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Magazine - Year 1984 - Version 2

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सिद्धियाँ जिनका प्रत्यक्ष अनुभव होता रहा

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सम्पदा एकत्रित होती है तो उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। शरीर से स्वस्थ मनुष्य बलिष्ठ और सुंदर दीखता है। सम्पदा वालों के ठाट-बाट बढ़ जाते हैं। बुद्धिमानों का वैभव, वाणी, रहन-सहन में दिखाई पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक सम्पदा बढ़ने पर उसका प्रभाव भी स्पष्ट उदीयमान होता दृष्टिगोचर होता है। साधना से सिद्धि का सिद्धान्त इसी तथ्य का प्रकटीकरण करता है। सिद्धि का अर्थ होता है, असाधारण सफलताएँ। साधारण सफलताएँ तो सामान्य जन भी अपने पुरुषार्थों और साधनों के सहारे प्राप्त करते रहते हैं और कई तरह की सफलताएँ अर्जित करते रहते हैं। अध्यात्म क्षेत्र बड़ा और ऊँचा है इसलिए उसकी सिद्धियाँ भी ऐसी होनी चाहिए जिन्हें सामान्य जनों के एकाकी प्रयास से न बन पड़ने वाली, अधिक ऊँचे स्तर का मानी जा सके।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि आध्यात्मिकता का अवमूल्यन होते-होते वह बाजीगरी स्तर पर पहुँच गई और सिद्धियों का तात्पर्य लोग किसी ऐसे ही अजूबे से समझने लगे हैं जो कौतुक कौतूहल उत्पन्न करता हो। दर्शकों को अचम्भे में डालता हो। भले ही वे अचरज सर्वथा निरर्थक ही क्यों न हो? बालों में से बालू निकाल देना, कोई ऐसा कार्य नहीं है, जिसके बिना किसी का काम रुकता हो या उस बालू से किसी का भला होता हो। असाधारण कृत्य, चकाचौंध में डालने वाले करतब बाजीगर लोग दिखाते रहते हैं। इसी के सहारे वाह-वाही लूटते और पैसा कमाते हैं। किंतु इनके कार्यों में से एक भी ऐसा नहीं होता जिससे जन-हित का कोई प्रयोजन पूरा होता हो। कौतूहल दिखाकर अपना बड़प्पन सिद्ध करना उनका उद्देश्य होता है। इसके सहारे वे अपना गुजारा चलाते हैं। सिद्ध पुरुषों में भी कितने ही ऐसे होते हैं जो ऐसी ही कुछ हाथों की सफाई दिखाकर अपनी सिद्धियों का विज्ञापन करते रहते हैं। हवा में हाथ मारकर इलायची या मिठाई माँग देने, नोट दूने कर देने जैसे कृत्यों के बहाने चमत्कृत करके कितने ही भोले लोगों को ठग लिये जान के समाचार आये दिन सुनने को मिलते रहते हैं। लोगों का बचपन है, जो बाजीगरी-कौतुकी और अध्यात्म क्षेत्र की सिद्धियों का अन्तर नहीं कर पाते। बाजीगरों और सिद्ध पुरुषों के जीवन क्रम में- स्तर में जो मौलिक अन्तर रहता है उसे पहचानना आवश्यक है।

साधना से सिद्धि का तात्पर्य उन विशिष्ट कार्यों से है , जो लोक-मंगल से सम्बन्धित होते हैं ओर इतने बड़े भारी तथा व्यापक होते हैं, जिन्हें कोई एकाकी संकल्प या प्रयास के बल पर नहीं कर सकता। फिर भी वे उसे करने का दुस्साहस करते हैं- आगे बढ़ने का कदम उठाते हैं और अन्ततः असम्भव लगने वाले कार्य को भी सम्भव कर दिखाते हैं, समयानुसार जन सहयोग उन्हें भी मिलता रहता है। जब सृष्टि नियमों के अनुसार हर वर्ग के मनस्वी को सहयोगी मिलते रहते हैं, तब कोई कारण नहीं कि श्रेष्ठ कामों पर वह विधान लागू न होता हो। प्रश्न एक ही है आध्यात्मवादी साधनों और सहयोगों के अभाव में भी कदम बढ़ाते हैं और आत्म-विश्वास तथा ईश्वर विश्वास के सहारे नाव खेकर पार जाने का भरोसा रखते हैं। सामान्य जनों की मनःस्थिति ऐसी नहीं होती। वे सामने साधन सहयोग की व्यवस्था देख लेते हैं तभी हाथ डालते हैं।

