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Magazine - Year 1984 - Version 2

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प्रस्तुत प्रचलन बदल कर रहेगा।

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हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डैनियल वैल ने उद्योगोत्तर समाज के विषय पर गम्भीर चिन्तन किया है। उनके लेखों और ग्रन्थों में सर्वसाधारण का ध्यान इस ओर खींचा गया है कि बदलते समय की ओर से आँखें बन्द न की जायँ। जो हो चुका उसका प्रभाव वर्तमान पर पड़ा है और वर्तमान की प्रक्रिया भविष्य को प्रभावित किये बिना रहेगी नहीं। इसलिए हमें वर्तमान की ही तरह भूत और भविष्य का भी पर्यवेक्षण करना चाहिए। डैनियल वैल की दृष्टि में अगले दिनों इतने बड़े परिवर्तन होंगे जिन्हें विगत एक हजार वर्ष की प्रगति की तुलना में कहीं अधिक आश्चर्यजनक ठहराया जा सकता है।

भौतिक विज्ञान की प्रगति का उत्साह और सिलसिला तो धीमी गति से पिछले हजार वर्ष से चलता आ रहा है पर उसमें योजनाबद्ध और सामूहिक विकास आरम्भ हुए तीन सौ वर्षों से अधिक नहीं हुए। विज्ञान ने बिजली, भाप, तेल जैसे माध्यमों से शक्ति उत्पन्न करने के तरीके खोजे। बड़े उत्पादन यन्त्र बने। उनके लिए यातायात, पानी, खपत आदि की दृष्टि से शहर सुविधाजनक प्रतीत हुए। वे बढ़े। देहात खाली हुए। पूँजी ने पूँजी को समेटा। धनियों को अधिक धन कमाने का अवसर मिला। यह कमाई निर्धनों का शोषण किए बिना और किस प्रकार होती। संक्षेप में यही है वह औद्योगिक क्रान्ति जिसने संसार का एक प्रकार का नक्शा ही बदल दिया। पाँच सौ वर्ष पूर्व का कोई व्यक्ति कहीं जीवित हो और वह तव की तथा अब की स्थिति की तुलना करने लगे तो आश्चर्यचकित हुए बिना न रहेगा। परिस्थितियों और प्रचलनों में जमीन-आसमान जैसा अन्तर दिखाई देगा। ऐसा लगेगा जैसे जादूगरों ने कोई तिलस्म खड़ा कर दिया हो। अकल्पनीय सुविधा-साधन जुट गये हैं। जलयान, वायुयान, रेल, मोटर, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन जैसे साधनों से सर्वसाधारण को लाभ उठाते देखा जाता है। पूँजीपतियों ने बड़े मिल कारखाने खड़े कर लिए हैं। सरकारों के पास प्रक्षेपास्त्रों और अणु आयुधों के भण्डार भर चले हैं।

पर्यवेक्षकों का मत है कि यह औद्योगिक क्रान्ति के नाम से जानी जाने वाली भूत विद्या की चरम परिणति है। उसके अभ्युदय के दिन लद गये। ढलान का बुढ़ापा लद चला है। मरण का दिन तेजी से समीप आ रहा है। जिन साधनों से यह तिलस्म बढ़ा था, अब उसके साधन चुकते जा रहे हैं। तेल, कोयला समाप्त होने जा रहा है। विद्युत उत्पादन के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है वे भी जवाब दे रहे हैं। लोहा जैसी धातुओं का भण्डार खाली कर लिया गया। बढ़ी हुई आबादी के लिए जमीन की उर्वरता एवं परिधि जवाब देती जा रही है। पीने का पानी कम पड़ रहा है। बढ़ते हुए प्रदूषण ने बीमार रहने और बेमौत मरने की स्थिति बना दी है। सुविधा की आड़ में खड़ी विभीषिकाओं का नग्न नर्तन अट्टहास अब प्रत्यक्ष होता जा रहा है।

अधिक वैभव उपार्जित करने के लिए समर्थ देशों ने उपनिवेशवाद की नीति अपनाई। मंडियाँ हथियाने के लिए समर्थों में परस्पर विग्रह खड़े हुए। पिछली दशाब्दियों में ही दो विश्वयुद्ध हो चुके हैं। छुटपुट क्षेत्रीय लड़ाइयाँ तो इस बीच सहस्रों की संख्या में हो चुकीं। इनके पीछे अन्य कारण गौण मंडियाँ हथियाने की ललक प्रमुख रूप से काम कर रही है। तीसरे महायुद्ध की तैयारियाँ हैं। कोई एक सिरफिरा बारूद में आग लगा कर इस धरती को धूल बनाकर उड़ा सकता है।

