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Magazine - Year 1982 - Version 2

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प्रज्ञा परिजनों के निमित्त निर्धारित किये गये न्यूनतम स्तर सूत्री कार्यक्रम इस प्रकार हैं−

(1)दैनिक उपासना के माध्यम से परमात्म सत्ता के साथ घनिष्ठता जोड़ना और उस भण्डार से अभीष्ट समर्थता उपलब्ध करना।

(2)जीवन निर्माण की संयम साधना। छेदों से रिसने वाले जीवन तत्व को रोकना और उस उपलब्ध शक्ति स्रोतों को सृजन प्रयोजनों के लिए मोड़ना।

(3)परिवार में सुसंस्कारिता का संवर्धन। निजी सत्प्रवृत्तियों को उभारने और आत्मीयजनों की सच्ची सेवा सहायता करने की दृष्टि से परिवार क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण परिपोषण करने में अभ्यासरत रहना।

(4)सद्ज्ञान का उपार्जन अभिवर्धन। अपनी तथा परिवार की शालीनता समर्थक शिक्षा का विकास प्रयास।

(5)हरीतिमा संवर्धन। प्राणि वर्ग में वनस्पतियों को भी सम्मानित करके उनके अभ्युत्थान के साथ−साथ अपने समग्र अभ्युत्थान का पथ प्रशस्त करना।

(6) अवाँछनीय प्रचलनों की अवज्ञा के लिए साहसिक संकल्प। इसका शुभारम्भ शादियों से होने वाले अपव्यय को अमान्य ठहराने का सत्याग्रह।

(7) आलोक वितरण। युगान्तरीय चेतना से अपने संपर्क क्षेत्र को अवगत प्रभावित तथा प्रोत्साहित करना। जनमानस के परिष्कार में योगदान देना।

उपरोक्त सातों निर्धारण कार्य की दृष्टि से छोटे, सरल एवं सीमित हैं। इतने पर भी उनमें उन सभी प्रमुख सृजन सूत्रों का समावेश है जो अगले दिनों युग परिवर्तन के संदर्भ में विस्तारपूर्वक कार्यान्वित किये जाने हैं। सूत्रों का गम्भीर पर्यवेक्षण, तात्विक विवेचन करने पर सहज ही यह पता चल जाता है कि परिशोधन और परिष्कार के दोनों ही तथ्य निर्धारण में पूरी तरह गुँथे हुए हैं

बीज में वृक्ष विशेषताओं का समावेश रहता है। शुक्राणु में एक समग्र व्यक्तित्व अनेकों पीढ़ियों के उत्तराधिकार समेटे बैठा होता है। परमाणु एक समूचा सौर मण्डल है। उसके छोटे छोटे घटक सो परिवार के सदस्यों की विधि व्यवस्था का पूर्ण रूपेण परिपालन करते हैं। चिनगारी में दावानल की समस्त संभावनाएं विद्यमान रहती हैं। समुद्र की सारी विशेषताएँ एक बूँद का विश्लेषण करने पर भली−भांति देखी जा सकती हैं। सप्त सूत्री कार्यक्रम को सप्त ऋषियों का प्रतिनिधित्व करते पाया जायगा। उनमें सूर्य सात घोड़ों की तरह अपनी अपनी ऐसी विशेषताएँ जिन्हें एक सूत्र में पिरो देने पर सप्त रत्नों से बड़ी बहुमूल्य हार जितना मूल्याँकन किया जा सकता है छोटा या थोड़ा होना हीनता या असामंजस्य उत्पन्न न करता। छोटापन या पिछड़ापन तो निकृष्टता में है ही वह लंका की तरह स्वर्णनिर्मित एवं दैत्य दानवी पराक्रम से ही भरी पूरी क्यों न हो।

युग परिवर्तन के कुछ मूलभूत सूत्र हैं।

(1) आत्मा में परमात्मा स्तर की उदार उत्कृष्ट का अवतरण। महानता के अजस्र भण्डार जिस केन्द्र भरा पड़ा है। इसका नाम परब्रह्म है। आत्मा परमात्मा की एकता से क्षुद्र को महान बनने का अब मिलता है। लकड़ी आग की समीपता से अग्नि रूप जाती है। पारस छूकर लोहा सोना बनता है। चय की समीपता से झाड़ियाँ सुगन्धित होती है। स्वाति को धारण करने पर सीप में मोती बनते हैं। बिजली से जुड़ने पर बल्ब, पंखे, हीटर, कूलर आदि उपकरण अपनी क्षमता प्रकट करते है। हिमालय से जुड़ी रहना ही गंगा की धारा सूखती नहीं। मिलने वाली नाली सके तो ऊँचे और नीचे जलाशयों की सतह समान होती देखी गई है। दूध से मिल जाने पर लोहखण्डों में भी चुम्बकत्व उत्पन्न होता है। पति−पत्नि की एकता से एक संयुक्त, विनिर्मित होता हैं। बड़ों के कन्धे पर बैठने से बच्चे का सिर बड़े से भी ऊंचा उठ जाता है। भगवान की समीपता उपासना यदि सही रीति से की जा सके तो उसके परिणाम भी ऐसे ही होते हैं जैसे कि उपरोक्त उदाहरणों से छोटों की बड़ों के साथ एकता होने पर विनिर्मित होते हैं। आत्मा अपूर्ण है। उसकी पूर्णता से वह समीपता अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है जिसे अध्यात्म भाषा में ‘उपासना’ कहा जाता है। महामानवों के संपर्क सान्निध्य अनुग्रह से अनेकों सामान्य व्यक्ति महान बने हैं। फिर परमात्मा सत्ता के साथ एकात्मता स्थापित करने वाले क्यों ऐसे लाभों से लाभान्वित न होंगे जैसे कि भक्तजनों में पाई जाने वाली विशेषताओं और विभूतियों के रूप में कहे, समझे और जाने जाते हैं।

आत्म शक्ति ही अगले युग की सर्वोपरि शक्ति होगी। इसके उपार्जन में जिस प्रयोग विनियोग की आवश्यकता पड़ेगी। उसे सामान्यतया उपासना कहते हैं। इन्हीं दिनों उसे युगावतार के अनुरूप प्रज्ञा आराधना कह सकते हैं। इसका अभ्यास इन दिनों करना ही होगा। मात्र सामर्थ्यों से ही इन दिनों की समस्याओं का समाधान नहीं होगा। इन आवश्यकता की पूर्ति का छोटा श्री गणेश प्रज्ञा परिजनों के लिए निर्धारित प्रथम सूत्र में होता है।

उपासना इसलिए फलवती नहीं होती कि उसके साथ श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा का त्रिविधि समन्वय नहीं होता। अन्न, जल, वायु शरीर के ऊर्जा प्रदान करते और जीवित रखते हैं। आत्मा को परमात्मा के साथ आदान−प्रदान स्तर की घनिष्ठता स्थापित करने के लिए श्रद्धा,प्रज्ञा और निष्ठा चाहिए। कर्मकाण्ड तो उसकी प्रयोग प्रक्रिया का वाहन वारण हैं। मात्र कृत्यों से तो शरीरगत हलचल का ही प्रमाण मिलता हैं। यह आवश्यक तो है पर पर्याप्त नहीं। उपासनात्मक कर्मकाण्डों में अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने की क्षमता जब आती है जब उसमें भाव संस्थान का श्रद्धा, विचार संस्थान की प्रज्ञा और शरीर संस्थान की व्यवहार गत निष्ठा का भी त्रिविधि समन्वय हो। यह त्रिवेणी संगम जहाँ भी बनेगा उपासना अपना चमत्कार दिखाये बिना न रहेगी।

प्रज्ञा परिजनों को उपासना की युग प्रक्रिया सीखनी, अपनानी और कार्यान्वित करनी होगी। इस आधार पर वे अनुभव करेंगे कि उन्हें कोई बड़ा आश्रय अवलम्बन मिला है। अकेले नहीं रह रहे हैं किसी सर्वसमर्थ सत्ता की छत्र छाया में उनका चेतनात्मक अभ्युत्थान हो रहा है। स्मरण रहे यह आन्तरिक बलिष्ठता भौतिक समर्थताओं की तुलना में कहीं अधिक उच्चस्तर की और समस्त सम्पदाओं की तुलना में अधिक दूरगामी अधिक चिरस्थायी, सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली है।

(2) आत्मिक प्रगति का दूसरा चरण है जीवन साधना। समझना होगा कि मनुष्य जीवन ईश्वर का सर्वोपरि उपहार और आत्मा को पूर्णता के परम लक्ष्य तक पहुँचा सकने वाला सुयोग सौभाग्य है। उसके साथ उज्ज्वल भविष्य की समस्त सम्भावना बीज रूप से समाविष्ट है। जो उपलब्ध है उसके स्वरूप, महत्व,उद्देश्य और सदुपयोग को समझना मनुष्य का अपना अनुत्तरदायित्व है। इसी विधि व्यवस्था को जानने न अपनाने के बदले ही अनेकों अभिशाप सहने पड़ते हैं, गया−गुजरा जीवन जीना पड़ता है। अभाव दरिद्र का पिछड़ापन और खिन्नता−विपन्नता का असन्तोष सिर पर लदा रहे इस लज्जास्पद स्थिति में पड़े रहने का एकमात्र कारण असंयम है। बहुमूल्य उपलब्धियों को भी यदि अस्त व्यस्त किया जाय, दुरुपयोग में गँवाया जाय तो वह वैभव लाभ के स्थान पर हानि ही उत्पन्न का करेगा। जीवन अकेला ही नहीं मिला है। उसके साथ चार शक्ति भण्डार भी अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए साथ आये हैं। प्रश्न इतना ही है कि कौन उनका उपयोग किस रूप में करता है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बनते देखा गया है। जीवन सम्पदा को अनगढ़ अस्त व्यस्त रहने दिया जाय और गुण,कर्म, स्वभाव की निकृष्टता के गर्त में उसे धकेला जाय तो उस दुर्गति का परिणाम दुर्गति ही होगा। अन्तःक्षेत्र में कुसंस्कारिता पनपे और निकृष्टता को भ्रष्टता−दुष्टता के कुकृत्य करते रहने की छूट मिले तो समझना चाहिए कि सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदलने की रीति−नीति अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने की तरह अपनाई जा रही है।

जीवन के साथ चार विभूतियाँ जुड़ी हुई हैं।(1) समय (2)साधन (3) चिन्तन(4) पराक्रम। इन चारों को अपव्यय से रोककर सदुद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित करने का नाम ही साधना है। जो इसे कर सके वे धन्य हो गये। जिसने इस उत्तरदायित्व की अवहेलना की वे सौभाग्य में बदलने वाली अवाँछनीयता अपनाकर शोक−सन्तापों को सहते असन्तोष तिरस्कार की भट्टी में झुलसते, अपनी और साथियों की दुर्गति कराते, रोते−कलपते, हाथ−मलते इस दुनिया से चले गये। बुद्धिमत्ता का एक ही प्रधान चिन्ह है कि जो हस्तगत है उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे किया गया? जो इतना कर लेते हैं उन्हें प्रामाणिक ठहराया जाता है और हाथों हाथों पदोन्नति का लाभ मिलता है।

जीवन साधना को व्यावहारिक जीवन की तपश्चर्या कहा गया है। तप को चमत्कारी शक्ति की फलश्रुति धर्मशास्त्री और आप्त वचनों में विस्तारपूर्वक समझाई गई है। दृष्टि पसार की−प्रगतिशील महामानवों की− रीति−नीति का पर्यवेक्षण करके यह जाना जा सकता हैं कि उन्हें अभ्युदय−लाभ का सुअवसर आसमान से टूटकर नहीं मिला है। इसके लिए उन्होंने अनगढ़ को सुगढ़, अस्त−व्यस्त को सुव्यवस्थित। पतन को उत्थान में परिणति करने का प्रचण्ड पराक्रम किया है। तप यही है। संचित कुसंस्कार और अनगढ़ जन समुदाय का परामर्श प्रचलन सदा पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को भड़काते हैं। उनका प्रतिरोध करते हुए,दूरदर्शी विवेकशीलता के सहारे और अपने चिन्तन और चरित्र को आदर्शवादिता के ढाँचे में ढाल लेना यही है जीवन साधना का उपक्रम। इसमें अपनी अनगढ़ आदतों से जूझना पड़ता है। पतनोन्मुख चिन्तन प्रवाह को उलटना पड़ता है। लोक प्रचलन की अपेक्षा करने आत्मावलंबन के सहारे नये सिरे से नई रीति−नीति अपनाने और उसे हठपूर्वक अभ्यास में उतारने वाले संकल्प साहस को प्रखर करना पड़ता है, जो इतना कर सके उन्हें सुनिश्चित रूप से सर्वतोमुखी प्रगति का अवसर मिला है। आत्म सन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह की त्रिविधि सिद्धियाँ उन्हें सुनिश्चित रूप से उपलब्ध हुई हैं।

जीवन साधना का तात्पर्य उपलब्धियों के दुरुपयोग को रोककर सदुपयोग में लगाने के महाभारत में विजय प्राप्त करना है। अर्जुन को इसी में प्रवृत्त किया गया था हनुमान को यही सौंपा गया था। लंका में दुरुपयोग होने वाले वैभव जब रामराज्य में नियोजित हुआ तो सारी परिस्थितियाँ ही उलट गई। दुस्साहस को उलट कर जब परिस्थितियाँ ही उलट गई। दुस्साहस को उलट कर जब परिक्षित ने महान भरत का लक्ष्य पूरा किया जो काया −कल्प जैसा परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ। हर जीवन में इसी चुनौती को स्वीकार करने न करने की परीक्षा जुड़ी रहती है। हारने वाले मुँह लटकाये और जीतने वाले गर्वोन्नत मस्तक किये, सीना ताने,घूमते है और हर ओर से सम्मान सहयोग पाते हैं।

समय, साधन, चिन्तन और पराक्रम की चार सम्पदाएँ हर किसी को जन्म के साथ ही उपलब्ध हुई हैं। यह विभूतियां ही कामधेनु गौ है। इनका दूध जो छेद वोल बर्तन में दुहते और उसे जमीन पर गिराते,कपड़ों पर टपकाते हैं और खाली हाथ रहने का रोना रोते हैं उन अभागों को यही समझना पड़ेगा कि इसमें परिस्थितियों की प्रतिकूलता नहीं अपनी कुमार्ग गामिता, मति भ्रष्टता ही निमित्त कारण है। इसे उलटेपन को उलट कर सीधा किया जा सके तो दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलते देर न लगे।

प्रज्ञा परिजनों को अपनी गतिविधियों में जीवन साधना के उपक्रम का समावेश करना होगा। चिन्तन और व्यवहार में घुसी हुई अवाँछनीयता का निरीक्षण उठाना होगा। दूसरा पूरक का दम यह है कि जो नहीं है उसे किस प्रकार उपार्जित उपलब्ध किया जाय। यही है परिशोधन और परिष्कार की उभयपक्षीय प्रक्रिया जिसे अपनाकर लैफ्ट राइट करते हुए सर्वतो मुखी प्रगति एवं सुख−शांति के लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। अध्यात्म नगद धर्म है। इसका प्रतिफल पाने के लिए मरणोत्तर जीवन की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती,वह उस हाथ दे इस हाथ ले की उक्ति के अनुरूप क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। जीवन साधना कल्पवृक्ष की आराधना है। इसे किसी न किसी रूप में प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को इन्हीं दिनों आरम्भ करना चाहिए और उसके प्रतिफल का सौभाग्य सूर्योदय जैसा आनन्द लेना चाहिए।

(3) उपासना को अध्यात्म कहते हैं और जीवन साधना को धर्म−धारणा। उपासना से आस्था उच्चस्तरीय बनती है और साधना से व्यवहार में शालीनता उभरती है यह दोनों तत्वतः आस्थाएँ हैं। जिन्हें भाव संस्थान और मनःसंस्थान में प्रतिष्ठित करने के उपरान्त गाड़ी आगे चलती हैं। इस स्थिति पर पहुँचने से ही आदर्शवादिता अपना चमत्कार दिखाती है।

प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि निर्धारण को परिपक्व करने वाला अभ्यास कहाँ किया जाय? इसका एक ही उत्तर है−परिवार की पाठशाला प्रयोगशाला में। अंग अवयवों की तरह हर व्यक्ति के साथ परिवार जुड़ा होता है। परिवार जुड़ा होता है। विवाहित, बाल−वृद्ध,नर नारी सभी परिवार में रहते हैं। भले ही वह वंश परम्परा से विनिर्मित हों अथवा जिनके साथ निर्वाह चलता है उनके आधार पर इस समुदाय के साथ व्यवहार करने में अपने गुण, कर्म,स्वभाव में सुसंस्कारिता समावेश करने का तालाब में − कसरत का अखाड़े में, अन्वेषण का प्रयोगशाला में,अध्ययन का पाठशाला में और कृषि कौशल का खलिहान में अभ्यास किया जाता है। ठीक इसी प्रकार सत्प्रवृत्ति को अपने स्वभाव का अंग बनाने और उस दिव्य अनुदान से सहचरों को कृत कृत्य करने का अभ्यास परिवार परिकर में सरलतापूर्वक बन पड़ता है।

कुटुम्बियों को सभी प्यार करते हैं। उन्हें प्रसन्न और सुखी देखना चाहते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि इसके लिए सुविधा बढ़ाने भर से काम नहीं चलता। इसमें अति बरसने पर तो दुष्प्रवृत्तियाँ पनपने और व्यक्ति याँ पनपने और व्यहक्ति त्व में बना देने जैसी विडंबना उठ खड़ी होती है। सच्ची सम्पन्नता सुसंस्कारिता है। उसे परिजनों के स्वभाव में उतारा जा सके तो समझना चाहिए कि कुबेर जितना वैभव कुटुम्बियों को प्रदान करने का सुयोग बन पड़ा। दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वाले के अपने हाथ भी रच जाते हैं। कुटुम्बियों को सुसंस्कारी बनने के प्रयास में मात्र उपदेश काम नहीं करते। अपने को उदाहरण बना कर ही किसी को चरित्र निष्ठा सिखाई जा सकती है। परिवार निर्माण के सम्बन्ध में भी यही बात है। गृह संचालक अपने में सत्प्रवृत्तियों का समावेश करने पर ही कुटुम्बियों पर यह प्रभाव दबाव डालते हैं कि उन्हें सज्जनोचित शालीनता से अभ्यस्त कुटुम्बियों को अवाँछनीय दुलार देकर बिगाड़ना हो तो बात दूसरी है अन्यथा एक आँख प्यार की, दूसरी सुधार की,रखकर ही योजनाबद्ध रीति से घर के लोगों को गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में प्रयत्नरत रहना होगा। परिवार एक छोटा राष्ट्र है उसे बना लेना एक छोटे रूप में राष्ट्र निर्माण का ही पुण्य परमार्थ है। इसके लिए जितना सम्भव हो उतना प्रयास प्रज्ञा परिजनों को इन्हीं दिनों में आरम्भ करना होगा।इस प्रयास से आत्म निर्माण परिवार निर्माण और समाज निर्माण के तीनों ही उद्देश्य एक महत्वपूर्ण अंश में पूरे होते हैं।

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