• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • उत्तिष्ठ,जागृत प्राप्य वरानिबोधत्त
    • Quotation
    • दूसरी पंक्ति में हर किसी की साझेदारी सम्भव
    • Quotation
    • डडडड
    • Quotation
    • प्रज्ञा परिजनों के लिए निर्धारित सप्तसूत्री कार्यक्रम-2
    • Quotation
    • डडडड
    • जीवन साधना की व्यावहारिक तपश्चर्या
    • परिवार में सत्प्रवृत्तियों की फसल उगायें
    • अवाँछनीयता के आगे शिर न झुकाएँ
    • शिक्षा और विद्या की अभ्यर्थना हमारे हर परिवार में चल पड़े
    • आलोक वितरण का पुण्य परमार्थ आज का युगधर्म
    • छोटे सप्त सूत्र सात समुद्रों की तरह महान
    • प्रज्ञा परिजनों के पाँच दिवसीय प्रेरणा डडडड
    • Quotation
    • अपनों से अपनी बात - प्रज्ञा परिजनों का सात संसदों में संगठन
    • अगले वर्ष के सम्मेलन समारोह
    • पुरोहित से
    • पुरोहित से (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • उत्तिष्ठ,जागृत प्राप्य वरानिबोधत्त
    • Quotation
    • दूसरी पंक्ति में हर किसी की साझेदारी सम्भव
    • Quotation
    • डडडड
    • Quotation
    • प्रज्ञा परिजनों के लिए निर्धारित सप्तसूत्री कार्यक्रम-2
    • Quotation
    • डडडड
    • जीवन साधना की व्यावहारिक तपश्चर्या
    • परिवार में सत्प्रवृत्तियों की फसल उगायें
    • अवाँछनीयता के आगे शिर न झुकाएँ
    • शिक्षा और विद्या की अभ्यर्थना हमारे हर परिवार में चल पड़े
    • आलोक वितरण का पुण्य परमार्थ आज का युगधर्म
    • छोटे सप्त सूत्र सात समुद्रों की तरह महान
    • प्रज्ञा परिजनों के पाँच दिवसीय प्रेरणा डडडड
    • Quotation
    • अपनों से अपनी बात - प्रज्ञा परिजनों का सात संसदों में संगठन
    • अगले वर्ष के सम्मेलन समारोह
    • पुरोहित से
    • पुरोहित से (kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1982 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


परिवार में सत्प्रवृत्तियों की फसल उगायें

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 10 12 Last
शरीर में जिस प्रकार अंग अवयव गुँथे हुए हैं उसी प्रकार शरीर के साथ परिवार के सदस्य भी जुड़े हुए हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका निर्वाह एकाकी नहीं हो सकता आवश्यकता एवं समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि उनका समाधान मिलजुल कर अपनाई जाने वाली सहकारिता के आधार पर ही निकलता है। मनुष्य की मूल प्रवृत्ति सामाजिक सहकारिता है उसी ने उसे बुद्धि वैभव प्रदान किया है और साधन सम्पदा बढ़ाने तथा खर्चने का वह उपाय सुझाया है जिसे आज की भाषा में पदार्थ विज्ञान, अर्थशास्त्र, एवं क्रिया कौशल कहते हैं। बुद्धिमत्ता के यही क्षेत्र हैं। इनमें अतीत से लेकर अधावधि जो भी प्राप्ति हुई है उसके मूल में सहकारिता की सत्प्रवृत्ति की परोक्ष भूमिका निभाते हुए देखा जा सकता है। समाज का वह भाग जो निरन्तर साथ सम्बद्ध रहता है—परिवार कहा जाता है।

