Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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अध्यात्म की यथार्थता और परिणति
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मोटेतौर से शरीर को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) हाथ (2) पैर (3) धड़ (4) सिर। बारीकियों में उतारना हो तो उनमें से प्रत्येक के अनेकानेक भाग-विभाजन हो सकते हैं। हृदय, फेफड़े, जिगर, आमाशय, आँतें आदि अकेले धड़ के ही विभाग हैं। फिर उनमें से भी प्रत्येक की अनेकानेक बारीकियाँ हैं। इसी प्रकार हमारे जीवन को मोटेतौर से (1) निर्वाह-परिवार (2) उपासना (3) स्वतन्त्रता संग्राम (4) धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण। इन चार भागों में बाँटा जा सकता है। इनमें से प्रत्येक के साथ कितनी ही रोचक, आकर्षक और शिक्षाप्रद घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। उसमें से यदि कुछ का भी विवेचन वर्णन किया जाय तो विस्तार बहुत बड़ा हो जायेगा। इनमें से जहाँ-तहाँ के प्रसंग भी रोचक हैं और उन्हें औपन्यासिक ढंग से लिखने पर तो वे सरस और पढ़ने योग्य भी बन सकते हैं। उदाहरणार्थ- जेल जीवन में कंकड़, तसला और एक अँग्रेजी अखबार, बस इतने भर से काम चलाऊ अँग्रेजी का अभ्यास कर लेना। उदाहरणार्थ- पाँच व्यक्तियों के परिवार का 200 रु. मासिक में बजट बनाना और उसका संतोषजनक ढंग से निभाना। उदाहरणार्थ- जेल में चिड़ियों के साथ खेलने का शौक आरम्भ करना- घर आने पर चुहियों और गिलहरियों का इतना अभ्यस्त हो जाना कि देर होने पर थाली में से रोटी लेकर भागने लगें। गायत्री तपोभूमि के डडडडड, कबूतर हाथ से रोटी खाने आते थे। यह सिलसिला हिमालय वास में चला और कितने ही पशु-पक्षी साथ खाने को अभ्यस्त हो गये। इन प्रसंगों में मानव प्रकृति को दिशाबद्ध करने और उसके सत्परिणाम हाथों-हाथ दीखने के निष्कर्ष निकलते हैं।
हमारा यहाँ पाठकों का मनोरंजन विषय वस्तु नहीं है और न हमारे पास एवं पाठकों के पास समय है, न ही कागज स्याही की उतनी सुविधा है कि उस तरह का लिखा और छापा जाय। इन पंक्तियों के लिखने का प्रयोजन मात्र यह है कि अध्यात्म विज्ञान के अनुभवों और प्रयोगों का स्वरूप यथा परिणाम समझने में सर्वसाधारण को सुविधा मिले। लोगों को भौतिक विज्ञान की परिणतियों का ज्ञान है। उसके आधार पर स्वास्थ्य, सौंदर्य विलास, रौब, वैभव आदि के प्रदर्शन का अवसर मिलता है। इसलिए हर किसी का प्रयत्न चलता है कि भौतिक क्षेत्र की अधिकाधिक जानकारी एवं सुविधा सामग्री प्राप्त करे। वस्तुस्थिति जानने पर उस ओर समुचित प्रयत्न पुरुषार्थ चलने की बात भी स्वाभाविक है। इसके विपरीत अध्यात्म क्षेत्र जो भौतिक की तुलना में असंख्य गुना अधिक फलदायक है, आज पूरी तरह दुर्दशाग्रस्त है। उसके प्रति उपेक्षा और अवज्ञा ही दृष्टिगोचर होती है। सस्ती मोल की लाटरी लगाने और सट्टा खेलने वाले ही कुछ अनगढ़ लोग इस क्षेत्र में दृष्टिगोचर होते हैं। शिकार न फँसने पर निराश होते, गालियाँ सुनाते देखे जाते हैं। कुछ ज्यों-त्यों करके लकीर पीटते रहते हैं। ऐसी दशा में उचित मूल्य पर उचित माल खरीदने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
