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Magazine - Year 1982 - Version 2

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प्रज्ञा परिजनों के पाँच दिवसीय प्रेरणा डडडड

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जानकारी और प्रेरणा का अन्तर समझा जाना चाहिए। यों दोनों ही भ्रान्तियों को मिटाती और तथ्यों के साथ जोड़ती हैं, पर दोनों की क्षमता और स्थिति भिन्न है। जानकारी की पहुँच मस्तिष्क तक है, वह समझने की भूल या कमी को सुधारती है। उसे कोई भी दे सकता है। वह कार्य अध्यापकों, परामर्शदाताओं या पुस्तकों की सहायता से भी प्रकार होती रहता है। किन्तु प्रेरणा की बात दूसरी है। वह उदाहरणों से प्रभावित होती और अन्तःकरण में अपनी हलचलें उत्पन्न करती है। प्रेरणाएँ महान घटनाओं से— किन्हीं विशिष्ट व्यक्ति यों से—अथवा प्रभावी वातावरण में उत्पन्न होती हैं। जानकारियाँ मस्तिष्क के कबाड़खाने में जमा रहती हैं और आवश्यकता पड़ने पर ही काम आती हैं। उनमें पराक्रम का अभाव रहता है। नित्य सैकड़ों हजारों बातें सुनने जानने में आती हैं, पर उन्हें अपनाने या तद्नुरूप चलने का उत्साह तनिक भी उत्पन्न नहीं होता किन्तु प्रेरणा उस स्तर की रहती और उमँगें उभरती हैं जो मस्तिष्क को शरीर को उस संदर्भ में कुछ करने के लिए विवश करती है। प्रेरणा में शक्ति है। जानकारी तो जानकारी भर ठहरी वह अधिक से अधिक समझदारी बढ़ा सकती है। कुछ कर गुजरना हो, विशेषतया ऊँचा उठने आये बढ़ने के सम्बन्ध में तो प्रेरणा की आवश्यकता पड़ेगी। नीचे गिराने के लिए तो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति अनादि काल से विद्यमान है। ऊँची उड़ान उड़नी है तो उसके लिए विशिष्ट सामर्थ्य चाहिए। प्रेरणा यही करती है।

जानकारी और प्रेरणा की तुलनात्मक विवेचना यहाँ इसलिए की जा रही है कि प्रज्ञा परिजनों का व्यक्तित्व उभारने एवं परिवार को सुसंस्कारी बनाने का जो छोटा सीमित, किन्तु महान एवं व्यापक प्रभाव उत्पन्न करने वाला काम सौंपा गया है उसको कार्यान्वित करना किस प्रकार सम्भव हो। पिछले पृष्ठों पर जिस सप्त सूत्री योजना का उज्ज्वल और अपनाने का आग्रह किया गया है उसकी उपयोगिता पर कदाचित ही कहीं कोई विवाद खड़ा हो। उसकी आवश्यकता सभी विज्ञजन अनुभव करेंगे। जिनमें दूरदर्शी विवेकशीलता की थोड़ी भी यात्रा विद्यमान है वे अनुभव करेंगे कि इतना सुधार परिष्कार करने में न व्यस्तता बाधक होती है और न विवशता। बताने के लिए किन्हीं परिस्थितियों को कारण बताया जा सकता है। वे नितान्त सरल और हर किसी के लिए— हर परिस्थिति में कार्यान्वित कर सकते हैं उनकी कल्पना कोई भी तथ्यान्वेषी भली प्रकार कर सकता है। इतनी सरल किन्तु इतनी सुखद संभावनाओं से भरी−पूरी प्रक्रिया को अपनाने के लिए सहमत होना या सहमत करना भी कठिन नहीं है। वस्तुतः यह निर्धारण है ही ऐसे कि उन्हें जानकारी में तनिक आगे बढ़ाकर व्यवहार में उतारने का प्रयास चल पड़े तो आज की तुलना में अगला रूप असाधारण रूप में परिवर्तित दृष्टिगोचर होगा। वातावरण में काया−कल्प जैसा परिवर्तन होगा और उज्ज्वल भविष्य का विश्वास सुनिश्चित रूप से परिपक्व होगा।