वैयक्तिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रस्तुत औद्योगिक क्रान्ति ने कम विष के बीज नहीं बोये हैं। नशेबाजी के दुर्व्यसन, यौन मर्यादाओं का समापन, अभक्ष्य भक्षण, अपराधों की भरमार जैसे प्रचलनों ने स्थिति विषम से विषमतर बना दी है। उद्योगपतियों और श्रमिकों के बीच चलने वाली ‘टसल’ विग्रह बनकर खड़ी हो गई है। लगता है उच्छृंखलता की अव्यवस्था की खुली छूट मिल चली है। सरकारें और लोकसेवी संस्थाएँ अपना विश्वास खोती रही हैं। इनकी नेकनीयती पर उँगलियाँ उठने लगी हैं। आतंक, अविश्वास, आशंका, असुरक्षा और अनिश्चितता की स्थिति में हर कोई उद्विग्न-सा दीखता है। शारीरिक और मानसिक रोगों की तूफानी बाढ़, लगता है मनुष्य की विशिष्टता को उदरस्थ करने जा रही है।

यह सब कैसे हुआ? क्यों हो रहा है। इसका कारण जानने पर एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि जिस औद्योगिक क्रान्ति को उसके आरम्भ काल में वरदान समझा जा रहा था वही अभिशाप सिद्ध हो रही है। पुनर्विचार के लिए परिस्थितियों ने लोक मानस को बाधित किया है। पर्यवेक्षण से अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि यह स्थिर देर तक नहीं चल सकेगी। उसका अन्त होकर रहेगा। मनुष्य की मूर्खता कितनी बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, उसकी समझदारी भी समाप्त नहीं हो सकती। छप्पर में आग लगा देने का आदेश देर तक नहीं ठहरता। बुझाने के लिए भी वहीं दौड़ता है। सर्वनाश से पहले समझदारी का उदय भी होता रहा है। अब भी उसकी पुनरावृत्ति होगी।

क्रान्तियों की प्रतिक्रान्तियाँ भी होती हैं। पेण्डुलम घण्टा आगे जाने के साथ-साथ पीछे भी लौटता है। नशे का सदा उभार ही नहीं रहता, समयानुसार उतार भी आता है। औद्योगिक क्रान्ति ने सब्जबाग दिखाकर जो विनाश विग्रह खड़े किये हैं उसे देखते हुए विश्वमनीषा के मन में उसके प्रति अश्रद्धा ही नहीं जगी वरन् विरोध भावना भी उभरी है। बदलने की, बदले जाने की परिस्थितियाँ बन रही हैं। इस दिशा में प्रकृति भी काम कर रही हैं और मानवी प्रवृत्ति का रुख पहचान कर बदलाव की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रही है।

उत्पादन के सामने संकट है कि कहाँ खपायें? उपभोक्ताओं के सामने संकट है कि खरीदने के साधन कहाँ से जुटायें ? दोनों के सामने अपने-अपने ढंग के अवरोध अड़ गये हैं। जुगुत्सुओं के लिए न लड़ना बन पड़ रहा है न पीछे हटना। मिलें, तेल-कोयले और खनिज की सम्पदा चुक जाने पर चलेंगी कैसे? पर्वतों जितना उत्पादन, निर्धन समुदाय द्वारा खरीदा कैसे जायेगा? सम्पन्नता के विरुद्ध निर्धनता ही नहीं ईर्ष्या-प्रतिद्वंद्विता भी खम ठोंक सामने आ गई है। इस मल्लयुद्ध का समापन दो ही प्रकार होगा। या तो योद्धा लड़ मरेंगे या बहादुरी समझदारी के साथ पीछे हटेंगे। दोनों ही परिस्थितियों में औद्योगिक क्रान्ति के चमत्कारों का अन्त सुनिश्चित है।

वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ-साथ सम्पन्न हुई औद्योगिक क्रान्ति ने जहाँ एक ओर सुविधा साधनों को बढ़ाया वहाँ उसने समर्थों को अधिक सम्पन्न बनाने के साथ-साथ असंख्यों को बेकारी, भुखमरी और बदकारी के गर्त में भी धकेल दिया। इसकी प्रतिक्रिया समाजवाद, के रूप में सामने आई। यह क्रान्ति की प्रतिक्रान्ति है। शोषक आपस में भी लड़ते-मरते रहे हैं। यह प्रतिक्रिया भी औद्योगिक प्रतिस्पर्धा और ठण्डे-गरम युद्धों के रूप में आये दिन फूटती रहती है।

युद्ध, विद्रोह, अपराध, बिखराव प्रकृति प्रवाह जैसे अनेक कारण सामने हैं जिनसे यह आभास मिल रहा है कि औद्योगिक क्रान्ति के रूप में जो सभ्यता और प्रगतिशीलता का ढिंढोरा पीटने वाला बबूला जोर-शोर के साथ उगा था वह अब चूल्हें की आग घटने पर बैठने वाले झाग की तरह तली में बैठने ही जा रहा है।