अध्यात्म विज्ञान मनुष्य के उत्कर्ष और वैभव का एक मात्र अवलम्बन है। शरीर पर आत्मा का ही आधिपत्य है। उसी की गरिमा से जीवन का तारतम्य चलता है। संचालक के सही स्थिति में- सही मार्ग पर होने से ही सुखी और प्रगतिशील जीवन जिया जा सकता है। पदार्थ जगत को भौतिक विज्ञान और चेतना क्षेत्र को अध्यात्म विज्ञान के आधार पर सुनियोजित किया जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि भौतिक विज्ञान का उपार्जन वाला पक्ष हाथ में है और उपयोग वाले पक्ष की बुरी तरह अवमानना हो रही है। अध्यात्म विज्ञान का तो एक तरह से सफाया ही समझा जाना चाहिए। न किसी को उपार्जन के सम्बन्ध में जानकारी है न उपयोग की सूझ-बूझ। बाजीगरी और पाकेट मारी जैसी एक कल्पना लोगों के दिमाग में रहती है। जिनका मन आ जाता है, वे उसी के अनुरूप सस्ते एवं ओंधे-सीधे प्रयोग करते रहते हैं। ऐसी दशा में परिणाम तो होना ही क्या है? निराशा और खीज से ग्रस्त ही इस क्षेत्र में पाये जाते हैं। भीड़ बढ़ती जाती है पर साथ ही खोखलापन भी स्पष्ट हो जाता है।
इन परिस्थितियों में आवश्यक प्रतीत हुआ कि अध्यात्म विज्ञान के महत्व, सही स्वरूप एवं प्रतिफल से सर्वसाधारण को अवगत कराया जाय। ताकि लोग उस विधा और विद्या से अवगत हों जो उनके लिए सर्वोत्तम सत्परिणाम उत्पन्न कर सकती है। इसके लिए शस्त्रकारो आप्तवचनों, कथा पुराणों की साक्षियाँ देने की अपेक्षा यही अधिक उत्तम समझा गया कि एक प्रामाणिक अनुभव- अनुसन्धान का सार्वजनिक प्रकटीकरण किया जाय। इसने वस्तुस्थिति जानने में सुविधा होगी और जो इस विज्ञान की उपयोगिता- आवश्यकता अनुभव करेंगे व उसे उपलब्ध करने के लिए उपयुक्त साहस एवं पुरुषार्थ संजोने का प्रयत्न करेंगे।
हमारी जीवनचर्या में दृष्टव्य वे पक्ष हैं जो महत्वपूर्ण सफलताओं को प्रस्तुत- प्रदर्शित करते हैं। इनमें से एक विवरण उन घटनाओं का है जिन्हें असाधारण सफलताएं कहा जा सकता है। प्रचुर साधन- उपयुक्त साधन होते पर तो इस संसार में बड़े-बड़े काम सम्पन्न हुए हैं होते रहते हैं। आश्चर्य वहाँ होता है, जहाँ साधन रहित एकाकी व्यक्ति किन्हीं दुस्साहस स्तर के कार्यों को हाथ, में लेता है और उन्हें पूरा कर दिखाता है। यह किस प्रकार सम्भव हुआ? इसकी व्याख्या लोग “साधना से सिद्धि के रूप में करते हैं। इनके मूल में मनोबल की प्रखरता एवं व्यक्तित्व का प्रामाणिकता के अतिरिक्त और कोई प्रत्यक्ष कारण दीख नहीं पड़ता। इन्हें कोई चाहे तो ईश्वर का- देवता का वरदान कह सकता है। यह मात्र अपने लिए ही घटित नहीं हुआ। संसार में प्रायः सभी महामानवों की जीवनचर्या में इसी स्तर के चमत्कारों की भरमार है। आरम्भिक स्थिति में वे सामान्यजनों जैसे थे। अन्ततः ऐसे काम कर सकने में समर्थ हुए, जिन्हें असामान्यों जैसे कहा जा सकता है। इसका मध्यवर्ती तारतम्य कैसे बैठा? सुयोग्य कैसे जमा? परिस्थितियां किस प्रकार अनुकूल होती चली गईं? इन प्रश्नों के उत्तर घटनाक्रम की दृष्टि से तो पृथक-पृथक ही हैं, पर तारतम्य की दृष्टि से उनका प्रवाह एक ही प्रकार रहा है वे आदर्शों के प्रति आस्थावान रहे हैं। जीवन-क्रम में पवित्रता, प्रखरता और प्रामाणिकता का अधिकाधिक समावेश करते रहे हैं।
