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Magazine - Year 1984 - Version 2

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स्वार्थ सिद्धि बनाम परमार्थ परायणता

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माया और ब्रह्म के सुयोग से मिलकर बनी हुई, इस सृष्टि में दोनों का अपना-अपना अस्तित्व जड़ और चेतन के रूप में पृथक भी दृष्टिगोचर होता है। जड़ पदार्थ प्रकृति वर्ग में आते हैं और प्राणियों की चेतना में ब्रह्म की सत्ता दृष्टिगोचर होती है। इसी युग्म द्वारा गाड़ी के दो पहियों की तरह संसार की विभिन्न हलचलें गतिशील होती रहती हैं। मानवी सत्ता में भी दोनों का यह सघन संयोग प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। शरीर माया की प्रकृति की जड़ संरचना है। आत्मा को परमात्मा का अंशधर, प्रतिनिधि माना जाता है। यह दोनों ही अपने अपने स्थान पर महत्वपूर्ण और समर्थ हैं। दोनों की अपनी-अपनी सीमा भी और आवश्यकता भी। इन्हें साथ-साथ जुटाया जा सकता है। दो पैर क्रमबद्ध से उठते और लम्बी मंजिल पार करते हैं। दो हाथों का परस्पर सघन संयोग रखे रहते हैं। गाड़ी के दो पहिये साथ-साथ लुढ़कते हैं। स्त्री पुरुष मिलकर स्नेह सहयोग भरा गृहस्थ चलाते हैं। फिर कोई कारण नहीं कि शरीर और आत्मा की आवश्यकताऐं दूरदर्शी रीति-नीति अपना कर जुटाई न जा सके और प्रसन्नता एवं प्रगति का उभयपक्षीय लाभ उठाते हुए यह जीवन सुखमय न बिताया जा सके।

शरीर रक्षा के लिए अन्न, वस्त्र और आच्छादन की व्यवस्था करनी पड़ती है। प्रसन्नता और प्रगति के लिए इन्द्रियों की क्षमता एवं उत्तेजना का सहारा लिया जाता है। उतने भर से सामान्य प्रत्यक्ष जीवन का काम चल जाता है और निर्वाह चक्र बिना किसी कठिनाई के गतिशील रहता है। व्यतिक्रम अतिवाद अपनाने से आरम्भ होता है। पेट भूखा रहने पर भी परेशानी होती है किन्तु यदि उसमें अनावश्यक ठूँस-ठाँस का भार लदे तो फिर दूसरी तरह का संकट उत्पन्न होता है। इसलिए मध्यवर्ती मार्ग ही श्रेयस्कर माना गया है। जो इस या उस स्तर की अति बरतते हैं वे ही विपत्ति मोल लेते हैं। अनशन पर बैठने से भी मृत्यु हो सकती है, अत्यधिक खा मरने पर अमृत भी विष का काम करता है। अति बरतना ही विपत्तियों का प्रधान कारण है जो सन्तुलन बनाकर चलते हैं वे ही बुद्धिमान कहलाते और सफल जीवन जीते हैं। यदि किसी को अपना स्वार्थ ही प्रिय हो तो उसे शरीर और आत्मा के बीच सन्तुलन बना कर ही चला चाहिए। दोनों में से किसी को अति नहीं अपनाने देनी चाहिए। एक-दूसरे के स्वार्थों में टकराव नहीं होने देना चाहिए वरन् ऐसी रीति-नीति अपनाना चाहिए, जिससे दोनों का समान हित साधन होता रहे। न कोई उपेक्षित अभावग्रस्त रहे और न किसी को दूसरे का भाग भी हड़प जाने की छूट मिले। इसी को सह जीवन-सह अस्तित्व-समन्वय कहते हैं। इसे अपनाने पर वे सभी लाभ भरपूर मात्रा में मिलते हैं जिसे कोई स्वार्थ सिद्धि कहता है कोई आत्मकल्याण। वस्तुतः दोनों एक ही हैं, पर जब अतिवाद अपनाया जाता है तभी चिन्ता और विपत्ति आ खड़ी होती है।

शरीर निर्वाह के लिए मुट्ठी भर साधनों की आवश्यकता है। उसे समस्त जीवधारी कुछ ही समय के प्रयास से- रास्ता चलते पूरा करते रहते हैं। फिर बीस उँगलियों वाला और असाधारण बौद्धिक प्रतिभा वाला आदमी उसे कुछ ही घण्टों के प्रयास से जुटा न सके ऐसा हो ही नहीं सकता। निरन्तर की व्यस्तता अपनाये रहने पर भी जब अभावग्रस्तता की शिकायत करनी पड़े तो उनके दो ही कारण हो सकते हैं- एक पिछड़ेपन की अस्त-व्यस्तता, दूसरे अतिवादी ललक लिप्साएँ। वासना, तृष्णा, अहंता की तीन ललक लिप्साएँ जब मनुष्य पर चढ़ दौड़ती हैं तो फिर इच्छाओं, आवश्यकताओं का स्वरूप इतना बढ़ जाता है कि उस खाई को पाटना समूची प्रतिभा और क्षमता झोंक देने पर भी पाटना सम्भव नहीं होता। आवश्यकताएँ सीमित होने के कारण सरलतापूर्वक पूरी हो सकती है किन्तु लिप्साओं की कोई सीमा नहीं। एक के पूरा होते-होते दस नई एवं बड़ी और उठ खड़ी होती हैं। उन्हें पूरी करने का अवसर आने से पूर्व ही सौ नई और मोटी तगड़ी और सामने आ खड़ी होती हैं। आग में ईंधन डालते रहने पर वह और भी अधिक भड़कती है। समुद्र पाटना सरल है पर तृष्णा की पूर्ति हो सकना सम्भव नहीं। उस प्रयास में रावण और हिरण्यकश्यपु तक असफल रहे और अभाव की शिकायत करते-करते मर गये। सिकन्दर, नैपोलियन तक को अपनी उपलब्धियाँ कम लगती रहीं। फिर सामान्यजनों को इस भस्मक रोग के रहते तृप्ति तुष्टि की आशा नहीं करनी चाहिए।

आम आदमी इसी मनोरोग से ग्रसित पाया जाता है कि वह शरीर निर्वाह के लिए जितना आवश्यक है उतना जुटा लेने भर से सन्तुष्ट नहीं रहता। बड़ा आदमी बनने की लिप्सा अपनाकर इस प्रकार की बौखलाहट अपना लेता है। और-और-और-और की रट लगाते-लगाते ऐसी मनः स्थिति में जा पहुँचता है कि जितने साधन सामने हैं वे बहुत कम प्रतीत होते हैं। उनमें चौगुने-सौगुने पाने की आतुरता भूतोन्माद की तरह चढ़ी रहती है। इसी व्यथा को बोलचाल की भाषा में भौतिक महत्वाकाँक्षा और अध्यात्म चर्चा के ऐषणा या तृष्णा कहा जाता है। निर्वाह के लायक कमाने और सन्तोषपूर्वक दिन गुजारने के हजार रास्ते हैं। इसमें किसी अपंग अविकसित को ही कठिनाई हो सकती है। सामान्य जीवन इतने निर्वाह साधन सुविधापूर्वक उपार्जित कर सकता है जिनसे जीवन चर्या नितान्त सरलतापूर्वक पूरी होती रहे। इतना ही नहीं बहुत करके तो वह अनायास ही इतना होता है कि मिल बाँटकर खाने और बदलने में हँसती-हँसाती जिन्दगी खरीदने की बात सोचनी पड़े। पर उनके लिए क्या कहा जाय जिनके सिर पर अहंकार भरी अमीरी का नशा सात बोतल पी चुकने वाले की तरह चढ़ा है। जिसे अपनी ही रट है, दूसरे की सुनने तक की फुरसत नहीं।

अमीरी की, बड़ा आदमी कहलाने की ललक ऐसी है जिसे नीति नियमों के अन्तर्गत रहकर पूरा नहीं किया जा सकता। उचित साधनों से उचित व्यवसाय एवं उचित परिश्रम करके उचित लाभांश रखने पर किसी भी व्यवसाय में इतना लाभ नहीं मिल सकता जिससे कोई धन कुबेर बन सके। अपने देश में तो ऐसी परिस्थितियाँ है ही नहीं कि साथियों को भागीदारी देते रहने पर भी कोई धनाढ्य बन सके। फिर सहृदयता का तकाजा भी साथ-साथ चलता है, जो कहता है कि इर्द-गिर्द के पिछड़ेपन को घटाने के लिए हर समर्थ को उदारता बरतनी चाहिए। यह उदार सहृदयता जहाँ भी जीवित होगी वहाँ निर्वाह से अधिक की सम्पदा को हाथोंहाथ पीड़ा और पतन के निवारण में लगाना पड़ेगा। अन्तरात्मा की इस पुकार को अनसुनी करने वाले ही जमा करने, ठाट-बाट बनाने, फिजूलखर्ची अपनाने दुर्व्यसनों में लुटाने की बात सोच सकते हैं। कृपणता ही जो बने, उसे सन्तान के निमित्त छोड़ने का निर्णय करती है।

उदारमना सभी को अपना समझते हैं, और परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने भर की बात सोचते हैं। उन पर संग्रह को उड़ेल देने का अनर्थ नहीं करते। जो हाथ-पैर से कमा सकता है उसके लिए बाप दादों की दौलत भी हराम की कमाई मानी जायगी और यह सुनिश्चित तथ्य है कि जो भी हराम की कमाई खायेगा। बेमौत मरेगा। जिस प्रकार रोटी कमाने और हजम करने के लिए श्रम की आवश्यकता है उसी प्रकार जीवनचर्या में नैतिकता बनाये रहने के लिए भी यह आवश्यक है कि अपने निजी परिश्रम की कमाई पर गुजारा किया जाये। हराम की कमाई अपनाना और दूसरों के लिए छोड़ना दोनों ही रिश्वत देने और लेने की तरह अपराध है। जो स्वावलम्बी नहीं बन सके, उन आश्रितों को निर्वाह व्यवस्था जुटाने का औचित्य तो है पर जो मजे से कमाते हैं उनके सिर पर भी यदि अभिभावक सन्तान मोह में उत्तराधिकार को दौलत से लादते हैं तो इसमें तीन हानियाँ हैं। एक यह कि हराम की कमाई जब किसी को भी नहीं पचती और दुर्व्यसनों की विपत्ति लदती हो अपनी सन्तान ही उस संकट से कैसे बचेगी ? दूसरी बात यह कि जो धन जरूरत मन्दों के काम आ सकता था, वह उन्हें नहीं मिला। हक छिना। तीसरा यह कि उस कूड़े करकट को कमाने में बहुमूल्य जीवन निरर्थक चला गया। इन तीनों हानियों को देखते हुए बुद्धिमत्ता का तकाजा है कि अमीरी का सपना न देखा जाये। औसत देशवासियों के स्तर का निर्वाह क्रम अपनाया जाय और सादा जीवन उच्च विचार के मार्ग पर चलते हुए हर दृष्टि से कृतकृत्य बना जाये।

अमीरी की एक और सहेली है बड़ा कहलाने की अहंकारिता। इसकी पूर्ति के लिए ठाठ-बाट बनाना पड़ता है। दर्प या आतंक दिखाना पड़ता है। इसकी पूर्ति के लिए अपव्यय करना एक प्रकार से अनिवार्य हो जाता है फिजूलखर्ची ही बड़े आदमी होने की निशानी है। श्रृंगार, फैशन, जेवर से लेकर अनेकानेक ऐसे उपकरण जमा करने पड़ते हैं जो दूसरों के पास नहीं हैं। इसकी तुलना करते हुए पड़ौसी अपने को हीन अनुभव करेंगे और हमें बड़ा समझेंगे यह कल्पना की जाती है। कल्पना कहाँ तक सही है यह तो समझदारी की एक किरण फूटते ही पता चल जाता है। पर उन्माद की स्थिति में लगता यही है कि सम्पदा की बढ़ोतरी और अहमन्यता की अकड़ में ही सार्थकता है। ऊँचे पद पाने की ललक प्रायः इसी निमित्त रहती है अन्यथा सेवा कार्य तो छोटे पदों पर रहते और भी अधिक अच्छी तरह बन पड़ता है। अहंकार की पूर्ति का सीधा तरीका व्यक्ति में पवित्रता और प्रखरता का समावेश करने और समर्थता का उपयुक्त भाव सेवा साधना में लगाते रहने से भली प्रकार बन पड़ता है। किन्तु उन्माद के रहते यह सूझ, सूझे कैसे? उसकी तृप्ति तो साथियों को अपने से हीन सिद्ध करके ही होती है। इसी निमित्त बड़े आदमी ब्याह शादियों में दौलत लुटाते हैं, ताकि अन्य लोग अपने को दीन दयनीय समझें और उन लुटाने वालों के भाग्य को सराहें। दूसरों का व्यंग्य, उपहास, तिरस्कार करके भी कई लोग अपने अहंकार की पूर्ति करते देखे गये हैं। यह समूचा अहंकारी समुदाय एक प्रकार से मनोरोग पीड़ित ही कहा जा सकता है। उनकी मान्यतायें यथार्थता की कसौटी पर कसे जाने से शत-प्रतिशत असत्य निकलती है। न अमीरी बटोरने से किसी का स्वार्थ सिद्ध हुआ है और न बड़प्पन लूटने के लिए अनर्थ पूर्वक धन कमाने और उसे पानी की तरह बहाने से किसी को प्रशंसा या प्रतिष्ठा मिली है। चाटुकारों की बात दूसरी है वे तो किसी को भी उल्लू बनाने के लिए मक्खी को भैंस से बढ़कर बखान सकते हैं।

शरीरगत विलासिता, तृष्णा और अहन्ता के निमित्त आम आदमी अपनी समूची क्षमता एवं बुद्धिमत्ता खपा देता है। बहुमूल्य जीवन इसी कुचक्र के कोल्हू में पिल जाता है। बदले में क्या मिला? यह छाये हुए उन्माद की स्थिति में तो सूझता नहीं पर जब खुमारी उतरती है तो प्रतीत होता है कि भूल ही भूल होता रही। तृष्णाओं की पूर्ति सामान्य उपायों से हो सकना शक्य नहीं। ऐसी दशा में अनीति अपनाने, कुकर्म करने अपराधी दुष्प्रवृत्तियों में निरत रहने के अतिरिक्त और कोई चारा रहता ही नहीं। क्या मनुष्य जीवन इसीलिए मिला था? क्या इन्हीं विडम्बनाओं की पूर्ति में इस सुर दुर्लभ सुयोग की सार्थकता थी? यह सोचने पर आँखों के सामने अन्धेरा छाने लगता है। लोगों से जिस प्रशंसा प्रतिष्ठा की आशा रखी गई थी, वह भी कहाँ पूरी होती है। संकीर्ण स्वार्थपरता में निरत व्यक्ति के अनैतिक और उद्दण्ड आचरण हर किसी के ऊपर बुरी छाप छोड़ते हैं। जीभ से कोई कहे न कहे, पर भीतर ही भीतर इन अहन्ता के अतिवादियों के ऊपर सर्वसाधारण की घृणा ही उफनती है। कई बार तो ईर्ष्यालु लोग उन्हें नीचा दिखाने के लिए अकारण ही आक्रमण कर बैठते हैं। शरीरगत वितृष्णा अपनाने वाले अमीरी और बड़प्पन का सपना देखने वाले, लाभ कमाने के स्थान पर इतना घाटा उठाते हैं जिनकी पूर्ति समय निकलने पर और किसी प्रकार हो ही नहीं सकती।

परिवार बढ़ाते चलना- सदस्यों को राजकुमारों जैसी सुविधाओं का आदी बनाते रहना एक ऐसा व्यामोह है जिसकी भयानक परिस्थिति का पता तब चलता है जब होश वापस लौटता है। आरम्भ में तो नित नये बच्चे उत्पन्न करने और उस कमाई पर फूलकर कुप्पा होने, ढोल बजाने, बधाई बाँटने की ही ऊत सूझती है। दिन गुजरते ही जब उनकी बढ़ती आवश्यकताओं जुटाने का प्रश्न सामने आता है तब बगलें झाँकते हैं और सोचते हैं कि प्रजनन में आँखें मूँदकर प्रवृत्त रहने में कितना बड़ा अनर्थ छिपा पड़ा था।

आत्मिक प्रगति के साथ-साथ सच्ची स्वार्थ सिद्धि की इच्छा रखने वालों को उन भूलों की आरम्भ से ही जानकारी रखनी चाहिए जो आरम्भ में तो आकर्षक लगती है पर पीछे धोबी द्वारा कपड़ा पीटने या धुनिये द्वारा रुई धुनने की तरह पछाड़ती पीटती रहती है। अच्छा हो समझदारी समय रहते उगे और बताये कि शरीर का महत्व इतना ही है कि उसे निर्वाह साधन तो दिये जायें पर वासना, तृष्णा और अहन्ता की उद्दण्डता में हित सोचने की भूल न करने दी जाये। जिनसे इतना बन पड़ेगा, वे ही यह सोच सकेंगे कि जीवन में महत्वपूर्ण भागीदारी आत्मा की भी है और उसकी भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। इनकी ओर से सर्वथा आँख बन्द कर लेने का अर्थ है अतिवाद अपनाना जिसमें अन्तराल को आवश्यक परिपोषण न मिलने पर निरन्तर त्रास सहना और रुदन करना पड़ता है।

आत्मा का अस्तित्व भी जीवनचर्या में गुँथा हुआ समझा जा सके और उसकी भी कुछ इच्छा आवश्यकता होने पर ध्यान दिया जा सके तो फिर इसी निर्णय पर पहुँचना होगा कि शरीर पर ही घी के घड़े न लुढ़काते रहा जाय वरन् अन्तरात्मा को क्षुधा को भी समझा जाये और उसे जुटाने के लिए कुछ समय, श्रम एवं मनोयोग एवं साधना भी जुटाए जायँ। यही है सन्तुलन का वह ध्रुव केन्द्र जिस पर दूरदर्शिता नियोजित करने पर किसी उपयुक्त दिशाधारा का अवलम्बन सम्भव हो सकता है। महत्वाकाँक्षाऐं आत्मा की भी तो हैं। उन्हें भी आगे बढ़ने ऊँचे उठने की अभिलाषा आकाँक्षा है। महामानवों की श्रेणी में बैठने, ऋषि कल्प बनने तक की प्रगति करने और अपूर्णता से पूर्णता की ओर चलने के लिए उसका भी मन मचलता रहता है, पर यह कार्य माला घुमाने, धूपबत्ती जलाने भर जैसी खिलवाड़ से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए उस कार्य पद्धति को अपनाना पड़ता है जिसे लोक साधना अथवा परमार्थ परायणता कहा जाता है। इसे वही कर सकेगा जो अपने समय एवं मनोयोग से शरीरगत वितृष्णाओं को रोककर इस दिशा में मोड़ने की प्राथमिक आवश्यकता समझने एवं उसे करने का साहस जुटाने में समर्थ हो सकेगा।

सच्चा स्वार्थ ही परमार्थ है। संकीर्ण स्वार्थ परायण शरीरगत वितृष्णाओं के जाल-जंजाल में फँसता और बेमौत मरता है जबकि परमार्थी आत्मा की महत्ता और आवश्यकता समझते हुए उस राजमार्ग पर चल पड़ता है जिस पर महामानव चले और कृत कृत्य हुए हैं।

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