साधनारत सिद्ध पुरुषों द्वारा महान कार्य सम्पन्न होते रहे हैं। यही उनका सिद्धि चमत्कार है। देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन आरम्भ कराने के लिए समर्थ गुरु रामदास एक मराठा बालक को आगे करके जुट गये और उसे आश्चर्यजनक सीमा तक बढ़ा कर रहे। बुद्ध ने संव्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्वव्यापी बुद्धिवादी आन्दोलन चलाया और उसे समूचे संसार तक विशेषतया एशिया के कौने-कौन में पहुँचाया। गान्धी ने सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा। मुट्ठी भर लोगों के साथ धरसना में नमक बनाने के साथ शुभारम्भ किया। अन्ततः इसका कैसा विस्तार और कैसा परिणाम हुआ, यह सर्वविदित है। विनोबा द्वारा एकाकी आरम्भ किया गया भूदान आन्दोलन कितना व्यापक और सफल हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। स्काउटिंग रैडक्रास आदि कितने ही आन्दोलन छोटे रूप में आरम्भ हुए और वे कहीं से कहीं जा पहुँचे। राजस्थान का वनस्थली बालिका विद्यालय- बाबा साहब आमटे का अपंग एवं कुष्ठ रोगी सेवा सदन ऐसे ही दृश्यमान कृत्य है, जिन्हें साधना से सिद्धि का प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सके। ऐसी अगणित घटनाएँ संसार में सम्पन्न हुई हैं जिनमें आरम्भ कर्त्ताओं का कौशल, साधन एवं सहयोग नगण्य था पर आत्मबल असीम था। इतने भर से गाड़ी चल पड़ी और जहाँ-तहाँ से तेल, पानी प्राप्त करती हुई क्रमशः पूर्व से भी अगली मंजिल तक जा पहुँची। सदुद्देश्यों की ऐसी पूर्ति के पीछे साधना से सिद्धि के सिद्धान्त की झाँकी देखी जा सकती है।

हमारी जीवन साधना की परिणतियाँ यदि कोई सिद्धि स्तर पर ढूंढ़ना चाहे तो उसे निराश नहीं होना पड़ेगा। हर कदम अपने कौशल और उपलब्ध साधनों की सीमा से बहुत ऊँचे स्तर का उठा है। आरम्भ करते समय सिद्धि का पर्यवेक्षण करने वालों ने इसे मूर्खता कहा और पीछे उपहासास्पद बनते फिरने की चेतावनी भी दी किन्तु मन में उस ईश्वर क साथ रहने का अटूट विश्वास रहा जिसकी प्रेरणा उसे हाथ में लेने को उठ रही थी। लिप्सा रहित अंतःकरणों में प्रायः ऐसे ही संकल्प उठते हैं जो सीधे लोक मंगल से सम्बन्धित हों और जिनके पीछे दिव्य सहयोग मिलने का विश्वास हो।

साधना की ऊर्जा सिद्धी के रूप में परिपक्व हुई तो उसने सामयिक आवश्यकताएँ पूरी करने वाले किसी कार्य में उसे खपा देने का निश्चय किया। कार्य प्रारम्भ हुआ और आश्चर्य इस बात का है कि सहयोग का साधन जुटने का वातावरण दीखते हुए भी प्रयास इस प्रकार अग्रगामी बने मानो वे सुनियोजित रहे हों और किसी ने उसकी पूर्व से ही साँगोपाँग व्यवस्था बना रखी हो। पर्यवेक्षकों में से अनेकों ने इसे आरम्भ में दुस्साहस कहा था लेकिन सफलताएँ मिलती चलने पर वे उस सफलता को साधना की सिद्धी कहते चले गए।

इन दुस्साहसों में से सबकी तो नहीं पर कुछ की गणना कराई जा सकती है-

(1) पन्द्रह वर्ष की आयु में चौबीस वर्ष तक चौबीस गायत्री महापुरश्चरण चौबीस वर्ष में पूरा करने का अनेक अनुबंधों के साथ जुड़ा हुआ संकल्प लिया गया। वह बिना गड़बड़ाये, बिना लड़खड़ाये नियत अवधि में सम्पन्न हो गया।

