञानिक सेवेंट एहैनियस के अनुसार समुद्र, मौसम , तापमान, विद्युत स्थिति और चुम्बकीय क्षेत्र तो इन परिवर्तनों से प्रभावित होते ही हैं। स्त्रियों का मासिक धर्म तक चन्द्रमा की स्थिति से प्रभावित होता है उनके अनुसार सूर्य ग्रहण और चन्द्रग्रहण को खुली आँखो से नहीं देखना चाहिए क्योंकि इन घड़ियों में उनका सन्तुलित क्रिया - कलाप लड़खड़ा जाता है और उस कारण ऐसा प्रभाव उत्पन्न होता है जिससे आँख जैसे कोमल अंगो को क्षति पहँच सकती हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार न केवल सूर्य और चन्द्रमा वरन् अन्य ग्रह-नक्षत्र भी पृथ्वी पर अपना प्रभाव छोडते हैं। अमेरिकी खगोलवेत्ता जान हेनरी नेल्सन के अनुसार अन्य ग्रहों के प्रभाव से भी मौसमी उथल-पुथल एवं प्राणियों की शारीरिक मानसिक स्थिति में उतार-चढ़ाव आते हैं। जिन दिनों आकाश में धूमकेतु दिखाई देता है , उन दिनों पृथ्वी पर पड़ने वाले अन्तरिक्षीय प्रवाह में यात्किचित गतिरोध उत्पन्न हो जाता है उसके परिणाम स्वरुप प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ने से तरह-तरह के उपद्रव खड़े होते है। शरीरगत रुग्णता और मानसिक आवेश्ग्रस्तता लोगों में इन दिनों अधिक बढ़ी-चढ़ी देखी जा सकती हैं।

सन् 1975 में 7 फरवरी 19 जुलाई और 17 अगस्त के आसपास संसार के अनेक भागों में समुद्री तूफान आये और उस वर्ष मौसम भी प्रायः गड़बड़ ही रहा इसका कारण मालूम करने के लिए अमेरिका के समुद्र एवं मौसमी प्रशासन संगठन ने अन्वेषण किया। यह अन्वेक्षण पूरा होने के बाद जो प्रतिवेदन प्रकाशित किया गया उसमें कहा गया कि , इन दिनों चन्द्रमा और पृथ्वी की निकटतम दूरी 18200 किलामीटर पर रही चन्द्रमा , पृथ्वी के इतना अधिक निकट 300 वर्षो में पहली बार आया और सूर्य भी प्रायः उसी देशान्तर पर भ्रमण कर रहा हें, जिस पर कि पृथ्वी और चन्द्रमा कर रहे हैं , परिणाम स्वरुप पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों ही सूर्य की परिक्रमा करते हुए उसके निकटतम होते जा रहे हैं । इसी कारण यह उत्पात पैदा हुए । उक्त प्रतिवेदन के अनुसार अगले दिनाँक यह निकटता और भी बढ सकती है और उसके फलस्वरुप पृथ्वी के मौसम में ऐसे परिवर्तन , उत्पात पैदा हो सकते है।

अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों का पृथ्वी पर जो प्रभाव पड़ता है उसका अध्ययन या विवेचन तो अलग बात है, अभी तक इसी बात का पूरी तरह पता नहीं लगाया जा सका है कि सूर्य का पृथ्वी के जीवन पर क्या और कितना प्रभाव पड़ता हैं। फिर भी इतना तो स्पष्ट हो ही चुका है कि सूर्य ही पृथ्वी पर जीवन का केन्द्र हैं। वनस्पतियाँ उसी से जीवन ग्रहण करती हैं और प्राणी अपनी प्राणशक्ति के लिए बहुत कुछ सूर्य पर ही निर्भर करते है । सूर्य और पृथ्वी के बीच जो दूरी है , उस दूरी के कारण ही धरती पर जीवन का अस्तित्व उद्भूत हुआ और सुरक्षित रह सका है । भविष्य में भी इसी दूरी पर जीवन अस्तित्व की सुरक्षा सम्भव हैं । यदि यह दूरी कुछ घट जाय तो इतनी गर्मी पैदा होने लगे कि उसमें प्राणियों का जीवित रहना ही सम्भव न हो सके । ध्रुवों की बर्फ पिघला कर सारी पृथ्वी को जलमग्न कर दे , इतना ताप उत्पन्न हो सकता है यदि सूरज थोड़ा और निकट आ जाय तो । इसके उपरान्त यदि सूरज और पृथ्वी की दूरी थोड़ी बढ़ जाय तो धरती पर इतना शीत उत्पन्न हो सकता है कि पूरी पृथ्वी ही हिमाच्छादित हो जाय ।

जिस प्रकार सूर्य और अन्य ग्रहों का प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है उसी प्रकार पृथ्वी भी अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों को प्रभावित करती है । प्रकारान्तर से यह आदान-प्रदान का प्रभावित होने और प्रभाव छोड़ने का क्रम चिरकाल से चल रहा है और भविष्य में अनन्तकाल तक चलता रहेगा । इसे नियति की सुदृढ नियम व्यवस्था कहा जा सकता है और यह नियम व्यवस्था ग्रह-नक्षत्रो पर ही नहीं मनुष्यों पर भी लागू होती है । जीवन की परम्पराएँ एक है । क्या जड़ और क्या चेतन ? क्या व्यक्ति और क्या ग्रह-नक्षत्र सभी को नियति के इन सुदृढ नियमों में बँधकर चलना पड़ता हे। छोटे-बडे़ सभी पर यह नियम समान रुप से लागू होते है। नियति के लिए सभी समान है और व्यक्तिक्रम अथवा नियमों के उल्लंघन की दण्ड व्यवस्था भी उसके पास है ।

अस्तु ! मनुष्य देखने, कहने-सुनने के लिए भले ही स्वतऩ् हो । स्थूल दृष्टि से उसकी स्वतन्त्रता इस सीमा तक है कि वह दूसरों की स्वतन्त्रता इस सीमा तक है कि वह दूसरों की स्वतन्त्रता या हितों को हानि न पहुँचाए । परन्तु नियति की आचार-संहिता के अनुसार उसे इस बात के लिए भी बचनबद्ध होना चाहिए कि वह स्वयं अपना भी अहित न करें। बुरा होने पर ,अपना ही अहित करने पर भी उसका सूक्ष्म प्रभाव समाज पर तो पडे़गा ही । इसलिए अपना अहित करना भी प्रकारान्तर से समाज को क्षति पहुँचाने वाला सिद्ध होता है । मनुष्य चारों और नीति-नियमों की मर्यादाओं में बंधा हुआ है और वह उन मर्यादाओं में रहते हुए ही स्वतन्त्र कहा जा सकता है । इससे आगे वह जरा भी स्वतन्त्र नहीं है अपना अहित करने की छवि भी नियति की ओर से नहीं मिली है ।

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