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Magazine - Year 1982 - Version 2

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शिक्षा और विद्या की अभ्यर्थना हमारे हर परिवार में चल पड़े

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इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि परिस्थिति की जन्मदात्री मनःस्थिति है। दैवी प्रकोप, प्रकृति विग्रह इसके अपवाद हैं। जो कभी−कभी ही देखने को मिलते हैं। आमतौर से आकाँक्षाएँ विचारणाओं को प्रेरित करती हैं। विचारों से कर्म बनते हैं और कर्म की प्रतिक्रिया भली−बुरी परिस्थिति बनकर सामने आती है। सृष्टि क्रम यही है। मानव जीवन का—समाज प्रवाह का— विधि−विधान यही है। तथ्यों को समझते हुए प्रतिकूलताओं को सुधारने के प्रत्यक्ष प्रयत्न तो होने ही चाहिए, सामयिक सन्तुलन बिठाने वाले कदम तो उठने ही चाहिए किन्तु यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि मनःक्षेत्र यदि मूढ़ता और दुष्टता से भरा रहा तो प्रगति एक शान्ति की अभिलाषा मृग, तृष्णा मात्र ही बनी रहेगी।

सुधार प्रयासों में जन मानस का स्तर उठाया जाना आवश्यक है। उसमें बसी अवाँछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस दिशा में उपेक्षा बरती गई तो सुधार के लिए किये गये प्रयत्न बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों के गर्त्त में गिर कर नष्ट होते रहेंगे। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रगतिशील पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा किये जाने वाले पराक्रम का निरर्थक चला जाना, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। वैज्ञानिक, बौद्धिक एवं आर्थिक प्रगति के अनेकों द्वार इन दिनों खुले हैं और उनमें सन्तोषजनक सफलता भी मिली है फिर भी हर क्षेत्र में दिन−दिन संकटों का घिरते जाना, इस बात का प्रमाण है कि चिन्तन और चरित्र की गिरावट समस्त उपलब्धियों को नष्ट निरस्त करके रखे दे रही है।

दूसरे लोगों को प्रगति के प्रत्यक्ष प्रयत्नों में लगे रहने देना चाहिए। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को अपने हिस्से का उत्तरदायित्व यह मानना चाहिए कि उन्हें लोक मानस के परिशोधन परिष्कार का काम विशेष रूप से अपने कन्धों पर उठाना है। दूसरे लोग उसका महत्व नहीं समझ पा रहे और प्रयत्न नहीं कर रहे तो किसी का कोसने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उस अभाव की पूर्ति में हम जुट पड़े और प्रयास का प्रतिफल प्रस्तुत करते हुए सर्वसाधारण को इस तथ्य से अवगत—सहमत करें कि सर्वसाधारण को इस तथ्य से अवगत—सहमत करें कि सर्वतोमुखी प्रगति के अन्यान्य प्रयासों में विचार−क्रान्ति की—प्राथमिकता दी जाय साथ ही दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन का प्रत्यक्ष प्रयास परिवर्ण तत्परता−तन्मयता के साथ सम्पन्न किया जाय। प्रज्ञा परिजन इस युग धर्म को समझें और अपने हिस्से का काम श्रद्धा विश्वास के साथ सम्पन्न करने के लिए आगे आयें।

इस दिशा में दो उपाय अपनाने होंगे—दो कदम उठाने होंगे। एक लोक व्यवहार की अधिक जानकारी देने वाली शिक्षा का संवर्धन। दूसरा चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करने वाली विद्या का पुनरुत्थान। यह दानों काम साथ−साथ चलने चाहिए।

शिक्षा के लिए निरक्षरों को साक्षर बनाया जाना और साक्षरों को अधिक ज्ञानवान बनाया जाना आवश्यक है। विद्या के लिए स्वाध्याय सत्संग जैसे प्राणवान माध्यम खड़े करने होंगे और व्यक्तिगत रूप से जन−जन को दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने के लिए मनन चिन्तन की आदत डालनी होगी।

अपने देश में इन दिनों 70 प्रतिशत व्यक्ति अशिक्षित हैं। साक्षरों शिक्षितों की संयुक्त संख्या 30 प्रतिशत है। सर्वविदित है कि शिक्षा के अभाव में मनुष्य विज्ञ बहुज्ञ नहीं बन सकता है। इसके बिना कूप मंडूक बना मनुष्य उतना ही सोच सकेगा जितना कि सीमित घिराव में रहते हुए सम्भव है। सर्वतोमुखी विचार क्रान्ति से लेकर भौतिक प्रगति की सामयिक जानकारी प्राप्त करने तक में शिक्षा का विस्तार नितान्त आवश्यक है।

अगले दिनों प्रज्ञा अभियान के पैर मजबूत होते ही साक्षरता संवर्धन की जिम्मेदारी भी अपने ही कन्धों पर आने वाली है। शिक्षितों को विद्या ऋण चुकाने के लिए अनुरोध ही नहीं आग्रह भी किया जाना है। अध्यापकों की आवश्यकता उसी उदार समयदान से सम्भव होगी। आकर्षित नर−नारियों के गले यह बात उतारी जायेगी कि ही नहीं वयस्कों, अधेड़ों और वृद्धों को भी बिना नर−नारी का अन्तर किये शिक्षा सम्पदा उपार्जित करना आवश्यक है। प्रौढ़−पाठशालाओं की हर गली मुहल्ले में स्थापना करने की बात प्रज्ञा अभियान की प्रमुख योजनाओं में से एक है। साधनों और सहायकों की सामर्थ्य के साथ तालमेल बिठाते हुए उसे व्यापक बनाने का क्रम यों चल तो इन दिनों भी अधिक विलम्ब लगने लिए बालकों की शिक्षा व्यवस्था ही भारी पड़ रही है प्रौढ़ अशिक्षितों को साक्षर बनाने की बात तो जन आन्दोलन के सहारे ही बन सकना सम्भव है।

शिक्षा विस्तार का दूसरा उपाय यह है कि अक्षरों को अधिक शिक्षित बनाया जाय। सामान्य जीवन में सुव्यवस्था और प्रगतिशीलता ला सकने वाले ज्ञान का सम्पादन का अंग बना दिया जाय। विदेशों में लोग आजीविका उपार्जन के उपरान्त मिलने वाले अवकाश में से एक−दो घण्टे का समय उपयोगी ज्ञान को बढ़ाने के लिए बने रात्रि विद्यालयों में नाम लिखाते और पढ़ने जाते है। आजीविका उपार्जन और ज्ञान संवर्धन की दुहरी प्रक्रिया किसी के लिए भी कठिन नहीं पड़ती। दुहरा लाभ उठाना हर किसी को रुचिकर होता है। यह प्रचलन अपने यहाँ भी होना है। व्यस्त शिक्षितों को अधिक ज्ञानवान बनाने के लिए रात्रि विद्यालयों की व्यापक व्यवस्था बनानी पड़ेगी। विदेशों में अनेक विद्यालय शनिवार,रविवार की साप्ताहिक छुट्टी के दो दिन चलते हैं। अपने यहाँ एक दिन के साप्ताहिक अवकाश का उपभोग भी विभिन्न विषयों के विद्यालयों के लिए हो सकता है। साक्षरता एवं ज्ञान संवर्धन के दोनों प्रयास साथ−साथ चलाने से ही अपने देश की बौद्धिक सम्पदा बढ़ेगी। इतना बन पड़े तो सम्पन्नता, समर्थता एवं प्रगतिशील की भी कमी न रहेगी।

यह व्यापक क्षेत्र में अपनाई जाने वाली ज्ञान संवर्धन योजना की चर्चा हुई। प्रज्ञा परिजनों को अपने निजी कार्यक्षेत्र परिवार में—इसका कार्यान्वयन तत्काल आरम्भ कर देना चाहिए। घर में जो अशिक्षित हों उन्हें पढ़ने के शान्त चित्त से—धीमी गति से— प्रयत्न करना चाहिए। एक बारगी दबाव डालने से तो आवेश में इन्कार भी कर सकते है। और उस इनकारी को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर न करने के लिए अड़ भी सकते हैं। ऐसा विग्रह मनोमालिन्य खड़ा न हो इसलिए इन प्रयत्नों को धीमीगति से ही चलने देना चाहिए। आवश्यक नहीं कि सभी सहमत हों जो बात मानले उन्हीं को लेकर कार्य आरम्भ याचना से ही जुटेंगी, पैसा देकर नहीं। अपने घर में भी ऐसा ही चले। शिक्षित अशिक्षितों को पढ़ायें। दोनों की सुविधा के समय का तालमेल बैठ जाना कुछ कठिन नहीं है। एक−एक करके घर के सभी अशिक्षित ज्ञानयज्ञ की इस शिक्षा साधना में भागीदार बनते जायें यह प्रयास बिना सकें, बिना खीजे, बिना निराश हुए जारी रखा ही जाना चाहिए भले ही उसकी गति मन्द ही क्यों न हो।

यही बात साक्षरों को अधिक शिक्षित बनने—अधिक ज्ञानवान बनने की इच्छा जगाने के सम्बन्ध में भी लागू होती है। ऐसी पाठशालाएँ गली−मुहल्लों में चल सकती हैं। पर वैसा न बन पड़े तो भी अधिक ज्ञानवान, कम ज्ञानवानों को पढ़ाने का प्रचलन आरम्भ करें। निजी प्रयत्न से भी यह चलता रह सकता है। स्कूली परीक्षा देने की बात दूसरी हैं उसके लिए ट्यूटर चाहिए। घर ज्ञान सम्पदा के लिए अध्यापन जारी रखने के लिए स्वाध्याय में रुचि जगा देने भर से बात बन जाती है। किसी विषय का साहित्य लगातार पढ़ते रहने पर अभीष्ट ज्ञान को बिना किसी दूसरे की सहायता के प्रचुर परिमाण में एकत्रित किया जा सकता है। स्कूली परीक्षाओं में भी कितने ही छात्र बिना स्कूलों में भर्ती हुए भी घर पर बिना किसी सहायता के पढ़ते है। कुँजियों के सहारे काम चलाते और अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होते रहते हैं। अपने घर में भी ऐसी ही अभिरुचि जगानी चाहिए। उसे जगाने में अपनी नम्र, मधुर धीमी भूमिका होनी चाहिए कि एक−एक करके सभी उस नव निर्धारण को अपनाने में रुचि लेने लगे। तत्पर दीखने लगें।

इसके लिए पुस्तकालयों की नितान्त आवश्यकता है। हर व्यक्ति खरीद कर कहाँ तक पढ़े। अपने देश में तो दरिद्रता और अरुचि का दुहरा दबाव होने से उपयोगी पुस्तकें नियमित रूप से मिल सकें ऐसी व्यवस्था कठिन है। ऐसी दशा में पुस्तकालय हो, ज्ञान सम्पदा की सहकारी समिति, उदार बैंक एवं समर्थ अध्ययन की भूमिका निभा सकते है। अगले सम्पादन मिलने वाला है। पर निजी क्षेत्र में इतना तो अभी भी हो सकता है कि बजट में परिवार की बौद्धिक भूख बुझाने के लिए घरेलू पुस्तकालय बढ़ते रहने की भी एक मद रहे। अन्न,वस्त्र की तरह ही यदि बौद्धिक आवश्यकता पूरी करने वाले सत्साहित्य को भी महत्वपूर्ण मान लिया जाए तो फिर उसके लिए कुछ राशि नियमित रूप से निकालते रहने में कठिनाई नहीं रह जायगी। दस पैसा ज्ञान घटों में डालने की न्यूनतम शर्त प्रायः सभी प्रज्ञा परिजन निभाते हैं। इसे बढ़ाकर पच्चीस पैसा—एक रुपया—या महीने में एक दिन की आमदनी जितना बना लिया जाय तो उतने से एक अच्छा घरेलू पुस्तकालय बन सकता है। उसमें नया साहित्य नियमित रूप से बढ़ता रह सकता है। इसके न केवल घर के वरन् मित्र पड़ौसी भी लाभ उठाते रह सकते हैं।

आत्मिक प्रगति के चार सूत्रों में(1) साधना (2)स्वाध्याय (3)संयम (4)सेवा के चार चरण निर्धारित है। साधना के बाद दूसरा नम्बर स्वाध्याय का है। स्वाध्याय कथा पुराणों का नहीं, वरन् युग मनीषियों के उस प्रतिदिन का जो व्यक्ति और समाज के सामने प्रस्तुत सामयिक समस्याओं को आदर्शवादी समाधान प्रस्तुत करते हैं। ऐसा साहित्य छपता तो कम है, पर ढूंढ़ने पर जहाँ−तहाँ से उसे चुना बीना जा सकता है। स्वाध्याय के प्रति प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को अपने परिवार में रुचि जगानी चाहिए। जो पढ़ नहीं सकते उन्हें प्रज्ञा साहित्य सुनाने की व्यवस्था बनानी चाहिए। कथा श्रवण वाचन का शास्त्रों में बहुत पुण्यफल बताया। गया है। इस धर्म कृत्य का हमें अपने−अपने घरों में मनोयोगपूर्वक पढ़ने और उसका सार तत्व हृदयंगम करने व्यवहार में उतारने का प्रयत्न करने की घर में नित्य धर्म कथा होने की तरह ही पुण्य प्रचलन मानना चाहिए। इस संदर्भ में नव प्रकाशित प्रज्ञा पुराण का उपयोग भी श्रद्धापूर्वक किया जा सकता है। पारिवारिक सत्संग यही है। इससे उस ब्रह्म विद्या की— महाप्रज्ञा की आराधना बन पड़ती है जिसकी परिणति आत्म−सन्तोष, जन सम्मान एवं दैवी अनुग्रह जैसी विभूतियाँ उपलब्ध कराने में होकर ही रहती है।

जन्म दिवसोत्सव, षोडश संस्कार, पर्व त्यौहार सभी धर्म आयोजनों में वे प्रेरणा भरी पड़ी है जिनके सहारे आत्मज्ञान तथ्य ज्ञान एवं व्यवहार ज्ञान की त्रिविधि आवश्यकताएँ पूरी होती है। इन अवसरों पर सामूहिक आयोजन की विधि−व्यवस्था स्थानीय प्रज्ञा पुत्रों के का ह देने पर बिना किसी कठिनाई के सम्पन्न हो जाती है। वैसा न बन पड़े तो इन शुभ अवसरों—पुण्य पर्वों पर स्वयं ही अपने परिवार को प्रगतिशील बनने के लिए समझाने को निजी सत्संग का प्रबन्ध समय−समय पर स्वयं ही करते रहा जा सकता है। धार्मिक वातावरण में उपलब्ध हुई उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ अपेक्षाकृत अधिक सरलतापूर्वक हृदयंगम होती हैं। व्यवहार में उतरने पर अपना उत्साहपूर्वक चमत्कार भी दिखाई है। शिक्षा और विद्या की अभ्यर्थना उपरोक्त उपायों का अवलम्बन लेकर प्रज्ञा परिजनों को अपने−अपने परिवारों की परिधि में करनी और करानी ही चाहिए। नव सृजन के लिए करने को तो अनेकानेक सृजनात्मक क्रिया−कलपना है, उनमें शिक्षा संवर्धन को प्रथम और हरितिमा आरोपण को दूसरा स्थान दिया जा सकता हे। मनुष्य वनस्पतियों से जीवन धारण करने वाला प्राणी है। अन्न, शाक, फल वनस्पतियों की देन है। यहाँ तक कि जिन पशु−पक्षियों का मांस खाया जाता है वे भी शाकाहारी ही होते है। इस प्रकार भी वनस्पति का ही उत्पादन है। दूध, घी, शहद जैसे पदार्थ भी प्रकारान्तर से वनस्पति का प्राणियों द्वारा किया गया रूपांतरण ही है। अन्न के बाद जल मनुष्य का दूसरा आहार है। वृक्ष आकाश से बादलों को अपनी आकर्षण शक्ति से खीचते और बरसने को विनहि सम्भव न हो सके। यह ठीक है कि पौधे जल से सींचे जाते है, पर यह भी उतना हो सही है कि पेड़ जल बरसाने प्राणियों के लिए भी पानी की व्यवस्था बनाते है। जिस सांस को लेकर हम सब जीते है उसमें हवा के साथ ऑक्सीजन भी धुली रहती है। इसी के सहारे शरीर को ऊर्जा मिलती है। यह प्राणवायु वृक्षों की देन है, वे सांस से निकलने वाली ‘कार्बन’ को सोखते है। और बदले में जीवन तत्व फेंकते है। इस प्रकार मनुष्य और पीछे एक−दूसरे के जीवन निवहि में निमित्त कारण बन कर रह रहे है। यह तथ्य है कि यदि पेड़ न रहें तो मनुष्य भी प रहेगा। जड़ों के अभाव में वह जायगी और सर्वत्र खाई टील ही दृष्टिगोचर होंगे।

हरितिमा संवर्धन इस धरती पर विद्यमान जीवन तत्व की जड़ को सींचता है। यदि अपने लोक में सजीवता बनाये रखनी है ध्यान रखना होगा कि वृक्ष वनस्पतियों की वन भी घटने न पाये। ईंधन के बिना न भोजन पकता है और न ठंड से निपटने बन सकता है। ईंधन की अधिकाँश आवश्यकता जलाऊ लक्कड़ों के बिना बनती नहीं। फर्नीचर बक्से, तथा पैकिंग पार्सलों के लिए लकड़ी पर निर्भर रहना पड़ता है। फलों की पौष्टिकता और फलों की शोभा सुषमा की अन्यत्र होती ही है मनुष्यों के लिए भी थकना मिटाने वाले आच्छादन की आवश्यकता पूर्ण करते है।

वृक्षों को देवता की उपमा दी गई है। विल्व, आंवला, वट, पीपल को देवता की तरह पूजा जाता है। तुलसी का विरवा देव मन्दिर बनाने की तरह आँगन में रोपा जाता है। सूर्य को अर्ध चढ़ाने की तरह उस पर भी जल चढ़ाते है। नित्य दीपक जलाने और परिक्रमा करने का धार्मिक घरों में वैसा ही प्रचलन है जैसा कि देवालयों के सम्मान में श्रद्धापूर्वक सम्पन्न किया जाता है।

जड़ी बूटियाँ संजीवनी मूरी है। रोग निवारण में उनका ही आश्रम लेना पड़ता है। च्यवन ऋषि को यौवन और लक्ष्मण को पुनर्जीवन प्रदान करने में उनकी अद्भुत शक्ति का परिचय मिलता है। इनकी शोध में चरक, सुश्रुत, बाणभट्ट, आदि अनेकानेक ऋषि तपस्वियों ने अपने जीवन रुपा दिये। अभी भी उस प्रयास का अन्त नहीं हुआ है। जराजीर्ण काया को नव यौवन प्रदान करने में जिस कल्प चिकित्सा की कभी भारत ने विश्व ख्याति प्राप्त की थी, इसकी पुनःखोज निकलने के प्रयास अभी भी चल रहे है। वनस्पति को देवता प्रतिष्ठा देने के लिए तुलसी ही बूटी से संसार के समस्त रोगों के निवारण को अनुपम रूप से विज्ञजन चिकित्सा करते पाये जाते है। चंदन को शिर पर लगाने के लिए मनुष्य ही नहीं डडडड सी आतुर रहते है। यज्ञ कर्म में समिधाएं ही डडडड होती है। जन्म के समय पालने से लेकर मरण डडडड के चिता संस्कार तक काष्ठ ही साथ रहता है। दिन के की कुर्सी पर और रात्रि में चारपाई पर बैठ ही बिताते है। हल हो या हथौड़ा, लकड़ी साथ रहेगी। ऐसे डडडड मित्र, साथी और सहचर कदाचित ही और काँई मिलता हो जैसा कि वृक्ष परिकर। आंखों को शीतलता, मस्तिष्क को शान्ति देने में वनस्पतियों की तुलना और किसी से नहीं की जा सकती है। इतना सुन्दर और कोई नहीं जितना कि फूल के अति−रिक्त प्रकृति ने और किसी में नहीं किया।

हमें वनस्पति से स्नेह, सहयोग, सौजन्य प्राप्त है। बदले में हमें भी वैसी ही कृतज्ञता बरतनी चाहिए और आदान−प्रदान का सिलसिला जारी रखना चाहिए। उनका वशं नष्ट न होने दें। हरितिमा हमारा परिपोषण करती है हम उसके संवर्धन में रुचि लेकर कृतज्ञता व्यक्त करें। सभ्य देशों में सामान्य नागरिकों को देहाती जीवन पसन्द है। वहाँ वे अपने घरों के चारों ओर हरियाली लगाते है। व्यस्त, व्यवसायियों या दारिद्री, व्यसनी आलसियों को छोड़कर बड़े नगरों में काम करने वाले भी देहातों में रहने की व्यवस्था बनाते है। भले ही आवागमन में पैसा या समय खर्च होता हो। वे जानते है कि जिस वातावरण में जीवन की अन्तःसत्ता विकसित होती है। वह वृक्ष वनस्पतियों के छोड़कर बड़े नगरों में भी अब जो नये निर्माण हो रहे है उनके घर डडडड उद्यान लगाने के लिए उपयुक्त भूमि सुरक्षित रखो का प्रावधान रहता है। घरों की हरितिमा के साथ जोड़ रखा का तात्पर्य है —जीवन और प्रकृति का सहचरत्व रहना। इस और कुरुचि भर जाने का ही प्रमाण परिचय मिलता है।

घर छोटे हो या बड़े। सवन हो या बिरल उनमें परिवार के अन्य सदस्यों की पौधों के लिए भी स्थान रहना चाहिए। डडडड को पालने की तरह उन्हें भी पाला−पोसा जाना चाहिए। छोटी−सी पुष्प वाटिका हर घर में हो। तुलसी विरबा हर आंगन में दृष्टिगोचर हो और वह श्रद्धा एवं सुरुचि के जीवन रहने का परिचय दें। आँगन वक्का हो तो गमलों का उपयोग ही सकता है। आंगन में जगह कम पड़ती हो तो अधर में भी लटकाये जा सकते है। बेलें छप्पर पर चढ़ सकती है। छत पर भी बक्सों, गमलों, टोकरों में एक उद्यान लग सकता है। घर के अगल−बगल में जगह में भी शाकवाटिका, पुष्प वाटिका लग सकती है। उसकी साज सम्भाल में शिशु पालन जैसी आह्लाददायिनी सेवा साधन बन पड़ता है। इतना ही नहीं उसकी सिंचाई, गुड़ाई, निराई छटाई में हलकी−फुल्की दैनिक कसरत भी बन पड़ता है। विनोबा सबसे अच्छी कसरत बागवानी को बताते है, इससे उत्पादक श्रम बन पड़ता है और स्वास्थ्य रक्षा के अतिरिक्त सुरुचि पोषण और का त्रिविधि लाभ मिलता है।

इस संदर्भ में दो और भी महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश किया जा सकता है। एक है—आहार सम्बन्धी वर्तमान प्रचलन में क्रान्तिकारी परिवर्तन। दूसरा है गृह उद्योगों का घर−घर में संस्थापन। कमटोरी बीमारी से निपटने के लिए हमें अपनी भोजन रुचि बदलनी होगी और निठल्ले मनके सहचर दारिद्रभ से पीछा छुड़ेगा। इन दोनों ही पुष्प प्रयोजनों के बीजाँकुर गृह उद्यान के उपक्रम में विद्यमान है।

हमारा आहार जीवन्त होना चाहिए। भुना, तला, सूखा, मसलों की उत्तेजना से भरा आहार एवं प्रकार से अखाद्य है। पोषक पदार्थों का कोयला बना कर खान की आदत बदलनी होगी, अन्यथा धनी दरिद्र सभी की कुपोषणजन्य दुर्बलता डडडड अपने शिकंजे में डडडड रहेगी। हरे शाकभाजी, मौसमी फल एवं अंकुरित अन्न का प्रचलन चल पड़े तो गरीबी के रहते हुए भी किसी को कुपोषण का शिकार नहीं बनना पड़ेगा। घरों में शाक भाजी उगाने का उपक्रम स्वास्थ्य की दृष्टि से इस लिए आवश्यक है कि उससे आहार की उत्कृष्टता समझने समझाने में जीवित पदार्थों की उपयोगिता पर ध्यान टिकता हैं। शाक−वाटिका की उपज से उतना तो लाभ मिल ही जाता है जितने से परिवार भर को कुपोषण के अभिशाप से बचाया जा सके। जगह और रुचि हो तो एक छोटे परिवार के लिए शाक भाजी, आंगन,छप्पर और छत पर उगने वाली शाक वाटिका से ही उपलब्ध होते रह सकते हैं। हरी मिर्च,पोदीना,धनिया, सलाद, पालक, अदरक, प्याज आदि से घर को हरी चटनी मिल सकती है और उतने से भी कुपोषणजन्य संकट टल सकता हैं।

इन दिनों वातावरण में प्रदूषण भरते जाने की विभीषिका से उत्पन्न होने वाली हानियों से सभी विचारशील परिचित और आतंकित हैं। इसका सर्वसुलभ समाधान हरितिमा संवर्धन ही हैं। विषाक्तता को खाने पचाने में समर्थ नील कंठ भगवान के उपरान्त दूसरा नम्बर वनस्पति सम्पदा का ही आता हैं। इसके लिए उत्साह दिखाया जा सके तो परिवार को प्रदूषणजन्य हानियों से बचाने के अतिरिक्त समूचे वातावरण के परिशोधन से भी इस आधार पर योगदान मिल सकता हैं। इसमें स्वार्थ के साथ−साथ परमार्थ का समन्वय भी है।

शाकवाटिका एक गृह उद्योग होने वाला आर्थिक लाभ स्पष्ट है। इन दिनों शाक भाजी की कितनी महंगाई है और मनमाने दाम देने पर भी गन्दे नालों से उगाई,हुई कई−कई दिन की रखी वासी सब्जी खरीदनी पड़ती है। इसकी तुलना में घर उगाये शाकों से स्वास्थ लाभ के अतिरिक्त आर्थिक लाभ भी हैं। इस दृष्टि से इसे एक गृह उद्योग ठहराया जा सकता है। इस दिशा में पहल करना नितान्त आवश्यक है। बेकारी और गरीबी के नागपाश से छूटने के लिए, घर में सौभाग्य लक्ष्मी का दर्शन, करने के लिए जापान की तरह हमें भी घर−घर में सहकारी गृह उद्योग लगाने होंगे। इसका प्रतीक पूजन—शुभारम्भ, शाक वाटिका लगा कर किया जा सकता है।

उत्पादन का दूसरा पक्ष है—बचत। इसे भी गृह उद्योग में सम्मिलित किया जा सकता है। कपड़ों की सिलाई, धुलाई, पुरानों को काटकर छोटे नये बना लेना एक बचत उद्योग हैं। टूट−फूट की मरम्मत भी इसी श्रेणी में आती है और बताती है कि बचाना भी कमाने के ही समतुल्य लाभदायक है। सुई, कैंची, साबुन, बुहारी फिनायल जैसे उपकरण सभी घरों में होते हैं। इन्हीं में पोतने का चूना, किवाड़, फर्नीचरों का रंग वार्नस भी सम्मिलित रखा जा सकता है बर्तन, फर्नीचर आदि के टूट−फूट को सुधारने के लिए थोड़े से अभ्यास से काम चल सकता है। पुस्तकों की जिल्द बाँध से अभ्यास से काम चल सकता है। पुस्तकों की जिल्द बाँध देना कठिन नहीं। चूहों के छेद,छत की दरारें, फर्सों के गड्ढे बन्द करने में तनिक से अभ्यास और थोड़े से उपकरणों की आवश्यकता है आरी, छैनी, हथौड़ी, वसूली, कन्नी, जैसी थोड़े से उपकरणों से घर में छोटी मरम्मत फैक्टरी चल सकती है। चारपाई की टूटी रस्सियों के साथ थोड़ी नई मिला कर उसे कम खर्च में बुना जा सकता है। सस्ता और अच्छा साबुन घर पर ही बन सकता है। बालकों के लिए तरह−तरह के खिलौने बना कर देते किसी कुशल गृहणी के बाँये हाथ का खेल है। आटा पीसने की चक्की लगा ली जाय और पति−पत्नी रोज की काम चलाऊ पिसाई मिल−जुलकर कर लिया करें तो मनोरंजन, स्वास्थ्य संवर्धन और आत्म बचत के तीनों प्रयोजन साथ−साथ सधते रह सकते हैं।

गृह उद्योगों की उपरोक्त चर्चा शाक वाटिका, पुष्प वाटिका के संदर्भ में, इसलिए की गई है कि वह पुण्य प्रक्रिया बहुमुखी लोगों से भरी−पूरी होने के साथ−साथ सधते रह सकते है।

गृह उद्योगों की उपरोक्त चर्चा शाकवाटिका, पुष्पवाटिका के संदर्भ में इसलिए की गई है कि वह पुण्य प्रक्रिया बहुमुखी लाभों से भरी−पूरी होने के साथ−साथ गृह−उद्योगों की एक छोटी इकाई रहने पर भी उस महान प्रयोजन की ओर ध्यान आकर्षित करती है जिसमें न केवल लाभ वरन् रचनात्मक प्रवृत्तियों के स्वभाव में सम्मिलित होने का सुयोग सौभाग्य भी सम्मिलित है।

प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक का ध्यान इस और रहना चाहिए। वे तत्काल कुछ गमले खरीद कर लायें। एक में तुलसी दूसरों में फूल तथा चटनी के पौधे बोये। इसके अतिरिक्त शाक वाटिका पर ध्यान दें। जिनके पास जमीन है उन्हें वृक्षारोपण की बड़ी योजना कार्यान्वित करने में भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। फूलों के ही नहीं आज तो जलावन के लिए काम आने वाले पेड़−पौधे लगाना उतना ही आवश्यक है जितना कि इमारती सामान और फर्नीचर के लिए प्रयुक्त होने वाले बड़े पेड़ों का उद्यान लगाना। इस दिशा में हम सबको जिससे जो बस पड़े शुभारम्भ अविलंब ही करना चाहिए।

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