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Magazine - Year 1984 - Version 2

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जागृत आत्माओं से भाव भरा आग्रह

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चार मूर्धन्य वर्गों को विशेष रूप से प्रभावित परिवर्तित करने के प्रयास में संलग्न होने के अतिरिक्त हमारा दूसरा कार्यक्षेत्र होगा जाग्रत आत्माओं को कचोटना। यह वर्ग दूध में घी की तरह छिपा रहता है पर गरम करने पर उछलकर ऊपर भी तैरता हुआ देखा जाता है। ब्राह्मण और साधु इसी की देन है। महामानव, मनीषी, इन्हीं को कहते हैं। सन्त, सुधारक और शहीद लोगों में इन्हीं का स्मरण किया जाता है। एक शब्द में देवमानव इन्हीं को कहते हैं। यह वर्ग जब जिस अनुपात से सक्षम, सक्रिय रहा है, तब तक सर्वतोमुखी सुख-शान्ति के दृश्य दृष्टिगोचर होते रहे हैं। इन्हीं का बाहुल्य किसी समय सतयुगी वातावरण बनाये हुए था। आवश्यकता इस बात की है कि वह समुदाय फिर से नव जागरण के क्षेत्र में प्रवेश करे और समय की जिम्मेदारियाँ सम्भालें।

मनुष्य की क्षमता असीम है। साथ ही आवश्यकताएँ बहुत कम। यदि कोई औचित्य की मर्यादा में रहे तो औसत भारतीय स्तर का निर्वाह कुछ घण्टे के परिश्रम से ही पूरा हो सकता है। परिवार छोटा रखा जाय। जो है उसे सुसंस्कारी और स्वावलम्बी बनाया जाय तो परिवार भी किसी पर भार न रहे। थोड़े में गुजर करने वाला, स्वल्प सन्तोषी, ब्राह्मण कहलाता है और जब वह चरम पुरुषार्थ में संलग्न रहकर शेष सामर्थ्य को युग धर्म के निमित्त समर्पित करता है तो उसे साधु कहते हैं। इस देश की महती गरिमा और विश्व की सुख-शान्ति स्थिर रखने का उत्तरदायित्व यहाँ के साधु-ब्राह्मण ही पूरा करते रहे हैं। भविष्य में भी संव्याप्त विकृतियों का निराकरण और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण उन्हीं के द्वारा सम्भव होगा। अस्तु समय की सबसे बड़ी माँग इसी वर्ग के अधिकाधिक उत्पादन की है। हम प्रयत्न करेंगे कि जहाँ भी इस स्तर के बीजाँकुर हों वहाँ उन्हें विकसित पल्लवित करने में कुछ उठा न रखेंगे।

अनुदानों में यही सबसे बढ़कर है। हमारे गुरुदेव ने हमें यही दिया और निहाल कर दिया। उस उपहार के स्थान पर यदि उनने धन, वैभव, पद आदि दिया होता तो उससे गर्व और विलास की अनुभूति तो अवश्य होती पर साथ ही यहां भी निश्चित था कि लोभ, मोह और अहंकार के तीनों ही पिशाच अपना आधिपत्य अधिक अच्छी तरह जमाते। वासना, तृष्णा और अहंता की कभी न पटने वाली खाई और अधिक चौड़ी होती। अनेक दुर्व्यसन और दुर्गुण पनपते। आकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए उपलब्ध साधन कम पड़ते, फलतः कुकर्म करने पड़ते। इस ईश्वर प्रदत्त अनुपम सुयोग की सार्थकता न बन पड़ती और पापों का पोटला अगले जन्मों तक परिपक्व करने के लिए साथ ले जाना पड़ता। तब वे उपहार बहुत महंगे पड़ते जिनके लिए लोग लालायित फिरते हैं और सन्त महात्माओं से वैसा कुछ झटक लेने की फिराक में रहते हैं।

गुरुदेव ने जो हमें दिया है। अद्भुत है- अनुपम है। वही हम अपने प्राण प्रिय परिजनों में से सत्पात्रों को देना चाहते हैं और उसी प्रकार निहाल करना चाहते हैं जैसे कि हम स्वयं हुए। साँसारिक दृष्टि से हम किसी प्रकार के घाटे में नहीं रहे वरन् औरों की तुलना में कहीं अधिक अच्छे रहे। संयम की शिक्षा मिली तो चटोरेपन पर तनिक-सा अंकुश लगा, पर बदले में पेट ठीक रहा और स्वास्थ्य फौलाद जैसा बना रहा। कामुकता में कटौती हुई पर बदले में मस्तिष्कीय क्षमता ऐसी रही जिसे देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबाते हैं। आलसी, अस्त-व्यस्त जीवनक्रम को लोग शौक-मौज कहते हैं। वह तो छिना पर बदले में समय को नियमित अनुबन्धित करके इतना काम कर लिया जितना 75 वर्षों में नहीं 750 वर्षों में ही किया जा सकता था। विवेकानन्द, शंकराचार्य, रामतीर्थ, ज्ञानेश्वर आदि तीस वर्षों के लगभग जिए पर इतने दिनों में ही 300 वर्षों के बराबर काम कर गये। यह समय की सुव्यवस्था का प्रतिफल है। गुरुदेव ने आरम्भिक जीवन में उपासना साधना, आराधना का जो क्रम बताया था वे तीनों ही एक-से-एक बढ़कर थे। लोग उन अनुशासनों में से मात्र एक अत्यन्त प्रत्यक्ष को ही स्मरण रखे हुए हैं- 24 लक्ष पुरश्चरण को। वस्तुतः हमें जो मिला वह मात्र जप संख्या की परिणति नहीं है, वरन् समग्र जीवन में आध्यात्मिक आदर्शों का पूरी तरह समन्वय किये रहने का ही प्रतिफल है। इसके लिए आवश्यक परामर्श और दबाव देकर गुरुदेव ने हमारा कितना बड़ा उपकार किया इसका अनुमान वे लोग नहीं लगा सकते जिन्हें धन और पद के अतिरिक्त और कुछ चाहिए ही नहीं। जो इतनी ही मर्यादा में वरदान को सीमित रखते हैं। जिन्हें निरर्थक मनोकामनाओं की पूर्ति ही आशीर्वाद प्रतीत होती है। जो लिप्साओं की हविश बुझाने के लिए सन्तों के कष्टसाध्य तप की जेब काटने को फिरा करते हैं- उन्हें न भक्त कहा जा सकता है न शिष्य। मात्र जीभ हिला देने भर से तो कोई आशीर्वाद फलित होता नहीं, उसके साथ तप का भी तो एक बड़ा अंश देना पड़ता है। किसी सन्त का तप लेकर अपना विलास-वैभव बढ़ाना, अध्यात्म-तत्वज्ञान से कोसों दूर की बात है। उसमें तो तपना पड़ता है। तप से ही प्रसुप्त शक्तियों को जगाते हुए मनुष्य महान बनता है।

मनुष्य की अपनी इच्छाएँ, योजनाएँ, बड़ी अनगढ़ होती हैं। उनमें प्रकारान्तर से यश, लाभ जैसे हेय उद्देश्य छिपे रहते हैं। अपने लिए हितकर क्या है? यह रोगी स्वयं कहाँ जाता है। उसे चिकित्सक के अनुशासन में चलना पड़ता है। बच्चे अपनी दिनचर्या तभी ठीक रख पाते हैं जब अध्यापक का निर्देशन मानें। हमने भी यही नीति अपनाई। गुरुदेव ने इतना ही कहा- हमारे परामर्शों को आदर्शों की कसौटी पर कसते रहना। यदि वे खरे हों तो अपनी अनगढ़ अकल को उसमें विक्षेप व्यतिरेक उत्पन्न न करने देना। इसी समर्पण को उनने भक्ति का सार-संक्षेप बताया और उसे अपनाये रहने के लिए सहमत किया है।

अब हम देखते हैं कि एक सुनिश्चित मार्गदर्शन में चलते हुए हमने सही रास्ता अपनाया और सही कदम उठाया। इस बीच अपने मन में भी अनेकों योजनाएँ आती रहीं, मित्रगण भी चित्र-विचित्र परामर्श देते रहें। पर उन सभी की अनसुनी करके जिस मार्ग पर चला गया वह ठीक सिद्ध हुआ।

इन दिनों हमारे अन्तराल में ऐसे ही अनुयायी ढूंढ़ने की बेचैनी है जो अपना जीवनक्रम साधु-ब्राह्मण की परम्परा अपनाकर संयम और तप से श्रीगणेश करें। समग्र अध्यात्म का अवलंबन करें। मात्र पूजा-पत्री से ही सब कुछ मिल जाने के भ्रम-जंजाल में न भटकें। उपासना साधना और आराधना की वे तीनों ही शर्तें पूरी करें जो आध्यात्मिक विभूतियाँ उपार्जित करने के लिए आवश्यक हैं। ऐसे लोगों की औसत भारतीय-स्तर के निर्वाह से अपनी जीवनचर्या का नया अध्याय आरम्भ करना चाहिए और कटिबद्ध होना चाहिए कि जो क्षमता बचती है उसी भगवान के खेत में बोने का साहस जुटायेंगे। निश्चय ही यह साहस सौ गुना हजार गुना होकर फलित होता है।

हमने अपना श्रम, समय, मनोयोग प्रभाव तथा धन समग्र रूप से भगवान के- समाज के- सत्प्रयोजनों के निमित्त बोया है। उसी का प्रतिफल है, जो लोगों को हमारे वैभव और चमत्कारों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। कृपणता बरती होती और जादूगरी तथा चिड़ीमारी के धन्धे को अध्यात्म माना होता तो औरों की तरह झक मारते और पूरी तरह खाली हाथ फिरते। विभूतियाँ और उपलब्धियाँ जिन्हें भी अभीष्ट हैं बीज बोने का रीति-नीति पर विश्वास करना चाहिए।

परामर्श तो हर तथाकथित मित्र-सम्बन्धी देता है पर सत्परामर्श देने की क्षमता किन्हीं परिष्कृतों में ही होती है पर धारणा कर सकना तो कुछ ही वरिष्ठों का काम होता है। नारद ने उपदेश तो अनेकों को दिया होगा, पर उसे धारण कोई-कोई ही कर पाए। जो कर सके वे धन्य हो गए। गान्धी के प्रवचन और लेख अनेकों ने पड़े-सुने होंगे पर उनमें से हृदयंगम कुछ ही कर सके। जिनने वैसा साहस जुटाया वे विनोबा, नेहरू, पटेल, राजेन्द्रबाबू, राजगोपालाचार्य आदि कहलाये। बात कहते-सुनते रहने भर से नहीं बनती। कदम उठाना और साहस करना पड़ता है। जो कर-गुजरते हैं वे नफे में रहते हैं। आदर्शों पर चलने का मार्ग ऐसा है जिनमें आरम्भ के दिनों थोड़ी कसमकस सहनी पड़ती है। बाद में तो सन्तोष और श्रेय दोनों ही मिलते हैं। हमारा जीवन इस मार्ग पर चला है। इतिहास के पृष्ठ उलटते हैं तो प्रत्येक महामानव को इसी राजमार्ग पर चलना पड़ा है। किसी पर भी आसमान से सोने-चाँदी के सितारे नहीं बरसे।

सूक्ष्म शरीर की जागृति का लाभ मिलते ही हम यह प्रयत्न करेंगे कि जहाँ कही भी आत्माएँ जागृत स्तर की हों, वे हमारा उद्बोधन, परामर्श, अनुरोध और आग्रह सुनें। समझें कि यह समय ऐतिहासिक है। ऐसे ही अवसरों पर हनुमान, अंगद, नल, नील, केवट, शबरी गीध, गिलहरी सहयोग के हाथ बढ़ाकर धन्य हुए थे। समय चूक जाने के बाद तो भारी वर्षा का लाभ भी नगण्य होता है। रेल निकल जाने पर अगली के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जिनका अन्तराल युग चेतना से अनुप्राणित हो उनका एक ही कर्त्तव्य है कि न्यूनतम में निर्वाह करने और अधिकतम युगधर्म में विसर्जित करने की बात सोचें। यदि साहस साथ दे तो उसे कर भी गुजरें। इससे सम्बन्धियों, कुटुम्बियों, मित्रों की सहमति मिलने की प्रतीक्षा न करें।

क्या करें? इस प्रश्न का इन दिनों एक ही उत्तर है- विचारक्रान्ति के युग धर्म का परिपालन करने के लिए एकनिष्ठ भाव से जुट पड़ें। आज की समस्याएँ अगणित हैं। उनके स्वरूप और प्रतिफल भी भिन्न-भिन्न है। किन्तु यह मानकर चलना होगा कि सभी का निमित्त कारण एक है- चिन्तन में विकृतियों का भर जाना। आस्था संकट ही अपने युग का सबसे बड़ा विनाश कारण है। इससे बड़ा दुर्भिक्ष और कोई हो नहीं सकता। निराकरण का उपाय भी एक ही है। उलटे को उलट-कर सीधा करना। यदि लोकमानस को परिवर्तित परिष्कृत किया जा सके तो हर समस्या सरलतापूर्वक सुलझने लगेगी। नाली की कीचड़ साफ किए बिना मक्खी-मच्छरों से पीछा छूटना कठिन है। हमें युगधर्म के रूप में विचार-क्रान्ति को ही मान्यता देनी चाहिए और छुटपुट कार्यों में ध्यान बँटाने, शक्ति खपाने की अपेक्षा इसी काम में जुट जाना चाहिए। इस मन्त्र को गुनगुनाते रहना चाहिए कि “एकहि साधे सब सधे- सब साधे सब जायँ।” नाम और यश को प्रधानता देने वाले, अपनी ढाई ईंट की मस्जिद अलग खड़ी करने को आतुर दृष्टिगोचर होते हैं। डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग से पकाते तो हैं पर उसमें पेट किसी का भरता। ढिंढोरा भर पिट जाता है। जिन्हें अपना ढिंढोरा पिटवाना ही अभीष्ट हो वे चित्र-विचित्र योजनाएँ बनाते और सेवा के नाम पर कौतुक कौतूहल खड़े करते रहें पर जिन्हें एक ही ताली से सब ताले खोलने का मन हो वे विचार परिवर्तन के कार्य को सर्वोपरि मानकर उसी का लक्ष्य रखें और उसी से सम्बन्धित कार्यों में हाथ डालें।

समय के कुप्रभाव से इन दिनों कोई व्यक्ति लोभ और मोह की परिधि से बाहर एक कदर नहीं रखता और पूजा-पाठ से लेकर व्यवसाय-अपराध तक इसी निमित्त करता है। समय के परिवर्तन का प्रत्यक्ष चिन्ह यहाँ से प्रकट होना चाहिए कि सब न सही जागृत आत्माओं में से जो जीवन्त हों वे समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आयें। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है।

अपने संपर्क क्षेत्र में, बिना संपर्क क्षेत्र में जहाँ कहीं भी हमें जागृत आत्माएँ दृष्टिगोचर होंगी- पकड़ में आवेंगी। उन्हें वाणी से न सही बिना वाणी के, एक अनुरोध करेंगे कि वे इन दिनों व्यामोह में कटौती करलें। उस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए हमारे गुरुदेव ने हमें सहमत किया और धन्य बनाया।

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