इतने पर भी यह अविश्वास बना ही हुआ है कि उस प्रतिपादन को मिशन के प्रति असीम स्नेह सौजन्य रखने पर भी—प्रस्तुत अनुरोध से सहमत होने पर भी—उसे व्यवहार में उठेंगे या नहीं। इस सन्देह का कारण एक ही है−प्रेरणादायक परिस्थितियों का अभाव। इसकी पूर्ति न होने पर एक से एक श्रेयस्कर प्रवचन परामर्श एक कान से सुनते दूसरे से निकालते रहते हैं। स्वाध्याय प्रेमी और सत्संगों में सम्मिलित रहने वाले भी जब व्यवहार में पूर्ववत् गये−गुजरे बने रहते हैं तो प्रतीत होता है कि जानकारियों की आवश्यकता तो है पर पर्याप्त नहीं। भोजन की उपयोगिता तो है, पर पाचन शक्ति के अभाव में उसकी उपलब्धि भारभूत ही बनी रहेगी। प्रज्ञा परिजन चिरकाल से अखण्ड−ज्योति के पाठक हैं। उन्हें ज्ञान विज्ञान के समुद्र मंथन से निकाला हुआ नवनीत घर बैठे मिलता रहता है। मधु संचय में किसे कितना श्रम करना पड़ा इसे समझने की उसे क्या आवश्यकता जिसे कटोरी भर शहद थाली में नित्य नियमित रूप से परोसा हुआ मिलता है। पत्रिका के पृष्ठों पर बाजारू सामग्री नहीं छपती। उसमें दूरदर्शी एवं सारगर्भित प्रतिपादन रहते हैं। फिर भी यह कहन कठिन है कि पाठकों में से कितने उन्हें हृदयंगम करते और व्यवहार में उतारते होंगे। कारण एक ही है कि शक्तिशाली प्रेरणा एवं प्राणवान वातावरण के अभाव में यह सम्भव नहीं होता कि अनभ्यस्त, अप्रचलित प्रतिदानों को सहज कर कार्यान्वित करना पड़े। भले ही वे परामर्श कितने ही सारगर्भित महत्वपूर्ण, उच्चस्तरीय ही क्यों न हों। ढूँढ़ने पर प्रेरणा की उपलब्धि का सुयोग न बैठना ही असमंजस अवरोध का एकमात्र आधारभूत कारण सामने आता है।

प्रज्ञा परिजनों को सुनना समझना ही नहीं, कुछ बनना ढलना भी है। इसलिए उन्हें प्रतिपादन परामर्श ही नहीं प्रेरणा और प्राणवान वातावरण भी चाहिए। पेट्रोल न हो तो अच्छी मोटर भी खड़ी रहती है। सोया न जाय तो अच्छा−खासा अंग भी चूजा उत्पन्न करने में विफल रहता है। जानकारी देने वाले परामर्श प्रतिपादन को यदि कार्य रूप में परिणत करने की यदि सचमुच ही आवश्यक प्रतीत होती है तो उसके लिए प्रेरणा उपलब्ध करने वाले उपाय भी अपनाने ही होंगे। इस संदर्भ में आज की स्कूली शिक्षा और प्राचीन काल की गुरुकुल प्रणाली के प्रतिफलों का अन्तर सामने है।

प्रज्ञा परिजनों के सम्मुख प्रज्ञा युग की सृजन शिल्पियों में अपनी भागीदारी सम्मिलित करने के लिए कहा जा रहा हैं और इसके लिए—सरलतम—न्यूनतम—इन पृष्ठों पर अंकित सप्त सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया जा रहा है। उसकी उपयोगिता गरिमा को समझने समझाने में कोई अड़चन दीखती नहीं। अवरोध एक ही प्रतीत होता है कि प्रेरणा के अभाव में अभ्यस्त ढर्रा कुछ नया परिवर्तन करने में बाधक बनकर खड़ा होगा और कुछ करने धरने का अवसर ही न आने देगा। इस व्यवधान को पार कैसे किया जाय? इसका उपाय एक ही सुझाया जा रहा है कि जहाँ प्रतिवेदन के प्रति सहमति सहानुभूति व्यक्त की जा रही हो वहाँ प्रेरणाप्रद वातावरण के सान्निध्य में जा पहुँचने की योजना भी बनाई जाय और उसे कार्यान्वित करने की हिम्मत दिखाई जाय।

