
सार्थक एवं फलदायी शोध
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विद्यार्थी धन्वन्तरि की पीठ में विषैला व्रण हो गया। उपचार के लिए संजीवनी बूटी की आवश्यकता थी। उसे पहचानने और खोजने की आवश्यकता थी। उन दिनों तक प्रमाद वश चिकित्सक उसे पहचानना तक भूल गये थे।
आरोग्यश्राम के अधिष्ठाता ने कहा- “धन्वन्तरि तुम स्वयं ही जाओ और इस समूची आरण्यक को खोज डालो। उपचार का यही मार्ग है। व्रण और किसी औषधि से भरेगा नहीं।”
धन्वन्तरि चल पड़े। पूरा एक वर्ष लगा। आरण्य का कोई कोना उनने छोड़ा नहीं। प्रायः एक सशस्त्र बूटियों की खोज और परीक्षा उनने की। पर संजीवनी का कहीं पता न चला। फोड़ा बढ़ता ही जा रहा था। इतने दिन भटकते और कठोर श्रम करते वे निढाल भी होने लगे थे। सो हारे हुए सेनापति की तरह वापस लौट पड़े।
आचार्य ने छात्र की असफलता ताड़ ली। सिर पर हाथ फेरते हुए उदासी दूर करने और धैर्य रखने को कहा। वे स्वयं चलेंगे और औषधि खोज निकालेंगे। छात्र आश्वस्त होकर उस दिन गहरी नींद सोया।
दूसरे दिन प्रातः आचार्य ने छात्र को साथ लिया और एक निश्चित दिशा में चल पड़े। एक पल भी बीता न था कि औषधि मिल गई। उखाड़कर लाया गया। उपचार हुआ और कुछ ही दिन में घाव अच्छा हो गया।
अवसर पाकर छात्र ने गुरु के सम्मुख जिज्ञासा की ‘जब आपको औषधि का पता ही था तो मुझे एक वर्ष तक क्यों भटकाया गया?’
आचार्य गम्भीर हो गये। बोले- ‘यदि ऐसा न किया जाता तो तुम्हारी शोध प्रवृत्ति कैसे निखरती और एक सशस्त्र नई औषधियों का पता लगने से असंख्य पीड़ितों का हित साधन कैसे होता।”
धन्वन्तरि का समाधान हो गया। आयुर्वेद के ज्ञाता जानते हैं कि वनौषधियों के अनुसन्धान ने चिकित्सा जगत में कितनी बड़ी क्रान्ति की। इस अन्वेषण कर्त्ता को देवतुल्य मानते हुए अभी भी उनकी वार्षिक स्मृति कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को धन्वन्तरि जयन्ती के रूप में मनायी जाती है।
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उन दिनों के मूर्धन्य वैज्ञानिक नागार्जुन को अपने शोध कार्यों के लिए एक उपयुक्त सहायक की आवश्यकता पड़ी। घोषणा कराई गई और इच्छुकों के आवेदन आने आरम्भ हो गये।
नागार्जुन इस पद के लिए मेधावी और स्फूर्तिवान ही नहीं, ऐसा भी चाहते थे जो भावनाशील हो। भावना के अभाव में उच्चस्तरीय कार्यों की जिम्मेदारी उठती भी तो नहीं।
इच्छुकों को चित्र-विचित्र काम सौंपें जाते और यह पता चलाया जाता कि किस की क्या प्रवृत्ति है। कसौटी पर खरे न उतरने के कारण अनेकों को वापस लौटना पड़ा।
एक छात्र को किसी काम से बाहर भेजा गया। जितने समय में लौटता था उसकी तुलना में उसने अधिक समय लगा दिया। विलम्ब का कारण पूछने पर उसने बताया। एक जगह दुर्घटना घटित हुई। कितने ही घायल हो गये। उनकी सेवा सुश्रूषा में लग गया और तब चला जब उनके उपचार की उपयुक्त व्यवस्था हो गई। ऋषि प्रवर नागार्जुन ने इस छात्र में मेधा एवं स्फूर्ति के साथ भाव सम्वेदना की उपयुक्त मात्रा देखी और उसे उस पद पर नियुक्त कर दिया गया।
शोध मात्रा तार्किक गवेषणात्मक बुद्धि के सहारे नहीं, सरस अन्तःकरण का पुट मिलने पर ही सफल होती है।