
देवदूतों की रीति - नीति
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ईसा ने उस दिन एक वेश्या का निमन्त्रण स्वीकारा और उसके घर भोजन को गये। सारा शिष्य समुदाय भी साथ चला।
चारों ओर कानाफूसी चल पड़ी। यह कैसा भगवान का बेटा है, जो पापिनी से घृणा तक नहीं करता। शिष्यों में से धनादय और मुखरसिमोन ने अपने मन की बात ईसा से कह भी दी। “उद्धार करना है तो सज्जन ही क्या कम है जो आप दुर्जनों के यहाँ बातें और बदनामी सहते हैं।
ईसा ने उलट कर पूछा- सिमोन यदि तुम चिकित्सक होते तो किसी जुकाम पीड़ित और शस्त्राहत रोगी में से किसे प्राथमिकता देते? तुम्हारा विवेक ऐसी स्थिति में तुम्हें क्या करने को प्रेरित करता?
सिमोन ने शस्त्राहत की प्राण रक्षा के लिए जुकाम पीड़ितों की तुलना में प्राथमिकता देने की बात कही।
ईसा ने फिर पूछा- यदि मैं अधिक पापी को सुधारने के लिए कम अपराधी की तुलना में प्राथमिकता देता हूँ तो उसमें क्या भूल हुई ?
सिमोन चुप हो गए। वेश्या ने यह प्रसंग सुना तो सन्त की करुणा पर भाव-विभोर हो गई। दूसरे दिन वह वेश्या न रहकर सन्त हो गई। यह परिवर्तन जिसने भी सुना, ईसा के प्रति वह सहज ही श्रद्धावनत हो गया।
भगवान बुद्ध अब्बाली गाँव का लक्ष्य बनकर पदयात्रा पर निकले। लक्ष्य एक दरिद्र किन्तु कर्मठ किसान को धर्मोपदेश करना था। उसकी पात्रता का आभास तथागत को मिल चुका था।
किसान ने भगवान के आगमन पर अपना सौभाग्य सराहा। तथागत का उपदेश उनके श्रीमुख से सुनने को उसने चिर आकाँक्षा भी संजोए रखी थी।
दुर्भाग्य ने काम किया। किसान का बैल खो गया। सोचने लगा, बैल ढूँढ़े या उपदेश सुने?
निश्चय बैल ढूँढ़ने का हुआ। सो वह सत्संग का मोह छोड़कर बैल को ढूँढ़ने को निकल पड़ा। एक दिन-रात भटकने के उपरान्त बैल मिला। लौटकर घर आने तक भगवान उसकी प्रतीक्षा ही करते रहे।
लौटा तो बेतरह थका-माँदा। भूख प्यास से पैर लड़खड़ा रहे थे। सूखे मुँह से शब्द भी ठीक से नहीं निकल रहे थे।
तथागत ने मण्डली को निर्देश दिया इसके लिए तुरन्त भोजन का प्रबन्ध करो।
पेट भरने पर किसान शान्त चित्त से बैठा और ध्यान लगाकर उपदेश सुनता रहा।
लौटते समय मार्ग में शिष्यों ने भगवान से ऐसे श्रद्धालु के यहाँ जाने का कारण पूछा। वे गम्भीर रहे। बोले तीस योजन की कठिन यात्रा करके मैं जिस जिज्ञासु के यहाँ पहुँचा था वह लोक धर्म और उपदेश श्रवण में से किस की प्रधानता है इसे जानता था। ऐसी सूक्ष्मदर्शी विवेकशीलता ही मुझे उसके घर चलने के लिए घसीट लाई थी।