शान्ति−कुञ्ज को प्रज्ञा तीर्थ के रूप में परिणति किया गया है। वहाँ युगान्तरीय चेतना को व्यापक बनाने के लिए बहुमुखी प्रयास चलते हैं। भागीरथी, तप और दधिचि के आत्मदान का सामयिक संस्करण यहाँ देखा जा सकता है। व्यास की लेखनी—सूत की वाणी और परशुराम की कुल्हाड़ी का समन्वित उपयोग यहाँ इन दिनों किस कौशल के साथ क्रियान्वित होता है इसे कोई भी सूक्ष्मदर्शी पैना नजर गढ़ाकर आसानी से देख, परख सकता है। उस विधि व्यवस्था में अति महत्वपूर्ण प्रक्रिया प्रशिक्षण सत्रों की है। नव सृजन की बेला में आत्मनिर्माण और लोक−निर्माण की दृष्टि से प्रत्येक जागृत आत्मा को कुछ न कुछ करना ही होगा। मूक दर्शक बनकर बैठे रहने वाले आत्म प्रताड़ना, लोक भर्त्सना सहेंगे। इतना घाटा कदाचित् ही कोई दूरदर्शी उठाये। इस ऐतिहासिक बेला में सबसे अधिक नाम सृजन क्षेत्र के अग्रगामी ही उठावेंगे। उन्हें क्या करना चाहिए। इसका स्वरूप समझाने और अभ्यास करने के लिए तीन स्तर के सत्रों की व्यवस्था शान्ति−कुञ्ज में इन दिनों नई तैयारी नई व्यवस्था के आधार पर आरम्भ हुई है। (1) केन्द्रीय सूत्र संचालन में सहभागी प्रज्ञा पुँज माने गये है−और उनके लिए एक−एक महीने के कल्प साधना सत्र चले हैं। इससे आत्मोत्कर्ष के लिए आवश्यक परिशोधन परिष्कार के लिए जो आवश्यक है उसका शिक्षण नहीं अभ्यास कराया जा रहा है। (2) प्रज्ञा पुत्रों के लिए एक−एक महीने के युग−शिल्पी सत्र है। अपने क्षेत्रों को युगान्तरीय चेतना से अनुप्राणित करने वाले समयदानी इनमें सम्मिलित होते रहेंगे। इस अवधि में उन्हें वक्त एवं चिकित्सक बनाने की अतिरिक्त योजना सम्मिलित की गई है। पंचसूत्री योजना तथा अन्य रचनात्मक, सुधारात्मक कार्यक्रमों की सामयिक डडडड व्यवस्था का अभ्यास तो इस पाठ्यक्रम में सम्मिलित है ही। यह दोनों ही प्रशिक्षण उन लोगों के लिए हैं जो निजी कामों से थोड़ा अवकाश पाये हैं। कार्य क्षेत्र में उतरें और जितना सम्भव हो युग देवता का हाथ बँटायें। इन सत्रों को सेमिनारों की वाचालता जैसी चिन्ह पूजा नहीं समझा जाना चाहिए। प्रेरणा का संचार करने के निमित्त ही यह व्यवस्था बनी है। इनमें शिक्षण कम और अनुदान अधिक है। इसके बिना अपनी नाव पर असंख्यों को पार करने का पराक्रम उभरेगा भी कैसे?

