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Magazine - Year 1982 - Version 2

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प्रज्ञा परिजनों के लिए निर्धारित सप्तसूत्री कार्यक्रम-2

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भाव क्षेत्र में उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धा सम्वर्धन की उपासना−चिन्तन और चरित्र में शालीनता की− महाप्रज्ञा का समावेश करने की− जीवन साधना का समन्वय ही प्रकारान्तर से आत्म−निर्माण है। अग्रगामी सूर्य प्रथम इन शाश्वत लक्ष्यों को निजी जीवन में प्रतिष्ठापित करके सर्वसाधारण को यह विश्वास दिला सकने में समर्थ होंगे कि यह प्रयोग ने केवल सरल और सरस है वरन् हाथों−हाथों सत्यपरिणाम प्रदान करने वाला भी है। व्यक्तित्व में गरिमा का संवर्धन इतना बड़ा उपार्जन है जिसकी तुलना हजार मन रत्नराशि एकत्रित करने से भी भारी सिद्ध होती है।

परिवार निर्माण वस्तुतः आदर्शों को व्यवहार में उतारने का सर्वसुलभ किन्तु सर्वोत्तम कार्यक्षेत्र है उसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही साथ साथ सधते हैं। साथियों का कुटुम्बियों का हित साधन मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है। सहकारी उदारता के आधार पर भी प्रगति पथ पर चलते चलते मनुष्य यहाँ तक आ पहुँचा है। उसकी अभिवृद्धि में हर दृष्टि से कल्याण ही कल्याण है अपना भी− पराया भी। कुटुम्ब के क्षेत्र में यदि सत्प्रवृत्तियों को बोया उगाया जा सकेगा तो शालीनता की हरियाली उत्पन्न होगी और सर्वतोमुखी सुख शान्ति की फसल धन−धान्य से कोठे भरेगी। प्रज्ञा परिजनों की उपासना जीवन साधना और परिवार निर्माण की आराधना करते हुए अन्तरंग, बहिरंग और पारिवारिक क्षेत्र को किस प्रकार समुन्नत बनाना चाहिए। इसकी विद्या सीखनी और कार्य रूप में परिणति करनी होगी। अभ्यास के कारण ही यह प्रयोग कठिन प्रतीत होता है, पर जब उस असमंजस को दूर कर नव निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश किया जायगा तो प्रतीत होगा कि जो कठिन समझा जाता रहा यहां कितना सरल है। जिस नीरस माना गया था वह कितना सरस है। जिसमें घाटा प्रतीत होता था वह कितना लाभदायक है अवाँछनीयता अपनाने में बुद्धिमानी और आदर्शों के अवलम्बन में मूर्खता समप्र जाने को लोक मान्यता की असत्यता प्रज्ञा परिजन इस दिशा में कुछ ही कदम उठाने के उपरान्त भला प्रकार सिद्ध कर सकते हैं।

(4)प्रज्ञा परिजनों के लिए निर्धारित सप्तसूत्री योजना में चौथा सूत्र है शिक्षा− संवर्धन। यह कार्य अपने आप से अपने परिवार में भी आरम्भ किया जा सकता है। समझा जाना चाहिए का सम्पदाओं में ज्ञान की गरिमा सर्वोपरि है भौतिक जानकारियाँ देने वाली शिक्षा जिनने जितनी अर्जित की है वे उसी अनुपात में गर्व गौरव अनुभव करत हैं, साथ ही आजीविका उपार्जन में भी उसके सहारे अपेक्षाकृत अधिक सफल रहते हैं। स्वास्थ्य के बाद संपदा को नहीं शिक्षा को महत्व मिलना चाहिए। शरीर ही नहीं −मनःसंस्थान भी प्रगति और गरिमा का दूसरा आधार स्तम्भ है। इसलिए भोजन वस्त्र की तरह मानसिक समर्थता के लिए शिक्षा को अनवरत प्रबन्ध होना चाहिए। इसमें विराम नहीं लगना चाहिए, जब हर दिन भोजन की आवश्यकता शरीर को पड़ती है तो मस्तिष्क ज्ञान क्षुधा बुझते रहने का अनवरत क्रम क्यों नहीं चलना चाहिए।

आवश्यक नहीं कि स्कूली शिक्षा परीक्षा के आधार पर पिटने वाली लकीर का ही अनुसरण किया जाए। नौकरी भर के काम आने वाले इस भार जंजाल से बचा भी जा सकता है और जीवन के हर पक्ष को समुचित दिशा देने वाले सद्ज्ञान का स्वाध्याय क्रम अधिक उपयोगी मानकर विद्यार्जन की तरह दिनचर्या में सम्मिलित रखा जा सकता है।

यह प्रयोग परिवार के हर सदस्य पर कार्यान्वित होना चाहिए। निरक्षरों को पढ़ाया जाय। साक्षरों की आगे की पढ़ाई जारी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। जो वैसा नहीं कर सकते उन्हें सुनाया जाय। जिनकी शिक्षा काम चलाऊ है उन्हें विद्या के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। विद्या का अर्थ है− चेतना को उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने वाले तथ्यों को तर्क और प्रमाणों के आधार पर हृदयंगम कर सकने में समर्थ विचार पद्धति। इसके लिए स्वाध्याय सत्संग दो प्रयोग बताये गये हैं। इन दिनों यह दोनों ही प्रयोजन सत्साहित्य से पूरे हो सकते हैं। सत्संग की सान्निध्य परक प्रक्रिया तो अब दुर्लभ होती जा रही है। उपयुक्त व्यक्ति यों की उपस्थिति की उपस्थिति हर घड़ी कहाँ सम्भव हो सकती हैं? उनका साहित्य ही अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति करता है। प्रेस प्रकाशन ने उसे सुलभ भी बना दिया है।

निजी जीवनचर्या तथा परिवार की विधि व्यवस्था से शिक्षा संवर्धन का वातावरण बनना चाहिए। उसका प्रयोग उत्साहपूर्वक चलना चाहिए। एक दूसरे को पढ़ाने सुनाने में सहयोग दें। इसे घर की समृद्धि प्रतिष्ठा और सुखद सम्भावना का अंग मानकर चले। गृह संचालक स्वयं स्वाध्यायशील रहे और परिवार के लिए जिस प्रकार निर्वाह साधन जुटाये जाते हैं उसी प्रकार अध्ययन अध्यापन में भी समय एवं धन का एक अंश लगता रहे इसकी गुंजाइश निकालें।

अपने देश में 70 प्रतिशत निरक्षर हैं। साक्षर भी स्वाध्यायशील नगण्य-सी संख्या में हैं। आर्थिक दरिद्रता में भी अधिक कष्टकर स्थिति है। शिक्षित भी पिछड़े रह सकते हैं किन्तु प्रगतिशील बनने के लिए शिक्षा की अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। मस्तिष्कीय विकास के बिना न तो दूरदर्शिता बन पड़ती है और न विचारणा भावना को ही सुनिश्चित दिशाधारा मिलती है। इस तथ्य को समझा जाना चाहिए और शिक्षा संवर्धन के लिए व्यक्तिगत एवं पारिवारिक दिनचर्या में समुचित स्थान रखने के लिए कोई न कोई मार्ग खोज निकालना चाहिए।

(5) राष्ट्रीय आवश्यकताओं में एक महती आवश्यकता हरितिमा अभिवर्धन की है। समझा जाना चाहिए कि मनुष्य जीवन हरितिमा पर निर्भर है। वनस्पति ही अन्न है। हवा में जीवनदात्री प्राण वायु ओषयन का अनुदान उसी के द्वारा जुड़ता है। ईंधन न हो तो चूल्हा कैसे जले। चारपाई कैसे बने। किवाड़ कहाँ से लगें। विवश करने की आकर्षण शक्ति वृक्ष वनस्पतियों में ही होती है। रेगिस्तानी इलाके पेड़ न होने कारण ही बने हैं। वर्षा और आँधी से होने वाले भूमि क्षरण को पेड़ ही रोकते हैं। फल फलों से लदे रहकर वे शरीर को पोषण एवं मन को उल्लास प्रदान करते हैं। उनकी छाया में अगणित प्राणियों को आवास मिलता है। थकान को उतारने में तरु छाया से बढ़कर और कोई उपचार नहीं।

रोटी,कपड़ा और मकान मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। शरीर को अन्न, जल और प्राण वायु चाहिए। इन सभी को वनस्पति जगत से ही उपलब्ध किया जाता है। पशुओं को मनुष्य जीवन का साझीदार माना जाता है। उनके दूध,माँस श्रम, चर्म गोबर आदि का उपयोग मानवी निर्वाह के अविच्छिन्न अंग बने हुए है। किन्तु स्मरण रखा जाय मनुष्य की तरह पशु भी वनस्पतियों के आधार पर जीवित हैं। संसार में जितना भी जीवन दृष्टिगोचर होता है उसे जल से उत्पन्न तो कहा जा सकता है, पर उसे जल से उत्पन्न तो कहा जा सकता है,पर उसे स्थिर और अग्रसर रखने में वनस्पतियों का ही असंदिग्ध योगदान है। मनुष्येत्तर प्राणियों में पशु पक्षियों को कृमि कीटकों को ही नहीं वृक्ष वनस्पतियों को भी सम्मिलित समझा जाना चाहिए।

तथ्यों को समझने के उपरान्त हर किसी का कर्त्तव्य हो जाता है कि जिस वनस्पति का हम अनेकानेक माध्यमों से जीवन धारण करने में उपयोग करते हैं उनको उगाने बढ़ाने के उत्तरदायित्व को भी समझें अन्यथा खर्च होता रहे,उपार्जन न बढ़े तो दिवालिया बनने जैसा संकट उत्पन्न होगा। चिकित्सा उपचार के लिए प्रायः जड़ी बूटियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। उपेक्षा बरतने पर तो यह सारी जीवन सम्पदा घटती और समाप्त होती चली जायगी। हरितिमा मरेगी तो प्राणि समुदाय भी जीवित न रहेगा और तब मनुष्य का अस्तित्व बच सकना भी असम्भव है।

इन दिनों सामयिक संकट के रूप में दो कठिनाइयाँ भयावह रूप में सामने उपस्थित हैं (1) बढ़ता हुआ प्रदूषण और (2) भयावह कुपोषण। कल कारखाने जिस प्रकार विष धूम्र उगलते हैं। अणु परीक्षणों से जैसे विकरण बढ़ते हैं उससे दम घुटने का संकट बढ़ता ही जा रहा है इसका प्रतिकार परिशोधन वृक्ष वनस्पतियों से निकलने वाली प्राण वायु ही करते हैं। पेड़ घिर जाते और अमृत उगलने वाले प्रत्यक्ष शिवशंकर हैं उनका नीलकंठ ही इस प्रदूषण विषाक्तता को पचा सकता है और प्राणियों के सर्वनाश पर उतारू प्रदूषण विष के महादैत्य के त्रास दिला सकता है।

भोजन में कृत्रिमता बढ़ती जा रही है। सूखा, जला, भुना खाने की आदत ने खाद्य पदार्थों का जीवन रस समाप्त कर दिया है और वे मसालों की भरमार से विषैले कोयले की तरह पेट में जाते हैं पेट पर लदते ही हैं पर पोषण तनिक भी प्रदान नहीं करते। यही है कुपोषण की समस्या जिसके कारण बालकों से लेकर वृद्धों तक सभी की दुर्बलता तथा रुग्णता का अभिशाप करना पड़ता है। इसका प्रतिकार न टॉनिक कर सकते है और न मारक औषधियाँ कारगर हो सकती हैं। अत्यधिक समाधान हरितिमा युक्त वनस्पतियाँ ही है जिनका प्रयोग बढ़े तो संकट कटे। प्रयोग तब बढ़े जब उत्पादन उभरे। इस संदर्भ में हममें से हर किसी को निजी क्षेत्र में कुछ करना पड़ेगा। किसानों, मालियों, भूस्वामियों की, शासकों की प्रतीक्षा में बैठे रहने से काम कैसे चलेगा। भूख बुझाने के लिए अपना ही मुँह चलाना पड़ेगा। पढ़ने के लिए अपने ही मस्तिष्क पर दबाव डालना होगा। हरितिमा उत्पादन में हममें से प्रत्येक का योगदान होना चाहिए। भले ही वह न्यूनतम −प्रतीकात्मक ही क्यों न हो।

घरों में आँगन बाड़ी, छप्पर बाड़ी,छत बाड़ी लगाकर शाक भाजी फल फुलवारी लगाने उगाने का काम सहज ही किया जा सकता है। पूरे परिवार के लिए नित्य हरी चटनी उपलब्ध करने जितना धनिया पोदीना, पालक, ब्याज, अदरक, हरी मिर्च, तो खिलते खिलते उगाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त तुलसी का बिरवा आँगन में लगाकर न केवल जड़ी बूटी समुदाय के प्रति अपनी अभिरुचि परिष्कृत की जा सकती है वरन् देवता के रूप में वनस्पति को मान्यता देने वाली धर्म श्रद्धा का भी इस आधार पर विस्तार हो सकता है। प्रदूषण का शमन करने और घरेलू उपचार के रूप में तो तुलसी का असंदिग्ध उपयोग है ही। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक की प्रवृत्ति इस दिशा में गतिशील रहनी चाहिए।

(6) सत्प्रवृत्ति संवर्धन की पूरक है−अवाँछनीयता उन्मूलन। सामाजिक कुरीतियों के रूप में प्रगति पथ के भारी चट्टान सामने खड़े हैं। उन्हें विकसाये बिना आगे बढ़ने का रास्ता रुका ही पड़ा रहेगा। अपना पिछड़ापन राजनैतिक या आर्थिक कारणों पर टिका हुआ नहीं है उसका प्रमुख कारण है सामाजिक प्रचलनों में अवाँछनीयता की भरमार। इनके कारण इतना समय, श्रम और धन खर्च होता है कि पेट भरने के उपरान्त अपव्यय की सबसे बड़ी मद यहीं रह जाती है उपार्जन प्रायः इसी भट्टी में जलता रहता है।

सभी जानते है कि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं उस प्रचलन के कारण गरीबों की सुयोग्य बेटियाँ भी दर दर ठुकरा जाती और अपमान नफे में नहीं रहते। लूट का माल तो धूम धमाके की बारूद में समाप्त हो जाता है साथ ही जेवर, कपड़े आदि में घर की पूँजी भी फँसानी पड़ती है दूसरे का घर की पूँजी भी फँसानी पड़ती है। दूसरे का घर उजाड़ कर अपना घर भर लेते तो भी एक बात थी पर मूर्खता और दुष्टता का सह दुहरा समन्वय उसे भी तो नहीं बनने देता।

इसी प्रकार की अन्यान्य कुरीतियों की अपने समाज में भरमार हैं। पर्दा प्रथा ने आधे समाज को अपंग असमर्थ, एवं कैदी बंदी की स्थिति में लटका पटका हैं। वे पुरुष की तरह ही समाज की प्रगति में भागीदार हो सकती थी, पर आधी जनता को बंधी बनाये रहने वाली अनाचार निरंकुशता कुछ करने दे तब लड़की लड़की के बीच बरता जाने वाला भेदभाव मानवी आदर्श की छाती चीरता है।

जाति−पाँति के नाम पर बरसी जाने वाली ऊँच नीच, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय −भाग्यवाद − भूत प्रेत− टोना टोटका जैसे असंख्यों कुप्रचलन तथा अन्ध विश्वास अपने समुदाय पर हावी हैं। उनके विरुद्ध आवश्यकता इस बात की है कि संगठित रूप से इनके विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़ा जाय, किन्तु यदि वैसी व्यवस्था न बने। विरोध संघर्ष का उपक्रम न बैठे तो इतना तो हो ही सकता है कि उनसे असहयोग बरता जाय। समर्थन न दिया जाय। जो रोके जा सके उन्हें समझाया रोका जाय या कोई न माने तो उतना तो पूर्णतया अपने हाथ में है कि उस अनाचार में सम्मिलित रहकर पाप का भागी न बना जाय। अपने घर में अपने प्रभाव का उपयोग करके ऐसा कुछ किया जाना चाहिए कि कुरीतियाँ मिटें या घट सकें वे अपने घर परिवार से ही विदा करने का प्रयत्न किसी न किसी रूप में चल ही पड़े।

(7) सातवाँ निर्धारण है− आलोक वितरण। जो प्रेरणा से युग परिवर्तन केन्द्र तन्त्र से मिलती है उसे अपने सीमित न रहने देकर अपने संपर्क क्षेत्र में आगे बढ़ाया जाय। चन्द्रमा में अपना प्रकाश नहीं है, पर वह सूर्य से उधार लेकर रात्रि को प्रकाशवान होता है। लाउडस्पीकर में अपनी वाणी नहीं, पन वह दूसरों की नन्हीं-सी आवाज को लाखों के कान तक पहुँचाने की भूमिका निभाता है। युगान्तरीय चेतना का प्रादुर्भाव सशक्त केन्द्र से हो रहा है, पर उसे सफल सार्थक बनाने के लिए आवश्यक है कि जिन्हें मिले वे उस आलोक को अपने प्रभाव क्षेत्र में—सहज संपर्क में आने वालों तक पहुँचायें। लहरें एक दूसरे को आगे धकेलती हुई जलाशयों की शोभा बढ़ाती को भी अपनानी चाहिए। ज्ञान यज्ञ की भागीदारी—प्रज्ञा अभियान की साझीदारी के लिए आवश्यक है कि लोक मानस के परिष्कार के युग धर्म को पूरा करने के लिए अपनी स्थिति और सामर्थ्य के अनुरूप कुछ न कुछ प्रयास किया ही जाय।

प्रज्ञा परिजन उन्हीं को कहा गया है जो प्रज्ञा साहित्य को नियमित रूप से पढ़ते है। मिशन की पत्रिकाएँ इस पुण्य प्रयास में निरन्तर संलग्न है। छोटी−बड़ी पुस्तकें भी इस प्रयोजन की पूर्ति में भारी योगदान देती हैं। इसे मँगाने और पढ़ने का क्रम तो अपनाया ही जाता रह है। सामग्री मंगाई जाती है उससे कुछ अधिक मंगाई जाय और जिनके साथ अपना सहज संपर्क है उन्हें पढ़ाने सुनाने के लिए क्रमबद्ध योजना बनाई जाय।

घर के लोगों में से एक भी ऐसा न बचे जो घर में संग्रहित तथा नियमित रूप से आने वाले साहित्य को रुचिपूर्वक पढ़ने से जी चुराये। अपनों को अच्छे भोजन वस्त्र का लाभ दिया जाता है तो उन्हें सत्प्रेरणा देने वाले साहित्य के प्रति भी लगाव उत्पन्न करना चाहिए। जो न संपर्क में कुछ लोग तो रहते ही हैं। व्यवसाय कि सिलसिले में कुछ लोग तो मिलते जुलते रहते ही। इनमें से जिनमें सुरुचि के थोड़े से भी चिन्ह दृष्टिगोचर हो उन्हें धीमे से अपनी प्रज्ञा साहित्य का चस्का लगाना चाहिए। पढ़ने देने और वापिस लेने में कुछ अतिरिक्त समय नहीं लगता है। माहात्म्य बताने, स्मरण दिलाने और हल्का-सा अनुरोध करने पर वह प्रक्रिया चल पड़ती है जिसे प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत ‘झोला पुस्तकालय’ कहा जाता है।

बात छोटी-सी है पर उसके सत्यपरिणाम कुछ ही समय में फलित होते देख जा सकते हैं। जो पढ़ेगा सो प्रभावित ही नहीं होगा अपने को बदलेगा भी। इस परिवर्तन में बदलने वाले का − समूचे समाज का परोक्ष किन्तु असाधारण लाभ है। कहना न होगा कि इस पुण्य परमार्थ के भागीदार वे सभी प्रज्ञा परिजन हो सकते हैं जो आलोक वितरण की हल्की-सी प्रक्रिया को अपने दैनिक क्रिया कलाप को सम्मिलित कर लें।

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