परिवार की सुरक्षा एवं प्रगति का ध्यान भी उसी तरह रखना कर्त्तव्य है जितना कि शरीर का रखा जाता है। जिन लोगों के बीच निवास निर्वाह होता है वे सभी कुटुम्बी हैं। अपने स्त्री बच्चों से ही परिवार का सीमा बन्धन नहीं जोड़ना चाहिए वरन् वे भी परिजन कहलाते हैं, जो एक साथ रहते और परस्पर स्नेह सहयोग का आदान−प्रदान करते हैं। इसमें विवाहित− अविवाहित होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। वंशधरों की तरह व्यवसाय और विचार भी मनुष्यों में घनिष्ठता उत्पन्न करते हैं। एक नाव में बैठने वाले सभी कुटुम्बी बन जाते हैं क्योंकि उनका डूबना उतरना साथ−साथ ही होता है।

परिवार के भरण−पोषण की जिम्मेदारी आमतौर से समझी और निभाई जाती है। इसमें एक कड़ी प्रज्ञा परिजनों की और भी जोड़नी चाहिए कि परिजनों के शरीरों को ही पोसने से सम्पन्न एवं प्रसन्न बनाने तक ही अपनी जिम्मेदारी सीमित न रखी जाय वरन् इस समूची व्यवस्था से भी कहीं अधिक भारी उत्तरदायित्व उनके व्यक्तित्व निखारने का समझा जाना चाहिए। यदि इस सम्बन्ध में उपेक्षा बरती गई तो समझना चाहिए कि व्यक्तित्व अनगढ़ कुसंस्कारी बने रहने पर सम्पन्नता शिक्षा बलिष्ठता मात्र से उनका भला न हो सकेगा। दुर्गुणी व्यक्ति उपलब्धियों का दुरुपयोग करते हैं। फलतः अपनी तथा साथियों की दुर्गति ही मनाते रहते हैं। वैभव आवश्यक तो है, पर स्मरण रखने योग्य तथ्य यह भी है कि शालीनता के अभाव से उससे दुष्प्रवृत्तियों का ही परिपोषण होता है और साँप को दूध पिलाने की तरह उलटा दुष्परिणाम ही उत्पन्न होता है। लाड़−चाब में जो अपने परिवार को दुर्गुणी बना लेते हैं उनका अविवेक भरा प्यार भी अत्याचार से भी भारी पड़ता है।

परिवार संस्था को सद्गुणों की प्रयोगशाला, पाठशाला, फैक्ट्री, नर्सरी मानकर चला जाय और इसके लिए “एक आँख प्यार की दूसरी सुधार की” रखने वाली नीति अपनाई जाय तो आत्मीयजनों के उस छोटे समुदाय को सच्ची सेवा कहा जायगा। इस दिशा में आरम्भ से ही ध्यान रखा जा सके तो बहुत ही उत्तम अन्यथा गिनती भूल जाने पर उसे नये सिरे से गिनना चाहिए। देर से समझ आये तो भी उसे समझदारी ही कहा जायगा। प्रज्ञा परिजनों की दृष्टि अपने सम्बद्ध परिजनों को सुसंस्कारी बनाने की रहनी चाहिए। सम्पन्नता की कमी रह जाने पर भी सज्जनता के सहारे काम चल सकता है,किन्तु सज्जनता रहित सम्पन्नता अन्ततः दुःखद दुष्परिणाम ही प्रस्तुत करती है।

उत्तराधिकारियों के लिए कुबेर जितना वैभव छोड़ मरने की ललक न उनके हित में है न अपने हित में। मुफ्त का माल पचता नहीं। भले ही वह अत्याचार छल छद्म से कमाया गया हो या उत्तराधिकार लाटरी आदि के माध्यम से पाया गया हो। विष खाद्य छोड़ मरने की अपेक्षा यह अच्छा है कि अपना पुरुषार्थ उन्हें सद्गुणों बनाने के लिए नियोजित रखा गया है। किसी से सम्पन्नता की प्रतिस्पर्धा नहीं करती चाहिए। होड़ करनी हो तो शालीनता का उन्मुक्त क्षेत्र उसके लिए खुला पड़ा है। उसी में अपने पराक्रम एवं कौशल का परिचय देना चाहिए।