इसी संदर्भ में तीसरी सत्र प्रज्ञा परिजनों के लिए हैं। डडडड पाँच−पाँच दिन के हैं। नाम संगम−सत्र दिया गया है। [1] इस क्षेत्र का तीर्थ पर्यटन, [2]आत्म−निर्माण परिवार−निर्माण का भावभरा प्रशिक्षण, [3] अन्तराल को कुरेदने वाली—परिष्कार की उमंग भरने वाली—साधना तथा परिशोधन प्रायश्चित का उपक्रम भी इसी में सम्मिलित है। तीनों को मिला देने में यह पाँच दिवसीय सत्र संगम सत्र कहे जायेंगे। इस अंक में प्रस्तुत सप्तसूत्री योजना को कार्यान्वित करने की पृष्ठभूमि बनाने—प्रेरणा देने—तथा भिन्न परिस्थितियों में इस संदर्भ को भिन्न प्रकार से शुभारम्भ किये जाने का व्यक्तिगत परामर्श इसी थोड़ी अवधि में देने का प्रयास किया जायगा। व्यस्तता तो व्यस्तता ठहरी। प्रज्ञा परिजनों को आरम्भ से ही व्यस्त’ मानकर चला गया है। यह व्यस्तता वास्तविक है या व्यामोहजन्य इसकी विवेचना कौन करे? यहाँ तो इतना ही कहा जा रहा है कि जो लोक−निर्माण के लिए जन संपर्क साधने और आलोक वितरण करने का युग धर्म अपना नहीं सकते वे ‘व्यस्त’ धर्म के लोग हैं। उनकी व्यस्तता को देखते हुए शिक्षण सत्रों को भी व्यस्त स्तर का ही होना चाहिए। पाँच दिन में तीन कार्यक्रम और सात निर्धारण इस प्रकार कुल 12 तथ्य इसमें जुड़े होते हैं। एक दिन में प्रायः ढाई कार्यक्रम निपट जाने का औसत पड़ता है। विज्ञ जन इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए इतना समय कम कहेंगे। ऐसे लोगों को दो सत्रों में ठहरने की अनुमति भी मिल सकती है किन्तु साधारण नियम एक सत्र की ही स्वीकृति देने का है। इसमें एक कारण प्रज्ञा परिजनों की व्यस्तता और दूसरा कारण लाखों को इन्हीं दिनों इस सुयोग सुअवसर का लाभ देने के लिए हर किसी के हिस्से में थोड़ा−थोड़ा अनुदान आता भी है। दोनों को मिला देने पर पाँच दिन की व्यवस्था ही उपयुक्त समझी गई है।

इन पंक्ति यों में जहाँ प्रस्तुत सप्तसूत्री योजना को अपनाने के लिए अनुरोध किया जा रहा है वहाँ परिजनों से एक आग्रह और भी किया जा रहा है कि यदि वे इस प्रयास परिवर्तन की आवश्यकता सचमुच ही अनुभव करते हैं और उस क्रियान्वयन के सत्परिणामों का अनुमान लगाते हैं तो फिर उन्हें इतना और भी करना चाहिए कि किसी संगम−सत्र में सम्मिलित होने की योजना बनायें। उसके लिए स्थान सुरक्षित करायें। स्थान सुरक्षित कराने की प्रक्रिया पहले से चलती आ रही है और भविष्य में भी सदा सर्वदा चलती रहेगी। क्योंकि प्रज्ञा परिवार अब लाखों की संख्या पार करके करोड़ों की संख्या में व्यापक विस्तृत होता चला जा रहा है। उपरोक्त तीन सत्रों तथा अन्य आवश्यक परामर्शों के लिए अनेकानेक लोग आये दिन शान्ति−कुञ्ज आते रहते हैं। ठहरने का स्थान आवश्यकता को देखते हुए दसवां भाग भी नहीं है। इसलिए स्थान की तुलना में अत्यधिक भीड़ हो जाने, व्यवस्था बिगड़ जाने, हर किसी को असुविधा होने की स्थिति न आने देने की दृष्टि से यह नियम बना दिया गया है कि ठहरने के लिए कोई व्यक्ति बिना पूर्व स्वीकृति के बिना स्थान सुरक्षित कराये न आये। इस नियम में अब और भी कठोरता बरती जा रही है।

