Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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मूर्धन्यों को झकझोरने वाला हमारा भागीरथी पुरुषार्थ
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धरती पर रहने वाले मनुष्यों में से तीन चौथाई संख्या बालकों, असमर्थों, न कमाने वालों की है। इनके अतिरिक्त भी जो बचते हैं उनमें बड़ा भाग उनका है जिनकी दुनिया पेट-प्रजनन तक सीमित है। दिन गुजारने के अतिरिक्त न उनकी कोई महत्वाकाँक्षा है, न क्षमता। धरती अधिकाँश इन्हीं के भार से लदी है। जिनमें दूरदर्शी विवेकशीलता की मात्रा विद्यमान है वस्तुतः उन्हीं को मनुष्य कहना सार्थक है। वे अपनी, समाज की, समय की समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने और उनके समाधान खोजने में सक्षम भी हैं।
हमारी भावी क्षमता इसी समुदाय के लिए कार्यरत रहेगी। सूक्ष्मीकरण के उपरान्त जो भी कुछ कार्यक्षमता हस्तगत होगी उसका उपयोग इस जाग्रत समुदाय के निमित्त ही होगी। इन जागृतों में वे बालक भी सम्मिलित हैं जो आयु या शरीर की दृष्टि से छोटे होते हुए भी भविष्य में कुछ करने की क्षमता पूर्वजन्मों से ही सँजोये हुए हैं। एक शब्द में हमारे कार्यक्षेत्र को जागृत आत्माओं का समुदाय कह सकते हैं। हम इस वर्ग के पीछे लगेंगे और प्रयत्न करेंगे कि उनकी सहायता से सृष्टा का वह प्रयोजन पूरा हो जिसमें मनुष्य को अशुभ से बचाकर उज्ज्वल भविष्य तक घसीट ले जाया जाना है।
अपने कार्यक्षेत्र के हम तीन विभाग करते हैं। एक मूर्धन्य। द्वितीय मध्यम। तीसरे कनिष्ठ। मूर्धन्यों में संसार के भाग्य-विधाताओं की गणना होती है, जो संसार को अपनी उँगलियों पर नचाते हैं। इनमें चार स्तर के लोग हैं। एक वे जिन्हें राजनेता कहते हैं। दूसरे वैज्ञानिक, तीसरे धनाध्यक्ष, चौथे मनीषी- जिनमें साहित्यकार, कलाकार से लेकर सेनापति तक वे सभी लोग आते हैं जो अपनी प्रतिभा से परिस्थितियों को असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। सारी समस्याएँ इन्हीं चारों का समुदाय उपजाता है और चाहे तो समेट भी सकता है। पर ऐसा होता नहीं दीखता।
युद्ध की दृष्टि से दो भागों में बँटी हुई दुनिया अब झगड़ते-झगड़ते इतनी समीप आ गई है कि किसी को भी पीछे हटना कठिन पड़ रहा है। विपक्षी दबोच ले तो हम कहीं के भी न रहेंगे- यह डर खाये जा रहा है। साथ ही अर्थचक्र जिस ढर्रे पर घुमा दिया है, उसमें यही एक राह है कि जो चल रहा है वह चलते रहने दिया जाय। अन्यथा पूँजी व्यय हो जाएगी। कारखाने बन्द होंगे। बेकारी फैलेगी और उपद्रव होंगे।
इन असमंजसों का हल किसी को सूझा नहीं रहा है। न आगे बढ़ने में ठिकाना न पीछे हटने में। ऐसी दशा में सर्वनाश के अतिरिक्त और क्या हल हो सकता है यह ढूंढ़ना समझदारी का काम है। समय रहते यह प्रकट होगी। नये विकल्प सूझेंगे। पीछे हटने में भलाई लगेगी। विनाश-साधना बनाने के स्थान पर सृजन के लिए अभी नये निर्माण का क्षेत्र बहुत बड़ा खाली पड़ा है। उसकी ओर मुड़ने में, दिशा बदलने में वर्तमान ढर्रे में उलट-पुलट तो बहुत करनी पड़ेगी पर ऐसी नहीं है जो न हो सके। यह कार्य, चारों मूर्धन्यों के मनःक्षेत्र में यदि नयी सूझ-बूझ उदय हो तो हो सकता है। वह होगी भी। शासनाध्यक्ष अपने ढंग से सोचेंगे और धनाध्यक्षों की पूँजी सुरक्षित रखने और बढ़ाने के नये विकल्प ध्यान में आयेंगे। वैज्ञानिकों को नये मार्ग मिलेंगे। सूर्य-ऊर्जा का दोहन, समुद्र के खारे पानी को मीठा बनाना, खाद्य-उत्पादन जैसे कितने ही काम ऐसे हैं जो वैज्ञानिकों द्वारा इन्हीं दिनों किए जाने चाहिए। अन्तरिक्ष यात्रा और सर्वनाशी आयुध बनाना उतना जरूरी नहीं है। इस प्रकार साहित्यकारों, कलाकारों के लिए मानवी गरिमा को मान्यता देने वाली विचारणा एवं भाव सम्वेदना देने का बहुत बड़ा काम करने के लिए सूना पड़ा है। क्या आवश्यकता कि वे धनाध्यक्षों के लिए ‘कसाई के कूकर’ की भूमिका निबाहें और वह करें जो न तो आवश्यक है और न शोभनीय।
इन चारों में अगले ही दिनों फूट पड़ेगी। अभी तो मिल-जुलकर काम कर रहे हैं और संयुक्त प्रयास से गाड़ी प्रलय युद्ध की ओर सरपट चाल से दौड़ रही है। पर अगले दिनों चारों घोड़े अपनी-अपनी मर्जी प्रकट करेंगे और अलग-अलग दिशा में चलने की सोचने लगेंगे और अपनी मर्जी के अनुरूप दिशा निर्धारित करेंगे तो फिर यह विनाश-तन्त्र इस रूप में न रहेगा जिसमें कि आज है।
युद्ध के उपरान्त दूसरी समस्या है औद्योगीकरण की। विशालकाय यन्त्रों ने जनता का शहरीकरण किया है और उसके कारण अनेकों संकट भरी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। उपनिवेशवाद को उसी के कारण प्रोत्साहन मिला है। पूँजीवाद पनपा है। प्रदूषण के कारण सर्वत्र विष व्यापा है। यह भी एक धीमा महायुद्ध है जो चलता रहा तो सर्वनाश किये बिना रुकेगा नहीं। भले ही अणुयुद्ध की तुलना में देर लगे।
हमारा प्रयत्न होगा कि सादगी आन्दोलन चले। विकेन्द्रीकरण की बात सूझे। लोग हाथ की बनी वस्तुओं से काम चलाने की आदत डालें। फैशन छोड़ें। अपव्यय, ठाट-बाट के विरुद्ध जनता में घृणा-भाव उत्पन्न हो। लोग शहरों से विमुख हों। कस्बे पनपें। गाँधीजी ने स्वराज्य आन्दोलन के साथ-साथ खादी को जोड़ा था। तब यह विचित्र लगता था। पर अब अर्थशास्त्र का दूरदर्शी विद्यार्थी यह स्वीकार करता है कि यदि शान्ति से रहना है तो सादगी को जीवनचर्या में अविच्छिन्न स्थान देना पड़ेगा। बड़े कारखाने मात्र मशीन बनाने जैसे अनिवार्य प्रयोजनों के लिए रहें, पर उन्हें जन-जीवन की आवश्यकताओं के क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाय। वस्त्र-उद्योग विशेषतया हाथ करघों के लिए सुरक्षित रहे। दैनिक आवश्यकता की अन्यान्य वस्तुएँ गाँव में बनें। इस कार्य में शायद पूँजीपति और सरकारें सहमत न हों। तो भी यह सादगी की, हाथ उद्योग की, देहातों में लौटने की हवा जनसामान्य में प्रारम्भ करनी होगी। इसके बिना बेकारी का और कोई विकल्प नहीं। प्रदूषण से निपटने के लिए छोटे उद्योग, छोटे कारखाने देहातों में चलाने से काम बन सकता है। खाली स्थानों पर पेड़ लगाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किए जायें क्योंकि बढ़ते प्रदूषण से बचने के लिए वही एक कारगर उपचार है। वाहनों की द्रुतगामिता कम की जा सकती है। बैलगाड़ियां काम में लाई जा सकती हैं। बिजली से चलने वाले वाहन भी विनिर्मित हो सकते हैं। साइकिल युग तो लौटने ही वाला है।
शिक्षा क्रान्ति इन्हीं सिद्धान्तों पर अवलम्बित है। नौकरी के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने की वर्तमान भेड़चाल ने युवा वर्ग को दिग्भ्रान्त, निराश एवं क्षुब्ध किया है। शिक्षा ऐसी हो जो दैनिक जीवन की सभी आवश्यकताओं की जानकारी दे। विशेषज्ञ बनने के इच्छुक हैं, उन विषयों को पढ़ें। सर्वसाधारण पर निरर्थक भार ने लदे।
अभी तो समूची मानव-जाति अनेक टुकड़ों में बँटी है और विश्व परिवार का कोई सुयोग नहीं बन पड़ रहा है पर वह दिन दूर नहीं जब एक राष्ट्र, एक भाषा एवं संस्कृति और एक व्यवस्था इस संसार में चलेगी और विग्रह न्यायालयों द्वारा निपटाये जाया करेंगे। बड़े युद्धों की कहीं आवश्यकता न पड़ेगी। स्थानीय झंझट पुलिस निपटा लिया करेगी। सामर्थ्य भर काम- आवश्यकतानुरूप दाम की जब अर्थनीति चलेगी और विलास तथा संग्रह पर अंकुश रहेगा तो अपराधों का आधारभूत कारण ही समाप्त हो जायेगा। चिंतन, चरित्र और व्यवहार में जब शिक्षा व्यवस्था तथा प्रचलन परम्परा द्वारा आदर्शों के समावेश का भरपूर प्रयत्न रहेगा तो कोई कारण नहीं कि उन जघन्य अपराधों का अस्तित्व बना रहे जो आज सर्वत्र बेतरह छाए हुए हैं। जन-जन को आशंकित आतंकित बनाए रहते हैं।
राजनेता, धनाध्यक्ष, वैज्ञानिक, मनीषी- यह चार वर्ग जन-साधारण की वर्तमान दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हैं। इन चारों को ही व्यापक स्तर पर ढूँढ़ा, झकझोरा और कचोटा जाएगा। यह कार्य एक स्थूल शरीर से सम्भव नहीं हो पा रहा था। इसके लिए असंख्यों तक पहुँचने की आवश्यकता समझी गई। उसे अगले दिनों सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न करके रहा जाएगा। उत्पादित सामर्थ्य और ईश्वरेच्छा का समन्वय इस कठिन कार्य को सरल बनादे तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए।