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Magazine - Year 1982 - Version 2

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अपनों से अपनी बात - प्रज्ञा परिजनों का सात संसदों में संगठन

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युग संधि का प्रभात पर्व सन्निकट है। इस समय विशेष में युगान्तरीय चेतना से अनुप्राणित हुए बिना कोई जागृत जीवन्त आत्मा रह नहीं सकती। अपवाद तो सर्वत्र रहते हैं, किन्तु यह विश्वास करने का कारण है कि प्रज्ञा परिजनों ने अपनी पूर्व संचित सुसंस्कारिता को अनायास ही उभरती पाया है और जिस प्रकार बिगुल बजते ही सैनिकों की भुजाएँ फड़कने लगती हैं, उसी प्रकार अन्तःकरण में युगान्तरीय चेतना की उमंगों से अपने को अनुप्राणित पाया है। प्रज्ञा परिजनों में से कुछ अभागों को अपवाद की तरह आदर्शवादिता अपनाने से सर्वथा इन्कार करते पाया जा सकता है। अन्यथा नव सृजन में हर किसी की भावभरी श्रद्धाञ्जलि उपलब्ध होगी, भले ही वह तुलसी दल जितनी नगण्य ही क्यों न हो। प्रज्ञा परिजनों के लिये इस अंक में सप्तसूत्री योजना प्रस्तुत है। व्यस्तों और अभावग्रस्तों की विवशता भी इतना कुछ करने में बाधक नहीं हो सकती कि अपना निजी दृष्टिकोण सुधारा और जीवनक्रम दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर नये सिरे से निर्धारित किया जाय। घर परिवार के लिये हर आदमी आमतौर से खपता है। उस समुदाय को सुसंस्कारी बनाने वाली एक और पद्धति अपना ली जाय तो यह कार्य भी बिना कोई अतिरिक्त खर्च के सम्पन्न होते रह सकता है। आशा की गयी है कि ये पंक्तियाँ प्रत्येक परिजन को झकझोरेगी और उन्हें किसी न किसी रूप में युग धर्म अपनाने की चुनौती स्वीकारने के लिये विवश करेंगी।

इस अंक में प्रस्तुत सप्तसूत्री योजना का क्रियान्वयन करने वालों से कहा गया है कि वे उसकी सूचना तथा कार्यविधि अपने परिचय विवरण के साथ इसी मास शान्ति−कुञ्ज भेज दें

विवरण—[1] जिस संसद में सम्मिलित होता है [2] पूरा नाम पता [3] आयु [4] शिक्षा [5] व्यवसाय [6] जन्म−जाति [7] अब तक के जीवन क्रम के उल्लेखनीय घटना प्रसंग एवं पारिवारिक स्थिति [8] वर्तमान समस्याएँ [9] भावी योजना तथा आकाँक्षा। इन नौ विवरणों के साथ विस्तारपूर्वक लिख भेजें। उत्तर तो अब जवाबी पत्रों का ही दिया जा सकेगा, पर अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें आवश्यक प्रकाश, एवं अनुदान परोक्ष माध्यमों से—बिना लेखनी वाणी की सहायता के ही मिलना आरम्भ हो जायगा। क्रियाशीलों का—उनकी गतिविधियों का पंजीकरण इसलिए किया जा रहा है ताकि विकासशीलों को अभ्युदय तथा अग्रगमन के लिए अदृश्य सहयोग का नया द्वार खुल सके। इस अंक के पाठकों से ऐसी ही आशा, अपेक्षा की गई है कि उनके अभिनव प्रयासों का शान्ति−कुञ्ज को यथा सम्भव जल्दी ही विवरण प्राप्त होगा।

इसी संदर्भ में प्रज्ञा परिवार में से तनिक अधिक उत्साह रखने वालों का नये स्तर पर इन्हीं दिनों पुनर्गठन भी किया जा रहा है। जो नितान्त व्यक्तिगत तथा पारिवारिक परिधि तक ही सीमित रहेंगे, उनकी बात दूसरी है। अन्यथा जो अपने सरल स्वाभाविक संपर्क क्षेत्र में दैनिक मिलनवार्ता करते हुए कुछ आलोक वितरण नियमित या अनियमित रूप से करते रहने जैसी अतिरिक्त जिम्मेदारी भी उठा सकते हैं। उनके ऊपर आशा भरी दृष्टि लगने और नव सृजन में संकेत सहयोग पाने की अपेक्षा करने का भी आधार बनता है। हर किसी को दैनिक काम−काज करते हुए कुछ न कुछ लोगों से संपर्क साधना ही पड़ता है। उसी अवसर पर काम काज की अन्यान्यवार्ता करते कराते “युग परिवर्तन और उस संदर्भ में जागृत आत्माओं का राई रत्ती अनुसरण सहयोग भी सम्भव हो सकने की चर्चा भी की जा सकती है जिस प्रकार परिवार−निर्माण की प्रक्रिया भी घर के लोगों के साथ सामान्यवार्ता व्यवहार करते समय ही बिना अतिरिक्त समय लगाये—सरलतापूर्वक सम्पन्न होती रह सकती है। ठीक उसी प्रकार दैनिक संपर्क में आने वालों से भी नव सृजन के संदर्भ में कुछ न कुछ जिक्र तो करते ही रहा जा सकता है भले ही तत्काल उसका अनुकूल प्रतिफल न मिले। जो इतना प्रयास करने के लिए समर्थ हों, उनको ‘जन जागरण का अग्रदूत’ माना जायगा और उनके राई रत्ती सहयोग से ही बूँद−बूँद करके घड़ा भरा जायगा।

लाखों प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को जिस संगठन के अंतर्गत सूत्रबद्ध किया जा सके उसका एक नया आधार खड़ा किया गया है। शान्ति−कुञ्ज में प्रज्ञा परिजनों की सात संसदें गठित की जा रही हैं। उनमें भागीदार बनने की एक ही शर्त है कि वे अपने दैनिक संपर्क में आने वाले—अनुकूल प्रकृति के—व्यक्ति यों से नव सृजन के लिए स्वेच्छापूर्वक स्वीकारे गये प्रसंग पर कुछ न कुछ चर्चा भी करते रहें। चर्चा को ही कर्त्तव्य पालन की सफलता मान लें। यह प्रतीक्षा न करें कि कहना माना गया या नहीं। चर्चा करते रहना भी अपने आप में एक महत्वपूर्ण कार्य है। बीजारोपण करते रहने पर उसमें से कुछ न कुछ दाने कभी न कभी अवश्य ही फलेंगे।

इन्हीं दिनों जिन सात संसदों का गठन किया जा रहा है। वे इस प्रकार है :—

शोध संसद

इसमें ग्रेजुएट स्तर के स्वाध्यायशील व्यक्ति ही सम्मिलित होंगे। वे अपने प्रिय विषय, रुझान एवं अवसर का उल्लेख करते हुए कोई कुछ न कुछ विषय ब्रह्मवर्चस् शोध में सहयोग देने के लिए केन्द्र के परामर्श द्वारा निर्धारित कर लेंगे। स्थानीय पुस्तकालयों से निश्चित विषय की पुस्तकें लेकर उन्हें अवकाश के समय पढ़ते रहेंगे और निर्धारित प्रसंगों के जो भी संदर्भ उपलब्ध होंगे, उन्हें शान्ति−कुञ्ज भेजते रहेंगे। अपने अतिरिक्त संपर्क क्षेत्र के समान रुचि वाले अन्यों को भी ऐसा ही कुछ सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित करते रहेंगे। ब्रह्म डडडडडड अगले दिनों अत्यन्त व्यापक होगी। उसके लिए हरिद्वार रहने वाले अनुसंधान कर्त्ता अपर्याप्त पड़ रहे हैं। इसलिए अखण्ड परिवार के अन्यान्य मनीषियों से उस संदर्भ में सहयोग करने की योजना बनानी पड़ रही है। जो तत्पर हों, वे ‘शोध संसद’ में अपना नाम पंजीकृत करालें और परामर्श का आदान−प्रदान तत्काल आरम्भ कर दें।

इसी समुदाय में वे लोग भी आते हैं जो हिन्दी रचनाओं का अँग्रेजी या अन्य किसी प्रान्तीय भाषा में अनुवाद कार्य करते रह सकें। अगले दिनों प्रज्ञा साहित्य को हर भाषा में प्रकाशित करने की योजना है।

(2) अध्यापक संसद

इसमें वे सभी अध्यापक पंजीकृत किये जायेंगे जो अपने छात्रों को नैतिकता सामाजिक की शिक्षा भी निर्धारित पढ़ाई के अतिरिक्त देते रहने के लिए अतिरिक्त प्रयास करते रह सकें। इस समुदाय में पच्चीस पैसे वाला युग साहित्य पढ़ने देने, वापस लेने तथा इस प्रसंग में कुछ प्रश्नोत्तर करते रहने—परामर्श देते रहने—का सिलसिला बड़ी सरलता के साथ चलता रह सकता है।

छात्रों के अभिभावकों से अध्यापकों का सहज संपर्क रहता है या सरलतापूर्वक बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार घर परिवार के शिक्षित सदस्यों तक छात्रा के माध्यम से युग साहित्य पहुँचाने तथा वापिस लेने का उपक्रम बिना किसी कठिनाई के चल सकता है।

इसके लिए अध्यापकों को अपने घर ज्ञानघट रखना होगा, जिसमें न्यूनतम दस पैसा व साधारणतया पच्चीस पैसा डालते रहा जाय और उससे सस्ता युग साहित्य खरीदते और पढ़ाते रहने का कार्य आगे बढ़ाया जाय। यह ज्ञान घट अपने अन्य भावनाशील घनिष्ठों के यहाँ भी रखाये जा सकते हैं और उस राशि से पढ़ाने के लिए हर महीने नया साहित्य खरीदते रहने—इस प्रज्ञा पुस्तकालय का वैभव बढ़ाते रहने का कार्य चलाते रहा जा सकता है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि इसी उपक्रम को अन्य साथी अध्यापक भी अपनायें और वे भी सम्बन्धित छात्रों में इस प्रकार का सद्ज्ञान बीजारोपण क्रम गतिशील बनायें।

[3] संपर्क संसद

कुछ लोगों का व्यवसाय ही ऐसा है, जिसमें अनायास ही अनेकों से आये दिन संपर्क बनता है। इनके साथ स्वाभाविक वार्त्तालाप के अतिरिक्त नव सृजन सम्बन्धी कुछ वार्ता भी जिस−तिस प्रसंग के साथ जोड़ते हुए चलाई जाती रहे। प्रज्ञा साहित्य पढ़ने देने और वापिस लेने की प्रक्रिया चलाने में इस प्रकार के संपर्क में न कोई अतिरिक्त समय लगाना पड़ता है और न बोझ डालने वाला प्रयास ही करना पड़ता है।

संपर्क संसद के लिए अध्यापक −अध्यापिकाओं के अतिरिक्त भी कई वर्ग हैं। जैसे (1) चिकित्सक। (2) पोस्ट मैन (3) ग्राम सेवक (4) लेखपाल (5) दुकानदार भी मिलनसार प्रकृति के रहते हैं। संपर्क साधने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं पड़ता। ऐसे लोग रास्ता चलते, हाट, बाजार जाते, अपना काम निपटाने के साथ साथ जन–संपर्क साधते और उन तक वार्ता एवं साहित्य के माध्यम से युगान्तरीय चेतना का प्रकाश पहुँचाते रह सकते हैं। ज्ञानघट के नियमित अनुदान से अध्यापकों की तरह ही वे भी घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालय बना सकते हैं।

[4] कला संसद

इसमें गायक, वादक, नृत्य अभिनय आदि में रुचि एवं गति रखने वाले लोग सम्मिलित होंगे। वे अपने संपर्क क्षेत्र में और भी साथी तलाश करेंगे और छोटी मण्डली बना लेंगे। यह मण्डली अपनी सुरुचि को युग परिवर्तन के अनुरूप ढालेंगी। उसी स्तर के आधार अपनायेगी और परिचय क्षेत्र में जब भी सुविधा होगी छोटे−बड़े आयोजन करती रहेगी। प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत आये दिन आयोजन होते रहते हैं। (4) जन्म दिवसोत्सव (2) संस्कार (3) पर्व त्यौहार (4) नवरात्रि सत्र तो सर्वत्र मनाये ही जाते हैं और उनमें युग संगीत की आवश्यकता भी पड़ती ही है। इसके अतिरिक्त प्रज्ञापुराण आयोजनों की अगले वर्ष भारी धूम रहेगी। यह सम्मेलन आयोजन हर क्षेत्र में चलेंगे। उनमें इन युग गायकों की सर्वत्र माँग रहेगी। इसके अतिरिक्त निजी तैयारी की रूप से कला विद्यालय चलायें जायें, जिसमें उपयुक्त अभिरुचि वालों का अध्ययन−अध्यापन चलता रहे। और कला का जो भी पक्ष उभर सकता हो स्थानीय परिस्थितियों और साधनों के अनुरूप उसे उभारा जाय। प्रचलनों की तरह ही गायन अभिनय कला का भी महत्व है। लोकरंजन के साथ लोक−मंगल का कार्य और भी अच्छी तरह हो सकता है।

[5] महिला संसद

इसमें शिक्षित और मुख्य महिलाएँ सम्मिलित होंगी, वे अपने घर−पड़ौस की महिलाओं को तीसरे प्रहर दैनिक या साप्ताहिक गोष्ठी बुलाया करेंगी। या उनके घर जाया करेंगी। इस मिलन संपर्क का प्रधान उद्देश्य होगा—”परिवार निर्माण प्रक्रिया का घरों में यथा सम्भव समावेश।” नव निर्माण मिशन के तीन पक्ष हैं (1) आत्म निर्माण (2) परिवार निर्माण (3) समाज निर्माण। इनमें से आत्म निर्माण और समाज निर्माण को दो पहिये माना जाय तो परिवार निर्माण को उसकी मध्यवर्ती धुरी कहा जायगा। घड़ी का फिनर, परमाणु का नाभिक मूर्धन्य माना जाता है। इसी प्रकार परिवार निर्माण की उपेक्षा विडम्बना का विषय है। उसी के पुनर्जीवन की रूपरेखा इस प्रज्ञा परिजन अंक में सप्त−सूत्री योजना के अंतर्गत प्रस्तुत की गई है। इसका श्रीगणेश करने, व्यवस्था बनाने और गति देने की जिम्मेदारी तो परिवार संचालकों की ही है। पर इसके उपरान्त उसे निरन्तर सम्भालना और बढ़ाना सुयोग्य नारी का ही काम है। गृह लक्ष्मी वे ही हैं और उन्हें ही रसोईदारिन, चौकीदारिन, जननी, धात्री, चलती−फिरती गुड़िया तक सीमित न रहकर एक बड़ी जिम्मेदारी परिवार का नवयुग के अनुरूप निर्माण करने की भी नई जिम्मेदारी सम्भालनी है। इसका कुछ आभास इस अंक में है। भविष्य में प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत बहुत कुछ बताया जाता रहेगा। यह कार्यान्वित कैसे हो? इसकी जिम्मेदारी उठाने के लिए ही शिक्षित, मुखर एवं उत्साही सेवा भावी महिलाओं को महिला संसद की सदस्य बनने के लिए कहा जा रहा है।

[6] युवा संसद

इसमें किशोर, नवयुवक और प्रौढ़ स्तर के वे उत्साही परिजन सम्मिलित रहेंगे जो आत्म−निर्माण और समाज निर्माण और परिवार निर्माण के कार्य अपनी स्थिति के अनुरूप करते रहेंगे। ऐसी प्रवृत्तियों में शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को अधिकाधिक सुदृढ़ बनाने वाले प्रयासों की प्रमुखता रहेगी। व्यायाम, ड्रिल, खेलकूद, लाठी चलाना, आसन, प्राणायाम के लिए निजी रूप से या सामूहिक प्रयास से कुछ न कुछ किया ही जाना चाहिए। आहार−विहार का संयम, स्वच्छता, व्यस्त दिनचर्या स्वास्थ्य रक्षा का ही अंग है। इसके अतिरिक्त, मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए स्वाध्याय सत्संग का कोई न कोई नियमित कार्यक्रम बनाया, निभाया और चलाया जाना चाहिए।

समाज सेवा की दृष्टि से घरों में शाक वाटिका लगाने−लगवाने जैसे छोटे−छोटे आन्दोलन चलाये जा सकते हैं। सामूहिक श्रमदान से स्थानीय स्वच्छता के लिए कुछ न कुछ किया और अन्यान्य लोगों आ सहयोग अर्जित किया जा सकता है। साक्षरता प्रसार के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था हर गली मुहल्ले में बननी चाहिए। चलते−फिरते पुस्तकालय तो प्रत्यक्ष देव मन्दिर ज्ञानरथ हैं। इस प्रकार की कितनी ही रचनात्मक योजनाएँ हैं, जिन्हें युवा संसद के सदस्य मिलजुल कर भली प्रकार सम्पन्न करते रह सकते हैं।

इसी प्रकार का एक महत्वपूर्ण कार्य है—”विवाहोन्माद से समाज को मुक्ति दिलाना। “सर्वविदित है कि खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। अपने समाज का सर्वोपरि कलंक और विनाश विष वृक्ष यही है। युवक आगे बढ़कर इसकी जड़ पर कुल्हाड़ी चलायें। स्वयं दहेज न लेने, धूमधाम की शादी स्वीकार न करने की प्रतिज्ञा करें। साथ ही जिन साथियों पर अपना प्रभाव हो उनमें भी इस प्रकार के प्रतिज्ञा पत्र भराये और निर्धन परिवारों की लड़कियाँ, उनके अभिभावकों से भी प्रतिज्ञा पत्र संकलन करने के रूप में समाज सुधार आन्दोलन का सिरा पकड़कर उसे क्रमशः अधिकाधिक विस्तृत किया जा सकता है। युवा संसद के सदस्य इसी प्रकार के कार्यों में हाथ डालेंगे और उन्हें पूरा करने में जुटे रहेंगे।

[7] धर्म संसद

उसमें साधु, वानप्रस्थ, पुरोहित, कथा वाचक, उपदेशक वर्ग के लोग सम्मिलित होंगे। वे अपने−अपने प्रभाव क्षेत्र में जो भी धर्मकृत्य करें, उनमें युगान्तरीय चेतना की विचारधारा का समावेश किये रहें। कर्मकाण्डों के विधि−विधान करते हुए उनकी व्याख्या करते हुए—कृत्य का स्वरूप सर्वोपयोगी बनाते हुए—लोक श्रद्धा को नये सिरे से अर्जित कर सकते हैं। प्रज्ञा पुराण का एक खण्ड छप चुका। तीन खण्ड और भी सन् 82 के अन्त तक छप जाने की सम्भावना है। इनके माध्यम से कहीं भी कथा−कीर्तन की संयुक्त प्रक्रिया जनमानस में प्रगतिशीलता का अभिनव संचार कर सकती है। पुरोहित अपने यजमानों का वास्तविक हित साधन कर सकते हैं। धर्मोपदेशक काल्पनिक गपबाजी में निरत भ्रान्ति फैलाने वालों में से अपना नाम कटाकर समय की माँग पूरी करने वाले—युग धर्म को समझने वाले कहला सकते है। यही बात साधु बाबाओं के सम्बन्ध में है। वे समय को पहचानें, धर्म का वास्तविक स्वरूप समझें।

इसके लिए वे युग शिल्पी सत्र में न्यूनतम एक महीने की, सम्भव हो तो अधिक समय की शिक्षा प्राप्त करके अपनी गतिविधियों का अभिनव निर्धारण करने में समर्थ हो सकते हैं। बढ़ते हुए प्रज्ञा परिवार एवं प्रज्ञा अभियान में उनका समुचित स्वागत होगा।

उपरोक्त सात ‘संसदों का इन्हीं दिनों गठन किया जा रहा है।’ एक व्यक्ति कई संसदों का भी अपनी योग्यता एवं रुचि अनुरूप सदस्य बन सकता है। न्यूनतम पाँच व्यक्ति यों से संपर्क साधें और उसमें युग चेतना का समावेश करते रहने भर की शर्त है। प्रज्ञा पुँज, प्रज्ञा पुत्र, प्रज्ञा परिजन तीनों ही वर्ग के लोगों को इन सात संसदों में विभक्त हो जाने के लिए कहा जा रहा है। उपरोक्त दिशा संकेतों को मूल−भूत आधार समझा जा सकता है और पूछे गये नौ विवरणों द्वारा आत्म−परिचय प्रस्तुत करते हुए अभीष्ट संसदों को सदस्य बनाया जा सकता है। अब यह संसद संगठन क्रम यथासम्भव जल्दी ही पूर्ण कर लिया जाना चाहिए।

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