यह सत्र निरन्तर चलते रहेंगे। [1] 1 से 5 [2] 7 से 11 [3] 13 से 17 [4] 19 से 23 [5] 25 से 29 का क्रम हर महीने रहेगा। सत्र आरम्भ होने से एक दिन पूर्व सायंकाल तक पहुँच जाना चाहिए। समाप्त होने वाले दिन ही विदाई ले लेनी चाहिए। बहुत पूर्व आने या बाद में भी ठहरे रहने की बात किसी को भी नहीं सोचनी चाहिए। स्थान शिक्षार्थियों से निरन्तर भरा रहता है। उनका अधिकार छीनकर ही कोई अनावश्यक रूप से डेरा डाले रहना सम्भव हो सकता है। ऐसा कोई भी न करें। हर शिक्षार्थी का अलग आवेदन पत्र हो। बच्चों का आवेदन उनके अभिभावक भरें। बिना स्वीकृति वाले किसी पड़ौसी सम्बन्धी को साथ लेकर न चलें। आवेदन भेजते समय वाक् छल का उपयोग करके कोई स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयत्न न करें केवल उन्हीं को आना चाहिए जिनकी शारीरिक मानसिक क्षमता इस प्रकार के प्रशिक्षण के उपयुक्त है। धर्मशाला की, बारात की तरह पर्यटकों की अनपढ़ भीड़ जमा करने का तात्पर्य है आश्रम की—सत्र की मर्यादा को चौपट करके रख देना। आशा की गई है कि सभी परिजन इस मर्यादा का पालन करेंगे। हर आवेदन अलग होना चाहिए। इतनी संख्या में आ रहे हैं ऐसा लिखने पर किसी को भी स्वीकृति न मिलेगी। हर आवेदन में निम्न विवरण रहना चाहिए। [1] पूरा नाम पता [2]शिक्षा [3] आयु [4] जन्म−जाति [5] व्यवसाय [6] शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य की गड़बड़ी दूसरों को प्रभावित करे ऐसी स्थिति तो नहीं है [7] अनुशासन पालन का सुनिश्चित आश्वासन [8] जिस मास के सत्र में आना हो उसका उल्लेख [9] यदि इस सत्र का स्थान घिर गया हो तो उसके स्थान पर अन्य सत्र में सम्मिलित होने का विकल्प।

अखण्ड−ज्योति परिवार के प्रज्ञा परिजनों की संख्या लाखों है। उसमें से हजारों निश्चित रूप से इस सत्र योजना में सम्मिलित होने और अभीष्ट प्रेरणा प्राप्त करने के इच्छुक होंगे। पर सभी के लिए इतनी दूर आना, मार्ग व्यय तथा समय श्रम वहन करना सम्भवं न हो सकेगा। इसलिए यह योजना बनाई जा रही है कि वर्षा समाप्त होने पर अक्टूबर से पाँच−पाँच दिन के ‘प्रज्ञा आयोजन’ सभी क्षेत्रों में किये जायें। उनमें समीपवर्ती परिजन सम्मिलित हों। न केवल प्रज्ञा परिजन वरन् प्रज्ञा पुत्र एवं प्रज्ञा पुँज भी इनमें सम्मिलित होकर—सामयिक प्रेरणाएँ प्राप्त करें और उस क्षेत्र में नव जागरण के वातावरण गरम करें। रचनात्मक गतिविधियों को अग्रगामी बनायें। जो लोग हरिद्वार नहीं पहुँच सकते वे अपने समीप होने वाले इन आयोजनों में भी सम्मिलित होकर वह परामर्श उत्साह प्राप्त कर सकेंगे जो हरिद्वार आने पर उपलब्ध होगा। उनमें गुरुजी माताजी की उपस्थिति न हो सकने तथा वातावरण में उतनी प्रखरता न रहने पर भी उनसे उस आवश्यकता की बड़े परिमाण में पूर्ति हो सकेगी जो हरिद्वार आने पर ही सम्भव होता। इनसे शान्ति−कुञ्ज के वरिष्ठ प्रतिनिधि अभीष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पहुँचेंगे। ‘प्रज्ञा आयोजनों’ का स्वरूप सब स्तर का होगा। साथ ही स्थानीय जनता के लिए सार्वजनिक प्रवचनों की—वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की−शोध प्रक्रिया स्लाइड प्रोजेक्टरों के माध्यम से प्रबुद्ध लोगों को समझाने की विशेष प्रक्रिया भी सम्मिलित रहेंगी जहाँ इन आयोजनों की माँग हो, वे शाखाएँ अपनी माँग अभी से नोट करादें ताकि अक्टूबर से आरम्भ होने वाले देशव्यापी प्रज्ञा आयोजनों का स्थान अभी से निर्धारित कर सकना सम्भव हो सके।

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