
छोटे सप्त सूत्र सात समुद्रों की तरह महान
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प्रज्ञा युग के अवतरण की भागीरथी भूमिका का उत्तरदायित्व बहन करने और श्रेय पाने के लिए नियति ने प्रज्ञा परिजनों को अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया है। बिगुल बजाते हुए वे आगे−आगे डडडड तो युगान्तरीय चेतना से अनुप्राणित भावनाशीलों की सृजन वाहिनी कदम मिलाकर, सीना−ताने चल पढ़ने में आगा−पीछा नहीं देखेगी। प्रश्न अग्रगमन का है। इस ऐतिहासिक सृजन पर्व में यह श्रेय जागृत आत्माओं के ही भाग्य में बदा है। उन्हें इस सुयोग को खोना नहीं चाहिए।
अगले दिनों जो व्यापक क्षेत्र में, विशा परिमाण में—अगणित सृजन शिल्पियों द्वारा किया जाना है उसी का सार संक्षेप उस निर्धारण में सन्निहित देखा जा सकता है जो इन पंक्तियों में प्रज्ञा परिजनों के सम्मुख प्रस्तुत है। बीज की लघुता और वृक्ष की विशालता के बीच जो सूत्र श्रृंखला काम करती है उसी को प्रज्ञा परिजनों द्वारा अपनाई जाने वाली इस छोटी-सी विधि−व्यवस्था में झाँकते देखी जा सकती है।
प्रज्ञा युग के हर व्यक्ति को चिन्तन में उत्कृष्टता और आचरण में आदर्शवादिता भरनी पड़ेगी। व्यक्तित्व को पवित्र और प्रखर बनाना पड़ेगा। उसकी निजी सत्ता इतनी समर्थ होगी कि अपनी नाव स्वयं खे सकें और दूसरे अनेकों को बिठाकर पार कर सकें। इसके लिए अन्तराल में श्रद्धा—मस्तिष्क में प्रज्ञा और आचरण में निष्ठा का अधिकाधिक समावेश करना होगा। इस प्रयोजन के प्रज्ञा परिजनों के सम्मुख प्रस्तुत सप्त सूत्री योजना के अंतर्गत प्रथम तीन का महत्व आँका जा सकता है। उपासना से अन्तराल की प्रसुप्त श्रद्धा को जगाया और समर्थ, सक्षम बनाया जाता है। उपासना देवताओं की जेब काटने वाली चालाकी नहीं वरन् अन्तः− करण में उत्कृष्टता भर वाली ब्रह्म विद्या है। इस तथ्य को पुजारी लोग तो अनुभव नहीं कर सकते किन्तु यथार्थता के अति निकट जा पहुँचने के कारण प्रज्ञा परि−जन उस तथ्य का—सत्य का—प्रत्यक्ष दर्शन करेंगे।
मनःक्षेत्र की प्रज्ञा को ही दृष्टिकोण में आदर्शवादिता का समावेश कहा गया है। श्रद्धा क्षेत्र की आकाँक्षा जब बुद्धि को प्रेरित करेगी तो चेतन और अचेतन मनःसंस्थान को देवत्व को उभारने वाली सत्प्रवृत्तियाँ अनायास ही कार्यरत दीखेगी और बहुमूल्य व्यक्तित्व के रूप में उनका सर्वतोमुखी सफलताएँ उपलब्ध कराने वाली क्षमता हस्तगत होगी। जीवन साधना नकद धर्म है। जो उसे अपनायेंगे, निहाल होकर रहेंगे।
सद्भावनाओं की सत्प्रवृत्तियों में परिणति करने का अभ्यास जिस पाठशाला, व्यायामशाला में सफलतापूर्वक किया जा सकता है उसका नाम परिवार है। यह साधन एवं अवसर हर किसी को उपलब्ध है। आत्मोत्कर्ष के लिए आवश्यक सद्गुणों का अभ्यास करना परिवार निर्माण के सहारे जितनी सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं। परिवार में सुसंस्कारिता संवर्धन के लिए प्रज्ञा परिजनों को उत्तेजना दी गई है। यदि वे इस प्रयोग को अपना सकें तो देखेंगे कि अपनी और अपने प्रियजनों का वास्तविक एवं बहुमूल्य हित साधन के कितनी अच्छी तरह कितने बड़े परिमाण में कर सके।
अगले दिनों वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श ही व्यक्ति और समाज के प्रचलनों में पूरी तरह सम्मिलित होने वाला है। कोई संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में फँसा रहना स्वीकार न करेगा। समष्टि के सुविस्तृत क्षेत्र में मानवी प्रतिभा क्षमता का नियोजन होगा। पारिवारिकता इसी को कहते हैं। आध्यात्मिकता यही है। राज−नीति की भाषा में इसी को साम्यवाद समाजवाद कहते हैं। परिवार को सुसंस्कारी रीति−नीति के आधार पर विकसित करने के लिए प्रज्ञा परिजनों को कहा जा रहा है। यही सत्प्रवृत्ति अगले दिनों व्यापक विकसित होगी तो समूचा विश्व पारिवारिक स्नेह सूत्र में जकड़ा होगा। एकता, एकात्मता, समता, शुचिता के सिद्धान्त धरती पर स्वर्ग का अवतरण करके रहेंगे। मनुष्य में देवत्व उभरने का प्रत्यक्ष प्रतिफल इतना तो होना ही है।