(2) इस महापुरश्चरण की पूर्णाहुति में निर्धारित जप का हवन करता था। देश भर के गायत्री उपासक आशीर्वाद देने आमन्त्रित करने थे। पता लगाकर ऐसे चार लाख पाये गये और वे सभी मथुरा में सन् 1958 में सहस्र कुण्डीय यज्ञ में आमन्त्रित किए गए। प्रसन्नता की बात थी कि उनमें से एक भी अनुपस्थित नहीं रहा। पाँच दिन तक निवास, भोजन, यज्ञ आदि का निःशुल्क प्रबन्ध रहा। विशाल यज्ञशाला, प्रवचन मंच, रोशनी, पानी सफाई आदि का सुनियोजित प्रबन्ध था। सात मील के घेरे में सात नगर बसाये गये। सारा कार्य निर्विघ्न-पूर्ण हुआ। लाखों का खर्च हुआ पर उसकी पूर्ति बिना किसी के आगे पल्ला पसारे ही होती रही।

(3) गायत्री तपोभूमि मथुरा के भव्य भवन का निर्माण- शुभारम्भ अपनी पैतृक संपत्ति बेचकर किया। पीछे लोगों की अयाचित सहायता से उसके “धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण” का उत्तरदायित्व सम्भालने वाले केन्द्र के रूप में विशालकाय ढाँचा खड़ा हुआ।

(4) “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका का सन् 1937 से अनवरत प्रकाशन। बिना विज्ञापन और बिना चन्दा माँगे, लागत मूल्य पर निकलने वाली गाँधी जी की हरिजन पत्रिका जबकि घाटे के कारण बन्द करनी पड़ी थी तब अखण्ड-ज्योति अनेकों मुसीबतों का सामना करती हुई निकलती रही और अभी एक लाख पचास हजार की संख्या में छपती है। एक अंक को कई पढ़ते हैं इस दृष्टि से पाठक दस लाख से कम नहीं।

(5) साहित्य सृजन। आर्ष ग्रंथों का अनुवाद तथा व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म सिद्धान्तों का सफल समावेश करने वाली नितान्त सस्ती किन्तु अत्यन्त उच्चस्तरीय पुस्तकों का प्रकाशन। इनका अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद। यह लेखन इतना है जिसे एक मनुष्य के शरीर भार के समान तोलने पर भी अधिक ही होगा। इसे करोड़ों ने पढ़ा है और नया प्रकाश पाया है।

(6) गायत्री परिवार का गठन- उसके द्वारा लोकमानस के परिष्कार के लिए प्रज्ञा अभियान का और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए युग निर्माण योजना का कार्यान्वयन। दोनों के अंतर्गत लाखों जागृत आत्माओं का एकत्रीकरण। सभी का अपने-अपने ढंग से नव सृजन में भावभरा योगदान।

(7) युग शिल्पी प्रज्ञा पुत्रों के लिए आत्मनिर्माण- लोक निर्माण की समग्र पाठ्य-विधि का निर्धारण और सत्र योजना के अंतर्गत नियमित शिक्षण। दस-दस दिन के गायत्री साधना सत्रों की ऐसी व्यवस्था जिसमें साधकों के लिए निवास, भोजन आदि का भी प्रबन्ध है।

(8) अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की शोध के लिए ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की स्थापना। इसमें यज्ञ विज्ञान एवं गायत्री महाशक्ति के उच्चस्तरीय अनुसंधान चलता है। इसी उपक्रम को आगे बढ़ाकर जड़ी-बूटी विज्ञान की ‘चरक कालीन’ प्रक्रिया का अभिनव अनुसंधान हाथ में लिया गया है। इसके साथ ही खगोल विद्या की टूटी हुई कड़ियों को नये सिरे से जोड़ा जा रहा है।

(9) देश के कोने-कोने में 2400 निजी इमारत वाली प्रज्ञा पीठों और बिना इमारत वाले 7500 प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना करके नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक पुनर्निर्माण की युगान्तरीय चेतना को व्यापक बनाने का सफल प्रयत्न। इस प्रयास को 74 देशों के प्रवासी भारतीयों में भी विस्तृत किया गया है।

