
अध्यात्म चिकित्सा बनाम मानसोपचार
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शारीरिक चिकित्सा में प्रायः औषधियों का- शल्य चिकित्सा का उपयोग होता रहा है। मनोरोगों के सम्बन्ध में कोई सुनिश्चित पद्धति हस्तगत नहीं हुई है। मस्तिष्क को शरीर का एक अवयव मात्र मानकर उसे भी सुन्न, निद्रित करने, बिजली के झटके लगाने या शल्य कृत्य करने तक ही उपाय उपचारों की खोज-बीन हुई है। व्यथाओं के निवारण में इसी स्तर की जाँच पड़ताल या विधि−व्यवस्था का प्रयोग होता जा रहा है।
किन्तु बात इतने से भी बनती नहीं। सन्तोषजनक परिणाम स्वल्प मात्रा में हस्तगत होते हैं। शेष उपचारों में निराशा ही हाथ लगती है। क्योंकि मनोरोग वस्तुतः चिन्तन क्षेत्र के होते हैं। उनमें भावनाएँ, मान्यताएँ आकाँक्षाऐं ही प्रधान रूप से अपनी हलचलें प्रस्तुत करती है।
मानसोपचार के लिए उसी स्तर की क्षमता चाहिए जो विक्षुब्ध या विकृत हो चली है। शरीर पंचतत्वों का बना है इसलिए उसके लिए आहार और उपचार भी वैसा ही होना युक्ति संगत है। पर मन तो चेतन है। उसे ठीक करने में सचेतन व्यक्ति का मानसिक प्रयोग ही काम आ सकता है। व्यक्ति के माध्यम से ही व्यक्ति की मनोभूमि बनती बिगड़ती है। उत्थान-पतन में मानवी सम्पर्क ही प्रधान भूमिका निभाता है।
सशक्त मानसिक क्षमता का मनोरोगों के लिए प्रयोग किया जाय तो उसका प्रभाव उपयुक्त हो सकता है। होता भी है। दुर्जनों को सुधारने में सत्संग काम देता है। भलों के साथ रहकर बुरे भी सुधरते हैं। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि प्राणवानों के प्राण-प्रवाह का लाभ लेकर मानसिक रोगी भी भ्रान्तियों और विकृतियों से मुक्त हो सकते हैं। अध्यात्म चिकित्सा का वही आधार भी है।
सर ‘अलेक्सिस’ कैरेल ने प्रार्थना की शक्ति पर भी प्रकाश डाला है और उसके पीछे प्रयोक्ता के श्रद्धा विश्वास को काम करते हुए पाया है। वे कहते हैं “सच्चे मन से विश्वासपूर्वक की गई प्रार्थना भी किसी के व्यक्तित्व में ऐसे तत्व उभार सकती है जो व्यक्त की गई भावना में बल प्रदान करे और सफल होने की स्थिति तक पहुँचाये।”
कनाडा के डॉ. सी. अलबर्ट यों हैं तो शल्य चिकित्सक और औषधि उपचारकर्ता, पर वे साथ ही प्रार्थना शक्ति पर भी विश्वास करते हैं। चिकित्सा के साथ-साथ वे रोगमुक्ति की प्रार्थना भी करते हैं और रोगी को भी वैसा ही करने का परामर्श देते हैं। उनका अनुभव है कि इस आधार पर रोग मुक्ति से दूनी सहायता मिली है। जिन रोगियों ने अविश्वास किया और उपेक्षा दिखाई वे अपेक्षाकृत देर में अच्छे हुए।
इन्हीं नोबुल पुरस्कार विजेता डॉ. अलेक्सिस कैरेल ने अपनी पुस्तक ‘मैन दि अननोन’ में मानवी मस्तिष्क में सन्निहित अविज्ञात एवं विलक्षण क्षमताओं पर सुविस्तृत प्रकाश डाला है। उनका कथन है कि जिस प्रकार व्यायाम द्वारा शरीर को सुविस्तृत किया जा सकता है उसी प्रकार साधना व्यायामों द्वारा मानसिक शक्ति का भी असाधारण विकास किया जा सकता है। क्षमताएँ प्रसुप्त स्थिति में तभी चली जाती हैं जब उनका प्रयोग नहीं होता। अभ्यास से उन्हें जगाया जा सकता है और प्रयोग करने पर उन्हें असाधारण रूप से विकसित भी किया जा सकता है।
इलेक्ट्रा मैगनेटिक पावर के आधार पर गठिया-सूजन जैसे रोगों पर पिछले दिनों प्रयोग होता रहा है और चुम्बक के प्रभाव का शरीरगत हलचलों को घटाने-बढ़ाने में काम लाया जाता रहा है। अब उसी का विकसित रूप चमत्कारी चिकित्सा के रूप में सामने आ रहा है। यह समझने और समझाने में बहुत कठिनाई नहीं पड़ रही है कि चुम्बक शक्ति यदि रोग निवारण के लिए काम आ सकती है तो फिर मानवीय विद्युत एवं चुम्बक का भी असर होना चाहिए और उस आधार पर पीड़ितों को राहत मिलनी चाहिए। वह चुम्बकत्व मनुष्य में भी है। एक सशक्त चुम्बकत्व वाला व्यक्ति दुर्बल प्राण व्यक्ति की ऐसी ही सहायता कर सकता है जैसा कि कोई वयस्क व्यक्ति बच्चे की गोद में उठाये फिरता है।
अमेरिका में पिछले दिनों एक चमत्कारी चिकित्सक ऑस्कर इस्टेवनी की बहुत ख्याति थी। वे रोगी के अंग विशेष पर हाथ फिराकर कष्ट मुक्त करते थे। इसका कारण वे अपनी प्राण विद्युत को बढ़ाकर रोगी में प्रवेश कराते बताते थे। अच्छे होने वालों की संख्या दिन-दिन बढ़ती गई तो व्यक्तिगत अनुभव बताने वालों के आधार पर बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक भी आने लगे। वे चिकित्सा कराने नहीं वरन् यह देखने पहुँचते थे कि इसमें तथ्य कितना है और वास्तविक कारण क्या है। मनोवैज्ञानिकों ने इसे इच्छा शक्ति का प्रयोग और रोगी की भाव श्रद्धा का सहयोग बताया। फिर भी मानना यही पड़ा कि जिन पर प्रयोग होता है उन्हें लाभ मिलता है। पीड़ितों को राहत मिलने की बात सच पाई गई।
रूस की कजाकिस्तान स्टेट विश्वविद्यालय की जैव प्रयोगशाला के निर्देशक डॉ. ईन्यूशिन ने अपने शोध पत्र में बायो प्लाज्मा के सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डाला है। उनने कीर्लियन फोटोग्राफी के आधार पर ऐसे चित्र भी लिये हैं जो जीवित प्राणियों के इर्द-गिर्द एक विशेष आभामण्डल घिरा रहने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। यह प्रकाश, मुख मण्डल पर उंगलियों के छोरों पर विशेष मात्रा में देखा गया। रक्त की तुलना में वह स्नायु केन्द्र में अधिक पाया गया।
डॉ. ईन्युशिन के अनुसार यह बायोप्लाज्मा मात्र प्रकाश नहीं है। उनमें विद्युतीय चुम्बकीय विशेषताएँ भी हैं और वे सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित भी करती हैं। इससे पदार्थ और व्यक्ति दोनों ही प्रभावित होते हैं।
जर्मनी के विज्ञान वेत्ता प्रो. विलहेम रॉख में मानवी काया में एक विशेष प्रकार की सजीव विद्युत का अस्तित्व पाया है। उसे उन्होंने आर्गोन नाम दिया है। उनका कहना है कि यह बिजली समर्थ क्षेत्र से असमर्थों की ओर दौड़ने और उनकी सहायता करने में पूरी तरह समर्थ है।
प्रार्थना की शक्ति को वे प्रयोक्ता की सद्भावना,सच्चाई एवं व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का मिश्रण मानते हैं। इन तीनों का संयोग जो प्रतिफल उत्पन्न करता है उसी को दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुकम्पा का नाम दिया जाता है। यही वस्तुतः भारतीय अध्यात्म का मूल प्रतिपादन है। किसी अदृश्य सत्ता के अनायास ही प्रसन्न होकर कुछ बरसा देने की कामना करने वाले तो आत्म प्रवंचक ही कहे जाते हैं।