युद्ध में विजय पाने वाले अपने डग के पराक्रमी, श्रेयाधिकारी होते हैं। पर युग जाना है। उसमें विचारों की विचारों से— आदर्शों की आदर्शों से और प्रचलनों की प्रचलनों से टक्कर होगी। हाथी से हाथी ही टकराते हैं, बकरे नहीं। भावी युग विचारक्रांति का है। टकराव क्रान्तियों की यश गाथा लोगों ने सुनी देखी है। अपने समय में विचार क्षेत्र की अदृश्य लड़ाई प्रकार लड़ी जायगी। जिसे पौराणिक काल के देवासुर संग्राम के समतुल्य माना जा सकेगा। इस विश्व युद्ध का सूत्र संचालन मनीषा करेगी। लेखनी, वाणी और प्रयोक्ताओं का, प्रखर व्यक्तित्व इस संग्राम के प्रमुख अस्त्र−शस्त्र होंगे। प्रज्ञा परिजनों को अपने निजी जीवनक्रम तथा परिवार क्षेत्र में इसी युग संग्राम को लड़ाने का अभ्यास कराया जा रहा है। मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों एवं अनैतिकताओं का सूर्पनखा, सुरसा, एवं ताड़का के विरुद्ध आक्रोश अपनाने असहयोग के सहारे संघर्ष आरम्भ करने की बात इसी दृष्टि से कही गई है। खेल−खेल का यह अभ्यास अगले दिनों चिनगारी का दावानल रूप में प्रकट होने जैसा उदाहरण बनेगा।
विचार क्रान्ति के लिए जिस बौद्धिक कुरेद−बीन की जरूरत है उसे सम्पन्न करने के लिए शिक्षा और विद्या के दुहरे उपाय अपनाने पड़ेंगे। साक्षरता संवर्धन और सद्ज्ञान विस्तार एवं ऋतम्भरा का अवलम्बन ग्रहण करने की कार्य पद्धति इसी आवश्यकता की पूर्ति करती है। पाठशालाएँ, पुस्तकालय, विचार गोष्ठियां किसी न किसी रूप में अपने घरों में स्थान पाने लगें। विचार क्रान्ति के छोटे शुभारम्भ में उत्साह दिखाने के लिए प्रज्ञा परिजनों को कहा गया है।
हरितिमा संवर्धन का अर्थ है—जीवन को प्यार और कलाकारिता का उभार प्रदान करना। उसके असंख्य लाभ हैं। सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के उन्नयन का इसे प्रतीक माना जा सकता है। गाँधी जी ने स्वतन्त्रता संग्राम के अनेक मोर्चे नहीं खोले थे। सर्वप्रथम उन्होंने एक सत्याग्रह हाथ में लिया था। विरोध और संघर्ष को उभारने के लिए वह छोटा सूत्र भी चिनगारी से दावानल बनता चला गया और अंततः सफल होकर रहा। छोटे प्रयास का उपहास उड़ाने वालों को लज्जित होना पड़ा। हरितिमा संवर्धन सर्वतोमुखी सृजन प्रयोजनों का एक छोटा किन्तु महत्वपूर्ण उद्योग है। इसे अपनाने पर ध्यान मुड़ेगा और उन सद्वृत्तियों का दौर बढ़ेगा जिन्हें पंच सूत्री से लेकर समयानुसार बढ़ते चलने वाली शत सूत्री योजना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ध्वंस को निरस्त करने सृजन को अपनाने की यह पुण्य−प्रक्रिया अगले दिनों तुच्छ को महान बनने जैसा उदाहरण बन कर रहेगी।
आलोक वितरण का कार्य बहुत बड़ा और व्यापक है उसे घर−घर अलख जगाने, जन−जन के मन−मन को गुदगुदाने से ही उस प्रयोजन की पूर्ति होगी। प्रज्ञा परिजन उस कार्य को अपने परिवार परिचय के क्षेत्र में कार्यान्वित करेंगे तो भी उसका प्रभाव लहरों द्वारा एक−दूसरे को धकेलकर आगे बढ़ाने की तरह बहुत ही सुखद होगा। दीपक स्वयं प्रकाशवान होता है और अपने क्षेत्र को प्रकाशित करता है। प्रज्ञा परिजन सूर्य,चन्द्र न हों सके, मूर्धन्य स्तर का नेतृत्व न कर सकें तो भी अपने संपर्क क्षेत्र में आलोक वितरण करेंगे। आसमान में चमकने वाले छोटे तारे की तरह टिमटिमाते हुए भी वे भटकने वाले यात्रियों को प्रकाश देकर धन्यवाद के मात्र बन सकेंगे।
संक्षेप में यही है प्रज्ञा परिजनों के निमित्त प्रस्तुत हुई सप्त सूत्री योजना का रहस्य और भविष्य। शुक्राणु विकसित होकर एक प्रौढ़ परिपक्व बन सकता है तो कोई कारण नहीं कि प्रज्ञा परिवार के व्यस्त सदस्यों द्वारा अपनाया गया यह छोटा कार्यक्रम एक से दूसरे को प्रोत्साहित करते हुए समग्रता के लक्ष्य तक न जा पहुँचे। इस छोटी योजना में वे सभी निर्धारण और उपक्रम सार रूप में जुड़े हुए हैं जिन्हें अगले दिनों व्यापक बनना है और युग परिवर्तन का सुनिश्चित आधार सिद्ध होना है।