जानकारियाँ तो कहने−सुनने से भी मिल सकती हैं। भूगोल, गणित, शिल्प, संगीत तो उस्तादों से भी सीखा जा सकता है, पर चरित्र निर्माण की प्रेरणा प्रदान करने वाले को अपना उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ता है। आगे चलने पर ही अनुयायी भी पीछे लगते हैं। बातूनी नसीहतें इस प्रयोग में तनिक भी काम नहीं आतीं। अपनी फजीहत दूसरों को नसीहत देने वाले व्यंग उपहास का कारण ही बनते हैं। उनकी बात गले नहीं उतरती भले ही वह हित कारक क्यों न हो। साँचे में खिलौने ढलते हैं, परिवार में जिन सत्प्रवृत्तियों का प्रचलन करना हो उनका अभ्यास प्रयोक्ताओं की सर्वप्रथम करना पड़ता है। परिवार को सुसंस्कृत बनाने की आकाँक्षा तभी पूरी होती है जब अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सदाशयता का समावेश उत्साहवर्धक, प्रेरणाप्रद मात्रा में किया जा सके। दोनों प्रयोजन सम्बद्ध हैं। आत्मनिर्माण और परिवार निर्माण की प्रक्रिया गाड़ी के दो पहियों की तरह साथ−साथ चलती है। दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वाले के अपने हाथ अनायास ही रच जाते हैं। परिवार के प्रति यदि सच्ची आत्मीयता शुभेच्छा और सद्भावना हो तो उसे क्रियान्वित करने का उपयुक्त मार्ग एक ही है कि उन्हें सद्गुणी, सज्जन, प्रतिभावान एवं सुसंस्कृत बनाया जाय। इसका शुभारम्भ अपने को सुधारने और ढालने के साथ ही बन पड़ता है। आदर्श उपस्थित करने से ही उत्साह उत्पन्न होता है।

पारिवारिक पंचशीलों की चर्चा समय−समय पर की जाती रही है। श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययता, शालीनता और सहकारी उदारता की आदत घर परिवार के लोगों में डाली जा सके तो आरम्भ में अनख लगने पर भी—आनाकानी अवहेलना अवज्ञा होने पर भी—यदि उस बीजारोपण, परिपोषण को जारी रखा जा सके तो इस पुण्य प्रयास के सत्परिणाम हाथों−हाथ देखने को मिल सकते हैं। आत्म सन्तोष, एवं दूसरों का सम्मान सहयोग पाने पर कोई भी अपनी विशिष्टता पर गर्व गौरव अनुभव करता है। उस मार्ग पर उठते कदम उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना को सुनिश्चित बनाते हैं। औलाद के लिए दौलत छोड़ मरने उनकी बेतुकी फरमाइशें पूरी करते रहने की अपेक्षा समझदारी इसमें है कि उनके स्वभाव एवं व्यवहार में आदर्शवादिता का अनुपात बढ़ाया जाय। यह ऐसा उपकार है जिसके प्रति कुटुम्बियों की अन्तरात्मा चिरकाल तक कृतज्ञ कृत−कृत्य बनी रहेगी। यह ऐसा उपहार है। जिसकी तुलना में उन्हें हीरक हारों से लाद देना भी हलका पड़ता है। दूसरों के यहाँ क्या होता है इसकी नकल करने—ललचाने की आवश्यकता नहीं। हमें अग्रणी होना चाहिए और पड़ौसी परदेशियों के सामने यह आदर्श उपस्थित करना चाहिए कि उन्हें इस परिवार का अनुकरण करते हुए गौरवान्वित होना चाहिए। अनुयायी क्यों बनें? अग्रणी क्यों नहीं। कुप्रचलनों को अस्वीकार करने में भी साहसिकता है। अन्धी भेड़ों की तरह हेय उन लोगों का अनुसरण नहीं करना चाहिए जो वैभव का उद्धत प्रदर्शन करने के लिए अन्तरात्मा वेध चुके। आदर्श छोड़ चुके और चरित्र गँवा चुके।