बुखार के उतरने, खुमारी के घटने के लक्षण स्पष्ट हैं। प्रश्न एक ही है कि भविष्य में क्या होगा। ‘उद्योगोत्तर समाज’ की स्थापना कैसी होगी। इस सन्दर्भ में डैनियल वैल जैसे मूर्धन्य समाजशास्त्रियों का मत है कि लोगों ने इन दो शताब्दियों में जो अनुभव एकत्रित किए हैं वे मूल्यवान हैं। उनके सहारे क्रिया और प्रतिक्रिया के जो परिणाम सामने आये हैं उसे भुलाया नहीं जायेगा। गलती तभी तक चलती है जब तक उसके दुष्परिणाम सामने नहीं आते। जलने के उपरान्त आग से खेलने का प्रमाद- प्रायः बन्द ही हो जाता है। मर्यादाओं का व्यक्तिक्रम करते रहने पर समाज क्रम चल नहीं सकेगा और बिना सुनियोजित समान के उच्छृंखलता पर उतारू मनुष्य जीवित न रह सकेगा। इस तथ्य को इन दो शताब्दियों में मनुष्य ने पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह समझ लिया है।

सर्वनाश से पूर्व ही मनुष्य संभल जाता है। इतिहास के पृष्ठों पर इसके अगणित प्रमाण विद्यमान है। इस बार भी ऐसा ही होना है। अणुयुद्ध, प्रदूषण, प्रजनन, विस्फोट, पूँजी का एकत्रीकरण, अपराधों का अभिवर्धन, प्रमाद और विलास का विस्तार जैसी अनेकों समस्याऐं औद्योगिक क्रान्ति की देन है। इसे इस रूप में नहीं चलना है जैसे अब तक चलती रही है। कटु अनुभव को बार-बार दुहराते नहीं रहा जा सकता।

अगले दिनों महान परिवर्तन की प्रक्रिया प्रचण्ड होगी। उसे दैवी निर्धारण, साँस्कृतिक पुनरुत्थान, विचार क्रान्ति आदि भी कहा जा सकता है, पर वह होगी वस्तुतः समाजक्रान्ति ही। समाज, जन समुदाय को एक सूत्र में बाँधे रहने वाली व्यवस्था को कहते हैं। यह व्यवस्था बदलेगी तो प्रचलन और स्वभावों में समान रूप से एक साथ परिवर्तन प्रस्तुत होंगे।

व्यक्ति सादगी सीखेगा। सरल बनेगा और सन्तोषी रहेगा। श्रमशीलता गौरवास्पद बनेगी। हिल−मिलकर रहने की सहकारिता और मिल बाँटकर खाने की उदारता बदले हुए स्वभाव की विशेषता होगी। महत्त्वाकाँक्षाएँ उद्विग्न न करेंगी। उद्धत प्रदर्शन का अहंकार तब बड़प्पन का नहीं पिछड़ेपन का चिन्ह समझा जायेगा। विलासी और संग्रही भी अपराधियों की पंक्ति में खड़े किये जायेंगे और उन्हें सराहा नहीं दबाया जाएगा। कुटिलता अपनाने की गुंजाइश जागृत एवं परिवर्तित समाज में रहेगी ही नहीं। छद्म आवरणों को उघाड़ने में ऐसा ही उत्साह उभरेगा जैसा कि इन दिनों विनोद मंचों के निमित्त पाया जाता है।

औद्योगोत्तर समाज की संरचना ग्राम्य जीवन प्रधान होगी। पूँजी की तरह शहरी आबादी को भी दूर-दूर तक बखेर दिया जायेगा। ग्राम और शहर के बीच कस्बों का प्रचलन होगा। बड़े कारखाने छोटे कुटीर उद्योगों में बदल जायेंगे। हर गाँव आत्मनिर्भर बनने के प्रयास में होगा और हर हाथ को काम मिलेगा। परिवार-वृद्धि के दुष्परिणामों को लोग सहज बुद्धि से समझेंगे और छोटे परिवार सहकारिता की नीति अपनाकर बृहत्तर परिवारों के रूप में रहने के अभ्यस्त होंगे। स्वतन्त्रता और संयुक्तता की मिली-जुली पद्धति सस्ती भी पड़ेगी और सरल सुखद भी रहेगी।

इन दिनों अधिक कमाने, अधिक उड़ाने और ठाट-बाट दिखाने की जिस दुष्प्रवृत्ति का बोलबाला है उसे भविष्य में अमान्य ही नहीं, हेय भी ठहरा दिया जायेगा। थोड़े में निर्वाह होने से कम समय में उपार्जन के साधन जुट जायेंगे। बचा हुआ समय तब आलस्य-प्रमाद में नहीं वरन् सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगा करेगा। सार्वजनिक सुव्यवस्था और मानवी गरिमा को बढ़ाने वाले तब ऐसे अनेकानेक कार्य सामने होंगे जिनमें व्यस्त रहते हुए व्यक्ति हर घड़ी प्रसन्नता, प्रगति और सुसम्पन्नता का अनुभव करता रहें।

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