(10) देश की समस्त भाषाओं तथा संस्कृतियों के अध्ययन अध्यापन का एक अभिनव केन्द्र स्थापित किया गया है ताकि हर वर्ग के लोगों तक नवयुग की विचारधारा को पहुँचाया जा सके। प्रचारक हर क्षेत्र में पहुँच सकें। अभी तो जन-जागरण के प्रचारक जत्थे जीप गाड़ियों के माध्यम से हिन्दी, गुजराती, उड़ीसा-मराठी क्षेत्रों में ही जाते रहे हैं। अब वे देश के कौने-कौने में पहुंचेंगे और पवित्रता, प्रखरता एवं एकात्मकता की जड़ें मजबूत करेंगे।

(11) प्रचार तन्त्र अब तक टेप रिकार्डरों और स्लाइड प्रोजेक्टरों के माध्यम से ही चलता रहा है। अब उसमें वीडियो फिल्म निर्माण की एक कड़ी और जोड़ी जा रही है।

(12) प्रज्ञा अभियान की विचारधारा को फोल्डर योजना के माध्यम से देश की सभी भाषाओं में प्रसारित प्रचारित किया जा रहा है ताकि कोई कोना ऐसा न बचे, जहाँ नव चेतना का वातावरण न बने।

(13) प्रज्ञा पुराण के पाँच खंडों का प्रकाशन- हर भाषा में तथा उसके टेप प्रवचनों का निर्माण। इस आधार पर नवीनतम समस्याओं का पुरातन कथा आधार पर समाधान का प्रयास।

(14) प्रतिदिन शान्ति-कुँज के भोजनालय में शिक्षार्थियों अतिथियों और तीर्थयात्रियों की संख्या प्रायः एक हजार रहती है। किसी से कोई मूल्य नहीं माँगा जाता। सभी भावश्रद्धा से प्रसाद ग्रहण करके ही जाते हैं।

(15) अगणित व्यक्ति गायत्री तीर्थ में आकर कल्प साधना करते रहे हैं। इससे उनके व्यक्तित्व में परिष्कार हुआ है, मनोविकारों से मुक्ति मिली है एवं भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करने में मदद मिली है। विज्ञान सम्मत पद्धति से ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में उनका पर्यवेक्षण थर इसे सत्यापित भी किया गया है।

उपरोक्त प्रमुख कार्यों और निर्धारणों को देखकर सहज बुद्धि यह अनुमान लगा सकती है कि इनके लिए कितने श्रम, मनोयोग, साधन, कितनी बड़ी संख्या में- कितने लोग लगे होंगे इसकी कल्पना करने पर प्रतीत होता है कि सब सरंजाम पहाड़ जितना होना चाहिए। उसे उठाने, आमन्त्रित एकत्रित करने में एक व्यक्ति की अदृश्य शक्ति भर काम करती रही है। प्रत्यक्ष याचना की- अपील की- चन्दा जमा करने की प्रक्रिया कभी अपनाई नहीं गई। जो कुछ चला है स्वेच्छा सहयोग से चला है। सभी जानते हैं कि आजकल धन जमा करने के लिए कितने दबाव, आकर्षण और तरीके काम में लाने पड़ते हैं पर मात्र यही एक ऐसा मिशन है जो दस पैसा प्रतिदिन के ज्ञानघट और एक मुट्ठी अनाज वाले धर्मघट स्थापित करके अपना काम भली प्रकार चला लेता है। जो इतनी छोटी राशि देता है, वह यह भी अनुभव करता है कि संस्था हमारी है, हमारे श्रम सहयोग से चल रही है फलतः उसकी आत्मीयता भी सघनता पूर्वक जुड़ी रहती है। संचालकों को भी इतने लोगों के सामने उत्तरदायी होने- जवाब देने का ध्यान रखते हुए एक-एक पाई का खर्च फूँक-फूँककर करना पड़ता है। कम पैसे में इतने बड़े काम चल पड़ने और सफल होने का रहस्य यह लोकप्रियता ही है।

निःस्वार्थ निस्पृह ओर उच्चस्तरीय व्यक्तित्व वाले जितने कार्यकर्ता इस मिशन के पास हैं, उतने अन्य किसी संगठन के पास कदाचित् ही हों। इसका कारण एक ही है, संचालन सूत्र को अधिकाधिक निकट से परखने के उपरान्त यह विश्वास करना कि यहाँ ब्राह्मण आत्मा सही काम करती है। बुद्ध को लोगों ने परखा और लाखों परिव्राजक घर-बार छोड़कर उनके अनुयायी बने। गाँधी के सत्याग्रहियों ने भी वेतन नहीं माँगा। इन दिनों हर संस्था के पास वैतनिक कर्मचारी काम करते हैं, तब मात्र प्रज्ञा अभियान ही एक मात्र ऐसा तन्त्र है जिसमें हजारों लोग उच्चस्तरीय योग्यता होते हुए भी मात्र भोजन वस्त्र पर निर्वाह करते हैं।

इतने व्यक्तियों का श्रम- सहयोग- बूँद-बूँद करके लगने वाला इतना धन साधन किस चुम्बकत्व से खिंचता हुआ चला आता है, वह भी एक सिद्धि चमत्कार है जो अन्यत्र कदाचित् ही कहीं दीख पड़े।

पिछले दिनों तीन बार हिमालय जाने और एक-एक वर्ष की एकान्त साधना करने का निर्देश निबाहना पड़ा। इसमें क्या देखा? इसकी जिज्ञासा बड़ी आतुरता पूर्वक सभी करते हैं। उनका तात्पर्य, किन्हीं यक्ष, गंधर्व, राक्षस, बेताल, सिद्ध पुरुष से भेंट वार्ता रही हो। उनकी उछल-कूद देखी हो। अदृश्य और प्रकट होने वाले कुछ जादुई गुट के दिए हों। इन जैसी घटनायें सुनाने का मन होता है। वे समझते हैं कि हिमालय माने जादू का पिटारा। यहाँ जाते ही कोई करामाती बाबा डिब्बे में से भूत की तरह उछल पड़ते होंगे और जो कोई उस क्षेत्र में जाता है उसे उन कौतूहलों- करतूतों को दिखाकर मुग्ध करते रहते होंगे। अपने साथ एक भी घटना ऐसी नहीं घटी। झूठ बोलने की- लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कतई इच्छा नहीं-जैसी कि भूत-प्रेतों का मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाकर लोग कौतूहल पूरा किया करते हैं।

हिमालय हमें अधिक अंतर्मुखी होने के लिए जाना पड़ा। बहिरंग जीवन पर घटनाएँ छाई रहती हैं और अन्तःक्षेत्र पर भावनाएँ। भावनाओं का वर्चस्व ही अध्यात्मवाद है। कामनाओं और वस्तुओं की घुड़-दौड़- भौतिकवाद। चूँकि अपना जीवन क्रम दोनों का संगम रहा है, इसलिए बीच-बीच में एकान्त में बहिरंग के जमे हुए प्रभावों को निरस्त करने की आवश्यकता पड़ती रही है। आत्मा को प्रकृति सान्निध्य से जितना बन पड़ा उतना हटाया है और आत्मा को परमात्मा के साथ जितना निकट ला सकना सम्भव था उतना हिमालय के अज्ञातवास में किया है। आहार-बिहार में परिस्थिति वश अधिक सात्विकता का समावेश होता ही रहा है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात हुई है- उच्चस्तरीय भाव संवेदनाओं का उन्नयन और रसास्वादन। इसके लिए व्यक्तियों की, साधनों की, परिस्थितियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसा भी भला-बुरा सामने प्रस्तुत है, उसी पर अपने भाव चिन्तन का आरोपण करके ऐसा स्वरूप बनाया जा सकता है, जिससे कुछ का कुछ दीखने लगे। कण-कण में भगवान की- उसकी रस सम्वेदना की झाँकी होने लगे।

जिनने हमारी “सुनसान के सहचर” पुस्तक पढ़ी है, उनने समझा होगा कि सामान्य घटनाओं ओर परिस्थितियों में भी अपनी उच्च भावनाओं का समावेश करके किस प्रकार स्वर्गीय उमंगों से भरा-पूरा वातावरण गठित किया जा सकता है और उसमें निमग्न रहकर सत्-चित्-आनन्द की अनुभूति हो सकती है। यह भी एक उच्चस्तरीय सिद्धि है। इसे हस्तगत करके हम इसी सर्वसाधारण जैसी जीवनचर्या में निरन्तर रहते हुए स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की तरह आनन्द मग्न रहते रहे हैं।

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