कार्यपद्धति ऐसी बनाते रहे हैं जिसमें निजी निर्वाह न्यूनतम में करने के उपरान्त जितनी भी सामर्थ्य बची उसे सामयिक आवश्यकता के लोग-मंगल कार्यों में नियोजित करते रहे हैं। इससे उन्हें तिहरा लाभ मिला है। निरन्तर आत्म सन्तोष प्राप्त करते रहे हैं फलतः शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक जीवन में हँसती-हँसाती परिस्थितियों से भरे-पूरे रहे हैं। इसके अतिरिक्त प्रामाणिकता और प्रखरता के आधार पर लोक-सम्मान और जन सहयोग अर्जित करते रहे हैं। यह दोनों साधन जिसे उपलब्ध होंगे, उसकी कार्यक्षमता सामान्यजनों की अपेक्षा अनेक गुनी बढ़ जायगी। लोग टूटते और हारते तो तब हैं जब निजी जीवन में अन्तर्द्वन्द्वों की भरमार रहती है और बहिरंग जीवन में विरोध विद्वेषों का सामना करना पड़ता है। सफलताओं के लिए योग्य और उपयुक्त पराक्रम भी इन अंतरंग और बहिरंग विपन्नताओं की चट्टानों से टकराकर चूर-चूर होता रहता है हाथ में काम भी ऐसे लिये जाये हैं जिनमें स्वार्थ, विलास, ग्रह और वैभव की ललक भरी रहने से परिस्थितियाँ भी प्रतिद्वन्द्विता के मैदान में घसीट ले जाती हैं। दाव पेचों और प्रतियोगिताओं में उलझा मनुष्य कठिनाई से ही कुछ सफलताएँ हस्तगत कर पाता है।
इसके अतिरिक्त तीसरा पक्ष है- दैवी सहायता का। वह सत्प्रयोजनों के लिए सदा से सुरक्षित रहा है। अन्यथा असहयोग एवं अभाव के मध्य काम करने वाला कोई व्यक्ति अब तक आदर्शवादी अवलम्बन में सफलता प्राप्त कर ही नहीं पाता। इस विश्व व्यवस्था के सूक्ष्म अन्तराल में नियति का कुछ ऐसा दिव्य विधान क्रिया रत है। सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए कहीं से अदृश्य सहायताएं प्रेषित करता रहता है। दृष्ट दुर्गति वालों के मार्ग में ऐसे अवरोध खड़े करता रहा है जिनसे सर्व समर्थ होते हुए भी वे सफलता के उस स्तर तक न पहुँच पाये जहाँ तक कि वे चाहते हैं। सर्व समर्थ असुरों के पराभव के पीछे यही विधि-विधान काम करता रहा है। सज्जनों की आश्चर्यजनक सफलता के पीछे भी यही अदृश्य शक्ति काम करती रही है। उसे भगवान नाम दिया जाता रहा है। उसी को भक्त की सहायता करने वाली और असुर निकंदिनी शक्ति कहा जाता रहा है।
“साधना से सिद्धि” प्रकरण में उन छोटी-छोटी घटनाओं का उल्लेख किया है जो हमारे जीवन क्रम में घटित हुई। कौशल और साधन के अभाव में- आवश्यकता से कम समय में उनका पूरा हो जाना बताता है कि यहाँ अध्यात्म विज्ञान के मौलिक सिद्धान्तों को अपनाया और पालन किया गया। इसमें किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं है वरन् अध्यात्म विज्ञान के उन मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन है जिन्हें अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति आदर्शवादिता के क्षेत्र में द्रुतगति से आगे बढ़ सकता है आश्चर्यजनक सफलता अर्जित कर सकता है।
पिछले पृष्ठों पर एक दूसरा अध्याय और भी द्रष्टव्य है। वह है- आकांक्षा और अभिरुचि की दिशाधारा के मिलने का। हर व्यक्ति अपने मन का स्वामी है। कुछ भी सोचने और कुछ भी करने के लिए वह स्वतन्त्र है। पर आमतौर से वैसा होता नहीं। लोग प्रचलनों का अनुकरण करते हैं, हवा के साथ बहते हैं लहरों में तैरते हैं। जो कुछ बहुत लोगों द्वारा किया जा रहा है उसी का अपनाने में सुविधा अनुभव करते हैं। इन दिनों बुरी हवा बह रही है। हर कोई सम्पन्नता और विलासिता के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है। संग्रह की ललक लगी है और अहंता के प्रदर्शन में जो भी सरंजाम जुट सकता है, जुटाने में निरत रहता है। संक्षेप में यही है आज की प्रथा परम्परा प्रश्न आवश्यकता का नहीं कि किसे निर्वाह के लिए क्या चाहिए? प्रश्न सर्वथा भिन्न है। बड़प्पन अर्जित करने के लिए कौन दूसरों की तुलना में कितना विलासी और कितना संग्रही बन सकता है, दूसरों पर रौब गाँठने के लिए कौन कितना अपव्ययी ठाठ-बाट जुटा सकता है। आदर्शों की लोग कथा वार्ता में चर्चा तो करते हैं पर उनका जीवन में समावेश अव्यावहारिक मानते हैं। अवसर मिलने पर दुर्व्यसनों और कुकर्मों से भी नहीं चूकते। वे उन दुष्परिणामों से बचते रहने को चातुर्य कहते हैं। जो जितना चातुर्य दिखा सकते हैं वे उतना ही अधिक मूँछों पर ताव देते हैं। कुरीतियाँ भी इसी प्रचलन में सम्मिलित हो गई हैं। नशेबाजी, खर्चीली शादियाँ, पर्दा प्रथा, छूतछात, भिक्षा व्यवसाय जैसे सामाजिक दुमुँग अब किसी को अखरते तक नहीं। बातूनी असहमति भर प्रकट करके लोग इन्हें मान्यता देते और व्यवहार में अपनाये रहते हैं।
संक्षेप में यही है आज का प्रचलन प्रवाह। जिसे औसत आदमी अनायास ही अपनाये रहते हैं। अध्यात्म तत्वज्ञान अपनाने का दूसरा प्रभाव अपने ऊपर यह हुआ कि प्रचलित मान्यताओं में से एकोएक के प्रति अविश्वास उत्पन्न कर दिया और इसके लिए बाधित किया कि जो कुछ सोचा जाय, नये सिरे से सोचा जाय। तर्क, तथ्य, प्रमाण और औचित्य की कसौटी पर हर प्रचलन को कसा जाय और उसमें से उन्हीं को अंगीकार किया जाय जमानवी गरिमा की कसौटी पर खरे सिद्ध हों।
दूरदर्शी विवेकशीलता, अध्यात्म विज्ञान को सच्चे मन से अपनाने की देन है। शास्त्रकारों ने इसी को प्रज्ञा कहा है। वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता आदि नामों से इसी की अभ्यर्थना की गई है।
चारों ओर संव्याप्त अन्धकार में हमें अपना दीपक जलाना पड़ा। अपनी कुल्हाड़ी से झाड़ियाँ काटकर राह बनानी पड़ी। एकाकी चलना पड़ा। साथियों में से कोई भी इस दुस्साहस में सहयोगी बनने के लिए तैयार न हुआ। जिससे भी पूछा- ओंधे प्रचलन को अस्वीकार करना चाहिए और जो सच है उसे अपनाने के लिए एकाकी साहस करना चाहिए”, इसे किसी ने भी न स्वीकारा प्रवाह के विरोध में चलने के दुष्परिणाम सभी ने समझाये। कहा- बहती नदी में हाथी तक लहरों की दिशा में बहने में खैर मानते हैं तो तुम किस खेत की मूली हो। उत्तर में अपने पास एक ही उदाहरण था- मछली का। जो धार को चीरती हुई उल्टी दिशा में बहती है। जब मछली उलटी तैर सकती है तो हम क्यों नहीं तैर सकते? इसके उत्तर में प्रायः सभी का मिलता जुलता जवाब था- “पहले मछली बनो, तब बात करना।
सूर्य एक है- अन्धेरा व्यापक। सूर्य सत्य है। अन्धेरा प्रकाश के अभाव का विस्तार। इसलिए वह झूँठ है। अध्यात्म जिसे क्रियाकाण्ड से पहले आदर्श रूप में अपनाया था उसने कहा- एकाकी रहने से- एकाकी चलने में हर्ज नहीं। अनीति को समर्पण करके उसके स्वर्ण रथ पर बैठने से इन्कार करना चाहिए, सत्य की दिशा पकड़नी चाहिए, भले ही घिसटते हुए चलना पड़े। वही अवलम्बन है जो ऋषि परम्परा अपनायी और उनने जो काम किये थे उनमें से जितने बन पड़े, उनका यथासंभव अनुकरण करने का प्रयास किया। देवता पूजा के लिए हैं। ऋषि नमन वन्दन के लिए। आज इनमें से एक भी ऐसा नहीं माना जाता जिन्हें भावना, आकाँक्षा, विचारणा और जीवनचर्या में कोई स्थान देने के लिए साहस कर सके।
पुरातन काल में अनेकों ऋषि हुए हैं। अपने अपने-अपने समय में परिस्थितियों के अनुरूप रीति-नीति अपनाई है। स्वयं साधना-रत रहे और दूसरों को युग धर्म अपनाने की प्रेरणा देने का प्रयास किया है। कहा जाता है कि आत्मा और परमात्मा के मिलन का मध्यवर्ती स्वरूप ऋषि है। सन्त अब इसलिए नहीं कहा जा सकता कि उसके साथ अनेकानेक जंजाल गुँथ गये हैं। सन्त भगवान से अपनी मर्जी पूरी कराने लगे हैं। अपने को सर्वतोभावेन भगवान को समर्पण नहीं करते। इसलिए वह वर्ग इन दिनों विलुप्त हो चला, किन्तु प्राचीन काल का प्रतीक शब्द ‘ऋषि’ विद्यमान है। उस ऊंचाई तक पहुँचने का किसी को साहस नहीं हुआ। इसलिए कम से कम शब्दार्थ की दृष्टि से तो अपनी पवित्रता बनाये हुए है।
ऋषि कौन है कौन नहीं? इस प्रश्न का विवेचन यहाँ व्यर्थ है। सार्थक इतना ही है कि ऋषि परम्परा जीवित रहे। उसी स्तर की भावनाएँ उठें और उनकी प्रेरणा से मनुष्य योजनाएँ बनायें। गतिविधियाँ निर्धारित करे और संकल्पपूर्वक जो व्रत लिया है उस पर बिना पैर डगमगाये आदि से अन्त तक चलता रहे।
हमारे जीवन में ऋषि परम्परा का जितना समावेश दृष्टिगोचर हो, समझना चाहिए उतनी ही मात्रा में सच्चे अध्यात्मवाद का प्रवेश हुआ है। सप्त ऋषियों ने कभी इस देश का- विश्व का सच्चे अर्थों में उत्थान किया था। सतयुग का वातावरण धरती पर उतारा था। इन्हीं हाड़-मांस के मनुष्य में देवत्व का अवतरण किया था। यह ऋषि परम्परा है, जिसे पुनर्जीवित होना चाहिए। अध्यात्म की यथार्थता और ऋषि परम्परा को आपस में सघनतापूर्वक गुँथना चाहिए।
भूमि की उर्वरता और उपयुक्त बीज का आरोपण उचित परिस्थितियों में भली प्रकार फूलता है। उस फसल को यदि खर्चा न जाता, बार-बार बोया जाता रहे तो कुछ ही बार की फेरा बदली में उसमें व्यापक क्षेत्र में वही फसल लहलहाती हुई दीख पड़ेगी।
अध्यात्म यदि यथार्थवादी सिद्धान्तों पर आधारित हो और उसे सघन श्रद्धा के साथ अपनाया जाय तो उसकी परिणति भी ऐसी ही होती है। कुछेक व्यक्तियों द्वारा किया गया यह प्रयत्न सारा वातावरण बदल सकता है। कभी सतयुगी परिस्थितियाँ इसी आधार पर बनी थीं। उसी का प्रत्यावर्तन अब फिर आवश्यक है। सत्पात्र इस दिशा में बढ़ें तो अपना और असंख्यों का कल्याण कर सकते हैं। प्रतिभा और प्रेरणा का उभयपक्षीय लाभ इस आधार पर समस्त संसार उठा सकता है।
हमारी जीवनचर्या को घटना क्रम की दृष्टि से नहीं वरन् इस पर्यवेक्षण की दृष्टि से पढ़ना चाहिए कि उसमें दैवी अनुग्रह के अवतरण होने से साधना से सिद्धि वाला प्रसंग जुड़ा या नहीं। इसी प्रकार यह भी दृष्टव्य है कि दूसरों के अवलम्बन योग्य आध्यात्मिकता का प्रस्तुतीकरण करते हुए हमारे कदम ऋषि परम्परा अपनाने के लिए बढ़े या नहीं? जिसे जितनी यथार्थता मिले वह उतनी ही मात्रा में यह अनुमान लगाये कि अध्यात्म विज्ञान का वास्तविक स्वरूप यही है। आन्तरिक पवित्रता और बहिरंग की प्रखरता में जो जितना आदर्शवादी समन्वय कर सकेगा वह उन विभूतियों से लाभान्वित होगा जो अध्यात्म तत्वज्ञान एवं क्रिया-विधान के साथ जोड़ी और बताई गई हैं।