प्रज्ञा परिजनों को अपने घर परिवार में पंचशील के प्रति ऐसा सम्मानास्पद वातावरण बनाना चाहिए जैसा कि धार्मिक लोग पाँच देवताओं के प्रति अपनाते और संसारी लोग पाँच रत्नों के रूप में धन, लक्ष्मी को पूजते हैं। सभी बलिष्ठता सुन्दरता, विद्वत्ता, ख्याति, सम्पन्नता चाहते हैं। यदि आकाँक्षाओं में शालीनता के पक्षधर पंचशीलों का भी समावेश किया जा सके तो समझना चाहिए कि सुरुचि जागी और पाने योग्य उपलब्धियों की महत्ता समझाने वाली विवेक बुद्धि उभरी। यह जागरण ऐसा ही है जैसा कि रात्रि को मृतक, मूर्छितों जैसी घोर निद्रा का परित्याग कर लोग प्रभातकाल में जगते, निवृत्त होते और श्रेयष्कर क्रियाशीलता में संलग्न होते हैं।

घर से आलस्य प्रमाद को विदा करना चाहिए और वातावरण ऐसा बनाना चाहिए कि हर सदस्य को हर समय उपयोगी कार्यों में व्यस्त रहने का अवसर मिले। निठल्ले न स्वयं बैठें न आत्मीयजनों को बैठने दें। विश्राम की भी आवश्यकता है किन्तु आलस्य प्रमाद को विश्राम या बड़प्पन का चिन्ह नहीं माना जाना चाहिए। जीवन का स्वरूप है—समय। समय का सदुपयोग श्रम पराक्रम के साथ ही किया जा सकता है। घर में ऐसे क्रिया−कलापों का प्रचलन करना चाहिए जिसमें हर समर्थ सदस्य को अपने−अपने ढंग से व्यस्त रहना पड़े। उनसे उनका आरोग्य, बुद्धिबल, कौशल बढ़ेगा, साथ ही व्यक्तित्व निखरेगा। घर को सुव्यवस्थित, सुसज्जित रखने तथा गृह उद्योग स्तर के, शाकवाटिका, टूट−फूट मरम्मत कपड़े धोना, सीना जैसे हलके ऐसे अनेकों छोटे−बढ़े काम खड़े किये जा सकते हैं जो श्रम सामर्थ्य को अस्त−व्यस्त होने से बचाये रह सकें, जो सृजनात्मक प्रवृत्ति का परिपोषण करते रह सकें।

स्वच्छता, सुन्दरता, सुव्यवस्था यह सारे उपक्रम सुरुचि के परिचायक हैं सच्ची कलाकारिता इसी में है कि शरीर, वस्त्र, उपकरण, निवास का हर पक्ष सुन्दरता किन्तु सादगी से भरा−पूरा दृष्टिगोचर हो, गन्दगी सहन न करना ही सौंदर्य की आराधना है। अस्त−व्यस्तता और कुरूपता एक ही बात है। शरीर का गठन ईश्वर के हाथ है। खर्चीली सजधज में विलासिता और अहमन्यता के उद्धत प्रदर्शन की गंध आती है किन्तु हर वस्तु को, हर निर्धारण को, हर प्रयास को योजनाबद्ध सुव्यवस्थित रखा जा सके तो समझना चाहिए कि दृष्टिकोण में गौरवास्पद कलाकारिता का समावेश हो रहा है। समझना चाहिए कि ‘मैनेजर’ का पद संसार में सबसे ऊँचा है। जो अपनी−अपने परिवार की सुव्यवस्था का अभ्यास कर रहा है वह किसी दिन महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निर्वाह में अपनी प्रतिभा का परिचय भी देगा।

मितव्ययता से सादगी और सज्जनता की, दूरदर्शिता और आदर्शवादिता का परिचय मिलता है। फैशन आदि अपव्यय करने वाले अपने मन में जो भी समझते रहें, विचारशैली की दृष्टि में ओछे बचकाने एवं अप्रामाणिक ही सिद्ध होते हैं। धन अपव्यय के लिए नहीं कमाया जाता, उसकी एक−एक पाई ऐसे सत्प्रयोजनों में खर्च करनी चाहिए जिससे भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के साधन जुटते हों। समाज को भी सत्प्रवृत्तियां संवर्धन के लिए उदार अनुदानों की निरन्तर आवश्यकता रहती है। और सब कुछ उन्हीं से बन पड़ता है जो अपव्यय से पैसा बचा सकते हैं। जो पैसे को कूड़ा समझते हैं और उसकी फुलझड़ी जलाते हैं उन्हें उपयोगी प्रसंग पर मन–मसोलना पड़ता है, कर्जदार बनना पड़ता है। इस सारे जंजाल से वे सहज ही बच सकते हैं जो खर्च करने से पहल हजार बार विचार करते हैं और गाँठ तभी खोलते हैं जब खर्च को औचित्य की कसौटी पर हजार बार कस लें। ऐसी विवेक युक्त कृपणता उस उद्धत अपव्यय से हजार गुनी अच्छी हैं पर अनेकानेक दुर्गुणों, दुर्व्यसनों को जन्म देती और भविष्य को अन्धकारमय बनाती है।

शालीनता चौथा पारिवारिक पंचशील है। घर के लोग परस्पर मीठा बोलें, शिष्टाचार बरतें, एक दूसरे का आदर करें हाथ बढ़ावें और मान मर्यादा का ध्यान रखें। असमय अनगढ़ लोग उच्छृंखलता बरतें और अनुशासन हीनता का परिचय देते देखे जाते हैं। बात−बात में आवेश लाने वाले और संतुलन गँवा बैठने वाले मानसिक रोगियों में गिने जाते हैं। उन्हें कोई दया का पात्र समझता है कोई घृणा का। सज्जनता के साथ धैर्य जुड़ा हुआ है उसमें सहिष्णुता और तालमेल बिठा कर चलने की दूरदर्शिता का समावेश रहता है। परस्पर स्नेह−सौजन्य बनाये रहने, सहयोग भरा आदान−प्रदान चलाने के लिए स्वभाव में शालीनता का समावेश करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यह समझा ही नहीं, व्यवहार में भी लाया जाना चाहिए। निरन्तर पर्यवेक्षण और अभ्यास करते कराते रहने से यह आदत भी स्वभाव का अंग बन जाती है।

उदार सहकारिता से—एक−दूसरे का हाथ बटाने की प्रवृत्ति को प्रधानता दी जाती है। कर्तृत्व को प्रधान, अधिकार को गौण रखना पड़ता है। उदारता बरतने पर उलट कर सद्भावना मिलती है जो पूँजी की अपेक्षा अनेक गुना लाभाँश उत्पन्न करने वाली उच्चस्तरीय भाव प्रेरणा देती है।

प्रज्ञा परिजनों को अपने परिवार में इन पंचशील की सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण अभिवर्धन करना चाहिए। वे देखेंगे कि इस आधार पर कैसी हरीतिमा लहलहाती है और कैसी बहुमूल्य फसल कटती है।

First 10 12 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • उत्तिष्ठ,जागृत प्राप्य वरानिबोधत्त
  • Quotation
  • दूसरी पंक्ति में हर किसी की साझेदारी सम्भव
  • Quotation
  • डडडड
  • Quotation
  • प्रज्ञा परिजनों के लिए निर्धारित सप्तसूत्री कार्यक्रम-2
  • Quotation
  • डडडड
  • जीवन साधना की व्यावहारिक तपश्चर्या
  • परिवार में सत्प्रवृत्तियों की फसल उगायें
  • अवाँछनीयता के आगे शिर न झुकाएँ
  • शिक्षा और विद्या की अभ्यर्थना हमारे हर परिवार में चल पड़े
  • आलोक वितरण का पुण्य परमार्थ आज का युगधर्म
  • छोटे सप्त सूत्र सात समुद्रों की तरह महान
  • प्रज्ञा परिजनों के पाँच दिवसीय प्रेरणा डडडड
  • Quotation
  • अपनों से अपनी बात - प्रज्ञा परिजनों का सात संसदों में संगठन
  • अगले वर्ष के सम्मेलन समारोह
  • पुरोहित से
  • पुरोहित से (kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj