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Magazine - Year 1982 - Version 2

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आलोक वितरण का पुण्य परमार्थ आज का युगधर्म

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सामाजिक सहयोग से ही मानवी प्रगति सम्भव हुई है। एकाकी श्रम प्रयासों से तो वह अन्न, वस्त्र, निवास शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका जैसी दैनिक जीवन की आवश्यकता तक पूरी नहीं कर सकता। निर्वाह से लेकर उल्लास तक की सभी आवश्यकताएँ जिसे सामूहिक सहयोग से उपलब्ध होती हैं, उसमें मनुष्य का यह भी कर्त्तव्य उत्तरदायित्व है कि समाज को सुखी बनाने वाले परमार्थ प्रयोजनों को भी जीवन क्रम में सम्मिलित रखें। परमार्थ की बात सोचें। लोक−कल्याण में रुचि ले और उपकारों का ऋण चुकाये। जब अपने को असंख्यों का सहयोग मिला है तो कृतज्ञता की अभिव्यक्ति भी आवश्यक है। इसके लिए दाँत निपोर देने या शब्द जंजाल बुन देने से काम नहीं चलेगा। सक्रिय प्रयासों की आवश्यकता पड़ेगी। इन्हीं प्रयासों को लोक मंगल की साधना कहते हैं।धर्मशास्त्रों में इसी को पुण्य परमार्थ कहा गया है और स्वर्ग मुक्ति का—जीवन लक्ष्य की पूर्ति का−आधार−भूत कारण माना गया है। पूजा−पाठ—स्वाध्याय−सत्संग आदि कर प्रखर बनाने की भूमिका निभानी है।

परमार्थों में मूर्धन्य है, चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करने में प्रयत्नरत रहना। मनुष्य की संरचना ऐसी नहीं है कि उसे दुःखी दरिद्र रहना पड़े। यह तो मात्र दृष्टिकोण की विकृति मात्र है जो रुझान, चिन्तन और व्यवहार में विकृतियाँ भरते−भरते संकटों के पहाड़ सामने ला खड़े करती हैं। मनःस्थिति सुधरे तो परिस्थिति सुधारने में तनिक भी देर न लगे। विचारणा यदि कुपथ गामिनी हो तो सोने की लंका जैसा वैभव, दस शिरे जितना ज्ञान, और कुम्भकर्ण जैसा बलिष्ठ रहते हुए भी वह समूचा परिकर कुकर्म करेगा और बेमौत मरेगा। तथ्यों को देखते हुए आधारभूत परमार्थ एक ही ठहरता है—सद्ज्ञान सम्वर्धन। लोक−मानस का परिष्कार यदि बन पड़े तो सीमित साधनों से ही स्वर्गीय सुख−शान्ति का रसास्वादन करते जिया जा सकता है। विग्रहों, अपराधों से संत्रस्त जन समुदाय को अभयदान देने के लिए न शस्त्र कारगर होते हैं और दमन समाधान के दायरे में भटकते रहने से अत्यंतिक हल निकलता है। इस संदर्भ में अपनाया जाने वाला एक ही उपाय है कि चिन्तन की निकृष्टता उलट देने वाले प्रयासों को अपनाया जाय। अन्धकार से लड़कर नहीं जीता जा सकता। प्रकाश का प्रज्ज्वलन और वितरण ही वह आधार है जिसमें तमिस्राजन्य भटकाव, एवं आतंक को परास्त कर सकना सम्भव हो सकता है। तथ्य तो सनातन है, पर आज तो उसे प्रस्तुत विभीषिकाओं का सामाजिक समाधान भी माना जा सकता है। आत्मघात पर उतारू जन समुदाय को विनाश के गर्त से बचाने का एक ही उपाय है कि हर किसी को नये सिरे से सोचने के लिए वातावरण एवं आधार दिया जाय। उलटे को उलटकर सीधा करना ही विचार क्रान्ति है। इसी प्रयास में इन दिनों प्रज्ञा अभियान अपनी समूची शक्ति लगाकर नव सृजन की प्रक्रिया अग्रगामी बनाने में प्राण−पण से संलग्न है। विश्वास किया जाना चाहिए कि दुर्गति के रहते दुर्गति से पिण्ड छूटेगा नहीं। विश्वास किया जाना चाहिए कि सद्भाव संवर्धन में यदि सफलता मिले—व्यवहार में सत्प्रवृत्तियों का समावेश हो सके तो वातावरण में काया−कल्प जैसा अन्तर दिखाई देगा। सम्पन्नता,सुरक्षा,शान्ति और प्रगति के लिए बहुत कुछ कुछ करने की आवश्यकता है किन्तु यह स्मरण रखा जाने योग्य है कि उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना लोक चिन्तन हो सकेगा। घिनौना चिन्तन, कमीना आचरण यदि यथा स्थान बना रहा तो फिर समझना चाहिए कि प्रगति और शान्ति की कल्पना, बिना पंख की उड़ान ही बनी रहेगी।

निदान के उपरान्त ही उपचार बन पड़ता है।

प्रस्तुत समस्याओं, विग्रहों, संकटों और विभीषिकाओं का एक ही कारण है—जन−मानस में निष्कृष्टता की भरमार। लोक व्यवहार में अवाँछनीयताओं के बढ़ते जाने से उसकी प्रतिक्रिया चित्र−विचित्र प्रकार की कठिनाइयाँ आगे खड़ी करती रहती हैं। जड़ न काटने पर विष वृक्ष के पत्ते तोड़ते, कोपल पोछते रहने से कुछ बनने वाला है नहीं। तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना अपना और सब का भला है। आज का सर्वोपरि परमार्थ है—आलोक वितरण। आलोक वितरण अर्थात् वह प्रयास जिसे प्रज्ञा अभियान के मंच से विचार क्रान्ति आन्दोलन—सत्प्रवृत्ति संवर्धन−लोक−मानस का परिशोधन आदि नामों से प्रतिपादित एवं प्रस्तुत किया जाता है।

प्रज्ञा परिजनों को इस पुण्य परमार्थ में—युग धर्म में किसी न किसी रूप में भागीदार बनना ही चाहिए। हाथ बढ़ाना ही चाहिए। कृतज्ञता, ऋण मुक्ति, प्रत्युपकार जीवन लक्ष्य, ईश्वर की अपेक्षा, समय की पुकार जैसे अनेक कारण मिलकर इन दिनों प्रत्येक जागृत आत्माएँ कुछ विशेष आशा अपेक्षा रखते हैं। वह है आलोक वितरण में योगदान। विनाश को विकास में परिवर्तित कर सकने में समर्थ युगान्तरीय चेतना का इन दिनों जो दौर चल रहा है उसमें प्रत्येक दूरदर्शी विवेकवान को किसी न किसी रूप में महाकाल में हाथ बँटाना ही चाहिए। जो समय को पहचानेंगे वे इस संयोग सौभाग्य को हाथ से जाने नहीं देंगे। हनुमान, अंगद जैसा न सही−शबरी, गिलहरी जितना योगदान तो तथाकथित व्यस्तों, चिन्ता ग्रस्तों के लिए भी सम्भव हो सकता है। इच्छा जगेगी तो मार्ग मिलेगा ही। उपेक्षा रहने पर अवसर न मिलने की विवशता ही व्यक्त का जाती रहेगी। उस बहानेबाजी का अन्त तो प्रलय के दिन से पूर्ण हो सकने की आशा करना व्यर्थ है। आकाँक्षा उभरे तो चट्टानों को तोड़कर मरते−कूटते और दुर्गम रास्तों को चीरते हुए आगे बढ़ते हैं।

समर्थ सूर्य, चन्द्र संसार का अन्धकार हरते हैं, पर नगण्य-सा दीपक भी अपने छोटे क्षेत्र में प्रकाश वितरण करता हुआ धन्य बनता है। बड़ों जैसी समर्थता न हो तो भी हर छोटे समझे जाने वाले की अपनी कुछ न कुछ विशेषता रहती है। उसका उपयोग प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को किसी न किसी रूप में करना है चाहिए। इस संदर्भ में युग निर्माण परिवार की उस प्रथम एवं प्रमुख शर्त की ओर ध्यान दिलाया जा रहा है जिसमें न्यूनतम एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य आलोक वितरण के लिए लगाते रहने का अनुबन्ध है। उसे अनिवार्य माना जाना चाहिए और किसी को भी—किसी भी बहाने उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। निर्वाह, परिवार, विनोद विश्राम को सार्थक और आलस्य प्रमाद में निरर्थक गतिविधियों में प्रायः सारा समय चला जाता है उसमें से एक घण्टा युग निर्वाह के लिए—जागरूकों के कन्धों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए हमें एक घण्टा समय की कटौती इस जंजाल में से करनी ही चाहिए जिसे व्यस्तता कहा जाता है। इसी प्रकार दस पैसा नित्य की राशि भी हमें उपरोक्त पुण्य प्रयोजन के लिए निकालनी ही चाहिए। यह इन दिनों एक चम्मच चाय की—एक ग्रास रोटी की कीमत है। इतना न बन पड़ना, आर्थिक कठिनाई का कारण नहीं उसमें उपेक्षा ही प्रधान है। अन्यथा इतनी कटौती तो अपने भोजन के कुछ ग्रास घटाकर चाय के दो घूँट कम करके भी की जा सकती है। प्रज्ञा परिवार के परिजन अपने को कहने वालों की संख्या लाखों करोड़ों हैं पर उनमें से अनुबंध पालन करने वाले व्रतशील कितने हैं यह जानना होगा कि सदस्यता की न्यूनतम शर्त निष्ठा पूर्वक नियमित रूप से पूरी होती है या नहीं। जहाँ अब उसका अन्त होना चाहिए। उसके समापन का आज ही शुभ मुहूर्त समझा जाना चाहिए।

दस पैसा नित्य का प्रज्ञा साहित्य खरीदा जाता रहे और एक घण्टा समय का उपयोग उसे अपने परिवार पड़ौस परिचय वाले लोगों को पढ़ाने वापस लेने में किया जाता रहे तो प्रक्रिया सहज ही निभती रह सकती है। नये काम में अनख लगता है। मात्र इतनी भर कठिनाई है। इसे दूर किया जा सके, कुछ दिनों इसे क्रमबद्ध रूप से चलाया जा सके तो प्रतीत होगा कि कुटुम्बियों पड़ोसियों की कितनी बड़ी सेवा है। उनका आतिथ्य करने, उपहार देने के अन्य सभी शिष्टाचार उपचार इस प्रयास के आगे फीके पड़ जाते हैं। आरम्भ में तो देने वाले की तरह लेने वाले को भी अनख लगेगा ओर व्यर्थ का जंजाल प्रतीत होगा किन्तु कुछ ही दिनों में दोनों पक्षों को रस आने लगता है और प्रतीत होता है कि इस छोटे से प्रयास से लोक मानव के परिष्कार का युग धर्म कितनी सरलता और कितनी खूबसूरती के साथ सधता है। कितनी प्रसन्नता होती है और कितनों में ही कितना उपयोगी परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है।

मिशन की पत्रिकाएँ सभी परिजन मँगाते पढ़ते हैं। पुराने अंक सभी के पास होंगे। नये पुराने में कोई अन्तर नहीं पड़ता। मोटे कागज का नया कवर उन पर चिपका लेना चाहिए और झोला पुस्तकालय के रूप में घर पड़ौस−परिचय के लोगों को उन्हें आग्रह पूर्वक पढ़ाने वापिस लेने का सिलसिला आरम्भ कर देना चाहिए। दस पैसा नित्य ‘ज्ञानघट’ में जमा किये जाँय और महीना होते−होते तीन रुपये का युग साहित्य खरीदने और उस नवीन का संपर्क क्षेत्र में पढ़ाने का नया आधार अपनाते रहना चाहिए। यदि कार्य नियमित रूप से—महत्वपूर्ण समझकर किया जाता रहे तो उतने भर से इतने दूरगामी परिणाम हो सकते हैं जिन पर आत्म−सन्तोष, हर्ष, उल्लास एवं आत्म−गौरव अनुभव किया जा सके। सामयिक परमार्थ की दृष्टि से यह छोटा दीखने वाला कार्य दूरगामी सत्परिणाम प्रस्तुत किये बिना रह नहीं सकता।

अच्छा लगे, उत्साह उभरे, रस आये तो परिवार पड़ोस से आलोक वितरण का कार्यक्षेत्र आगे भी बढ़ाया जाय। संपर्क क्षेत्र में कितने ही लोग कार्यवश या संयोग−वश मिलते रहते हैं। उन्हें प्रज्ञा साहित्य देने लेने के लिए विशेष रूप से परिभ्रमण की योजना बनाई जा सकती है। अधिक साहित्य की जरूरत पड़े तो दस पैसे की राशि बढ़ाकर पच्चीस पैसा—एक रुपया या महीने में एक दिन की कमाई जितना अंशदान बढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार समयदान बढ़ सके तो उससे मिशन की पंचसूत्री योजना को गतिशील बनाने के लिए नियोजित किया जा सकता है। प्रश्न महत्व समझने, संकल्प करने और नियमित रूप से युग धर्म के निर्वाह में योगदान करने की उदारता विकसित करने भर का है। जिनके कदम इस दिशा में बढ़ेंगे तो प्रज्ञा परिजन से आगे बढ़कर प्रज्ञा पुत्र की कक्षा में सहज ही प्रवेश करने, और स्वार्थ परमार्थ का समन्वय करने वाली जीवन नीति का नये सिरे से निर्धारण करेंगे।

समयदान, अंशदान की माँग आलोक वितरण की सामयिक आवश्यकता को पूरा करने के निमित्त जागृत आत्माओं से की गई है। इस चुनौती को अस्वीकार नहीं ही किया जाय। जिससे जितना बन पड़े कर गुजरे। कुछ न बन पड़े तो अंशदान में समयदान की कीमत जोड़कर कुछ ऐसा अनुदान बना लिया जाय जिसके बदले युग शिल्पियों की निर्वाह समस्या का हल हो सके और वे अपने स्थान पर उन्हें कार्यरत देखा जा सके। इन्हीं दिनों नव सृजन की गतिविधियाँ तीव्र करने के लिए एक हजार समय दानियों की माँग प्रज्ञा–अभियान के अंतर्गत की गई हैं ऐसे जीवनदानी शान्ति−कुञ्ज हरिद्वार में एकत्रित हो रहे हैं। उनकी निर्वाह व्यवस्था में यह अंशदान, योगदान लगे तो भी वही काम हो सकता है जो स्वयं अधिक समय देने की परिस्थिति में किया जाय।

छोटा मकान बनाने में कितने साधन जुटाने पड़ते हैं−इसे भुक्त भोगी जानते हैं। जानने वालों को यह भी जानना चाहिए कि धरातल के सुविस्तृत क्षेत्र में फैले हुए 450 करोड़ मनुष्यों के विशाल समुदाय की मनःस्थिति और परिस्थिति बदलने के लिए कितने श्रम, मनोयोग और साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। इसे कौन जुटाये? दृश्य प्रवंचना में उलझी हुई स्थूल दृष्टि लोक मानस के परिष्कार की अदृश्य आवश्यकता को कैसे समझे? जो समझा ही नहीं गया उसके लिए योगदान कैसा? वर्तमान परिस्थितियों में आलोक वितरण का कार्य कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, उसकी पूर्ति के लिए जन−साधारण से नहीं मात्र जागृत आत्माओं से ही आशा अपेक्षा की जा सकती है। इसकी पूर्ति में प्रज्ञा परिजन अपनी उदार श्रद्धा सद्भावना प्रदीप्त करें और उसे सृजन प्रयोजन के सर्वप्रमुख आलोक वितरण में जितना सम्भव हो उतना योगदान करें। बात तभी बनेगी। समय की पुकार तभी पूरी होगी।

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